
तमाहुरग्रथं पुरुषं महान्तम
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निरन्तर चलायमान इस संसार में सतत् जन्म और मरण का संघात देखने में आता है। नए-नए जीव पैदा होते पर देखते-देखते न जाने कहाँ काल के गर्भ में समाते चले जाते है। पता नहीं कितने काल से जीवन और मरण का यह पहिया अबाध गति से घूम रहा है। इस सबको देखकर यह प्रश्न मानव मन को शताब्दियों-सहस्राब्दियों से आन्दोलित करता चला आ रहा है कि इन सबके पीछे सत्य क्या है ?
जीवन है क्या ? मात्र अणुओं परमाणुओं की हलचल उनका सम्मिश्रण या इसके अलावा अन्य कुछ ? इस अहम् सवाल को हम शक्ति-ऐश्वर्य-वैभव विलास के नशे में भले ही कुछ समय के लिए भूल जायँ। पर नशा उतरते ही यह सवाल फिर से हमारे मन को मथने लगता है। प्रारम्भ से ही मानव मन को सृष्टि प्रवाह के सत्य को जानने की उत्कट जिज्ञासा रही है। समय-समय पर चिन्तन की विविध धाराओं के पण्डितों-मनीषियों ने विविध समाधान भी प्रस्तुत किए है।
ये विविध चिन्तन धाराएँ विज्ञान, मनोविज्ञान व दर्शन क्षेत्र की है। इनमें सर्वाधिक प्रचलित मान्यताएँ तीन तरह की है।
विज्ञान, जीवन को जड़ तत्वों का संघात सम्मिश्रण मानता है जो तत्वों के संगठन-विघटन के कारण पैदा होता तथा नष्ट होता है। शून्यवादी इस सबको शून्य मानते है, उधर दर्शन शास्त्री मानते हैं कि जीवन का आधार भौतिक तत्व नहीं है। इन भौतिक तत्वों से जीवन का पैदा होना या नष्ट होना सम्भव नहीं है। जीवन की सत्ता इस सबसे परे और अविनाशी है।
संसार के सभी चिंतकों, वैज्ञानिकों तथा धर्मग्रन्थों के विचार-मान्यताएँ इन्हीं के इर्द-गिर्द चक्कर काटती हैं सभी अपने-अपने स्तर पर प्रतिपादन प्रस्तुत करती है।
वैज्ञानिकगण यह मानते हैं कि सृष्टि की हलचलों का एकमात्र कारण अणु-परमाणुओं का पारस्परिक संघात है। समस्त विश्व ब्रह्माण्ड में चलने वाली प्रक्रिया स्वचालित है। चेतना की उत्पत्ति का कारण भी यही पारस्परिक संघात ही है। शरीर के विनष्ट होते ही उपस्थित चेतना का भी अस्तित्व नहीं रहता।
विचार करके देखा जाय कि यदि शरीर के गठन का कारण परमाणुओं का पारस्परिक संघात और हलचल ही है, तो परमाणुओं में हलचल पैदा कर उनको सुन्दर पुष्ट अंग अवयवों वाले शरीर में रूपांतरित करने वाली शक्ति कौन सी है ? प्रकृति के कुछ परमाणु अणुओं को लेकर कहीं एक प्रकार के शरीर की रचना होती है, कहीं दूसरे प्रकार की। इस प्रकार ये विविध आकार-प्रकार प्रदान करने वाली शक्ति कौन सी है ? इन सवालों के जवाब में विज्ञान चुप्पी साध लेता है। यह कहना कि चेतना, जीवन का कारण कुछ जड़ तत्वों के परमाणुओं का संघात मात्र है, अविवेकपूर्ण और दुराग्रह से ग्रसित ही कहा जाएगा।
शून्यवादी यह मानते है कि संसार निरन्तर परिवर्तन शील है। यहाँ कोई चीज स्थायी नहीं है। इसीलिए यहाँ किसी चीज का अस्तित्व भी नहीं है। सब कुछ शून्य हैं। भूत-भविष्य भी अस्तित्वहीन हैं, मात्र वर्तमान ही सत्य है।
शून्यवाद की इस मान्यता पर गम्भीरता पूर्वक विचार करने पर इसका खोखलापन सिद्ध हो जाता है। सापेक्षिता के सिद्धान्त के अनुसार भूत-वर्तमान व भविष्य सभी एक दूसरे के सापेक्ष हैं। वर्तमान के स्वतंत्र अस्तित्व की कल्पना भी कर सकना असम्भव हैं। इस तरह तो यह होगा कि सन्तान के अस्तित्व को स्वीकार कर माता-पिता के अस्तित्व से इन्कार कर दिया जाय। इसी तरह प्रत्येक वस्तु परिवर्तनशील है, मात्र इसी कारण सभी कुछ भ्रम है, शून्य है। कहाँ तक सच है ? मात्र परिवर्तनशीलता के कारण सभी वस्तुओं के अस्तित्व को इनकार कर देना न्यायसंगत या विवेकपूर्ण नहीं ठहराया जा सकता है। यह तो उसी प्रकार हुआ जैसे किसी बच्चे के शरीर में नित्य नए परिवर्तन होते देखकर कोई बच्चे के अस्तित्व से ही इनकार कर दे। शून्यवाद की इस प्रकार की मान्यता सृष्टि के कारणों की सन्तोषजनक व्याख्या कर सकने में सर्वथा अक्षम है। इस मान्यता पर अड़ने वालों को बाल बुद्धि ही कहा जाएगा।
