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Magazine - Year 1995 - Version 2

Media: TEXT
Language: HINDI
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परिष्कृत ‘प्राण’ के चमत्कारी सत्परिणाम

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‘कौषीतकि ब्राह्मणोपनिषद्’ में एक कथा आती है कि राजा दिवोदास के पुत्र प्रतर्दन को एक बार स्वर्ग देखने की इच्छा हुई। वह जब स्वर्ग पर पहुँचे, तो इन्द्र ने उनसे प्रसन्न होकर वर माँगने को कहा; किन्तु प्रतर्दन ने यह कह कर उसे अस्वीकार कर दिया कि वह हर प्रकार की भौतिक सम्पदाओं से परिपूर्ण है। तब इन्द्र ने लोक कल्याणकारी प्राण विद्या का उपदेश दिया और बताया कि इससे किस प्रकार दूसरों की सहायता की जा सकती है। किस तरह संकटग्रस्त व्यक्ति को विपत्ति से उबारा जा सकता है और कैसे अंतःप्रेरणा द्वारा उस तक अपने विचार सम्प्रेषित किये जा सकते हैं।

आधुनिक काल में यह कार्य यंत्र-उपकरणों के माध्यम से पूरे कर लिये जाते है; किन्तु प्राचीन काल में इस उद्देश्य की पूर्ति प्राण-विद्या के माध्यम से की जाती थी। इतना ही नहीं, इसके अतिरिक्त भी कितने ही कार्य इस विद्या द्वारा सम्पन्न किये जाते थे। इसी में असमर्थों को समर्थ और सामान्य को असामान्य बना देना भी सम्मिलित था। शिष्य इसी निमित्त प्राणी सम्पन्न गुरुओं की तलाश किया करते और उनके सान्निध्य में रह कर स्वयं को व्यक्तित्व सम्पन्न बनाया करते थे। व्यक्तित्ववान बनने में शिष्य को अपने भीतर के सद्गुणों को प्रयत्नपूर्वक उभारना पड़ता है। आचार्य की सहायता से यह प्रक्रिया अत्यन्त सरल हो जाती है। वे अपने प्राण का एक अंश देकर शिष्यों के व्यक्तित्व और उनकी क्षमताएँ बढ़ाने में उनका सहयोग कर पाते थे। इसी कारण से ऋषिकाल में लोग श्रद्धावनत होकर आचार्य आश्रमों में जाया करते थे। वहाँ ऋषि अपनी प्राण क्षमता उपलब्ध करा कर उन्हें तेजस्वी, मेधावान् और पुरुषार्थी बनाया करते थे। महर्षि धौम्य ने आरुणी को, गौतम ने जाबालि को, इन्द्र ने अर्जुन को, यम ने नचिकेता को, शुक्राचार्य ने कच को इसी तरह से उच्च भूमिका में पहुँचाया था। योग्य गुरुओं द्वारा यह परम्परा अधुनातन काल में भी चलती रही है। रामकृष्ण परमहंस ने विवेकानन्द को समर्थ बनाया था। विवेकानन्द ने निवेदिता को लोक-कल्याण हेतु जीवन अर्पण करने के लिए सहमत किया था। महर्षि श्री अरविन्द ने ही पेरिस स्थित ‘श्रीमाँ’ को पाण्डिचेरी आने के लिए प्रेरित किया था। इन सभी प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष कार्यों में प्राण की महती भूमिका होती है। यह प्राण साधारण जन में जब विकृत अवस्था में पड़ा रहता है, तो वह दूषित-घृणित कार्य के लिए व्यक्ति को प्रेरित प्रोत्साहित करता है। डाकू लोग दिन दहाड़े डाका डालते देखे जाते हैं। उग्रवादियों को राह चलते लोगों को गोली से उड़ा देने में तनिक भी भय-संकोच नहीं होता। जो आगजनी और राहजनी में निपुण हैं, उन्हें भीड़-भाड़ का क्या परवाह? जेबकतरे भरे बाज़ार में ही अपनी हाथ की सफाई दिखाते हैं व्यभिचारी और वेश्या को लाज शर्म कहाँ आती? वह तो चौक-चौराहे में भी सीना फुलाये खड़े रहते हैं। बलात्कारियों का वर्ग भी कोई कम दुस्साहसी नहीं होता। ठगी, गुण्डागर्दी, मारपीट जैसे आपराधिक कृत्यों में संलग्न रहने वालों में भी न्यूनाधिक इस विकृत प्राण का अंश होता है। इस प्राण के रहते आत्मोत्थान जैसी बात नहीं बनती। इसी कारण अध्यात्म मार्ग के पथिकों को सबसे पहले इस विकृति को दूर करना पड़ता है। जैसे-जैसे परिष्कृत होते जाते हैं, वैसे ही वैसे उसका संपर्क विश्वव्यापी महत प्राण से जुड़ने लगता है। अन्तिम अवस्था में दोनों मिलकर एकाकार हो जाते हैं। यही आत्मा और परमात्मा का, भक्त और भगवान का, क्षुद्र और महान् का मिलन-संयोग है। इसी को सोऽहम्, अहम् ब्रह्मास्मि, शिवोऽहम्, सच्चिदानंदोऽहम् जैसे उपनिषद् वाक्यों द्वारा अभिव्यक्त किया गया है। इस स्थिति में ही व्यक्तित्व की दिव्यता उभरती और असंभव को संभव करती देखी जाती है।

