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Magazine - Year 1998 - Version 2

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Language: HINDI
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विविधता से भरी प्रकृति के ये परोक्ष अनुदान

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First 17 19 Last
संसार में वृक्ष-वनस्पतियों का अपना महत्व है। ये हमें प्राणवायु प्रदान करते हैं। इनके नहीं रहने पर यहाँ विषैली गैस भरी रहती और तब शायद कोई जीवधारी भी जीवित नहीं रह पाता। यह समस्त प्राणियों के जिन्दा रहने का महत्वपूर्ण आधार उपलब्ध कराते हैं। इतने पर भी यह नहीं समझा जाना चाहिये कि जीवजगत को वनस्पतिजगत का यह अकेला अनुदान है। ध्वारा ईंधन एवं अन्य कितने ही प्रकार के छोटे-बड़े उपयोगों में यह जन्तु और मनुष्य के बराबर काम आते हैं, इसलिये उनका संहार नहीं, संरक्षण किया जाना चाहिये।

दुनिया भर के पेड़ों पर दृष्टिपात करें, तो उनमें एक-से-एक विलक्षण प्रकृति वाले मिलेंगे। कुछ जीवनोपयोगी पदार्थ देते हैं, तो कुछ का काम प्राणहरण करना है, कुछ की छाया शीतलता और शान्तिदायक होती है, तो कुछ पीड़ा और वेदना प्रदान करते हैं। इसके बावजूद वे पर्यावरण को लाभ ही पहुँचाते हैं, अस्तु, उनका उच्छेदन नहीं संवर्द्धन होना चाहियें

यह दृश्यलोक दो प्रकार के तत्त्वों से बना हुआ है। यहाँ अच्छाई भी है और बुराई भी, असुरत्व भी है और देवत्व भी। इसे प्राणिजगत में ही नहीं वनस्पतिजगत में भी समान रूप से देखा जा सकता है।

गाय अमृतोपम दुग्ध प्रदान करती है- यह सर्वविदित है, पर दूध के समान हर पौष्टिक पेय प्रदान करने वाला एक वृक्ष आमेजन घाटी के जंगलों में पाया जाता है। रूप, रंग और स्वाद में दूध से काफी मिलता-जुलता होने के कारण ही इन पयप्रदाता पेड़ों को ‘काउ-ट्री’ कहते हैं। स्थानीय वनवासी श्वेतरंग के इस गाढ़े पदार्थ का उपयोग चाय अथवा काफी बनाने में करते हैं। वैज्ञानिकों के अनुसार, यह तरल पदार्थ कई प्रकार के पोषक तत्वों से संव्याप्त है और पोषक तत्वों की वनवासियों की आवश्यकता की एक बड़े भाग की पूर्ति इससे होती रहती है। इस तरल को प्राप्त करने के लिये पेड़ों में बड़ा-सा चीरा लगाना पड़ता है। इससे रस बर्तन में इकट्ठा होने लगता है। एक ही वृक्ष पर अनेक चीरा लगाकर कई दिनों तक रस प्राप्त किया जा सकता है। आश्चर्य तो यह है कि यह वनस्पति दूध दही की तरह जम भी जाता है और इसका स्वाद उसी प्रकार कुछ खट्टा मालूम पड़ता है, पर स्थानीय लोग इसे खाने के काम में प्रयुक्त नहीं करते, वरन् इसका गोंद बना लेते हैं।

एक अन्य वृक्ष अमेरिका, आस्ट्रेलिया और दक्षिणी गोलार्द्ध के कई देशों में पाया जाता है। इसकी सबसे बड़ी विशेषता इनकी पत्तियों की विशिष्ट भौगोलिक दिशा है। ये पंक्तियाँ हर समय उत्तर-दक्षिण दिशा दर्शाती रहती हैं। अन्धकार में भी इन्हें छू कर दिशा का ज्ञान प्राप्त कर सकना संभव है। यह वृक्ष 6-7 फुट तक ऊंचे होते हैं।

मध्य अमरीका के जंगलों में एक ऐसा पदार्थ है, जो -कैंडल-ट्री’ के नाम से प्रसिद्ध है। नाम के अनुरूप इसका गुण भी है। इसमें 3-4 फुट लम्बी फलियाँ लगती हैं। इनमें बड़े परिमाण में तेल पाया जाता है। इसी कारण से यहाँ के निवासी अपनी प्रकाश संबंधी जरूरत की पूर्ति इससे करते हैं। फलियों में मोम की भाँति धागा पिरोकर उसे जलाते और घर का प्रकाशित करते हैं।

