
हिमक्षेत्र की रहस्यमयी दिव्य सम्पदाएँ
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हिमालय क्षेत्र बहुत विस्तृत क्षेत्र में फैला हुआ है। उसमें भी अध्यात्म विशेषताओं से सम्पन्न भाग ‘देवात्मा’ कहलाता है। उत्तराखण्ड नाम से जाना जाने वाला यह क्षेत्र बहुत छोटा है। यमुनोत्री-बंदरपूँछ ग्लेशियर से आरंभ होकर यह कैलाश–मानसरोवर क्षेत्र तक चला जाता है। इस क्षेत्र की ऊँचाई दस हजार से चौबीस हजार फुट तक की है। शेष भाग वन-पर्वत, वनस्पति, नदी-नद आदि से भरा है। उसमें जहाँ कृषि संभव है, जल की सुविधा है, तापमान सह्य है, वहाँ उस क्षेत्र में रहने के अभ्यासी टिके रहते है और निर्वाह क्रम चलाते रहते है।
अभ्यास पड़ जाने पर व्यक्ति दुर्गम क्षेत्रों में भी अपनी व्यवस्था बना लेता हैं। उत्तरी ध्रुव में एस्किमो जाति के लोग रहते, माँसाहार से पेट भरते व मछलियों, कुत्ते, रेन्डियर की मदद से अपने सारे क्रिया कलाप चलाते है। इसी प्रकार दक्षिणी ध्रुव मनुष्य-पशु तो नहीं पेंगुइन जाति के दो पैरों के सहारे चलने वाले प्राणी व टिड्डे स्तर के चींटे रहते हैं। दोनों ध्रुवों पर प्रतिकूल परिस्थिति में भी जीवन का विद्यमान होना यहीं बताया हैं कि प्राणी किसी भी परिस्थिति में रहने के लिए अपने को ढाल सकते है प्रकृति उसके लिए आवश्यक सुविधा साधन भी जुटा देती हैं। घोर शीत वाले हिमाच्छादित प्रदेशों में भी कुछ प्रकार के जीव पाये जाते हैं। श्वेत भालू श्वेत बिलाव, श्वेत पक्षी, श्वेत कछुए एक प्रकार से बर्फ को ही अपना आहार बना लेते हैं। इन क्षेत्रों में पाई जाने वाली चट्टानों गुफाओं के नीचे बस जाते हैं, क्योंकि समीपवर्ती क्षेत्रों से ही अपना आहार प्राप्त कर लेते हैं। ऊँचाई पर पाये जाने वाले हिरन और भेड़ें उस वर्ग के लिए भोजन की आवश्यकता पूरी करते रहते हैं। जिन्हें माँसाहार पचता हैं।
यह हिमाच्छादित प्रदेशों के निवासियों के निर्वाह की चर्चा हुई। अब देखना यह है कि महत्वाकांक्षी मनुष्य भौतिक दृष्टि से उस क्षेत्र में जाकर क्या खोज और क्या पा सकता है। इस प्रयोजन के लिए बहुत ऊँचाई तक जाने का मोह छोड़ना होगा। वहाँ पहुँचना अत्यन्त कठिन एवं कष्ट साध्य है। जिनने कैलाश मान सरोवर की यात्रा की हैं, जिन्होंने गंगोत्री और बद्रीनाथ का मध्यवर्ती हिमाच्छादित मार्ग पैदल चलकर पार किया हैं, वे जानते है कि इस प्रकार के प्रयत्न कितने कष्ट साध्य, शरीर पर दबाव डालने वाले और कितने खर्चीले होते हैं। जिनके सामने आध्यात्मिक लक्ष्य हैं, उनकी बात दूसरी हैं पर जिनका दृष्टिकोण विशुद्धतः भौतिक हैं, वे इस प्रकार के पचड़े में पड़कर अपनी सुख सुविधा वाली जिन्दगी में क्यों जोखिम खड़ा करेंगे ? अध्यात्म-वादियों के अतिरिक्त दूसरा वर्ग शोधकर्ता वैज्ञानिकों का खोजी वर्ग क आता है। वे भी अपनी गुरुता सिद्ध करने कीर्ति-मान स्थापित करने और कुछ ऐसी उपलब्धियाँ प्राप्त करने के लिए समर्पित रहते हैं जो पीछे वालों के लिए उपयोगी बन सकें, सराही जाती रहें।
