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Magazine - Year 1995 - Version 2

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Language: HINDI
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गायत्री महाशक्ति रूपी ब्रह्मास्त्र

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First 9 11 Last
“मनुष्य अपने कर्म का फल तो भोगेगा ही। हम केवल निमित्त है उसके कर्म भोग के और उसमें हमारे लिए खिन्न होने की कोई बात नहीं है।” आकाश में नहीं, देवलोक में ग्रहों के अधिदेवता एकत्र हुए थे। आकाश में केवल आठ ग्रह एकत्र हो सकते है। राहु और केतु एक शरीर के ही दो भाग हैं और दोनों अमर हैं। वे एकत्र होकर पुनः एक न हो जायें, इसलिए सृष्टिकर्ता ने उन्हें समानान्तर स्थापित करके समान गति दी है। अधिदैव जगत में भी ग्रह आठ ही एकत्र होते है। सिर रहित कबन्ध हेतु की वाणी अपने मुख राहु से ही व्यक्त होती है।

देवराज कह रहे थे-मनुष्य प्रमत्त हो गया है इन दिनों। अतः उसे अपने अकर्मों का फल भोगना चाहिए।” शनिदेव कुपित हैं, भूतल पर मनु की उपेक्षा करने लगती है, मनुष्य जब सन्ध्या तथा सूर्योपस्थान से विमुख होकर नारायण से परांगमुख होता है, शनि कुपित होते है। यह उनका स्वभाव है। सूर्य भगवान के अतिरिक्त वे केवल देवगुरु का ही किंचित् संकोच करते है।”

“कलि का कुप्रभाव मनुष्यों को श्रद्धा विमुख बनाता है। बृहस्पति स्वभाव से दयालु है। उन्हें यह सोचकर ही खेद होता है कि धरा जो रत्नगर्भा है, अब अकाल पीड़ितों, संघर्ष संत्रस्त, रोग पीड़ित होकर उत्तरोत्तर अभाव ग्रस्त होती जाएगी। विश्व सृष्टा की महत्तम कृति मानव अब क्षुत्काम, कंकाल कलेवर, अशान्त, भटकता फिरेगा।

“हम कर क्या सकते है? बुध जो बुद्धि के प्रेरक है, प्रसन्न नहीं थे। उनके स्वर में भी खेद था-हम शक्ति और प्रेरणा दे सकते हैं, किन्तु मनुष्य आजकल ऐसी समस्त प्रेरणाओं को विकृत बना रहा है। वह अपनी सम्पूर्ण शक्तियों के दुरुपयोग पर उतर आया है।”

देवताओं का मनुष्य अर्चन करे। उन्हें अपने यज्ञीय भाग से पुष्ट करे और देवता मनुष्यों को सुसम्पन्न, स्वस्थ, सुमंगलयोजित रखें, यह विधान ब्रह्माजी ने बनाया था अकस्मात् ही देवराज इन्द्र आ गये थे उस सभा में। वे वज्रपाणि रुष्ट थे- मनुष्यों ने यज्ञ का त्याग कर दिया। पितृ तर्पण से उसने मुख मोड़ लिया। अब वह कुछ हवन-श्राद्ध करता भी है तो स्वार्थ कलुषित होता है वह। सम्यक् विधि न सही, अल्पप्राण, अप्रशिक्षित, नर का अज्ञान क्षमा किया जा सकता है, किन्तु जब उसमें सम्यक् श्रद्धा भी न हो, जब वह दान-पूजन के नाम पर भी स्वजन सेवक तथा अपने स्वार्थ पूर्ति-कर्ताओं का ही सत्कार करना चाहें, उसके कर्म सत्कर्म कहाँ बनते है?

“देवता और पितर हव्य कव्य ही अप्राप्ति से दुर्बल हो रहे है।” देवराज ने दो क्षण रूप कर कहा “हमारे आशीर्वाद की मनुष्य को अपेक्षा नहीं रही है। वह अपने बुद्धिबल से ही सब कुछ प्राप्त कर लेना चाहता है। अतः आपस का यह योग यदि धरा पर आपत्तियों का क्रम प्रारम्भ करता है तो इसमें न आपका दोष है और देवताओं का।”

“युद्ध, अकाल, महामारी-बहुत दीर्घकाल चलेगा यह प्रभाव।” “सुरुकुरु ने दयापूर्वक कहा।” अल्प प्राण वाला कमजोर मनोबल वाला आज का अबोध मनुष्य आपकी कृपा का अधिकारी है। कलि के कल्मष से दलित प्राणी आपके कोप के योग्य नहीं।”

