Magazine - Year 1995 - Version 2
Media: TEXT
Language: HINDI
Language: HINDI
गुणसूत्रों में परिष्कार से संस्कार संवर्धन तक
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
वंशानुक्रम विज्ञान में अब तक जो शोधें हुई हैं, उनके अनुसार सन्तान के व्यक्तित्व का ढाँचा बनाने में जो जीन्स काम करते हैं, वे न जाने कितनी पीढ़ियों से चले आते हैं। मातृकुल और पितृकुल के सूक्ष्म उत्तराधिकारियों से वे बनते हैं। सम्मिश्रण की प्रक्रिया द्वारा वे परम्परागत स्थिरता भी बनाये नहीं रहते, वरन् विचित्र प्रकार से परिवर्तित होकर कुछ-से-कुछ बन जाते हैं। यदि पीढ़ियों को दोषमुक्त, प्रखर एवं सुसंस्कृत बनाना है, तो इस जीन प्रक्रिया को प्रभावित तथा परिवर्तित करना होगा, यह अति कठिन कार्य है। उतनी गहराई तक पहुँच सकने वाला कोई उपाय-उपचार अभी तक हाथ नहीं लगा है, जो इन सूक्ष्म इकाइयों के ढाँचे में सुधार या परिवर्तन प्रस्तुत कर सके।
सों यह कार्य अति कठिन है, फिर भी यह आवश्यक है कि जीन्स जैसी व्यक्तित्व निर्माण की कुँजी को हस्तगत किया जाय, अन्यथा परिस्थिति, वातावरण, आहार-विहार शिक्षा आदि परिष्कार के समस्त साधन जुटाने पर भी व्यक्तियों का निर्माण ‘विधि विधान’ स्तर का ही बना रहेगा। इस संदर्भ में आशा की किरण अध्यात्म उपचार में ही खोजी जा सकती है। साधना प्रयत्नों से शरीर की अन्तः प्रक्रिया में परिवर्तन लाया जा सकता है। उससे जीन्स की स्थित बदलने और पीढ़ियों के उज्ज्वल भविष्य की आशा की जाती है। इतना ही नहीं, पैतृक प्रभाव के कारण वयस्क व्यक्ति का जो ढाँचा बन गया है, उसमें भी सुधार-परिष्कार संभव हो सकता है। शारीरिक कायाकल्प-मानसिक ब्रेनवाशिंग की चर्चा होती रहती है। व्यक्तियों के परिवर्तन में साधनात्मक प्रयोग का परिणाम और भी अधिक उत्साहवर्धक हो सकता है।
इस सम्बन्ध में रवीन्द्रनाथ टैगोर अपनी पुस्तक ‘साधना’ में लिखते हैं कि भारत ने अब तक जितने ऋषि पैदा किये हैं, उतना कदाचित् किसी अन्य ने नहीं। इसका कारण एक ही रहा है कि यहाँ साधना प्रधान आत्मिकी को अधिक महत्त्व मिला है, जबकि पश्चिमी दुनिया भौतिकी के मकड़ी-जाले में उलझ कर रह गई। इसलिए उसने मनीषी तो उत्पन्न किये, पर व्यक्तित्व सम्पन्न ऋषियों का उत्पादन नहीं कर सकी। भौतिक चिन्तन प्रधान है, तो आत्मिकी चरित्र प्रधान। अतएव पदार्थ जगत की साधना करने वालों ने मस्तिष्क को विकसित करके चिन्तन व पैनापन तो प्राप्त कर लिया पर इसके आगे समग्र व्यक्तित्व अविकसित स्थिति में ही पड़ा रहा। आत्मजगत के अन्वेषकों का लक्ष्य चूँकि संस्कार कोशों का परिवर्तन, परिवर्धन और जागरण होता है, इसलिए उनकी यात्रा उस मूल इकाई से आरम्भ होती है, जहाँ पर समग्र व्यक्तित्व दबा पड़ा होता है। साधना द्वारा इसी आवरण को हटाना पड़ता है।
