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Magazine - Year 1995 - Version 2

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अवरोध-विरोध व्यक्ति को और प्रखर बनाते हैं

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First 20 22 Last
परमात्मा का यह विश्व-उद्यान विविधताओं से भरा है। यहाँ एक ओर अच्छाइयों का सिलसिला है, वहीं बुराइयाँ भी कम नहीं हैं। देवी सत्प्रवृत्तियों की ही तरह दुष्टता एवं दुर्बुद्धि का प्रसार है। इसी को स्पष्ट करते हुये गोस्वामी तुलसीदास अपनी लोकप्रिय कृति मानस में जड़-चेतन गुण-दोषमय-कह कर निरूपित करते है। प्रायः सभी के मन में यह प्रश्नावली उठती है कि परमात्म सत्ता ने अपनी इस कलाकृति में विसंगतियों को क्यों स्थान दिया? श्रेष्ठता के साथ दुष्टता का क्या प्रयोजन? नीति बनी, तो अनीति की क्या आवश्यकता थी? जब देव थे, तो असुरों की क्या जरूरत पड़ी? हमारा इस तरह सोचना इसलिये बन पड़ता, जो परमेश्वर ने किया हैं। अनुदान कितने ही मूल्यवान क्यों न हो, उनके महत्त्व का आकलन करना, उपयोग में सतर्कता बरतना, तब तक संभव नहीं बन पड़ता, जब तक अभाव एवं प्रतिकूलता की स्थिति सामने न हो। सम्पन्नता बनी रहने पर कठिनाई की कल्पना ही न होगी। साथ ही तुलना का कोई मापदण्ड न रहने पर उपलब्धियों का कोई मूल्य न समझा जायेगा। इस प्रकार उनमें किसी भी प्रकार सुख न रह सकेगा।

जिन्हें प्रचुर सुविधायें प्राप्त है, उन्हें वे भारभूत प्रतीत होती हैं एवं वैसा कोई रस भी नहीं आता, जैसा कि अभावग्रस्त स्थिति वालों को उसी को पाने में स्वर्ग-सौभाग्य जैसा सुख अनुभव होता है। भोजन की स्वादिष्टता का जितना मूल्य है, उससे अधिक, कड़ी भूख लगने का है। अभाव की कठिनाई से ही भाव के मूल्यांकन करने का अवसर मिलता है। इसी में संतोष-सुख अनुभूति होती है। इसी की आकुल आकांक्षा से कठोर श्रम का साहस जागता है। रुग्णता और दुर्बलता में शरीर की जो दुर्गति होती है, उसी के भय के कारण लोग स्वास्थ्य रक्षा में प्रवृत्त होते हैं। यदि स्वास्थ्य की क्षमताएँ एवं सफलता निश्चित रहे, तो आरोग्य साधन के लिये जो किया और सोचा जाता है, उसकी किसी को आवश्यकता न पड़ेगी और न आरोग्य के महत्त्व का आकलन हो सकेगा, फिर इसके लिये प्रयत्न करना कौन पसन्द करेगा? ऐसी स्थिति में मनुष्य जीवन में सुदृढ़ स्वास्थ्य का जो गौरव व आनन्द प्राप्त होता है, वह समाप्त हो जायेगा।

अनुकूलता एवं प्रतिकूलता दोनों के अपने-अपने लाभ हैं। सुविधा एवं सफलता की प्राप्ति मनुष्य को आत्म गौरव का अहसास दिलाती है। आत्माभिमान, आत्मावलम्बन के विश्वास की झाँकी प्रदर्शित करता है। इसके बाद ही बड़े-बड़े काम करने बड़े-बड़े लाभ पाने की स्थिति बनती हैं। आत्मबल को ही सामान्य भाषा में मनोबल कहते हैं। धनी मनस्वी व्यक्ति साधनहीन होते हुये भी सहयोग एवं समर्थन न मिलने पर भी प्रायः ऐसे काम कर गुजरते है, जिन्हें देख कर दाँतों तले अंगुली दबानी पड़ती है। स्पष्ट है कि यह मनोबल कहीं अन्य लोक से नहीं टपकता, निरन्तर का संघर्ष ही इसका अभिवर्धन करने वाला होता है। स्वाभाविक है यह संघर्ष प्रतिकूलताओं से होगा। इस तरह यह स्थिति शरीर तंत्र व मनः संस्थान के हर कल-पुर्जे को क्रिया-कुशल बनाकर इस स्तर में पहुँचा देती है कि उसे अतिरिक्त समझा जा सके।