“मैं कोई आदेश देने नहीं आया। आप सब यदि आपकी चर्चा धरा पर हो अथवा आप कृपा करना चाहें तो अपने कुप्रभाव को सीमित कर सकते हैं।” देवराज ने कहा- “वैसे विपत्ति विश्वनियन्ता का वरदान है, मनुष्य के लिए। उसे व प्रमाद से सावधान करके श्रीहरि के सम्मुख करती है। मनुष्य भगवान के अभिमुख हो यही उसकी सबसे बड़ी सेवा है।”

“क्या आप चाहते है कि मनुष्य भोग विवर्जित रहे? संगीत, कला विनोद तथा विलास केवल सुरों का स्वत्व बना रहे?” शुक्राचार्य ने व्यंग किया।

“मैं आचार्य से विवाद नहीं करूँगा वैसे वैभव देकर मनुष्य को विषयोन्मुख कर देना उसका अहित करना है, यह मैं मानता हूँ। मनुष्य तो आज वैसे ही बहिर्मुख हो रहा है।” देवराज ने अपनी बात समाप्त कर दी।” मैं केवल एक प्रार्थना करने आया था। ब्रह्मवर्त के उस तरुण की चर्चा अनेक बार आपने देव सभा में सुनी है। देवताओं, पितरों की ही नहीं, आप सबकी (ग्रहों की) वह सत्ता मानता है, शक्ति मानता है और फिर भी सबकी उपेक्षा करता है। उसे विशेष रूप से आप ध्यान में रखेंगे।

“जो आस्थाहीन है, उन पर दया की जा सकती है। वे अज्ञ अभी समझते ही नहीं, किन्तु जो जानता है, आस्था रखता है, वह उपेक्षा करे मैं देख लूँगा उसे।” क्रूर ग्रह मंगल के सहज अरुण नेत्र अंगार बन गये।

“वह आश्रम वर्ण विवर्जित एकाकी मानव लगता है, कि देवराज के लिए आतंक बन गया है।” शुक्राचार्य ने फिर व्यंग किया। किन्तु वह न तपस्वी है और न शतक्रतु बनने की सामर्थ्य है उसमें। धर्माचरण के कठोर नियमों की उपेक्षा के समान ही वह अपने स्खलनों को भी महत्त्व तो देता नहीं। ऐसी अवस्था में उसका देवराज बिगाड़ भी क्या सकते हैं। वह इच्छा करे तो आज अमरावती उसकी होगी,

यह आशंका हो गयी लगती है। अतः उसे संत्रस्त करने को अब हम सब ग्रहगण इन्द्र की आशा के आधार बने हैं।”

ग्रहगणों की इस चर्चा से बेखबर युवक खाण्डेराव ने ब्रह्मवर्त में गंगा स्नान करे नित्यार्चन किया और जाकर जब ब्रह्माजी के मन्दिर में ठहरे उन साधु को प्रणाम करके बैठ गया तो वे बोल-अष्टग्रही योग तुम्हारे व्यय स्थान में पड़ता है। वैसे भी शनि, मंगल तथा सूर्य तुम्हारे लिए अनिष्ट कर रहें और राहु केतु किसी को कदाचित ही शुभ होते हैं। तुम ग्रह शान्ति का कुछ उपाय कर लो तो अच्छा।”

“आप जैसी आज्ञा करें।” खाण्डेराव ने प्रतिवाद नहीं किया। ये साधु वृद्ध हैं, विरक्त हैं, पर्यटनशील हैं। ज्योतिष के उत्कृष्ट ज्ञाता लोग इन्हें कहते हैं। बिना पूछे अकारण कृपालु हुए हैं उस पर। अतः इनके वचन काटकर इन्हें दुखी करना वह चाहता नहीं। वैसे किसी सकाम अनुष्ठान में उसकी रुचि नहीं है।

“जिसे रुष्ट होकर जो कुछ बिगाड़ना हो, बिना रुष्ट हुए ही वह उससे ले ले।” वह अनेक बार हँसी में कहता है। परिवार में कोई है नहीं। न घर है, न सम्पत्ति। सम्मान अवश्य है समाज में किन्तु वह उससे सर्वथा उदासीन है। बच रहा शरीर। वह कहता है.....”यह कुत्ते, सियार, पक्षियों, कछुओं अथवा कीड़ा का आहार इसे अग्नि लेगी या कोई और लेगा, इसकी चिन्ता करना मूर्खता है। कल जाना हो इसे तो आज चला जाय।”