वृक्ष से यदि बूंदा–बांदी होने लगे, तो उसे क्या कहा जाये? जो भी कहें, पर यह सत्य है कि ब्रिटिश कोलम्बिया में ऐसे तरुवर बहुतायत से पाये जाते हैं, जिनकी पत्तियों से लगातार जल की बूँद टपकती रहती है। इतना जल इनमें कहाँ से आ जाता है? इस संबंध में वनस्पतिशास्त्रियों का कहना है कि बरसात के दिनों में ये इतना पानी अवशोषित कर लेते हैं कि वह बूँद-बूँदकर अगली बरसात तक गिरता रहता है। स्थानीय लोग इसका उपयोग पेयजल के रूप में करते हैं।

आग और पेड़ का संबंध जहर और जन्तु की तरह है। दोनों से अस्तित्व-लोप होता है। जहर से जन्तु मरते हैं तथा अग्नि से वृक्षों को हानि होती है। जापान में पेड़ों की कुछ ऐसी किस्में हैं, जो आग का आभास पैदा करती हैं। शाम होते ही उनकी शीर्षस्थ टहनियों से धुँआ निकलने जैसा दृश्य उपस्थित हो जाता है। इतने पर भी वे हरे-भरे बने रहते हैं। कोई अजनबी उक्त दृश्य को यदि पहली बार देखे, तो यही कहेगा कि पेड़ में किसी कारणवश आग लग गयी है, पर वस्तुतः वह आग होती नहीं। धुँआ जैसा दीखने वाला पदार्थ जलवाष्प होता है। यह वाष्प इतना सघन होता है कि सामने वाले को धुँआ का भ्रम पैदा हो जाता है। वनस्पतिविशेषज्ञ बताते हैं कि वाष्पीकरण की क्रिया वैसे तो हर पादप में होती है, किन्तु उनमें वाष्प की मात्रा इतनी कम और उसके निकलने की गति इतनी धीमी होती है कि वह लगभग अदृश्य स्तर का बना रहता है, उक्त पादपों में गति और मात्रा दोनों ही असाधारण स्तर की होती है, इसलिये भ्रान्ति जैसी स्थिति उत्पन्न हो जाती है।

साबुन यदि पेड़ में फलने लगे, तो इसे आश्चर्यजनक ही कहना पड़ेगा। ऐसा ही एक पादप उत्तरी अफ्रीका के वनों में पाया जाता है। इसमें अखरोट की शक्ल के बड़े-बड़े फल लगते हैं। जब यह पकते हैं, तो पेड़ से गिर पड़ते हैं। इन फलों को यदि पानी में डाला जाय, तो झाग उत्पन्न होने लगता है, वह भी इतना, जितना असाधारण और उच्च किस्म के साबुनों से निकलता है। आदिवासी कबीले के बंजारे इसे वस्त्र धोने नहाने के काम में लाते हैं।

इन उपयोगी वृक्षों के अतिरिक्त कुछ ऐसे भी पेड़ होते हैं, जो मनुष्यों में डर, भय, कष्ट एवं यहाँ तक कि मृत्यु के संत्रास उत्पन्न करते हैं। मलाया, मैडागास्कर, त्रिनिदाद, बारबडोस एवं कुछ अन्य उष्णकटिबंधीय देशों में एक ऐसा वृक्ष पाया जाता है, जिसके पत्ते अत्यन्त वृहदाकार होते हैं। 8 फुट लम्बाई वाले इन पत्तों की संख्या एक पेड़ में 20-24 तक होती है। वर्षा अथवा आँधी आने पर ये पत्ते परस्पर जब टकराते हैं, तो ऐसी भयावह ध्वनि पैरा करते हैं, जिसे सुनकर अनजान व्यक्ति एकदम घबरा उठते हैं। इसी कारण उन्हें ‘ट्रेवलर्स ट्री’ के नाम से पुकारा जाता है।

‘मशीनिल’ नामक वृक्षों के फूलने का समय बसंत ऋतु है। जब इनमें फूल आते हैं, तो सम्पूर्ण पेड़ गहरे लाल रंग की छटा बिखेरने लगते हैं। इन फूलों में पीले पाउडर की तरह भारी मात्रा में परागकण उत्पन्न होते हैं। हवा के हलके झोंके से ही वे आस-पास सघन रूप में बिखर जाते हैं। ऐसे समय यदि कोई व्यक्ति इनके निकट पहुँच जाये और ये कण शरीर पर पड़ जायें, तो तत्काल भयंकर खुजली होने लगती है। बाद में वे स्थान चकत्तों के रूप में परिवर्तित हो जाते हैं। ब्राजील के वनों में यह पेड़ बड़ी संख्या में देखे जाते हैं।

