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Magazine - Year 1995 - Version 2

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आत्मबल ही सर्वोपरि

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सृष्टि में प्रकृति की अनेकानेक शक्तियाँ अपने-अपने ढंग से कार्यरत है। मनुष्य अपनी क्षमता के अनुसार उनसे लाभ भी उठाता रहता है। उसके पास भी आत्मा की अकूत शक्ति है, पर विरले ही उस वैभव का सुनियोजित लाभ ले पाते हैं। प्रायः व्यक्ति शरीर-बल बुद्धि-बल संघ बल और धन-बल के सीमित दायरे में सिकुड़ा सिमटा रहता है और उसी को सब कुछ मानकर तदनुरूप तानाबाना बुनता रहता है। वह यह भूल जाता है कि उसके अन्तराल में भी एक अद्वितीय शक्ति स्रोत विद्यमान् है जो उक्त सभी बलों का-शक्तियों का प्राण है। जब तक यह सामर्थ्य हमारे पास नहीं होती, तब तक धन, बुद्धि स्वास्थ्य, संघ आदि की सामर्थ्यों से भी क्रमबद्ध जीवन-विकास कर सकने और जो उपलब्ध है, उसका समुचित लाभ एवं आनन्द उठा सकने से वंचित रह जाना पड़ता है। इस सर्वोपरि बल-सामर्थ्य का नाम है-आत्मबल आत्मबल के अभाव में सारी भौतिक सामर्थ्य तथा उपलब्धियाँ केवल बलवान होना ही काफी नहीं है। बल का-शक्ति का सही दिशा में सदुपयोग होना ही कौशल है, जिसके आधार पर समर्थता का लाभ उठाया जा सकता है।

आत्मबल के अभाव में वह विवेक-बुद्धि जाग्रत नहीं होती, जो वासनात्मक इन्द्रिय असंयम पर, तृष्णात्मक अनियन्त्रित महत्त्वाकाँक्षाओं एवं आलस्य, प्रमादात्मक, मानसिक असंयम पर नियंत्रण कर सके। अन्तः करण में विद्यमान् दैवी और आसुरी शक्तियों का उभार तीव्र होता है, वे निकृष्ट स्वार्थों की पूर्ति के लिये दुष्प्रवृत्तियाँ अपनाने के लिये प्रेरणा देती रहती हैं, उनके ऊपर नियंत्रण करना भी बिना आत्म-बल के सम्भव नहीं। इन्द्रियाँ, मन और अन्तःकरण में विद्यमान् आसुरी सत्ता दुर्बुद्धि का रूप धारण कर हमारे कठोर परिश्रम द्वारा उपार्जित सामर्थ्यों को अपव्यय एवं दुर्व्यय की ओर धकेल देती है। जब दिशा सही नहीं तो सुख-शान्ति एवं प्रगति का लक्ष्य कैसे मिले? यही वह विडम्बना है, जो हमारे प्रयास और परिश्रम को निष्फल बना देती है। प्रगति की प्रबल आकांक्षा को पूरा करने के लिये हम अपनी समझ के अनुसार निरन्तर प्रयत्नशील रहते हैं। फिर भी दुर्भाग्यवश खाली हाथ ही रहना पड़ता है।

हमें जानना चाहिए कि मनुष्य केवल शरीर मात्र ही नहीं है। उनमें एक परम तेजस्वी आत्मा भी विद्यमान् है। हमें जानना चाहिए कि मनुष्य केवल धन, बुद्धि और स्वास्थ्य के भौतिक बलों से ही साँसारिक सुख, सम्पदा, समृद्धि एवं प्रगति प्राप्त नहीं कर सकता, उसे आत्म-बल की आवश्यकता है। आत्मा के अभाव में शरीर की कीमत दो कौड़ी भी नहीं रहती। इसी प्रकार आत्म-बल के अभाव में उपर्युक्त तीनों शरीर-बल मात्र खिलवाड़ बनकर रह जाते हैं।

आत्म-चेतना की विस्मृति मानव-जीवन की एक भयावह भूल है। यों कहने-सुनने को हम आत्मा शब्द बार-बार पढ़ने, सुनते हैं। उसके सम्बन्ध में कौतूहल भरी विवेचनाएँ भी बार-बार सामने आती-जाती है, पर वस्तुतः यह अनुभव होता कभी भी नहीं है। कि हम आत्मा है। अभ्यास और विश्वास यही है कि हम शरीर के रूप में जो कुछ जाने-माने जाते है, वही हैं- उतने ही हैं। शरीर भावना इतनी प्रबल परिपक्व हो गई है कि यह अनुभव करना अति कठिन है कि हम शरीर से भिन्न एक परम पवित्र एवं परम समर्थ चेतना केन्द्र हैं। यदि ऐसा अनुभव होने लगे तो सोचने का सारा आधार ही बदल जाय।