“मृत्यु उतनी दारुण नहीं है, जितने दारुण हैं रोग। शरीर देखने, सुनने, चलने की शक्ति से रहित, वेदना व्याकुल खाट पर पड़ा सड़ता रहे....।” एक दिन एक मित्र ने कहा था।

“आदि शक्ति माँ गायत्री न कभी असमर्थ होती है, न निष्करुण। उसके स्वभाव में सुधार की भावना तो है, किन्तु ममता का अभाव नहीं। ये सारे अभाव सारे कष्ट तब तक जब तक इनको प्रसन्नता से सहा जाय। ये असह्य बनेंगे तो बालक माँ की पुकार करेगा। इनको विवश सहना पड़े उसे जिसका माँ की ममता से परिचय न हो।”

“मैंने सुना है कि तुम सकाम अनुष्ठान में अरुचि रखते हो। ग्रहों में सबसे उत्पीड़क शनि है। तुम नीलम धारण कर लो। उससे राहु केतु की शान्ति हो जाएगी। शनि अनुकूल हों तो शेष सबके अनिष्ट अधिक अर्थ नहीं रखते।” साधु ने समझाकर कहा।

इस उपदेश का उस पर क्या असर पड़ा कहा नहीं जा सकता। पर तरुण खाण्डेराव ने देखा समूचा ब्रह्मवर्त क्षेत्र अनुष्ठानों यज्ञ के मंडपों से सजा था। शतकुण्डी, सहस्र चण्डी तथा श्रीमद्भागवत के सप्ताह चल रहे थे स्थान-स्थान पर। अष्टोत्तर शत सप्ताह भी हुए। अखण्ड कीर्तन, अखण्ड रामायण पाठ के पवित्र स्वर दिशाओं को उन दिनों गुँजित करते रहते थे। कलि में जैसे सतयुग उतर आया था। आतंक स्वयं तामस सही, उसमें मनुष्य को कितनी सत्वोन्मुख करने की शक्ति है, यह उस समय प्रत्यक्ष हो गया था। गं गणपतये नमः। सर्व विघ्न विनाशक भगवान गणपति की पूजा तो प्रत्येक पूजन, यज्ञ, अनुष्ठान के प्रारम्भ में होनी ही थी। सभी पाठ-पारायण मंडपों में पार्वती नन्दन प्रतिष्ठा, पूजा हुई-हो रही थी।

मं मंगलाय भौमाय भूमिसुताय नमः। युद्धप्रिय, रक्तविकारकारी रक्तोद्गारी अंगार की शान्ति के लिए रक्तवस्त्र, रक्तचन्दन, लाल पुष्प का सम्भार तो था ही लाल गाय, ताम्र, तथा मसूर की दाल का दान भी अनेक लोगों ने किया। बहुतों ने मूँगा पहना।

शं शनिश्चराय सूर्यसुताय नमः। तैल और लोहे का दान तो शनिवार को अनेक लोग नियमपूर्वक करते हैं। उस समय काले तिल, उड़द, काले अथवा नीले वस्त्रों का दान बहुत लोगों ने किया। अनेक ग्रहशान्ति समारोहों में अपराजिता के पुष्प अर्चन में प्रयुक्त हुए। हाथी दान किसी ने किया या नहीं, किन्तु भैंसे का दान सुनने में आया। जौहरियों के यहाँ उन दिनों नीलम के ग्राहक भी पर्याप्त आए।

राहु-केतु की शान्ति के लिए भी मन्त्र जप हुए। काली वस्तुओं का दान हुआ। लहसुनिया की अंगूठियाँ पहनी लोगों ने। इनके अतिरिक्त भगवान सूर्य की भी चर्चा हुई। ॐ आदित्याय नमः पर्याप्त सुन पड़ा। सूर्य को रक्तकर्णिकार पुष्प तथा रक्त चन्दन, रक्त वस्त्र अर्पित हुए। रविवार को नमक रहित एकाहार व्रत भी बहुतों ने किया। लालमणि तो मिलती नहीं। माणिक्य उन लोगों ने अंगूठियों में लगाया, जिन्हें सूर्य प्रतिकूल पड़ते थे।

भले-भले कहि छाँड़िए, खोटे ग्रह जप दान। यह बात उन दिनों सर्वथा सार्थक हुई? जहाँ नवग्रह पूजन हुआ उन स्थानों की बात छोड़ दे तो चन्द्रमा बुध, गुरु और शुक्र की अकेले-अकेले अर्चना प्रायः नहीं हुई। एक जौहरी ने कहा सामान्य समय में अनेक लोग चन्द्रमा की सन्तुष्टि के लिए मोती बुध के लिए पन्ना, गुरु के लिए पुखराज और शुक्र के लिए हीरा लेने आते थे, किन्तु इस काल में इन रत्नों का विक्रय अत्यल्प हुआ। लोग जैसे इनका उपयोग ही भूल गए।

