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Magazine - Year 1998 - Version 2

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बुद्धिवाद के इस युग में जानें, दाम्पत्य के सही व्यवहार को

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भावनाओं की क्रियात्मक अभिव्यक्ति और मधुर स्वप्नों को साकार करने के लिए दाम्पत्य जीवन में कुछ व्यावहारिक सत्यों को जानना अत्यधिक अनिवार्य है, ताकि गृहस्थ जीवन बिना किसी अवरोध के चल सके। पति-पत्नी में किसी को अपनी कौटुम्बिक श्री- सम्पन्नता, व्यक्तिगत सुन्दरता, योग्यता, प्रतिभा और किसी पक्ष को लेकर अभिमान नहीं करना चाहिये। पत्नी के माता-पिता अच्छे सम्पन्न हैं, बचपन में उसने उस सम्पन्नता को जीभरकर भोगा है, किन्तु उसके पति की कौटुम्बिक सम्पन्नता वैसी नहीं है, तो पत्नी को यह ध्यान रखना चाहिये कि वह अपनी बातों और व्यवहार में उसको प्रकट न करे। इससे पति का स्वाभिमान आहत होता है। जो पत्नियाँ अपने मायके की सम्पन्नता और ससुराल की विपन्नता को लेकर आलोचना, प्रशंसा करती हैं वे इस प्रकार की भूल करके अपने सुखी गृहस्थ जीवन में आग लगाती हैं। यही बात पति द्वारा भी हो सकती है। यही बात पति द्वारा भी हो सकती है। इसी प्रकार अपनी सुन्दरता, योग्यता, शिक्षा, प्रतिभा आदि का गर्व भी किसी पक्ष को नहीं करना चाहिये। यदि ऐसा करना हो तो उसमें दूसरे पक्ष को भी मिलाकर, व्यक्ति को नहीं दम्पत्ति की प्रशंसा करने से मनोमालिन्य उत्पन्न नहीं होता।

इसी प्रकार बाहर के व्यक्तियों के सामने पति या पत्नी से अनावश्यक सेवा लेना या उससे पत्नी की तरह नहीं नौकरानी की तरह व्यवहार करना, उसे भीतर ही भीतर कचोट जाता है। पति रहे हों स्वभाव के सरल व पत्नी के हर कार्य में सहयोग देने व अनुरोध को मानने वाले, पर अपनी सहेलियों और उनके मित्रों के सामने पत्नी यदि उन्हें ऐसे आदेश देती हो जैसे वे उन्हीं के वशवर्ती हैं, तो पत्नी के इस व्यवहार से वे स्वयं को अपमानित ही अनुभव करेंगे। यह ठीक है कि पति के हर अनुरोध को पत्नी अपना दायित्व समझकर पाल लेती या पति अपने पत्नी के हर अनुरोध को उसी प्रकार स्वीकारते हैं। इससे एक दूसरे को यह प्रतीति होती है- देखो! वे हमें कितना मानते हैं और अपनी इस पारस्परिक सहकारिता को वे अपने मित्रों, परिचितों पर प्रकट करके अपने मधुर दाम्पत्य की एक झलक उन्हें दिखाना चाहते हैं। यह चाहना स्वाभाविक है और बुरा भी नहीं है, पर उसके लिये जो ढंग अपनाया जाता है वह गलत होता है। इसको वार्तालाप द्वारा भी प्रकट किया जा सकता है। आदेश-अनुरोध का स्वर दूसरी तरह का हो सकता है, जिसमें अपनी गुरुता और दूसरे की लघुता की ध्वनि न निकले। पत्नी को “मधु, सुरेश के लिये चाय बनाओ,” कहने की अपेक्षा यह कहा जाए- “भाई चाय बनाना तो कोई मधु से सीखे। चीनी के साथ वह और भी कुछ मिलाती है, जिसका स्वाद किसी दूसरे केिथ की बनी चाय से नहीं मिलता। सुरेश के आने की क्षुशी में वैसी ही और बना दो, इसके साथ-साथ हम भी एक बार और तृप्त हो लेंगे”, तो बात कुछ और ही हो जायेगी।