दार्शनिकों के अनुसार आत्मा ही जीवन का आधार है। यही अविनाशी तत्व-चेतना सत्ता है। यह जीवन-मरण से परे है। शरीर के अवयवों के नष्ट हो जाने पर उसका नाश नहीं होता। देश काल की सीमाएँ इसे बाँध नहीं सकतीं। शरीर इसका देश नहीं, आयु इसका काल नहीं। यह आदिकाल से है और अनन्त काल तक रहेगी। यह स्वयं असीम और अनन्त है। कालचक्र से होने वाले विभिन्न परिवर्तनों का प्रभाव ससीम पर ही पड़ता है असीम तक तो इसकी पहुँच भी नहीं। इसी कारण ससीम शरीर में होने वाले परिवर्तन असीम आत्मा को छू भी नहीं पाते। यह मान्यता ही आस्तिकता है। जीवन की व्यापकता और आत्मा की अमरता ही सत्य है। दार्शनिक चिंतन का उत्कृष्ट रूप वेदान्त इसी का समर्थन व प्रतिपादन करता है।
आज के वैज्ञानिक भी अब इस तथ्य को स्वीकारने लगे है कि विश्व की मूल सत्ता कोई वैश्व चेतना है जो अज्ञेय है और यह संसार इसी अज्ञेय, अविश्लेष्य तरंगों का संघात है। जिनके बारे में हमारी जानकारी नहीं के बराबर है। वैज्ञानिकों ने इसे “काँस्मास” भी कहा है।
डा0 डब्लू कार ने कहा है- कि टाइम और स्पेस न तो कन्टेनर है, न ही कन्टेन्ट, वे तो मात्र वेरियन्ट है। इसी बात को मिन्कोवस्की ने अधिक सुस्पष्ट करते लिखा है कि दिक् व काल की अपनी कोई स्वतंत्र सत्ता नहीं। वे मात्र धाराएँ।
आज के वैज्ञानिक जगत में सापेक्षिता का सिद्धान्त सर्वाधिक प्रतिष्ठित माना जाता है। उसके अनुसार सब दृश्यमान, अनुभूयमान जागतिक सत्य मात्र आपेक्षिक सत्य है। आकार गति के अवस्था भेद से बाह्य वस्तु का ज्ञान प्रत्येक दर्शक को भिन्न-भिन्न प्रकार का होता है और हो सकता है। फिर निरपेक्ष सत्य क्या है ? इसका निरूपण कैसे हो ?
ऐसी स्थिति में मूर्धन्य मनीषियों-वैज्ञानिकों की वाणी लड़खड़ाने लगती है और वे कोई स्पष्ट बात कहने क जगह पहेलियाँ सी बुझाने लगते हैं जब इन्हीं का यह हाल है तो फिर साधारण व्यक्ति कैसे समझें।
विज्ञान की क्षमता सीमित है। सूक्ष्मता के स्तर तक जाने के बाद यह हथियार डाल देता है और स्वीकार करने लगता है कि आगे आ सकना वैज्ञानिक उपकरणों के द्वारा सम्भव नहीं। परम सत्य तो इन सबसे परे है। फिर इसे कैसे जाना जाय। सूक्ष्म और वृहद दोनों दिशाओं में ज्ञान अर्जित करने की मानवी क्षमता सीमित है। जब कि परम सत्य दोनों में से किसी भी सीमा में वृद्धि नहीं। वेदान्त दर्शन इसे “अणोरणीयान्महतो महीयान्” (श्वेत3/20) मानता है।
वेदान्त दर्शन में निहित संकेतों-निर्देशों के अनुरूप तप-साधना करने पर परिशुद्ध चेतना में वह परम ज्योति स्वतः ही प्रकट होती है। यद्यपि यह सभी जगह सभी समय विद्यमान है। किन्तु जब तक बौद्धिक क्रियाओं को ही आत्मानुभूति समझने का भ्रम रहता है। तब एक यह अविज्ञात ही रहती है। बुद्धि तत्व को उस मूल चेतना से जोड़ देने र उसमें पूरी तरह से समर्पित कर देने पर वह परम चेतना अपने आलोक से बुद्धि को प्रकाशित कर देती है स्वयं को प्रकट कर देती है। यह स्थिति अकस्मात् किसी जादू की छड़ी घुमाने से नहीं आती है। इसके लिए साधनात्मक अनुशासनों में बाँधकर अपनी अन्तश्चेतना का परिष्कार करना होता है। ऐसी परिपक्वता विकसित करने तथा अन्तःकरण की निर्मलता अर्जित करने पर जीवन का रहस्य, सत्य का बोध पा सकना सभी के लिए सम्भव है।