ब्राह्मणों को भी श्वेत, पीला, हरित धान्य, वस्त्रादि केवल, नवग्रह पूजन जैसे अवसरों पर ही प्राप्त हुए।

“तुम्हें नीलम नहीं मिला?” ऐसे समय में खाण्डेराव को अँगूठी रहित देखकर उन साधु ने एक दिन पूछ लिया। वैसे भी उत्तम नीलम कठिनाई से मिलता है और अष्टग्रही के दिनों में उसका न मिलना कोई आश्चर्य की बात नहीं थी।

नीलम आपने तो मुझे नीलमणि धारण करने को कहा था। खाण्डेराव ने सहज भाव से कहा। नीलम तो रत्न है, पत्थर है। वह मणि तो है नहीं। विश्व में आज मणि (स्वतः प्रकाश रत्न) कहीं मिलता नहीं। केवल रत्न है जो दूसरों के प्रकाश में चमकते हैं। वैसे भी मैं पत्थरों में नहीं प्रकाश में चमकते हैं। वैसे भी मैं पत्थरों में नहीं, प्रकाश पुञ्ज में आस्था रखता हूँ। इस नश्वर शरीर को सज्जित करने की अपेक्षा मैंने हृदय को प्रकाश की परम श्रोत माँ गायत्री से अलंकृत करना अच्छा माना। आपका तात्पर्य समझने में मैंने भूल तो नहीं की?

“भूल तो मैं कर रहा था” साधु ने खाण्डेराव को दोनों भुजाओं में भर लिया तुम्हारा उपाय तो भव-महाग्रह को शान्त कर देने में समर्थ है। क्षुद्र ग्रहों की शान्ति का अर्थ तब क्या रह जाता है।”

“आप सब एक क्षुद्र मनुष्य का कुछ भी नहीं बिगाड़ सके?” अष्टग्रही को बीते पूरे छः महीने हो चुके थे। देवलोक में वे देवराज के आमंत्रण पर पुनः एकत्र हुए थे। देवराज को इस पर कोई आक्रोश नहीं था कि पृथ्वी पर कोई महाविनाश नहीं हुआ। जो यज्ञ, अनुष्ठान दान, मनुष्यों ने किए थे, उसे प्राप्त कर देवाधिपति सन्तुष्ट थे। उन्हें क्षोभ केवल यह था कि उन्होंने जिस व्यक्ति विशेष को लक्ष्य बनाया था, वह अप्रभावित ही रह गया।

“किसी का अमंगल करना मेरा स्वभाव नहीं है। वक्र होने पर भी मैं केवल व्यय कराता हूँ और बृहस्पति अशुभ कर्मों में अर्थ व्यय कराएगा नहीं।” देवगुरु ने इन्द्र को झिड़क दिया। वक्री होकर भी जो मैं नहीं करता, व्यय स्थान में स्थित होकर मैंने वह किया है। खाण्डेराव ने अपने छोटे से संग्रह का प्रायः सब कुछ दुखियों, अभावग्रस्तों को दे दिया है।”

व्यय स्थान पर स्थित बुध जब गुरु के साथ हो, केवल सतगुरु की सहायता कर सकता है। आकार से कुछ ठिगने, गठीले, गोल मुँह वाले बुध ने कहा- “देवराज सहस्राक्ष हैं। उन्होंने देखा है कि इसमें मैंने कोई प्रमाद नहीं किया है।”

“आप दोनों से पहले भी अधिक आशा नहीं थी।” देवेन्द्र ने उलाहना दिया। “ आपने तो प्रतिपक्ष को प्रबल ही बनाया। दान और धर्म व्यक्तियों को दुर्बल तो बनाया नहीं करते। संसार में कोई कंगाल हो जाय-इससे हम देवताओं का क्या लाभ?”