अब भौतिक विज्ञानी भी भौतिक उपचारों द्वारा इस स्थिति को प्राप्त करने को कोशिश करने लगे हैं। आनुवांशिकी इसी विधा का नाम है। उसकी खोजों से यह स्पष्ट हो गया है कि जीन्स में मात्र भोजन की पौष्टिकता का तो प्रभाव नगण्य ही होता है, शारीरिक सुदृढ़ता, स्फूर्ति, अभ्यास, कर्म-कौशल व्यवहार, विकास चरित्र का स्तर, मस्तिष्कीय क्षमताओं के विकास, आदि सम्पूर्ण व्यक्तित्व का सारभूत अंश उनमें विद्यमान् रहता है। शरीर की विकृतियों के भी वे कारण होते हैं, पर उससे अनेक गुना महत्त्वपूर्ण तो मनःस्थिति, बौद्धिक क्षमताएँ और चारित्रिक प्रवृत्तियाँ होती हैं। आलस्य और प्रमाद के कारण व्यक्तित्व की क्षमताएँ, प्रखरता बिखरती नष्ट होती रहीं तो शारीरिक सुघड़ता में तो दोष आते ही हैं। एवं व्यक्तित्व का मूलभूत स्तर घटिया होता जाता है, जिससे स्वयं का जीवन भी देवोपम विभूतियों से वंचित रह जाता है, और अपनी सन्तान पर भी उसका विषाक्त प्रभाव छोड़ने का अपराधी बनना पड़ता है।
आनुवांशिकी शोधें इतना भर विश्वास दिलाती हैं कि उपयुक्त रक्त मिश्रण से नई पीढ़ी का विकास हो सकता है। आरोपण-प्रत्यारोपण की संभावना भी स्वीकार की गयी है। वर्तमान स्थिति को बदलने के लिए नहीं, भविष्य में सुधार होने के सम्बन्ध में ही यह आश्वासन लागू होता है। वैज्ञानिक कहते हैं कि जीन सामान्यतया निष्क्रिय स्थिति में पड़े रहते हैं। उनकी सक्रियता नर-नारी का संगम होने के उपरान्त उभरती है। ‘जीन’ का कार्य युग्म रूप में आरंभ होता है, जिनका एक सदस्य पिता से आता है और एक माता से। यह जोड़ा मिलकर नई संरचना की विधि-व्यवस्था में जुटता है। यदि दोनों पक्ष एक प्रकृति के हुए, तो उनका सृजन ठीक उसी रूप में होगा, किन्तु यदि भिन्नता रही, तो दोनों के सम्मिश्रण का जो परिणाम होगा, वह सामने आयेगा। जो पक्ष प्रबल (डाँमिनेन्ट) होगा, वह दुर्बल पक्ष (डिप्रेसिव) की विशेषताओं को दबाकर अपना वर्चस्व प्रकट करेगा। फिर भी दुर्बल पक्ष की कुछ विशेषताएँ तो उस नये सम्मिश्रित सृजन में दृष्टिगोचर होती रहेंगी एकरूपता मिलते चलने पर आकार भार बढ़ेगा पानी में पानी मिलाते चलने पर रहेगा पानी ही, उसका परिणाम भार बढ़ेगा, किन्तु दो भिन्नताएँ मिलकर आकार ही नहीं, स्थिति और प्रकृति का परिवर्तन भी प्रस्तुत करेगी। पीला और नीला रंग मिला देने पर वे दोनों ही अपना मूल स्वरूप खो बैठेंगे और तीसरा नया हरा रंग बन जायेगा। सोडियम और पानी की संगति से सर्वथा भिन्न तत्त्व आग पैदा हो जाती है। जीनों की परम्परा में पायी जाने वाली विशेषताएँ तथ्य रूप में तो बनी रहेगी, पर उसका प्रत्यक्ष रूप परिवर्तित दृष्टिगोचर होगा। घोड़ी और गधे के संयोग से नई किस्म के खच्चर पैदा होते हैं, ऐसे ही कलमी पौधों के फल-फूलों में नये किस्म की विशेषताएँ उभरती हैं। अभी हाल ही में एक अमेरिका उद्यानशास्त्री ने सेब के एक पेड़ पर इक्कीस प्रकार के सेब पैदा करने में सफलता प्राप्त की है। वे फलते तो साथ-साथ हैं पर सभी के स्वाद और आकार एक-दूसरे से एकदम भिन्न हैं।
आनुवांशिकी के आधार पर अब तक इतना ही संभव हो सका है कि उपयुक्त जोड़े मिलाकर भावी पीढ़ी के विकास की बात सोची जाय। उस क्षेत्र में भी यह प्रश्न बना हुआ है कि निर्धारित जोड़े में जो विकृतियाँ चली आ रही होंगी, उनका निवारण-निष्कासन कैसे होगा? अच्छाई-अच्छाई से मिलकर अच्छा परिणाम उत्पन्न कर सकती है, तो बुराई-बुराई से मिलकर अधिक बुराई क्यों उत्पन्न न करेगी? यदि अच्छाई-बुराई के बीच संघर्ष आरम्भ हो गया तो नई मध्यवर्ती स्थिति बन सकती है, पर प्रगति का अभीष्ट परिणाम किस प्रकार उपलब्ध हो सकेगा?