“मैं आत्मा हूँ शरीर मेरा उपकरण है। मेरा स्वार्थ, आत्मिक स्वार्थ परमार्थ है। उसे शरीर स्वार्थों की वेदी पर बलिदान न करूँगा आत्मसत्ता के प्रति यह विद्रोह जब सजग विवेक द्वारा आरम्भ होता है तो अन्तरंग में एक भावनात्मक महाक्रान्ति उठ खड़ी होती है और सोचने तथा करने की पद्धति में महत्त्वपूर्ण परिवर्तन करने के लिए विवश होना पड़ता है। यही वह मर्मस्थल है, जहाँ आत्म-जागरण आत्म-निर्माण आत्म-विकास की सम्भावनायें मूर्तिमान् होती है। यही वह प्रवेश द्वार है, जहाँ से ऋद्धि सिद्धियों-महान् विभूतियों का रत्न भण्डार जगमगाता हुआ दीखता है। जो कि भी व्यक्ति को सफलता के द्वार पर पहुँचा सकता है।

आत्म-ज्ञान के साथ यह मान्यता जगती है कि हमारा स्वरूप और लक्ष्य क्या है? हमें क्या सोचना और करना चाहिए? इन प्रश्नों के उत्तर अन्तःकरण में से अनायास ही, स्वयमेव ही उठते हैं। जीवन के लिये, विचारणा को परिष्कृत करने के लिये, गतिविधियों को व्यवस्थित करने के लिये-एक प्रचण्ड साहस, उत्साह एवं उल्लास यदि अन्तरंग में से फूट पड़े तो समझना चाहिए कि आत्म-जागरण एवं आत्म-साक्षात्कार का एक सौभाग्यशाली शुभ मुहूर्त आ गया। इस विवेक बिन्दु पर खड़ा हुआ व्यक्ति बड़े महत्त्वपूर्ण आश्चर्य चकित करने वाले एवं दुस्साहसपूर्ण निर्णय करता है।

आत्म-बल कर प्रधान लाभ जीवन को सर्वोत्तम सदुपयोग के लिए प्रस्तुत करना है। अपने आपकी समीक्षा कर सकना, अपनी गतिविधियों को निकृष्टता की कीचड़ में से निकाल कर उत्कृष्टता के सिंहासन पर प्रतिष्ठित कर सकना मानव-जीवन का सबसे बड़ा पुरुषार्थ और मानवी चेतना की सबसे बड़ी सफल साधना है। जीवन-क्रम देखने में सामान्य भले ही रहे, अन्तरंग की उत्कृष्टता को जो समुन्नत कर सके वस्तुतः वही महापुरुष है। पुरुष का महापुरुष के रूप में, नर का नारायण के रूप में, क्षुद्र का महान् के रूप में परिणित हो जाना यही जीवन के चरम लक्ष्य की प्राप्ति है।

यहाँ मनोबल और आत्म-बल का अन्तर हमें समझ लेना चाहिए। मनोबल, इच्छा-शक्ति दृढ़ता, साहस और धैर्य का नाम है। इन गुणों का अपना महत्त्व है। साँसारिक सफलतायें इन्हीं गुणों के आधार पर मिलती है। मनस्वी लोग कठिनाइयों से डरते नहीं वरन् दूने उत्साह से कष्ट सहते हुए संघर्ष करते हुए आगे बढ़ते हैं। जबकि दूसरे लोग पग-पग पर निराशा आशा के हर्ष-लोक के झूले में झूलते रहते है, तब मनोबल सम्पन्न व्यक्ति अविचल भाव से निर्धारित दिशा में तत्परता पूर्वक गतिशील रहते हैं। साहस के आधार पर बड़े-बड़े कठिन कार्य पूरे होते हैं।

परिश्रमी, उद्योगी पुरुषार्थी लगने वाली सफलतायें प्राप्त कर लेते हैं। उत्साह और स्फूर्ति का चुम्बकीय आकर्षण अनेक दिशाओं से सुविधा साधन तथा सहयोग खींचकर सामने खड़े कर देते हैं। संसार में छोटे-छोटे मनुष्यों ने अभावों और असुविधाओं को चीरते हुए प्रगति की है, उसमें उनके साहस, श्रम, धैर्य और मनोबल का ही श्रेय है। भौतिक पतियों की कुञ्जी मनोबल ही तो है।

