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Magazine - Year 1988 - Version 2

Media: TEXT
Language: HINDI
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जन्म मरण का गतिचक्र

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जन्म और मृत्यु के समय परिवर्तित उत्पन्न होने के कारण आश्चर्य अवश्य होता हैं पर इसमें ऐसा कुछ भी नहीं, जिसे अनहोनी या अस्वाभाविक कहा जा सके। अब तक जो भ्रूण दिखाई नहीं पड़ रहा था, आँखों से ओझल उदरदारी में बैठा था उसका अचानक प्रकट हो जाना, दृष्टिगोचर होने लगना ऐसा प्रतीत अवश्य होता हैं कुछ अघटित हुआ पर वस्तुतः वैसा कुछ होता नहीं। जो पर्दे के पीछे बैठा था वही अगर निकल कर बाहर आ गया तो इसमें क्या अनहोनी बात हुई ? फिर भी लोग कौतुक, कौतूहल भरी दृष्टि से देखते है- इसके लिए क्या किया जाय ?

रंग मंच का पर्दा गिरता हैं अभिनय करते हुए सभी नर उसके पीछे चले जाते है। कोई नासमझ यह भी अनुमान लगा सकता है कि उनका अन्त हो गया। पर वस्तुतः वैसा होता नहीं। दर्शकों की आँखों और अभिनेता मण्डल के बीच एक व्यवधान अड़ जाता है। इसी को अदृश्य होना कहा जा सकता है। कोई बढ़ी-चढ़ी कल्पना करे तो यह अनुमान भी लगा सकता है कि अभी-अभी तो नाचते गाते घूम रहे थे, उनका अन्त हो गया। मृत्यु उन्हें समेट ले गई। कल्पना करने में कोई भी स्वतंत्र है, पर इतने भर से वह वास्तविकता तो नहीं बन जाती।

इस संसार का प्रत्येक पदार्थ अनादि और अनन्त है। प्रकृति के घटक अणु परमाणु अपनी अपनी धुरी और कक्षा में भ्रमण करते आ रहे है और प्रलय काल तक उनका वही क्रम बना रहेगा। सूर्य उदय और अस्त होता दीखता है, पर वस्तुतः वैसा होता नहीं। वह अपने स्थान पर यथाक्रम गतिशील है। पृथ्वी घूमती हुई जिस क्षेत्र में पीठ फेर लेने जैसी स्थिति में आती जाती है तब उसके दूसरे पक्ष पर अंधेरा छा जाता है। यही रात्रि है। रात्रि होने पर भी सूर्य का अन्त नहीं हो जाता फिर हमारा प्रत्यक्षवाद यही कहता है कि जब वह दीखता ही नहीं तो उसका अन्त ही हुआ होगा। इस हिसाब से सूर्य नित्य प्रातःकाल जन्म लेता है और संध्या होते-होते मृत्यु के मुख में चला जाता है। यह दृश्य बुद्धि है। इसे वास्तविकता नहीं कह सकते। सूर्य तो अनादि काल से था और अनन्त काल तक बना ही रहेगा। सृष्टि का अन्त होने और नया सृजन बन पड़ने पर भी प्रकृति का यह परिवर्तन क्रम चालू ही रहेगा। उसको बनाना, बढ़ाना, और बदलना अपनी क्रिया पद्धति का अविच्छिन्न अंग है। उसे कोई न इच्छा पूर्वक बदल सकता है और न अनिच्छा से किसी प्रकार प्रतिबन्ध लगा सकता है जो अनिवार्य है, उसके लिए हमें ही वस्तुस्थिति को समझने पर जन्मने का हर्ष और मरण का शोक अनायास ही धीमा पड़ जाता है। वह सरल सहज और स्वाभाविक प्रतीत होता है।

मानवी सहज प्रकृति परिस्थितियों से प्रभावित होती है। उस पर मौसम अपने-अपने ऐसे प्रभाव डालते है जो एक दूसरे से भिन्न होते है। सर्दी और गर्मी की परिस्थितियों में भारी अन्तर है। वर्षा और बसन्त के दृश्य एक दूसरे से भिन्न होते है। इस विचित्रता को देखते हुए भी व्यक्ति का संतुलन बना रहता है। ऋतुएँ जो अपना परिवर्तन क्रम नहीं छोड़ती पर व्यक्ति उनकी प्रतिकूलता से अपने को बचाने के उपकरण खोज निकालता है। छाता, जूता, अँगीठी, पंखे आदि इन्हीं के आधारों का नाम है। जिनके सहारे ऋतु प्रतिकूलता से निपटने का बहुत हद तक अवसर मिल जाता है।

पर्दा खुलने पर कौतुक भरे दृश्य दीखते है और पटाक्षेप होने पर उस हलचल का अंत हो जाता है इतने पर भी नाटक के दर्शकों में कोई बड़ी खलबली नहीं मचती। सहज रीति से उन परिवर्तनों से चित्र−विचित्र सा अनुभव करते रहते है यही रीति उचित भी है और आवश्यक भी। अन्यथा दृश्य परिवर्तन होने पर नाटक के सभी दर्शक उत्तेजित हो उठेंगे और आवेशग्रस्त होकर भली-बुरी प्रतिक्रिया व्यक्त करने लगेंगे। नाट्य व्यवस्था के समूचे सरंजाम का मजा किरकिरा कर देंगे।