हिमालय इस दृष्टि से भी खोजने योग्य है जब उत्तरी ध्रुव जैसे शोध कर्ताओं के लिए आकर्षक का केन्द्र बन सकते है, उन्हें वहाँ की परिस्थिति जानने के लिए साहस भरी यात्राओं के लिए प्रोत्साहित करते है तो कोई कारण नहीं कि हिमालय की भौतिक सम्पदा के खोज निकालने के लिए शोध कर्ताओं का उत्साह क्यों न जमें।
जहाँ प्रकृति का दोहन होता रहता है। वे क्षेत्र उजड़ जाते हैं किन्तु जहाँ की मौलिकता अक्षुण्ण .... वहाँ खोजने के लिए बहुत कुछ पाया जा सकता है अमेरिका, आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैण्ड आदि नये खोजे ... की भूमि में उर्वरता-खनिज आदि का इतना बड़ा वैभव प्राप्त हुआ है कि वहाँ के निवासी कुछ ही समय समृद्ध हो गये। हिमालय का क्षेत्र भी ऐसा है कि अति प्राचीनकाल में ही खोजा गया था। इन दिनों वहाँ पाई जाने, वाली समृद्धि की कल्पना की गई हाथ डाला गया। फलतः वह क्षेत्र एक प्रकार से अत्यधिक बड़ा है। समुद्री किनारे पर पड़े हुए सीप घोंघे जिस प्रकार बालक बीन लाते है, उसी प्रकार हिमालय से अनायास ही मिलने वाले लाभों को ही पर्याप्त मान कर संतोष किया जाता रहा है। यदि समुद्र की गहराई में उत्तर कर मोती बनाने वाले का उदाहरण प्रस्तुत किया जा सके तो वह प्रदेश भी कम विभूतियों से भरा पूरा न ... लेगा।
... हिम खण्डों में ढके पर्वत धरती की ऊपरी सतह पर उनके नीचे सामान्य भूमि है। इस निचली सतह से कभी-कभी गरम गैसें ऊपर आती है और पानी के साथ खेलकर खौलते तप्त कुण्डों का सृजन करती है। इनके .... ढूंढ़े जा सकें, तो असाधारण मात्रा में ऐसी ऊर्जा ... गत हो सकती है, जो अनादि काल से सुरक्षित है, उसका दोहन कभी भी नहीं हुआ। पत्थरों में ऐसे तत्व पड़े है जो बहुमूल्य रसायनों के रूप में बाहर निकाल सकते है, जिनका अति महत्वपूर्ण उपयोग हो सकता शिलाजीत उन्हीं में से एक है, जिसे असाधारण रूप बलवर्धक माना जा सकता है। हिमालय से आने वाली नदियों की बालू में सोने चाँदी जैसी बहुमूल्य वस्तुओं का अंश पाया गया है। यदि उनके उद्गम खोजे जा सकें तो समतल भूमि में पाई जाने वाली धातु खदानों के अधिक मूल्यवान सम्पदा हाथ लग सकती है। कहीं तो यूरेनियम जैसी धातुओं का सम्मिश्रण भी रेत में किया गया है। कुछ सरिताएँ ऐसी है, जिनके पानी में ऐसे मिले हुए है जो उन्हें प्रभावशाली और मिट्टी के .... बनाती है। यह रसायन उन क्षेत्रों की परतों में जा सकते है। जहाँ से कि वह टकराती हुई प्रवाहित हैं।