असुविधाओं का महत्त्व बताते हुये प्राणि वेत्ताओं मानना है कि जीवधारियों के शरीरों में जो परिवर्तन हुये हैं। उसका कारण असुविधाओं से संघर्ष रहा है। इसे चेतना की अद्भुत शक्ति का प्रत्यक्ष चमत्कार कहा जा सकता है। शाकाहारी प्राणियों ने आत्मरक्षा के लिये माँसाहारी प्राणियों ने शिकार पर आक्रमण करने के लिये आने शरीर में परिवर्तन किये हैं। सृष्टि के प्रारम्भ में प्राणियों के शरीर वैसे नहीं थे, जैसे आज दिखाई पड़ते है। जीवशास्त्रियों ने अपने शोध निष्कर्षों में इसका कारण स्पष्ट करते हुये कहा है कि उनकी अन्तः चेतना में प्रस्तुत कठिनाइयों के समाधान के लिये अकुलाहट एवं अनुकूलन की अभिलाषा उत्पन्न हुई, जिससे शरीर व मस्तिष्क ने तदनुरूप ढलना आरम्भ किया। अन्य प्राणियों की तरह मानवीय प्रगति की यही इतिहास है। वर्तमान में दिखाई पड़ने वाली प्रखरता प्रतिकूलताओं से होने वाली टकराहट के अतिरिक्त और कुछ नहीं हैं।

यदि सभी कुछ आसानी से होता चला जाय, तो मनोरथ भले ही पूर्ण होते चले जाएँ, पर प्रतिभा का विकास मार्ग अवरुद्ध होता चला जायेगा। अमीरों की संतानें आमतौर से आलसी, मंदबुद्धि एवं व्यसनी होती हैं, जबकि कठिनाइयों से जूझने वाले परिवारों के बालक आश्चर्यजनक प्रगति करते देखे जाते हैं। इस तरह की घटनाओं में प्रतिकूलता से टकराने पर उत्पन्न होने वाली शक्ति अपनी भूमिका निभाती देखी जा सकती है।

आम धारणा है कि बंगाली डरपोक प्रकृति के होते है, जब कि पंजाबी निडर और साहसी बुद्धि के सम्बन्ध में इसके विपरीत मान्यता है। बंगालियों को तीक्ष्ण मेधा सम्पन्न माना जाता है, जबकि पंजाबियों के बारे में कहा जाता है कि साहस की दृष्टि से तुलनात्मक दृष्टि से वे बंगालियों से उन्नीस पड़ते है।

यहाँ चर्चा निन्दा-प्रशंसा की नहीं हो रही है। कहा यह जा रहा है कि उपयोग और अकर्मण्यता के अपने-अपने परिणाम-प्रतिफल है। आलसी व्यक्ति शरीर से दुर्बल और मन से डरपोक इसलिये बन जाते हैं कि उनने जीवन में श्रम और पुरुषार्थ का महत्त्व नहीं समझा। जिसने श्रम से जी चुराया, वह साहसी और मनस्वी कैसे हो सकता है? इसके विपरीत जहाँ बौद्धिक वैमनस्य प्राप्त करने के लिए बुद्धि को बार-बार सान पर चढ़ाया गया हो, वहाँ वह मोथरी रह जाय, यह कैसे हो सकता है?

प्राणिशास्त्री भी उपयोग और अनुप्रयोग के इस सिद्धान्त को अब स्वीकारने लगे हैं। सर्वविदित है कि पाश्चात्य विकासवादी मनुष्य को बन्द से विकसित बताते हैं। यदि सचमुच ही तथ्य यही है, तो बन्दर की लम्बी पूछ मनुष्य बनते-बनते कहाँ गायब हो गई? इस संदर्भ में विकासवादियों का तर्क है कि कायान्तरण के साथ-साथ पूँछ की उपयोगिता समाप्त होती गई, इसलिए वह धीरे-धीरे कर छोटी होते-होते मानव शरीर में प्रायः लुप्त हो गई और अब वह एक हड्डी के रूप में बची हुई है। वे कहते है कि बन्दर के शरीर में पूँछ की उपयोगिता थी, इसलिए वहाँ अब भी बनी हुई है। उनका मानना है कि उछलने-कूदने में पूँछ शरीर को संतुलित बनाये रखने में सहायता करती है, इसलिए वैसी काया में उपयोग के कारण उसका अस्तित्व बना रहता है। शरीरान्तर के साथ बन्दर की न सिर्फ आकृति बदली, वरन् प्रकृति में भी आमूलचूल परिवर्तन आ गया। यहाँ उसकी छलाँगने वाली प्रवृत्ति बाई पेडल लोकोमोषन (दो पैरों से सीधे होकर चलने) के रूप में बदल गई। इस स्थिति में गिरने की संभावना भी कम हो गई और संतुलन साधने की आवश्यकता भी, फलतः मानव शरीर में पूँछ का लोप हो गया। दूसरी ओर निरन्तर के दबाव, रगड़ और उपयोग की परिणति दूसरे ढंग से सामने आती है। -एनोटॉमी एण्ड डैस्टिन नामक ग्रंथ में स्टीफन कर्न लिखते हैं कि सन् 1900 के आसपास जर्मन महिलाओं में धात्विक कमरबन्द पहनने का भारी प्रचलन था। लम्बे समय तक कमर के चारों ओर उसे बाँधे रहने के कारण कमर अन्दर की ओर धँस जाती और नितम्ब पीछे की ओर कूबड़ की तरह निकल आते। इसी से उनकी बनावट ऐसी होती चली गयी।

