
मरणोत्तर जीवन-तथ्य एवं सत्य (Kahani)
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साधु ने स्वप्न देखा कि दोनों हाथों में ऊँचे डंडे लेकर वह मोक्षमहल की ऊपरी मंजिल पर चढ़ने का प्रयास कर रहा है, किन्तु चढ़ने में असफल रहता है। कुछ समझ में नहीं आता कि क्या करे। पास ही में खड़े एक बुजुर्ग ने देखा तो वे हंसने लगे और साधु से पूछा कि वे क्या कर रहे हैं? साधु ने कहा- मेरे पास सम्यक ज्ञान और सम्यक दर्शन के दो डण्डे हैं, इनके सहारे मोक्षमहल की ऊपरी मंजिल पर जाना चाहता हूँ, किन्तु चढ़ नहीं पाता, कृपया आप ही मार्गदर्शन करें। बूढ़े ने कहा- स्वामी जी सम्यक ज्ञान और सम्यक दर्शन के दो डण्डों में जब तक सम्यक चारित्र्य आड़ी सीढ़ियाँ न लगाओगे, तब तक किस पर पैर रखकर ऊपर बढ़ सकोगे। आखिर टिकने के लिये कुछ तो अवलम्बन चाहिये। बिना चरित्र के ज्ञान, कर्म, दर्शन, भक्ति, साधना-उपासना सब कुछ अपूर्ण है। मोक्ष तो नितान्त असम्भव है।
आनन्द प्रातः बुद्ध के पास जाकर बोला- “भगवन्! देख रहे हैं। सूरज उग रहा है। पक्षी कलरव कर रहे हैं। मन्द-मन्द समीर बर रहा है। कोयल कूक रही है। नाना प्रकार के फूल खिले हुये हैं। क्या यह सुन्दर नहीं है?” प्रश्न सुनकर बुद्ध मौन रह गये। आनन्द ने उत्तर न पाकर फिर प्रश्न किया- “क्या मेरा प्रश्न असंगत है, जैसा मैंने देखा, क्या वह सुन्दर नहीं है, आप उत्तर क्यों नहीं देते?”
बुद्ध चारों ओर देखते, आनन्द की तरफ भी देखते, मुसकराते और चुप रह जाते आनन्द फिर पूछता- “ प्रभु इतना ही कह दो कि कोई उत्तर नहीं देना।” बुद्ध मौन तोड़ते हुए बोले- “आनन्द मैंने तो स्रष्टा के कण-कण को परम आनन्द और सौंदर्य से ओत-प्रोत पाया है। मेरे मन के अन्दर से रूप, कुरूप, सुन्दर और असुन्दर का भेदभाव मिट गया है। मैं अब तेरी भेद-भाव की दृष्टि से ‘हाँ’ या ‘ना’ का उत्तर देने में असमर्थ हूँ। अब तो फूल और काँटा, गुलाब और चम्पा जो जैसे हैं, सब वैसे ही दिखाई देते हैं। मेरी भेदभाव की दृष्टि ही जाती रही।” आनन्द को उस दिन से सोचने की नई दृष्टि मिली।
बात उन दिनों की है जब भारत वर्ष में अंग्रेजों का राज्य था, उन दिनों पश्चिमी कमान के मिलिट्री कमाण्डर एल.पी. पैरेल थे। उन्होंने अपनी आत्मकथा में एक मार्मिक घटना का उल्लेख इन शब्दों में किया है।
मेरा कैम्प आसाम में ब्रह्मपुत्र के किनारे लगा हुआ था, उस दिन मोर्चे पर शांति थी। मैं जिस स्थान पर बैठा था उसके आगे एक पहाड़ी ढलान थी। ढाल पर एक वृद्ध साधू को मैंने चहलकदमी करते देखा। थोड़ी देर में वह नदी के पानी में घुसा और एक नवयुवक के बहते हुए शव को बाहर निकाल लाया वृद्ध साधू अत्यन्त कृषकाय थे। शव को सुरक्षित स्थान में ले जाने में उन्हें कठिनाई हो रही थी, तथापि वे यह सब इतनी सावधानी से कर रहे थे कि शव को खरोंच न लगे यह सारा दृश्य मैंने दूरबीन की सहायता से बहुत अच्छी तरह देखा।
इस बीच अपने सिपाहियों को आदेश देकर मैंने उस स्थान को घिरवा लिया। वृद्ध वृक्ष के नीचे जल रही आग के किनारे पालथी मारकर बैठे। दूर से ऐसा लगा वे कोई क्रिया कर रहे हैं थोड़ी देर यह स्थिति रही फिर एकाएक वृद्ध का शरीर एक ओर लुढ़क गया अभी तक जो शव पड़ा था वह युवक उठा बैठा और अब उस वृद्ध के शरीर को निर्ममता से घसीट कर नदी की ओर ले चला। इसी बीच मेरे सैनिकों ने उसे बन्दी बना लिया। तब तक कौतूहलवश मैं स्वयं भी वहाँ पहुँच गया था। मेरे पूछने पर उसने बताया महाशय! वह वृद्ध मैं ही हूँ। यह विद्या हम भारतीय योगी जी जानते हैं। यह योगाभ्यास से सम्भव है। अभी मुझे संसार में रहकर कुछ कार्य काना है जबकि मेरा अपना शरीर अत्यन्त जीर्ण हो गया था इसी लिये यह शरीर बदल लिया। आत्मा के लिये आवश्यक और समीपवर्ती प्राण शरीर होता है। मनुष्य देह तो उसका वाहन मात्र है। इस शरीर पर बैठकर वह थोड़े समय की जिन्दगी की यात्रा करता है। किन्तु प्राण शरीर तो उसके लिये तब तक साक्षी है जब तक कि वह परम तत्व में विलीन न हो जाये।
हम जिसे जीवन कहते हैं प्राण, शरीर और आत्मा की शाश्वत यात्रा की रात उसका एक पड़ाव मात्र है। जहाँ वह कुछ क्षण (कुछ दिनों) विश्राम करके आगे बढ़ता है। यह क्रम अनन्त काल तक चलता हैं। जीव उसे समझ न पाने के कारण ही अपने को पार्थिव मान बैठता है। इसी कारण वह अधोगामी प्रवृत्तियां अपनाता है। कष्ट भोगता और अन्तिम समय अपनी इच्छा शक्ति के प्रतीत हो जाने के कारण मानवेत्तर योनियों में जाने को विवश होता है।मुक्ति और स्वर्ग प्राप्ति के लिये प्राण शरीर को समझना उस पर नियंत्रण आवश्यक होता हैं
-मरणोत्तर जीवन- तथ्य एवं सत्य (वाड.मय् क्र. 16)