कहते हैं जब राम वनवास में थे, तब लक्ष्मण अपने तेजस्वी प्राणों का संचालन करके प्रत्येक दिन की स्थिति के समाचार अपनी धर्मपत्नी उर्मिला तक पहुँचा देते थे। उर्मिला उन सन्देशों को चित्रबद्ध करके रघुवंश परिवार में प्रसारित कर दिया करती थी और बेतार के तार की तरह के सन्देश सबको मिल जाया करते थे।

अनसूया आश्रम में अकेली थी। भगवान ब्रह्मा, विष्णु ओर महेश वेश बदल कर परीक्षार्थ आश्रम में पहुँचे। अत्रि मुनि बाहर थे। उन्होंने ही भगवान के त्रिकाल रूप को पहचाना था और गुप्त सन्देश अनसूया तक प्राण शक्ति द्वारा ही प्रेषित किया। ऐसी कथा-गाथाओं में सारा हिन्दू शास्त्र भरा पड़ा है।

आज का विकासोन्मुख समाज इन उपाख्यानों को तर्क और अविश्वास की दृष्टि से देखता है। उन्हें यह संदेह है कि भौतिक यंत्रों के अतिरिक्त भी कोई ऐसी संचार प्रणाली हो सकती है क्या, जिसके द्वारा विचार-विनिमय सरलता और सफलतापूर्वक शक्य हो सके? भौतिक साधन न उपलब्ध होने पर भी दूरस्थ व्यक्ति तक संदेश पहुँचाया जा सके?

विचारपूर्वक देखें तो विज्ञान भी इसकी पुष्टि ही करता है। इसे समझने के लिए तनिक ध्वनि संचार प्रणाली को समझना पड़ेगा। जब तक हम स्थूल ध्वनि करते या बोलते हैं तो वह तुरन्त आकाश तत्त्व के माध्यम से प्रसारित हो जाता है। चूँकि बोलते ही वह शब्द सूक्ष्म तरंगाकार रूप ग्रहण कर लेता है, जिसे सुनने की सामर्थ्य हमारे कानों में नहीं, इसलिए हम उसे नहीं सुन पाते हैं; वैज्ञानिकों का कहना है कि यदि किसी प्रकार इन ध्वनि तरंगों को ढूँढ़ा और पकड़ा जा सके, तो वर्षों बाद भी उन्हें उपयुक्त उपकरणों के माध्यम से श्रव्य बनाया जा सकना संभव है। ऐसा इसलिए क्योंकि विज्ञान की दृष्टि में शक्ति का रूपान्तरण भर होता है, विनाश नहीं। शब्द को विज्ञानवेत्ता शक्ति मानते हैं, अस्तु वह पैदा होते ही समाप्त हो जायेंगे इसे नहीं स्वीकारते। इसी आधार पर वे कहते हैं कि उन्हें लाखों वर्ष बाद भी ग्रहण किया जा सकता है। रेडियो स्टेशनों से प्रसारित होने वाली धुनों और गीतों को हम इस कारण से सुन पाने में सफल होते हैं कि वहाँ शब्द तरंग को विद्युत तरंग में बदल दिया जाता है। यह तरंगें मीलों की यात्रा तय कर जब हमारे रेडियो सेट तक आती हैं, तब एक बार फिर वह उन्हीं को विद्युत से ध्वनि तरंग में परिवर्तित कर देते हैं। इस प्रकार रेडियो स्टेशनों में जो कुछ बजता रहता है, उसे हम ज्यों का त्यों अपने उपकरणों द्वारा सुन लेते हैं।