मनोबल का अपना महत्त्व है, पर है इसी सीमा तक कि किन्हीं कार्यों को सिद्ध करने में प्रयुक्त हो सके। आत्म-बल इससे ऊँची शक्ति है, उसमें साहस और बल तो होता है पर ऊँचे स्तर का। आदर्शों और सिद्धान्तों पर अड़े रहने, किसी भी प्रलोभन और कष्ट के दबाव में कुमार्ग पर पग न बढ़ाने, अपने आत्म गौरव के अनुरूप सोचने और करने दूरवर्ती भविष्य के निर्माण के लिये आज की असुविधाओं को धैर्य और प्रसन्नचित्त से सह कसने की दृढ़ता का नाम आत्म-बल है। जो वासना और तृष्णा को-स्वार्थ और सुविधा को ठोकर मारकर अपने लिये नहीं, लोक-मंगल के लिए सदाचार से भरा, प्रेम और आत्मीयता से भरा जीवन जी सकता है, उस महामानव को ही आत्म-बल सम्पन्न कहा जाएगा

आत्म-बल आत्मा की उच्च स्थिति का प्रकाश है। उसके आधार पर किसी की आन्तरिक महानता नापी जा सकती है। जो आत्मिक दृष्टि से जितना महान् है। उसे इस संसार का उतना ही बड़ा सम्पन्न और विभूतिवान् मानना चाहिए। ऋषि और मनीषियों के पास यही सम्पदा होती है और वे इसी विभूति के बल पर आत्म-कल्याण का लक्ष्य प्राप्त करते हुए चन्दन वृक्ष की तरह अपने समीपवर्ती लोगों को सुरभित-लाभान्वित करते रहते हैं।

मनुष्य शरीर में ईश्वर का अंश उसके आत्म-बल के आधार पर आँका और नापा जा सकता है। जिसमें जितना आत्म-बल हो, समझना चाहिए कि उसके व्यक्तिगत में उतनी ही मात्रा में ईश्वर का निवास है। जहाँ ईश्वर है, वहाँ ऐश्वर्य की क्या कमी। दूसरे उसे गरीब एवं अभावग्रस्त समझते हों तो समझे, पर अपनी विभूतियों का मूल्य समझते हुए वह स्वामी रामतीर्थ की तरह अपने को राम-बादशाह ही समझता है। समझता ही नहीं - उसी स्तर की प्रसन्नता एवं संतुष्टि भी अनुभव करता है।

जिनके प्रकाश से जन समाज को श्रेय पथ पर चलने का मार्गदर्शन मिलता है, जो अपने अनुकरण की प्रेरणा देकर असंख्यों को उठाते, उबारते, बढ़ाते और पार करते हैं। वे आत्म-बल सम्पन्न महामानव ही होते है। चरित्र के धनी, करुणा दया, परिपूर्ण हृदय उदारता और आत्मीयता से ओत-प्रोत व्यक्तित्व आत्म-बल के ही प्रतीक हैं। ऐसे महाभाग देवदूतों की तरह जीवन मुक्त की तरह जीते हैं। संसार उनकी उपस्थिति से सुगन्धित, सुरभित, समुन्नत और व्यवस्थित होता है। वे अपनी सामर्थ्य से दिशायें बदलने और हवायें पलटने में समर्थ होते हैं। उन्हें धरती का देवता ही कहा जायेगा, भले ही साधारण गृहस्थ व्यवसायी के रूप में जीवन यापन करते हों अथवा लोकसेवी परमार्थी के प्रयोजनों में संलग्न हों। उनका आशीर्वाद जिन्हें मिल गया वह कृतकृत्य हो जाता है।

आत्म-बल वह क्षमता है, जिसका जितना अंश मनुष्य के पास होगा, उतना ही वह अपने विवेक को सजग कर सकने में समर्थ होगा। विवेक ही वह सत्ता है जो धन, बुद्धि, स्वास्थ्य आदि की भौतिक शक्तियों को नियंत्रण में रखकर उन्हें सन्मार्गगामी बनाती है। सदुद्देश्य और सत्प्रयोजनों में प्रवृत्त करती है। अध्यात्म स्तर के यह प्रयोग ही हमारी भौतिक उपलब्धियों को सार्थक बनाते हैं।

आत्म-बल वह क्षमता है, जिसका जितना अंश मनुष्य के पास होगा, उतना ही वह अपने विवेक को सजग कर सकने में समर्थ होगा। विवेक ही वह सत्ता है जो धन, बुद्धि, स्वास्थ्य आदि की भौतिक शक्तियों को नियंत्रण में रखकर उन्हें सन्मार्गगामी बनाती है। सदुद्देश्य और सत्प्रयोजनों में प्रवृत्त करती है। अध्यात्म स्तर के यह प्रयोग ही हमारी भौतिक उपलब्धियों को सार्थक बनाते हैं।

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