‘वैड वुमन’ नाम से जाने, जाने वाले पादम मैक्सिको के मोरेलाँस राज्य में होते हैं। ये ऊसर भूमि में ही उगते हैं। पल्लव विहीन इनकी शाखायें परस्पर बुरी तरह आलिंगनबद्ध होती हैं और ऊपर की ओर उठी होती है। इनकी डालों और तने में एक विषैला रस होता है। यदि इसे किसी मनुष्य अथवा जन्तु पर डाल दिया जाये, तो असह्य खुजली और तेज बुखार के साथ कुछ दिनों में उसकी मृत्यु हो जाती है। जानवरों के शरीर तनों में रगड़ जाने से भी वही प्रतिफल उत्पन्न होता है, अन्तर यह होता है कि इसमें मौत कुछ विलम्ब से आती है। प्रशासन की ओर से इन वृक्षों में खतरे का निशान अंकित करा दिया गया है। इसके अतिरिक्त इन्हें चारों ओर से जालीदार बाड़ों से घेर दिया गया है। चरवाहों को ऐसा निर्देश है कि वे अपने पशुओं को उनके समीप न ले जायें।

कई पेड़ तेज विस्फोट भी पैदा करते हैं। मैक्सिको में उगने वाले इन वृक्षों में बेल की शक्ल के फल लगते हैं। फल का ऊपरी आवरण काफी कठोर होता है। जब वे पूरी तरह पक जाते हैं, तो तीक्ष्ण आवाज के साथ फट पड़ते हैं। इस दौरान यदि वृक्ष से 10-15 फुट की परिधि में कोई आदमी अथवा जानवर है, तो उसके घायल होने की संभावना बनी रहती है। उस फल में एक विषैली गैस भी होती है, जो आस-पास के वातावरण में फैल जाती है। यह स्वास्थ्य के लिये हानिकारक होती है।

जमैका और गुयाना के कुछ भागों में पादम की एक ऐसी प्रजाति देखी गयी है, जिससे हमेशा एक लेसदार द्रव्य टपकता रहता है। यह किसी प्रकार यदि आँखों में पड़ जाये तो नेत्रज्योति चली जाती है। इसके अतिरिक्त यह शरीर में विषैला प्रभाव छोड़ता है।कहा जाता है कि इस पेड़ के नीचे कोई रात्रि विश्राम कर ले, तो फिर सुबह तक वह जिन्दा नहीं बचता, इसलिये स्थानीय लोग बात-बात पर उसके नीचे सो जाने की धमकी देकर सरलतापूर्वक अपनी बात परिवार वालों से मनवा लेते हैं।

कुछ पेड़ ऐसे होते हैं, जो अम्लीय प्रभाव वाले रस पैदा करते हैं। दक्षिणी कैलीफोर्निया में ‘बु्रसेरा’ नामक ऐसे ही वृक्षों की बहुलता है। देखने में ये विशाल बरगद की तरह मालूम पड़ते है। इनकी शाखायें दो ओर झुकी होती हैं- एक ओर कुछ कम, दूसरी ओर अधिक। बीच वाला भाग डालियों और पत्तों से सघन रूप से आच्छादित होता है। इन वृक्षों पर किसी धारदार उपकरण से प्रहार करने पर वहाँ से लाल रंग का ऐ रस निकलने लगता है। भूल या अज्ञानतावश यदि यह तरल प्रवाही देह के किसी हिस्से में पड़ गया, तो तीव्र जलन शुरू हो जाती है, मानो कोई तीक्ष्ण अम्ल वहाँ गिर गया हो। बाद में आग से जलने की तरह ही वहाँ फफोले पड़ जाते हैं। स्थानीय लोग इस वानस्पतिक अम्ल का उपयोग साँप, बिच्छू, बर्र जैसे जीवों के काटने के उपचार के रूप में करते हैं।

बबूल भारत में प्रचुरता से पाये जाते हैं। रेगिस्तानी इलाकों के ये प्रमुख क्षुप हैं, पर मिट्टी वाले भूभागों में भी उगते -पनपते देखे जाते हैं। इनके पत्ते यदि कोई रोएंदार जानवर खा ले, तो उन पर इसका प्रतिकूल असर पड़ता है और उनके सारे रोयें झड़ जाते हैं, शरीर एकदम गंजा हो जाता है। इसीलिये यह केवल ऊंट के ही प्रिय खाद्य हैं। उसकी देह में इसका अवाँछनीय प्रभाव रोमहीनता के कारण नहीं दिखाई पड़ता।

