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Magazine - Year 1988 - Version 2

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पर्यवेक्षण योग की साधना, ध्यान धारणा

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पीला और नीला रंग मिलाकर हरा रंग बनता है। हरे रंग का स्वतंत्र कोई अस्तित्व नहीं। यदि इस सम्मिश्रण को बदल दिया जाय तो स्थिति दूसरी बन जायगी। पीला लाल से मिलकर नारंगी बन जाता है। इसी प्रकार जीव भी एक सम्मिश्रण है। वह शरीर के साथ घुला रहता है तो प्राणी या जीव कहलाता है। उस पर प्रकृति का बड़ा भाग शरीर के ऊपर आवरण आच्छादन की तरह चढ़ा होता है। इसलिए वह अपने आप को शरीर मानता रहता और उसी की सुख सुविधा को प्रधान रूप से ध्यान में रखता है। लिप्सा और लालसाएं उसे घसीटती रहती है। इन्द्रियों के रस उसे ललचाते रहते हैं मन की तरंगें गहरे नशे की तरह उस पर छाई रहती है। सामान्यतया यही स्थिति एवं व्याख्या है औसत जीवधारी की।

किन्तु यह सामान्य नहीं असामान्य, स्वाभाविक स्थिति है। वैसी जैसे नदी में बहते हुए रीछ को किसी अनजाने ने तैरकर उस कम्बल को लूट लाने का प्रयास किया था और तैरते हुए समीप पहुँचने पर रीछ ने उसे पकड़ लिया था। प्रयत्न करने पर भी उसे छोड़ नहीं रहा था। दोनों गुत्थम गुत्था हो रहे थे। किनारे पर खड़ा साथी यह सब देख रहा था। उसने यह दृश्य देखा तो आवाज लगाई कि कम्बल पकड़ में नहीं आता तो उसे छोड़ दो और लौटकर आ जाओ। कम्बल के साथ गुथे हुए आदमी ने कहा मजबूरी आ गई। मैं तो कम्बल को छोड़ता हूँ पर यह कम्बल ही मुझे नहीं छोड़ता। किसी ने किसी को छोड़ा नहीं आखिर दोनों ही डूब गये।

शरीर घोड़ा है और आत्मा सवार। घोड़े पर सवार बैठा हो तो यह स्वाभाविक है किन्तु जब सवार पर घोड़ा लद ले तब कैसा विचित्र लगेगा। नाव आदमियों को पार लगाती है पर यदि वही नाव आदमियों के सिर पर लदे तो कैसा अजीब लगेगा। शरीर की प्रभुता और आत्मा की पराधीनता में ऐसी ही विलक्षणता है जिसके हम सब दर्शक ही नहीं भुक्तभोगी भी है। असमंजस इसी द्विविधा का रहता है। शरीर के सहारे सन्मार्ग पर चलते हुए जीवधारी को अपना लक्ष्य पूरा करना था पर होता उल्टा है। आने के समय खाली हाथ नंगे शरीर आता है, पर जाते समय पापों का पिटारा और घोर पश्चाताप लदा होता है।

स्थिति को कैसे बदला जाय? समय रहते कैसे सँभाला जाय ? उसका उपाय एक ही है कि अपना विकृत दृष्टिकोण बदला जाय। शरीर के और प्राणी के संबंधों में जो अवांछनीय भ्रान्ति लद गई हैं उसे मिटाया जाय। उसे मिलना परमात्मा के साथ था और जिस प्रकार लोहा पारस को छू कर सोना बनता है, उसी प्रकार लघु से विभु, तुच्छ से महान, और नर से नारायण बनना था। पर बन गया कुछ ऐसा जिसे देखकर दया भी आती है और हँसी भी।

रंगों के मिश्रण का उदाहरण आरम्भ में इसी विसंगति को देखते हुए दिया था, नारंगी रंग की शाल ओढ़नी थी तो पीले का लाल के साथ सम्मिश्रण करना था। नीले के साथ मिल जाने से सर्वथा दूसरी स्थिति हो गई।

शरीर और जीव का संबंध जिस प्रकार जुड़ गया है उसे शोचनीय ही रहना चाहिए। वह तो ऐसा ही हो गया जैसे कि किसी पुरुष का किसी स्त्री के साथ विवाह हो जाय और अपना घर छोड़कर ससुराल में जोरू का गुलाम बनकर रहे। मालिक को नौकर के यहाँ नौकर बनकर रहना पड़े और दासानुदास कहलाना पड़े।

स्थिति में परिवर्तन लाना आवश्यक है जिसके साथ जुड़ना चाहिए उसको उसी का साथी अनुयायी बनकर रहना चाहिए। आत्मा परमात्मा का अंश हैं। उसकी शोभा उसी के साथ रहने में हैं। पुष्प की शोभा देवता के चरणों में चढ़ने में ही है। कीचड़ की नाली में जा पड़ने से नहीं। मनुष्य के सम्मुख सबसे बड़ी समस्या यही है कि उसका योग परमात्मा के साथ होना चाहिए न कि सुविधा के लिए मिले हुए उपकरण औजारों का गट्ठा शिर पर लादे लादे फिरने में।