देवताओं के अधिपति को जब मालूम ही था तो इस प्रकार की आशा क्यों करने लगे। आचार्य शुक्र व्यंग प्रवीण हैं, उन्होंने अपने स्वभाव के अनुसार व्यंग किया।

“आपने भी तो कुछ किया नहीं।” इन्द्र के मुख से सहज निकल गया।

शुक्र से सुर स्वहित की भाषा कब से करने लगे? “दैत्याचार्य ने फिर कटाक्ष किया। द्वादश भवन में स्थित शुक्र शुभ होता है। शुक्र सूर्य के साथ मेरा प्रभाव अस्त न हो गया होता, तो महाशक्ति के उस आश्रित को अमित ओज दे आता। मैंने उसकी श्रद्धा और संयम को शक्ति नहीं दी, उसे आनन्दोपलब्धि का शुभ मार्ग नहीं दिखाया, यह आक्षेप मेरे प्रतिस्पर्धी बृहस्पति भी मुझ पर नहीं कर सकते।”

महाशक्ति की जिस कान्ति का अंश लेकर मैं कान्तिमान हूँ।” नित्य सौम्य चन्द्रमा उठ खड़े हुए। “उनका कोई आश्रय लेता हो, मेरी अनुकूलता प्राप्ति के लिए उसे क्या और कुछ करना आवश्यक रह जाता है? उसके लिए यह विचार व्यर्थ है कि चन्द्र अष्टम है या द्वादश उसे तो मेरा सदा आशीर्वाद प्राप्त है।”

“हम दोनों तुम्हारे मित्र हैं।” राहु ने रुक्ष सुर में बिना संकेत पाए ही बोलना प्रारम्भ किया। “वैसे भी हमारे साहस की सीमा है। जिन आदि शक्ति गायत्री की एक कला को पाकर सृष्टि की समस्त शक्तियाँ सक्रिय हैं, उनके आश्रित पर हमारी छाया अनिष्ट बनकर नहीं उतर सकती। हम उसका रोष नहीं, कम से कम उदासीनता तो पा सकते हैं, अनुकूल बनकर। उसकी श्रद्धा-पूजा का स्वप्न हम नहीं देखते।”

“ मैंने सुरेन्द्र की आज्ञा का सम्मान किया है।” युद्ध के अधिष्ठाता मंगल उठे। रक्तारुण वस्त्र, विदु्रमभाल, उन ताम्रकेशी के अंगार नेत्र इस समय शान्त थे। “ खाण्डेराव को ज्वर आया, थोड़ी चोट लगी और रोष आया। अब मैं इसका क्या करूँ कि वह अपना क्रोध आदि शक्ति माँ गायत्री के माध्यम से शान्त कर लेता है। जिनकी शक्ति का एक कण पाकर मंगल शक्तिमान उनके लाड़ले शिशु का कुछ आर्थिक अनिष्ट करना मेरे बस में नहीं था। फलतः विजय का नीरव वरदान तो मुझे अपनी धृष्टता का मार्जन करने के लिए देना पड़ा। उसने उसे मनोजय में प्रयुक्त किया, शत्रुजय में भी कर सकता था और सुरेन्द्र, इस समय आप उससे शत्रुता कर रहे हैं, यह आप भूले नहीं होंगे।”

“आदि शक्ति गायत्री के महातेज से ही मैं तेजस्वी हूँ।” भगवान सूर्य ने बड़े मृदुल स्वर में कहा। “महेन्द्र उनके किसी भक्त का अनिष्ट चाहेंगे तो यह चिन्तन स्वयं उन्हें भारी पड़ेगा

“यही बात मैं कहता हूँ।” इस बार कृष्ण वर्ण, निम्न नेत्र भयानक आकृति शनिश्चर खड़े हुए। “जिनकी आराधना स्वयं भगवान शिव करते हैं उन आदिशक्ति वेदमाता के अनुग्रह भाजन का अपकार, कोई कर भी कैसे सकता है। मैंने स्वर्ग की ओर दृष्टि नहीं उठाई - यही मेरा कम अनुग्रह नहीं है।”

“सुरेन्द्र, तुमसे मेरे शिष्य दैत्य-दानव अधिक बुद्धिमान हैं।” शुक्राचार्य फिर बोले। “आदि शक्ति वेदमाता गायत्री को जो भूल से भी माँ कहकर पुकारता है, उसकी ओर ये देखते ही नहीं और तुम आशा करते हो कि ग्रह उसे उत्पीड़ित करेंगे? सम्यक् ग्रह शान्ति-सबकी सर्वानुकूलता वेदमाता गायत्री के श्रीचरणों में रहती है। गायत्री महामन्त्र का आश्रय लेने वाले का अनिष्ट-अमंगल नहीं हुआ करता। गायत्री का ब्रह्मास्त्र जिसके पास है, उसके पास सब कुछ है।” यह सब कुछ सुनकर इन्द्र ने मस्तक झुका लिया था।

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