आनुवांशिकता पर आधारित शोधें तथ्यों पर पड़े पर्दे का तो उद्घाटन करती हैं, पर अभीष्ट सुधार के लिए उपयुक्त एवं सुनिश्चित मार्गदर्शन करना उनके लिए भी संभव नहीं हो सका है। वनस्पति में प्रत्यारोपण क्रिया के उत्साहवर्धक परिणाम सामने आये हैं। कृत्रिम गर्भाधान तथा दूसरे प्रत्यारोपणों का परिणाम भी किसी कदर अच्छा निकला है। मनुष्य की शरीर-रचना में भी थोड़े हेर-फेर हुए हैं। गोरे और काले पति-पत्नी के संयोग से तीसरी आकृति बनी है। एंलो इण्डियन रेस अपने ढंग की अलग ही है। इतने पर भी मूल समस्या जहाँ की तहाँ है। जीन के साथ जुड़ी हुई पैतृक परम्परा में जो रोग अथवा दुःस्वभाव जुड़े रहेंगे, उनको हटाना या मिटाना कैसे बन पड़ेगा? यह तो भावी पीढ़ी के परिवर्तन में प्रस्तुत कठिनाई हुई। प्रधान बात यह है कि वर्तमान पीढ़ी को अवांछनीय उत्तराधिकार से किस प्रकार छुटकारा दिलाया जाय? उसे असहाय स्थिति में पड़े रहने की विवशता से त्राण पाने का अवसर कैसे मिले? इस क्षेत्र में परिवर्तन हो सकने की बात बहुत ही कठिन मालूम पड़ती है।
मनुष्य के एक जीन में करोड़ों इकाइयाँ होती हैं। पर इन विषाणुओं, वायरसों की क्या प्रतिक्रिया होती है, प्रस्तुत शोधें उसी उपक्रम के इर्द-गिर्द घूम रही हैं। डा.. हरगोविंद खुराना ने जिस एक रसिया कोलाई के कृत्रिम जीन-संश्लेषण में सफलता प्राप्त करके नोबुल पुरस्कार जीता था, वह मात्र 199 इकाइयों वाला था। इन सभी इकाइयों को सही क्रम से जोड़ने में 9 वर्ष लगे। यह तो एक प्रयोग भर हुआ। मनुष्य के एक जीन में पायी जाने वाली करोड़ों इकाइयों को सही क्रम से जोड़ना अतीव दुष्कर है। यहाँ एक बात और भी ध्यान रखने की है कि प्रत्येक कोशिका में ऐसे कई लाख जीन्स होते हैं, जो मानव शरीर के भिन्न-भिन्न अवयवों के निर्माण एवं संचालन का कार्य सम्पन्न करते हैं।
शरीर के विभिन्न अंग-प्रत्यंगों के जीन्स द्वारा निर्माण की प्रक्रिया को अनुशासित रखने का दायित्व एन्ज़ाइम का है। ये ‘एक्जाइम न्यूक्लिक अम्लों के माध्यम से जीन से सम्बद्ध रहते हैं। चुम्बकत्व शक्ति के प्रयोगों उपचारों द्वारा इन एग्जाइमों को प्रभावित कर जींस के विकासक्रम पर प्रभाव डाला जा सकता है। अभी वैज्ञानिक इस दिशा में अध्ययन कर रहे हैं। भारत में अतीतकाल में सुसन्तति के लिए तप साधना का विधान था, जो कि मनुष्य में अन्तर्निहित चुम्बकत्व शक्ति का विकास-अभिवर्धन करता था। कृष्ण और रुक्मिणी ने बद्रीनाथ में बारह वर्ष तक तप कर अपनी प्राण चुम्बकीय शक्ति को अत्यधिक उत्कृष्ट बना लिया था, तभी उन्हें प्रद्युम्न के रूप में मनोवाँछित संतान प्राप्त हो सकी थी।