कस्तूरी हिरन हिमांचल की ऊंचाइयों में पाये जाते बारहसिंगा के सींग अपने आप में औषधीय विशेषताओं से भरे पूरे हे। चंवरी हिरन की पूँछ न केवल ... होती है वरन् उन के शरीर पर ढुलने से प्रसुप्त ऊर्जा भार आता है। इसी प्रकार अन्य जीव-जन्तु भी साधारण विशेषताओं से भरे होते है। वातावरण का व प्राणियों पर भी पड़ता है और वे इस योग्य बनते गये कि मनुष्य को शारीरिक मानसिक स्तर के विशेष दान दे सके। दुर्भाग्य इसी बात का है कि इन प्राणियों अभिवर्धन करके उनके संपर्क से लाभ नहीं उठाया जा रहा है, वरन, माँस के लिए उनका वध करके महती सम्भावनाओं से दिन-दिन वंचित होते चले आ रहे है।
हिमालय के वृक्षों की अपनी विशेषताएँ है। उनकी लकड़ियों में तेल की इतनी प्रचुर मात्रा पाई जाती है कि उनकी गीली लकड़ी को भी जलाया और ताप का लाभ उठाया जा सकता है। चीड़, देवदारु के तनों से निकलने वाला रस बैरुजा के रूप में बाजार में बिकता है और रासायनिक प्रयोगों के लिए काम आता है। अन्य पेड़ भी अपने-अपने ढंग के गोंद देते है। उनके पुष्प तथा फल औषधियों की तरह काम में लाये जाते है। अन्न तो प्रचुर परिमाण में हिमालय की ऊबड़-खाबड़ भूमि पर पैदा नहीं होता, पर उसकी पूर्ति कर सकने वाले कई प्रकार के कन्द अनायास ही उपलब्ध होते है। उनकी क्षमता अन्न की तुलना में कम नहीं अधिक ही होती है। कितने ही शाक अलग क्षेत्रों में अलग-अलग आकृति प्रकृति के ऐसे पाये जाते है जिन्हें शाक–भाजियों के समतुल्य गुणकारी पाया जाता है। पत्तियों के रूप में पाये जाने पर भी उनमें पोषक तत्व उनसे कम नहीं होते जैसे कि समतल भूमि के शाकों और फलों में होते है।
भोजपत्र एक बहुद्देशीय वृक्ष है। उसके बल्कल का उपयोग वस्त्रों के रूप में, विस्तार के रूप में, एवं झोपड़ी आच्छादन के रूप में हो सकता है। उसके पत्र कागज के रूप में प्रयुक्त होते रहे है। भोजपत्र में उभरने वाली गाँठों का काढ़ा बनाकर पीने से जुकाम मिटाने वाली बलवर्धक चाय की आवश्यकता पूरी होती है।
औषधियों का तो हिमांचल को भण्डार ही समझना चाहिए। ऊँचाई पर पाये जाने वाली औषधियाँ असामान्य गुणों से भरी पूरी पाई गई है। उसी जाति की वनौषधियाँ यदि मैदानी इलाके में गरम जलवायु में लगाई जांय तो या तो वे उग नहीं पायेगी अथवा उनमें वे विशेषताएँ नहीं पाई जायेंगी जो ऊँचाई वाले पहाड़ी क्षेत्रों में उगने पर होती है। चट्टानों पर हवा के द्वारा मिट्टी की हलकी परत छोड़ दी जाती है, उसी में जड़ी-बूटियां अपने लिए जड़ें फैलाने का स्थान बना लेती है। वायु मण्डल में उड़ने वाले जल से अपना पोषण प्राप्त करती है। ऐसी दशा में उनका विशेषताओं से सम्पन्न होना स्वाभाविक है।
ऊँचाई पर होने के कारण उनका उपयोग नहीं हो पाता। कोई उन्हें लेने के लिए नहीं पहुँचता यदि मार्ग बना लिया जाय और उन्हें बोने बटोरने का व्यवस्थित क्रम चलाया जाय तो मनुष्य के हाथ अमृतोपम औषधियों का भण्डार लग सकता है। साथ ही उसे अति लाभदायक उद्योग के रूप में भी विकसित किया जा सकता है।