उपलब्धि से प्रसन्नता और हानि से क्षोभ यह मनुष्य की स्वाभाविक मनोदशा है। इस आधार पर पुत्र जन्म पर कोई खुशी मनाये और प्रियजन की मृत्यु पर आँसू बहाये तो इसे स्वाभाविक ही कहा जायेगा। पर उनका आवेश में बदल जाना और अत्यधिक प्रभावित होना बुरा है। न तो लाभ का प्रतिफल अहंकारी उन्माद होना चाहिए और न हानि का दृश्य सामने आते ही रुदन विलाप की स्थिति बना देना चाहिए न कातर होना चाहिए और न अव्यवस्थित असंतुलित होने की आवश्यकता है। परिवर्तनों को सहज स्वाभाविक रीति से समझना, देखना और सहन करना चाहिए। संतुलन हर दृष्टि से लाभदायक है। विवेक अपना कर ही व्यक्ति अपने को यथा स्थान बनाये और यथावत् चलाये रह सकता है। समुद्र के बीच गढ़े हुए प्रकाश स्तम्भ ही उस क्षेत्र से गुजरने वाली नावों का मार्ग दर्शन कर सकते है। स्वयं तो अपनी स्थिरता एवं प्रामाणिकता उपयोगिता बनाये ही रह सकते है, अपने को स्थिर रख सकने वाले ही दूसरों को स्थिरता प्रदान कर सकने में समर्थ होते है। धैर्यवान ही धैर्य देते है। विवेकवानों से ही दूसरों को विवेक मिलता है। आतुर, विह्वल कातर अथवा हर्षोन्मत्त लोग भी वैसा ही करने लगते है।

जो जन्मा है सो बढ़ेगा जो बढ़ा रहा है वह झुकेगा। झुकने के उपरान्त मरण निश्चित है। इस गति चक्र से उलझना किसी के भी वश की बात नहीं। अच्छा यही है कि प्रवाह की गतिशीलता को स्वीकार करें और जिस तिस को दोष देने की अपेक्षा भवितव्यता को स्वीकार करें।

परिवर्तन-जन्य परिस्थितियों के साथ ताल-मेल बिठाये और असंतुलन को संतुलन में बदलें। इसी में बुद्धिमानी है और इसी में भलाई।

हर्ष शोक के जंजाल में उलझने की अपेक्षा यह अधिक उत्तम है कि बदलती परिस्थितियों के साथ बदलते उत्तरदायित्वों और बदलते कर्तव्यों को समझें उनका परिपालन करें। घर में यदि नवजात शिशु जन्मा है तो उचित यही है कि उसके भरण-पोषण, शिक्षा, दीक्षा, स्वावलम्बन, सुसंस्कारिता आदि प्रगतिशीलता के आधारों का समुचित निर्वाह करने की बात सोचें। उस दिशा में कदम बढ़ायें और जब तक सामर्थ्य है तब तक उस प्रक्रिया को पूरा करते रहने के लिए सन्निद्ध रहें।

अपने जीवन का मूल्य महत्व समझें उसका अन्त मृत्यु के रूप में समझें। साथ ही यह भी ध्यान में रखे कि उस प्रकार का पटाक्षेप कभी भी हो सकता है। मृत्यु का कोई दिन नहीं कोई मुहूर्त नहीं। वह कभी भी आ सकती और कभी भी अपना चबेना झोले में समेट कर दाँतों तले कुचल सकती है।

इस संदर्भ में प्रमुख समस्या एक ही है कि जो समय शेष जीवन जीने के लिए उपलब्ध है उसका श्रेष्ठतम उपयोग किस प्रकार किया जाय ? मानवी काया सृष्टि के अन्य प्राणियों की तुलना में अगणित विशेषता युक्त तो है ही उसका मनःक्षेत्र भाव संस्थान और भी अधिक अद्भुत है। उस खान में एक से एक अधिक मूल्यवान मणि मुक्तकों का भाण्डागार भरा पड़ा है उसे यदि खोज निकाला जाय और महत्वपूर्ण प्रयोजनों में नियोजित किया जा सके तो समझना चाहिए कि सौभाग्य सुयोग की, वरदान स्तर की देव अनुकम्पा बरस पड़ी। जीवन का कितना समय शेष है यह कहा नहीं जा सकता। इसलिए हर क्षण को बहुमूल्य समझकर उसका श्रेष्ठतम उपयोग करने की योजना बनानी चाहिए। इसी में जन्म और मरण की सार्थकता है।

मरने से पूर्व इस बात की तैयारी की जाय कि पापों के गट्ठर पीठ पर लादकर परलोक के मार्ग को विपन्न न करें। साथ ही यह भी देखा जाना चाहिए कि पुण्य परमार्थ की कमाई इतनी हो रही है या नहीं जो जीवित रहने के शेष दिनों और मरणोपरान्त भी सुख शान्ति का उज्ज्वल भविष्य का सुयोग बन सके।

अपने मरण की चिन्ता करने जैसा कोई बात नहीं है। जो अवश्यम्भावी है उससे भयभीत होने की क्या आवश्यकता? परलोक भी इस लोक से कम सुहावना नहीं है। जीव इसी भू-मण्डल की परिधि में घुमड़ता रहता है। अन्य संबंधी कुटुम्बियों को देखता और उनकी गतिविधियों में सहायता करता रहता है। इतने पर भी हर जीवधारी की सत्ता स्वतंत्र है उनमें से कितने ही संबंधों में बँधते और बिछुड़ते रहते हैं। ऐसी दशा में शोक क्यों, किसके ए कितने दिन तक करें ?

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