यह स्थूल ध्वनि की बात हुई। मानसिक स्तर पर जो सूक्ष्म विचार तरंगें उठती रहती हैं, वह अपेक्षाकृत अधिक सूक्ष्म होती हैं। यह भी स्थूल तरंगों की तरह तुरन्त प्रसारित हो जाती है, पर सामान्य स्थिति में हम उन्हें ग्रहण नहीं कर पाते, कारण कि हमारी सूक्ष्म कर्णेन्द्रियाँ भी उस स्तर की विकसित नहीं होती हैं। जिसका अन्तःकरण विकसित होता है, वह उन्हें न सिर्फ पकड़ सकने में सफल होते हैं, वरन् समझ कर उपयुक्त उत्तर भी प्रेषित करते हैं। यह सब परिष्कृत प्राण के चमत्कार हैं। शरीर तो उन्हें धारण करने वाला उपकरण मात्र है। बुरे आदत-अभ्यासों के रूप में, कषाय-कल्मषों के रूप में जब विकार को निकाल बाहर कर उसे शोधित किया जाता है, तो वही विलक्षण परिणाम प्रस्तुत करता है, पर इसे शरीर की नहीं प्राण की ही उपलब्धि कही जानी चाहिए। यह बात और है कि प्राण-शोधन के साथ-साथ शरीर शुद्धि भी सम्पन्न होती रहती है, पर इस प्रक्रिया के मूल में प्राण ही प्रमुख हैं। कोई सफाई पसन्द व्यक्ति जिस तरह किसी गन्दे मकान में रहना नहीं चाहेगा, उसी प्रकार शुद्ध प्राण अशुद्ध शरीर में नहीं रह सकता; पर यदि रहने की मजबूरी ही आ जाय, तो वह उसकी धुलाई-सफाई करके ही उसमें रहना चाहेगा। अध्यात्म विज्ञान में इस क्रिया को नाड़ी शोधन प्रक्रिया के नाम से पुकारा गया है। यह कई बार ईश्वरी अनुकम्पा के कारण स्वतः सम्पन्न हो जाती है और अनेक बार उसको प्रयास पूर्व करना पड़ता है।

व्यक्ति में यह प्राण तत्त्व जिस परिणाम में जितना ज्यादा होता है, उसी अनुपात में उसमें प्रखरता पायी जाती है। इसी आधार पर सामान्य बोलचाल की भाषा में उसे प्राणवान कहा जाता है। प्राण और जीवट का परस्पर गहरा सम्बन्ध है। प्राण की सघनता जहाँ अत्यधिक होती है, वहाँ जीवट भी विद्यमान् रहता है। इस जीवट की उपस्थिति ही व्यक्ति को भौतिक क्षेत्र में सफलता और आत्मिक क्षेत्र में समृद्धि के परिपूर्ण करती है। इसलिए आत्मिक प्रगति चाहने वालों को न सिर्फ प्राण के परिशोधन पर ध्यान देना चाहिए, वरन् इस सम्बन्ध में भी पूरी-पूरी सावधानी बरतनी चाहिए कि प्राण के क्षरण को हर प्रकार से रोका जाय और उसके अधिकाधिक संवर्धन की बात सोची जाय। वर्तमान जीवन प्रणाली ऐसी दोषपूर्ण है, जिसमें काम सेवन की तुलना में कामुक चिन्तन से सर्वाधिक प्राण का अपव्यय होता रहता है। इसी कारण से आज के लोग देखने में निर्जीव और क्रिया से निष्प्राण जान पड़ते हैं। इसीलिए आज ब्रह्मचर्य की स्थिति नगण्य जितनी रह गयी है।