दाम्पत्य जीवन में स्वावलंबन और सहयोग का समन्वय आवश्यक होता है। एक-दूसरे को सहयोग देना ही चाहिये, पर वह अति की सीमा न लाँघ जाये ओर न बिल्कुल ही असहयोग किया जाये कि दूसरा पक्ष स्वयं गृहस्थी की चक्की में अकेला पिसता हुआ अनुभव करे। संतुलित सहयोग से पारम्परिक प्रीति बढ़ती है, पर यदि घर के हर काम को अपना काम समझकर साथी के सहयोग की अपेक्षा किये बिना किया जाता रहे तो वह दूसरे की ‘उपयोगिता’ ‘आवश्यकता’ पर चोट करेगा। पति यदि घर के सारे काम अपने हाथ से करने लगे, तो पत्नी मन में यह सोचे बिना नहीं रह सकेगी कि इन्हें मेरी जरूरत ही क्या थी। अपने-अपने क्षेत्र का काम पति, पत्नी मुख्य रूप से संभालें, पर दूसरे के कामों में भी थोड़ा सहयोग देते रहें, तो इससे एक-दूसरे का ध्यान रखने की बात स्पष्ट होती है, जो प्रीति को प्रगाढ़ बनाती है। पति-पत्नी के काम में थोड़ा हाथ बंटा दे और पत्नी-पति के कामों में सहयोग दे, यह सहयोग आवश्यक ही नहीं, आकर्षक भी है। चाहे यह सहयोग किसी छोटे-से काम में ही मिला हो, एक दूसरे के मन को मुदित करता है।

पति-पत्नी का क्षेत्राधिकार सामान्य रूप से एक अलिखित विधान की तरह घर और बाहर बंट जाता है। भारतीय ही नहीं विश्व के सभी परिवारों सामान्यता में घर की मालिक पत्नी और बाहर का कर्ता पति होता है। अतः दोनों के बीच अपने आप हो जाने वाले इस समझौते का सीमातिक्रमण किसी की नहीं करना चाहिये। पत्नी के अधिकारक्षेत्र में पति सम्मति, सुझाव और सहयोग का अधिकारी है। यह उसका अधिकार ही नहीं दायित्व भी है। इसी प्रकार बाहर के मामलों में पत्नी के वैसे ही अधिकार और कर्तव्य होते हैं। इनका सामान्य रूप से निर्वाह होता रहे, तो कोई गतिरोध उत्पन्न नहीं होता, पर एक-दूसरे के क्षेत्र में अनावश्यक दखलन्दाजी करने पर उत्पन्न हो सकता है। इसका ध्यान रखा जाना आवश्यक है। सम्पत्ति के मामले में योग्यता, विवेक व बुद्धि के आधार पर किसी एक को प्रमुख बनाया जा सकता है, पर वह उसे लेकर अभियान या दूसरे पक्ष पर दबाव डाले तो सम्बन्धों में रुक्षता आने लगती है।

जीवन के प्रति सही दृष्टि लेकर चलने का दाम्पत्य सम्बन्धों ओर उसकी मधुरता पर बहुत प्रभाव पड़ता है। जो व्यक्ति जीवन को मात्र फूलों की सेज मानकर चलते हैं या वैसा पाने की आकाँक्षा संजोए रहते हैं, वे भूलते हैं कि जीवन में सुख और दुख दोनों ही आते हैं। दोनों को भोगने के लिये समान रूप से उत्साह संजोये रखने वाले व्यक्ति ही उसका सच्चा आनन्द उठा सकते हैं। जो दम्पत्ति विवाह के पूर्व अपने भावी दाम्पत्य जीवन को मात्र सुखों की सेज मानकर उसमें प्रवृत्त हुये थे, उनकी यह मान्यता जब यथार्थ के थपेड़ों से टूटने लगती है, तब प्रायः ऐसा होता है कि वे आगत दुःख का कारण अपने जीवन साथी को मानने लगते हैं। यह एक प्रकार का दुराग्रह ही होता है।

