Magazine - Year 1995 - Version 2
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Language: HINDI
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जीवन-यात्रा कैसे सुव्यवस्थित बने?
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यह संसार गुण दोषमय बनाया गया है। इसमें जहाँ अच्छे और भले लोगों का निवास है वहाँ बुरे और गन्दे लोगों का निवास है वहाँ बुरे और गन्दे लोग भी रहते हैं। जहाँ सुख-शान्ति और स्वास्थ्य के साधन हैं वहाँ रोग दोष और कलह क्लेश की परिस्थितियाँ भी पाई जाती हैं। इस लिए संसार में पग-पग पर सावधान रहकर चलने का निर्देश दिया गया है। जो मनुष्य इस गुण दोषमय संसार में सावधान रहकर बुद्धिमत्तापूर्वक चला करते हैं वे संसार के दोष दुर्गुणों से प्रभावित नहीं होते और शान्ति तथा सुखकर जीवन के अधिकारी भी बनते हैं। दैनन्दिन जीवन में बुद्धिमत्तापूर्वक चलने, सावधानी बरतने का यही अर्थ है कि हम दोष दुर्गुणों तथा ऐसी प्रवृत्तियों से सदा बचते रहें जो जीवन विकास में बाधक बनकर पतन अथवा निरर्थकता की ओर उन्मुख करने वाली हों।
हम सब जिस समाज में रहते हैं उसमें भिन्न-भिन्न प्रवृत्तियों, स्वभावों, रुचियों, आदतों, उद्देश्यों तथा मानसिक स्तर के लोग रहते हैं। वे अपनी-अपनी बुद्धि तथा मानसिक स्तर के अनुसार संसार के गुण-दोष से प्रभावित भी रहते हैं और उसी प्रकार अच्छे बुरे होकर समाज में व्यवहार किया करते हैं।
समाज के नाते हमें हर प्रकार के मनुष्यों के सम्पर्क एवं संसर्ग में आने के लिए विवश होना पड़ता है। यदि कोई यह चाहे कि उसके जीवन में सदा सर्वदा गुणी और सत्पुरुष ही आये और बुरे तथा दुष्ट व्यक्तियों का समागम न हो तो यह संभव नहीं। समाज में दोनों प्रकार के व्यक्ति रहते हैं इसलिए बुरे लोगों का सम्पर्क में आना अस्वाभाविक नहीं है। वे आयेंगे, परिस्थितियाँ उन्हें ला सकती हैं, आवश्यकता विवश कर सकती है। ऐसी स्थिति में हमारा यही कर्तव्य रहता है कि हम सम्पर्क में आये व्यक्ति के दोषों से बचे रहें। अपने में इतनी दृढ़ता बनाये रहें कि उनके दोष हमें प्रभावित न कर सकें। बुराई के कारण, परिस्थिति वश आये किसी बुरे व्यक्ति तक के दुर्व्यवहार करना अथवा उससे तिरस्कार अथवा बहिष्कारपूर्ण ढंग से भागना या घृणा प्रकट करना अपने आप में स्वयं ही एक दोषपूर्ण क्रिया अथवा प्रतिक्रिया है। ऐसा करने से यदि आवश्यकता अथवा उपयोगिता की होने वाली हानि को छोड़ भी दिया जाय तब भी बुरे आदमी से बुराई और द्वेष का डर रहता है। इसलिए कहा गया है कि “बुराई से घृणा करो, बुरे आदमी से नहीं।”
यदि हमें सद्गुणों में विश्वास है, हमने अपने अन्दर गुणों का स्थान कर ली है और अपनी मनोभूमि का विकास इस प्रकार कर लिया है कि उसमें बुराइयों की छाप पड़े ही नहीं, तो फिर किसी बुरे आदमी के सम्पर्क में आ जाने से किसी भी प्रकार का भय नहीं रहता। इसके अतिरिक्त यदि किसी ने अपने गुणों को तदनुकूल कर्मों में ढालकर उन्हें जीवन में मूर्तिमान् कर लिया है तब तो किसी के दुर्गुणों से प्रभावित हो सकने का प्रश्न ही नहीं उठता। साथ ही मन, वचन और कर्म से परिपालित गुण अपने तेज से अधोगामी पुरुष को भी सच्ची राह दिखा सकेंगे जिससे उसका कम उपकार नहीं होगा। दुर्गुणों से बचने और उन्हें संसार से दूर करने के लिए हर मनुष्य का कर्तव्य है कि वह अपने में हर संभव उपाय से सद्गुणों का परिपाक करे।
यह बात अवश्य श्रेयस्कर है कि मनुष्य अपनी मनोभूमि को गुण-ग्राहिका तथा अवगुण अग्राहिका बनाये और अपनी प्रवृत्तियों को इस प्रकार उच्चस्तरीय बनाये रखे कि संसार के दुर्गुण अथवा दुर्व्यसन उन्हें छू ही न सकें। ऐसे उदात्त मन और उच्च प्रवृत्ति वाले व्यक्ति को अवगुणों से कोई डर नहीं रहता तथापि अपने को गुण सिद्ध मानकर चलने का अहंकार भी एक अवगुण है। मनुष्य कितना ही उच्च गुणों तथा अडिग चरित्र वाला क्यों न हो और क्यों न उसे अपने और अपनी गति पर विश्वास हो तब भी उसे ऐसी स्थितियों परिस्थितियों तथा व्यक्तियों से हर संभव उपाय से बचे रहने का प्रयत्न करना ही चाहिये जो दोष दुर्गुणों से दूषित एवं कलुषित हों। अनावश्यक रूप से अपनी दृढ़ता को परीक्षा में डालना बुद्धिमानी नहीं कही जा सकती।
किन व्यक्तियों से दूर रहना चाहिये, इसकी मोटी-सी पहचान यही है कि जिन व्यक्तियों के संसार से जीवन-विकास के लिये किसी क्रिया की प्रेरणा, प्रोत्साहन अथवा प्रकाश न मिलता ही उनका सम्पर्क निरर्थक समय नष्ट करने के सिवाय किसी प्रकार की उपयोगिता का लाभ नहीं दे सकता। ऐसे निरुपयोगी व्यक्तियों का साथ करना उचित नहीं और ऐसे व्यक्तियों का सम्पर्क तो शतप्रतिशत अनुचित एवं अकल्याणकारी है, जिनका साथ करने से किसी प्रकार को कुरुचि, कुत्सा अथवा कुपरिणाम की संभावना हो। दुर्गुणी व्यक्तियों का सम्पर्क तो जीवन के लिये साक्षात् विष ही है, उससे तो अपने को इस प्रकार बचाये रहना चाहिए जैसे माँ बच्चे को सतर्कतापूर्वक आग से बचाये रहती है किस का साथ करना और किसका न करना चाहिये यह जान लेना कुछ कठिन नहीं। यदि मन उचित संसार के महत्त्व को सावधानीपूर्वक रोपित करने में विश्वास करे तो कोई कारण नहीं कि वह वाँछनीय एवं अवांछनीय व्यक्ति को न परख सके।