अब विज्ञानवेत्ता भी यह स्वीकारने लगे हैं कि यदि प्राण समर्थ, सशक्त और मात्रा में अधिक हो, तो उससे अनेक ऐसे अद्भुत कार्य किये जा सकते हैं, जो शायद भौतिक साधनों द्वारा भी संभव न हो सके। अमेरिकी अनुसंधानकर्ता मोडात्रयूज एवं काउण्ट पुलीगार के शोधों ने यह सिद्ध किया है कि प्राणशक्ति द्वारा रोगोपचार तो एक हल्की-सी खिलवाड़ मात्र है। वस्तुतः उसके उपयोग बहुत ही उच्च स्तर के हो सकते हैं। उसके आधार पर मनुष्य अपने निज के व्यक्तित्व में बहुमुखी प्रखरता उत्पन्न कर सकता है। प्रतिभाशाली बन सकता है। आत्मविकास की अनेकों मंजिलें पार कर सकता है। पदार्थों को प्रभावित करके अधिक उपयोगी बनाने तथा इस प्रभाव से जीवित प्राणों को प्रकृति बदलने के लिए भी प्रयोग हो सकता है। जर्मन गृहविज्ञानी रीकन बेक इसे एक प्रकार को ‘अग्नि’ मानते हैं। वे कहते हैं कि चेहरे के इर्द-गिर्द इसकी जितनी अधिक सघनता होती है, उससे तनिक भी कम जननाँगों के निकट नहीं होती। उनका यह भी कहना है कि दाहिने हाथ की तर्जनी अंगुली में इस अग्नि अथवा विद्युत की मात्र सर्वाधिक होती है। इसलिए वे अंगुली निर्देश में उसका उपयोग निषिद्ध बताते हैं। उनका मत है कि ऐसा करने में अथवा किसी वस्तु को रगड़ने-घिसने में तर्जनी के उपयोग से शरीर-अग्नि का बड़े पैमाने पर क्षरण होता है। संभवतः इसी कारण से ग्रामीण अंचलों के लोगों में अब भी यह प्रचलन विद्यमान् है कि जब उन्हें किसी फलदार पेड़-पौधे अथवा सब्जी पैदा करने वाली लता बितानों के फलों की ओर इशारा करना होता है, तो तर्जनी अंगुली की जगह वे मुट्ठी बाँध कर फूल की ओर इंगित करते हैं उनका विश्वास है कि तर्जनी के इशारे से सब्जी पैदा करने वाली लताओं के फूलों को नुकसान पहुँच सकता है। वे झाड़ सकते हैं। भले ही यह वान उनमें प्रथा प्रचलन बन कर जी रहा हो; पर वे बिलकुल अवैज्ञानिक हैं, ऐसा नहीं कहा जा सकता है। तर्जनी में अत्यधिक संघनित ऊर्जा का दुष्प्रभाव इशारे के समय पौधे को प्रभावित करता है और उसे हानि पहुँचाता है-अब यह प्रमाणित हो गया है। इसलिए समस्त ऐसे प्रचलनों को अन्धमान्यता मान लेना बुद्धिमानी नहीं। यदि सम्प्रति विद्यमान् इन प्रचलनों के संदर्भ में अनुसंधान कार्य किये जाएँ तो संभव है इनके पीछे अनेक ऐसे तथ्य मिलेंगे, जो प्राण चेतना की प्रखरता को परिपुष्ट करें और उसे मूढ़ मान्यता के स्थान पर विज्ञान सम्मत सिद्ध करें।

हम प्राण-विज्ञान को समझें और सदुपयोग, दुरुपयोग के आधार पर उसके हानि लाभ को जान सकें, तो न सिर्फ आत्मिक क्षेत्र में, अपितु भौतिक क्षेत्र में भी सफलता ओर सम्पन्नता से परिपूर्ण होते चलेंगे, ऐसे मूर्धन्यों का मत है।

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