दबाव, रगड़ और निरन्तर के प्रयोग का परिणाम सदा ऐसा ही होता है। कुएँ की जगत पर रस्सी के बार-बार के घर्षण से इतनी ऊष्मा पैदा होती है कि गहरा गढ्ढा हो जाता है। टकराहट से सर्वत्र ऐसी ही प्रगति भी इसका अपवाद नहीं। वहाँ इसके लिए तप-तितिक्षा की साधना करनी पड़ती है। इसमें कष्ट कठिनाइयों भरे जीवन को सहज स्वीकार किया जाता है। प्रायः सभी प्रकार की तपश्चर्याएँ शरीर को कष्ट देने वाली तथा मन को अखरने वाली होती है। उन्हें आमंत्रित करने का उद्देश्य प्रतिकूलताओं से टकराने पर उत्पन्न शक्ति से लाभ उठाने का होता है। जल प्रपातों की धारा से घूमने वाले पहिये जोड़ दिये जाते है। उतने भर से बिजली घर, पनचक्की, टरबाइन और अन्य क्रिया−कलाप गतिमान होने लगते हैं।

प्रखरता भौतिक या आत्मिक किसी भी क्षेत्र की हो, प्रतिकूलताओं के साथ टक्कर लेने से ही उत्पन्न होती है। यह प्रतिकूलता प्रकृति प्रदत्त हो या अपने आप उत्पन्न हुई हो, हर स्थिति में शूरवीर, साहसी, पराक्रमी, पुरुषार्थी बनने का अवसर मिलता है। यही व्यक्तित्व की समर्थता का मूलभूत उद्गम है। चैन से जिन्दगी गुजारने वालों के दिन तो आराम से गुजर जाते हैं, किन्तु उन्हें शारीरिक ओज एवं मानसिक तेज से वंचित रहना पड़ता है। स्वयं को प्राणवान बनाने के लिए ऐसा साहस चाहिए, तो व्यावहारिक जीवन में प्रतिकूलताओं से टकराते-टकराते स्वभाव एवं अभ्यास में घुल गया हो।

तथ्यों को विचारपूर्ण रीति से समझना चाहिए। गुणों के विकास के लिए अवगुणों की आवश्यकता है-यह समझकर अवगुणों को अन्तराल में स्थान देना औचित्यपूर्ण नहीं है, न ही गरीबी एवं दरिद्रता को भाग्य का खेल समझकर ओढ़ रखने से तपश्चर्या होती है। कष्ट में शक्ति नहीं है, वह तो टकराने से उत्पन्न होती है। जितनी तीव्रता से संघर्ष किया जायेगा, उतनी ही शक्ति उत्पादित होगी। यदि दुर्गति तथा दुर्गुणों को सिर झुकाकर स्वीकार लिया गया, तो इसे मन्द स्तर की आत्महत्या ही समझना चाहिए। तपस्वियों द्वारा स्वीकारे गये कष्ट महान् उद्देश्य की पूर्ति के लिए होते है। उनकी तुलना उन अन्वेषकों से की जा सकती है, जो विष में भी औषधि खोज लेते है। हमारा चिन्तन यह होना चाहिए कि प्रकृति व्यवस्था में जो कठिनाइयाँ आ खड़ी हुई हैं, उनसे मल्ल युद्ध करके अपनी वरिष्ठता सिद्ध करने का लाभ कमाया जाय।

मानव की तेजस्विता उभारना ही सृष्टि निर्माता को अभीष्ट है। वह उसे साहसी पराक्रमी देखना चाहता है। योद्धा के जिए कोई प्रतिपक्ष तो चाहिए ही। अखाड़े में भारी वजन उठाने, मुद्ररों को घुमाने से पहलवानों की कलाई एवं छाती मजबूती होती है। इसमें प्रत्यक्षतः असुविधा एवं कठिनाई अवश्य है, किन्तु परोक्ष लाभ भी है।

नदी में जल-प्रवाह के साथ बहने वाले पत्थरों में से कितने ही शालिग्राम के रूप में पूजित और प्रतिष्ठित होते हैं। यह सौभाग्य किनारे पड़ी शिलाओं को कहाँ मिल पाता है। जो कष्ट-कठिनाइयों से जूझने की तुलना में उनसे किनारा कर लेना पसन्द करते हैं, वे भौतिक और आत्मिक दोनों ही क्षेत्रों में पिछड़ेपन का शिकार होते हैं। घर्षण भिड़ंत और बार-बार की आवृत्ति से टकराने वाले की शक्ति और मजबूती बढ़ती है, किन्तु इसके लिए कोई अवरोध-विरोध तो चाहिए ही।

स्रष्टा ने इसी तथ्य को ध्यान में रखकर विसंगतियों से भरे संसार की संरचना की। इसमें विद्यमान् प्रतिकूलता, पक्षपात, अनीति को देखकर परमसत्ता की अदूरदर्शिता नहीं समझनी चाहिए। इन्हें हमारे लिए प्रगति के महत्त्वपूर्ण साधना के रूप में सजा गया है। उन्हें उसी रूप में देखा समझा जाना चाहिए।

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