जब कोई एक पक्ष जीवन को बोझिल, कंटीला और असह्य मानकर उसका कारण अपने साथी को समझने लगता है। ऐसी स्थिति में दुःख और भी असह्य हो जाता है। जिस दुख को एक-दूसरे के स्नेह, सेवा, सहानुभूति और जीवनोत्साह के सहारे सह्य बनाया जा सकता था वही अब भयंकर हो उठता है। इसीलिये आरम्भ से ही जीवन का यथार्थ स्वरूप लेकर चलना ठीक रहता है। संभावित दुःखों के लिये की गयी यह पूर्व मानसिक तैयारी उन्हें सहने, परित्राण पाने में बहुत सहायक होती है। अपने दुःख में भी यथासम्भव बहादुरी से काम लेने वाले और अपने साथी पर उसका बोझ नहीं डालने वाले पति-पत्नी एक-दूसरे पर अपने दुःख का भार डालकर उसे किनाराकसी करने की ओर उन्मुख नहीं करते। यह विवेकपूर्ण बात है। प्रकट करना भी पड़े, तो वह इस रूप में हो कि उससे दूसरे पक्ष को चोट न पहुँचे। पति का अफसर उससे नाराज है। ऑफिस में वह उससे अच्छा व्यवहार नहीं करता। इससे पति दुःखी है। किन्तु यह अफसर का कुछ कर नहीं सकता, ऐसी स्थिति में उत्पन्न हो चुके रोष को पत्नी से लड़-झगड़ कर उतारा जाये, यह निरी मूर्खता ही है। पति बाहर से थका-हारा लौटा है और श्रीमती जी दिन भर के अपने कष्टों का कच्चा चिट्ठा उनके मत्थे मारकर उस खीझ से मुक्ति पा लेती है, जो बच्चों के ऊधम, पड़ोसियों के व्यवहार या अन्य कारणों से उपजी है। ऐसा रोज ही होने लगे, तो पति-पत्नी का पारस्परिक प्रेमरंग चाहे वह कितना ही गहरा क्यों न हो, धीरे-धीरे उतरता जायेगा और एक दिन जब वह बिलकुल ही घुल-पुँछ जाएगा तो पति-पत्नी एक दूसरे की सूरत से ही चिढ़ने लगेंगे।

परस्पर मिलते समय यथासम्भव प्रसन्न और उल्लसित रहना वह टॉनिक है जो दाम्पत्य जीवन के यौवन को स्थायित्व प्रदान करता है। घटनाओं पर पति-पत्नी का वश न हो, पर अपने आवेगों पर अंकुश लगाने की क्षमता हो तो विकट से विकट परिस्थितियों में भी वे एक-दूसरे के सहारे हंस सकते हैं, मुसकरा सकते हैं। पति कितना ही सहनशील हो, फिर भी यह बात वे कभी पसन्द नहीं करते कि उनका साथी किसी दूसरे स्त्री-पुरुष से उनकी तुलना करे व दूसरों की सराहना करें। पत्नी को पति का यह कहना “देखो श्रीमती... किस सुघड़ता से घर संभालती है।” और पत्नी द्वारा किसी अन्य मित्र या पुरुष का प्रशंसा करना कभी एक-दूसरे को अच्छा नहीं लगेगा। यह भूल अच्छे-अच्छे दंपत्तियों में मनोमालिन्य व शंकाएं उपजा देती हैं। पारस्परिकता, एकनिष्ठता पति-पत्नी के लिए बहुत आवश्यक है। विवाह के पहले का जीवन कैसा ही क्यों न रहा हो, बाद का जीवन एकनिष्ठ होकर जीना बहुत आवश्यक है। पति भूलकर भी विवाह के पूर्व किसी अन्य स्त्री से रहे रागात्मक सम्बन्धों का जिक्र पत्नी से करे और न ही पत्नी को इसलिये विवश करे। अति भावुकता के शिकार होकर जो पति-पत्नी अपने विश्वास या निष्ठा को प्रदर्शित करने के उद्देश्य से अपने विवाह के पूर्व की ऐसी बातें एक-दूसरे से कह देते हैं। यह भावुकता पिचानबे प्रतिशत दंपत्तियों के बीच संदेह का अंकुर उपजा देती है। जो सराही हवा पाकर भभक उठने वाली राख में दबी चिंगारी की तरह थोड़ा-सा सहारा पाते ही पनप कर उसके विश्वास के तोड़ देते हैं।