वैज्ञानिकों का मत है कि जीन्स की विशेषताएँ विकिरणों द्वारा प्रभावित की जा सकती हैं। शरीर के भीतर रश्मियों के केन्द्रीकरण द्वारा ऐसी चिकित्सा व्यवस्था की जा सकती है उनका विश्वास है कि विद्युतीय प्रक्रियाओं द्वारा जीन्स की रासायनिक और विद्युतीय दोनों विशेषताओं में परिमार्जन-संशोधन किये जा सकते हैं। ध्वनियों तथा प्रतिध्वनियों के क्षेत्र में भी खोजे चल रही हैं। ध्वनि चिकित्सा द्वारा इसके स्थूल प्रभावों को तो कब का जाना जा चुका है। अब यह जानने की कोशिश हो रही है कि गहन गहराई में निवास करने वाले सूक्ष्म संस्कार कोशों को प्रभावित-संशोधित किया जा सकना संभव है क्या? उनका विश्वास है कि इस विधा द्वारा भी जीन्स में परिवर्तन की कोई समर्थ प्रक्रिया ढूँढ़ी जा सकती है।
भौतिक विज्ञान से यह संभव हो या न ही, पर अध्यात्म विज्ञान में यह साध्य है। भारतवर्ष में साधना द्वारा शरीरस्थः जैवीय विद्युत को प्रखर बना कर मंत्रों के माध्यम
से उत्पन्न प्रतिध्वनियों तथा यज्ञादि के विकिरण का उपयोग इस दिशा में सफलतापूर्वक किया जाता रहा है। इन्द्र को जीतने में समर्थ वृत्तासुर की उत्पत्ति तभी राजा दशरथ के यहाँ राम-भरत जैसी सुसन्तति को प्राप्ति ऐसे ही प्रयोगों द्वारा संभव हुई थी।
अध्यात्म विज्ञान वहाँ से आरम्भ होता है, जहाँ भौतिक विज्ञान की सीमाएँ प्रायः समाप्त हो जाती हैं। स्थूल की अगली सीढ़ी सूक्ष्म है। अंतःस्रावी ग्रन्थियों से निकलने वाले विचित्र हारमोन स्राव की तरह आनुवांशिकी क्षेत्र के रहस्यमय घटक जीन भी उतने ही विलक्षण हैं। इन्हें प्रभावित करने में भौतिकी सफल न हो सके, तो इसमें निराश होने की कोई बात नहीं है। सुनियोजित अध्यात्म विज्ञान के पीछे वे संभावनाएँ झाँकती हैं, जिनसे न केवल हारमोन और जीन, वरन् ऐसे अनेकों रहस्यमय केन्द्र प्रभावित परिष्कृत किये जा सकते
हैं, जो सामान्य मनुष्य जीवन को असामान्य देवोपम बना सकने में समर्थ हैं। इसके लिए कोई बहुत अधिक कष्टसाध्य तपस्या करने की आवश्यकता नहीं। दैनिक जीवन में आध्यात्मिक मूल्यों की सुदृढ़ स्थापना हो जाय, तो इतने से भी बात बन सकती है और वह प्रयोजन आसानी से पूरा हो सकता है, जिसे आज की भौतिकी उपलब्ध करने में लगभग असफल रही है।