हिमाच्छादित प्रदेशों में कम ऊँचाई वाले ऐसे भी अनेक क्षेत्र है जहाँ शीत ऋतु में हल्की बर्फ जमती है। गर्मी आने पर वह पिघल भी जाती हैं। पिघलने पर उर्वर भूमि निकल पड़ती है। इस प्रकार भूमि के उभर आने का समय श्रावण भाद्र पद के दो महीने विशेष रूप में होते हैं किन्हीं क्षेत्रों में थोड़ा आगा-पीछा भी रहती हैं। इन्हीं दो महीनों में उस भूमि में दबी वनस्पतियाँ अचानक उभर आती है। अंकुरित और पल्लवित तो वे पहिले से ही किसी रूप में बनी रहती है पर गर्मी पाते ही बसन्त काल की तरह द्रुतगति से वे विकसित होती है। इन दो महीनों में ही उनका जीवनकाल पूरा हो जाता है। इसी अवधि में वे पूरी तरह फल-फूल लेती है। मध्यम ऊँचाई के हिम पर्वतों में दो महीने का बसंत रहता है। उनमें विशेषतया छोटे बड़े आकार की जड़ी-बूटियाँ फूलती है। दूर-दूर तक फूलदार मखमली गलीचे जैसे बिछे दिखाई पड़ते है उसके नयनाभिराम दृश्य को देखते देखते मन नहीं भरता। प्रकृति का यह अद्भुत कला कौशल दर्शकों को भाव विभोर कर देता है। ऐसे फूलों की घाटी देवात्मा हिमांचल क्षेत्र में दर्जनों है उनमें से हेम कुण्ड वाली घाटी अधिक प्रख्यात है। केदारनाथ के ऊपर वाला क्षेत्र भी ऐसा ही है। फूलने के बाद यह वनौषधियाँ फलती है। पकने पर बने हुए बीज धरती पर बिखर जाते है। इसके बाद बर्फ पड़ने लगती है। बीज उसके नीचे दबे रह जाते है। प्रायः छः महीने उपरान्त बर्फ पिघलने पर यह जमीन फिर नंगी होती है। इस बीच वे बीज भूमि में अपनी जड़ें जमा लेते है। अंकुरित हो लेते है। धूप के दर्शन होते ही तेजी से बढ़ने पल्लवित होने और फूलने फलने लगते है। यह उनके दृश्य स्वरूप की चर्चा हुई। इन वनस्पतियों के गुणों की नये सिरे से खोज होने की आवश्यकता है। इन्हें पुष्प वाटिका के समतुल्य नहीं माना जाना चाहिए, वरन् समझना चाहिए कि इनमें से एक से एक नये-नये गुणों वाला शारीरिक और मानसिक रोगों का शमन करने वाली जीवनीशक्ति एवं दीर्घायुष्य प्रदान करने वाली वनस्पतियाँ है। चरक युग में तत्कालीन वनौषधियों की खोज हुई थी। आयुर्वेद शास्त्र का औषधि खण्ड उसी आधार पर बना था उस बात को अब लम्बा समय बीत गया। कितनी ही लुप्त हो गई और कितनी ही प्रजातियाँ नये सिरे से उत्पन्न हो गई है। इन सबका विश्लेषण वर्गीकरण, परीक्षण किया जाय तो नये सिरे से फिर आधुनिक औषधि शास्त्र विनिर्मित हो सकता है।
इस क्षेत्र की कितनी ही वनस्पतियाँ अभी प्रख्यात किन्तु दुर्लभ है। रात्रि को प्रकाश देने वाले ज्योतिष्मती, संजीवनी, रुदन्ती, सोम वल्ली आदि देव वर्ग का माना जाता है। इनमें मृत मूर्छितों को जीवन प्रदान करने की शक्ति मानी जाती है। च्यवन ऋषि ने इन्हीं के आधार पर जरा .... वृद्धावस्था को नवयोवन में परिवर्तित .... कायाकल्प जैसा लाभ उठाया था।