पुत्री के लिए दुहिता शब्द का प्रयोग करने के पीछे यही अर्थ है कि उसके दूर रहने में हित है। पति-पत्नी बचपन से ही एक दूसरे से परिचित होते हैं उनके जीवन के भले-बुरे प्रसंगों से विज्ञ होते हैं तो उनके भावी जीवन में झंझावात आने की स्थितियाँ अधिक आती हैं। जीवन के बुरे प्रसंग समय पाकर वर्तमान में प्रेत की तरह आ धमकते हैं और उन्हें एक दूसरे से विरत बना देते हैं और किसी दृष्टि से विवावपूर्व गुजरी सच्चाइयों को साथी पर प्रकट करना ठीक हो सकता है या नहीं यह हमारा विषय नहीं। व्यवहारिकता के क्षेत्र में तो वे वर्जित ही हैं जो दंपत्ति यह नहीं चाहते की उनके दाम्पत्य जीवन में कोई झंझावात आये और विश्वास के वृक्ष पर जमे उनके नींव को ही बिखेर कर रख दे उन्हें अपने अतीत के संबंधों की गठरी को बंधी ही रहने देना चाहिये। साथी से कुछ भी छिपा नहीं रखने की यह भावुकता भरा जुआ उन्हें नहीं खेलना चाहिये।

विवाह के पूर्व देखे गये स्वप्न यदि मात्र कल्पना की उड़ान नहीं है तो उन्हें साकार होना ही चाहिये। उन सपनों को कैसे सत्य का जामा पहनाया जा सकता है उसके लिये भावनाओं और व्यवहारिकता के दोनों पाँवों को स्वस्थ व सबल बनाकर अभीष्ट लक्ष्य की ओर एक-एक डग भरते हुए बढ़ना पड़ता है। कभी गिरते हैं तो फिर उठ खड़े होने वाली बात को भुला नहीं देना चाहिये। यों प्रत्येक व्यक्ति शारीरिक मानसिक रचना में भेद होता ही है फिर भी सामान्य अवयव कलेवर व मानस का सामान्य स्वरूप अवश्य होता है। अग्रलिखित व्यवहारिक सत्य सामान्य रूप से सभी दंपत्तियों के साथ लागू होते हैं। किन्हीं को ये निरर्थक भी लग सकते हैं। फिर भी इससे इनकी उपयोगिता कम नहीं हो जाती।

दाम्पत्य जीवन की बगिया जब महकती है तो उसकी सौरभ से परिवार, समाज, राष्ट्र व विश्व भी पुलकित, प्रफुल्लित होता है। अतः दाम्पत्य की मधुरता बनी रहे वह सफल व सार्थक हो उसमें पति-पत्नी का अपना ही सुख-दुख नहीं है। सारे समाज का जुड़ा है। यह पति-पत्नी की कामना ही नहीं दायित्व ही है। आज के युग में स्थिति यहाँ तक आ पहुँची की कुछ लोग विवाह संस्था को ही अनावश्यक मानने लगे हैं। ऐसी स्थिति में इस बुद्धिवाद के युग में दाम्पत्य व्यवहार का जानना और भी आवश्यक हो गया है। उपयुक्त तथ्य उस प्रयोजन को बहुत कुछ पूरा कर सकते हैं।

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