स्थिति को वास्तविक बनाने के लिए जो प्रयत्न करने होते है उनमें से एक पर्यवेक्षण योग भी है। इसी को कहते है सरसरी निगाह से देखते रहने की अपेक्षा उसे गम्भीर वैज्ञानिक दृष्टि से देखना। सामान्य मनुष्य संसार को एक मेला समझकर बाल बुद्धि से कौतुक कौतूहल की तरह देखते रहते है किन्तु जिन्हें सूक्ष्म दृष्टि मिली है वही उसी दृश्य में से अनेकों काम की बातें जान लेते है और कई उपयोगी शिक्षाएं एवं प्रेरणाएं साथ लेकर वापस लौटते है। इसी को वैज्ञानिक दृष्टि कहते है। वैज्ञानिक सूक्ष्म बुद्धि होते है। उनकी पर्यवेक्षण क्षमता पैनी और गहरी होती है। सामान्यों और असामान्यों के बीच यही अन्तर रहता है।

पर्यवेक्षण योग इस विडम्बना से निवृत्ति पाने का अच्छा तरीका हैं। उसका विधान भी बहुत सरल है। शिथिलीकरण मुद्रा (शरीर और मन को पूरी तरह ढीला छोड़ देना) की स्थिति का सामान्य अभ्यास जब हो जाय तो उसे कुछ और गहरा करना चाहिए। गहराई इस भावना तक ले जानी चाहिए कि जीव अपने आपको शरीर से सर्वथा पृथक हो जाने की स्थिति अपने को अनुभव करे। जीव को किसी बहुत ऊँचे पर उड़ने वाले वायुयान पर सवार होकर अपनी वस्तुस्थिति का संसार के वास्तविक स्वरूप का निरीक्षण पर्यवेक्षण करना चाहिए।

ऊँचे आकाश में गरुड़ पक्षी की तरह देखना चाहिए कि अपना शरीर मृत स्थिति में पड़ा है। कुटुम्बी लोग उसकी अन्त्येष्टि की तैयारी कर रहे है। इस कृत्य को करते समय वे रोते कलपते भी है। पर कुछ ही समय उपरान्त वे अपने-अपने ढँग से स्वावलम्बी हो जाते हैं और कुछ ही महीनों बाद ऐसी स्थिति आ जाती है जिसमें वे एक प्रकार से भूल ही जाते है। यदा कदा ही नाम लेने की जरूरत पड़ती हैं। मोह के बन्धनों से सभी स्वजन परिजन छुट्टी पा लेते है।

अब और आगे बढ़ा जाय कितने ही जन्मों की ऐसी ही कल्पना की जाय जिसमें अगणित बार जन्मना मरना पड़ा। अनेक सम्बन्धी कुटुम्बियों के साथ संयोग बिछोह हुआ। .... समय खुशी और मरते समय रंज मनाया गया। संबंधों में कटुता एवं मिठास भी चलती रही और अन्त में सिनेमा बंद होने की तरह घंटी बजी और चमकते टमकते हाल में अंधेरा छा गया। अन्य योनिय दो मात्र भोगा योनि ही हैं। पर मनुष्य जीवन कर्म योनि भी है। कर्मों का अवलोकन किया गया तो प्रतीत हुआ कि सार्थक कम ही बन पड़ा जो किया गया वह या तो निरर्थक या या अनर्थ। प्रतिफल हाथों हाथ नहीं भुगते जाते। वे पीछे के लिए प्रारब्ध बनते रहते है। स्वर्ग नरक के रूप में या पीड़ा व्यथाओं के रूप में जो भुगतना पड़ता है। उस संचय की गठरी लेकर ही हर बार चलना पड़ा और चिरकाल तक उस कर्मफल का त्रास सहना पड़ा।

यह निषेधात्मक पक्ष हुआ अब उसी स्थिति में जीव को गरुड़ बनकर बहुत ऊँचे आकाश में उड़ते हुए यह भी देखा जाय कि शरीर की घनिष्ठता घटा कर उसे परमात्मा के साथ जोड़ दिया जाये और उनके अनुशासन में चला गया, सान्निध्य में रहा जाय तो कितने .... का रसास्वादन करने को मिलता है। महामानव, ऋषि एवं देवताओं की स्थिति में रहने अथवा और असंख्य का भला करने का अवसर मिलता है।

दोनों स्थितियों की अच्छाई बुराई सोचते हुए शरीर से अलग होने की भावस्थिति से ही यह निर्णय करना चाहिए कि दोनों में से कौन-सी स्थिति का चुनाव श्रेयस्कर है उपयुक्त हो उसे वरण कर लिया जाय। उस आधार पर बिताने का प्रण करते हुए शिथिलीकरण .... समाप्त करके शरीर में लौट आया जाय और जो .... लाभ उस स्थिति में मिला उसे शेष जीवन में कार्यान्वित किया जाय। इस पर्यवेक्षण योग को धारण नित्य नियमित रूप में करते रहने पर मनुष्य उस स्थिति को प्राप्त करते है जो प्रत्येक का लक्ष्य है।

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