कुछ वृक्ष ऐसे होते हैं जो संगीत की स्वरलहरियाँ पैदा करते हैं। अफ्रीकी देश बारबडोस की घाटियाँ ऐसे ही पेड़ों से भरी पड़ी हैं। इनकी पत्तियाँ और फलियाँ अजीबोगरीब ढंग से कटी-फटी होती हैं। इनके मध्य से जब हवा गुजरती है, तो उसकी तीव्रता के हिसाब से उनमें विभिन्न प्रकार के संगीत स्वर उभरते हैं। रात के सन्नाटे में जब यह स्वरलहरियां निकलती और रह-रहकर परिवर्तित होती हैं, तो बड़ा ही डरावना प्रतीत होता है। इसी कारण से इस द्वीप में तब मौसमी हवायें चल रही होती हैं, तो इन जंगलों में रात गुजारना विरले साहसियों का काम होता है।

लालसागर और नील नदी के मध्यवर्ती भूभाग में फैले नूबिया के वलों में सुरीली ध्वनि उत्पन्न करने वाला ऐसा ही एक और पादप पाया जाता है। इसे ‘सोफर’ के नाम से स्थानीय लोग पुकारते है। अक्सर इन वृक्षों में ‘गाल’ नामक एक रोग लग जाता है, जिसके कारण स्थान-स्थान पर इनकी शाखाओं में गाँठें पड़ जाती हैं। इन गाँठों में कीड़े लग जाते हैं, जो उनमें छोटे-बड़े मोटे-पतले सुराख बना देते हैं। हवा जब इन सुराखों से टकराती है, तो सीटी बजने जैसी सुमधुर आवाज निकालती है। आवाज कभी धीमी, कभी तीव्र होती है। यह सब हवा की गति पर निर्भर है।

वृक्ष माँसाहारी भी होते हैं। ऐसे अनेक प्रकार के पेड़ अफ्रीका एवं मैडागास्कर के जंगलों में पाये जाते हैं। ऐसा ही एक पादम ‘पिचर प्लान्ट’ है। इसमें सुराही की शक्ल की संरचनायें होती हैं। इस संरचना के अन्दर जब कोई कीट प्रवेश करता है, तो उसके मुंह पर लगा ढक्कन स्वतः बन्द हो जाता है। इसके बाद कीट के रस-रक्त को वह चूस लेता है। इसी प्रकार का एक और वृक्ष ड्रोसेरा है। उसमें धतूरे के आकार के फल आते हैं एवं उसमें बड़े बड़े एवं नुकीले काँटे लगे होते हैं। इसके अतिरिक्त फल की सम्पूर्ण सतह पर एक चिपचिपा पदार्थ होता है। जब कोई कीटक इस पर बैठता है, तो वह उसी में चिपककर रह जाता है। इसके पश्चात फल की सतह पर लगे काँटे उसे चारों ओर से जकड़कर बुरी तरह चूस लेते हैं।

मानवपक्षी पेड़ों की प्रकृति भी ऐसी ही होती है। जब कोई मनुष्य अथवा जानवर इनके निकट आते है तो इनकी काँटेदार शाखायें उसे चारों ओर से अपने पाश में बाँध लेती हैं। फिर वह लाख प्रयत्न करके भी इनके बन्धनों से मुक्त नहीं हो पाते। पेड़ इनके रक्त को पूरी तरह चूस लेता है, इसके पश्चात ही उसके बन्धन ढीले पड़ते हैं।

विविधता प्रकृति का नियम है। यहाँ बिलकुल एक जैसा कुछ भी नहीं। दो सजातीय सदस्यों में भी कितनी ही भिन्नतायें होती हैं। फूल एक ही जैसे एक रंग के कहाँ होते? वृक्षों की प्रकृति और प्रकार में अगणित समानतायें होती हैं। यदि ऐसा नहीं होता, तो प्रकृति नीरस-निरानन्द बन जाती। एकरसता से उबारकर सरसता प्रदान करने में प्रकृति के इन उपादानों, वृक्ष-वनस्पतियों का बहुत बड़ा हाथ है। अशान्ति के क्षणों में इसीकारण से व्यक्ति प्रकृति की गोद में जाना चाहता है और वहाँ की विविधता को निहारकर असीम शान्ति की अनुभूति करता है। अस्तु, इसे वनस्पतिजगत का परोक्ष अनुदान कहना पड़ेगा। उसके प्रत्यक्ष उपहारों में ऐसी और इतनी वस्तुयें सम्मिलित हैं, जिनके अभाव में शायद जीवन ही कठिन हो जाये। इसलिये वृक्ष-वनस्पतियाँ का संरक्षण ही नहीं, संवर्द्धन भी होना चाहिये। इसी में जीवन और जगत का कल्याण है।

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