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Magazine - Year 1998 - Version 2

Media: TEXT
Language: HINDI
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योग जोड़ता हमें ब्रह्माण्ड रूपी शक्तिशाली सागर से

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First 7 9 Last
समस्त सृष्टि को दो वर्गों में विभाजित किया जा सकता है। उसका दो दृश्यमान स्वरूप है, जिसे इन्द्रियाँ देखती एवं अनुभव करती हैं। तथा यंत्रों के माध्यम से जिसकी प्रत्यक्ष जानकारी प्राप्त की जाती है- यह उसका विज्ञान पक्ष है। पदार्थ वेत्ताओं के शोध अनुसंधान यहीं तक सीमित होते हैं। इसे ‘पदार्थ विज्ञान’ कहते हैं, शास्त्रीय भाषा में कहना हो तो यही ‘परा’ प्रकृति है। इसका दूसरा वर्ग ‘अपरा’ प्रकृति कहलाता है। यह विशुद्ध चेतना का विषय है। पिछले दिनों तक विज्ञान वेत्ता संसार को उसके गोचर स्वरूप तक ही परिमित मानते थे, पर अब उसकी व्याख्या विवेचना में व अब कहते सुने जाते हैं कि पदार्थ मात्र अणुओं की हलचल की प्रतिक्रिया भर नहीं उससे आगे भी और कुछ है। यह एक प्रकार से उसके ‘अपरा’ स्वरूप को ही अंगीकार करना हुआ।

प्रकृति के इस अपरा स्वरूप की चर्चा यदि बोलचाल की भाषा में करनी हो, तो इसे ‘सूक्ष्म जगत’ कहेंगे। विज्ञान की गति अब इस क्षेत्र में भी होने लगी है और अब वह इस क्षेत्र की हलचलों की आणुविक गतिविधियाँ कह कर नहीं टालता, न ही ताप, प्रकाश शब्द के कम्पनों से उसकी तुलना करता है, वरन् इस क्षेत्र की हलचलों को अब समष्टिचेतना के नाम से पुकारता और उल्लेख करता है। बल्ब में जलने वाली बिजली और प्रकाश अब कोई पृथक तत्व नहीं रहे, अपितु अंतरिक्ष में विद्यमान विद्युत शक्ति की ही एक चिंगारी समझी जाती है एवं दोनों का सघन सम्बन्ध स्वीकार किया जाता है। यही बात अब व्यष्टि के संबंध में लागू समझी जाती है और व्यष्टि चेतना समष्टि चेतना का ही अंग अंश समझा जाता है। व्यष्टि चेतना को एक चिंगारी और समष्टि चेतना को व्यापक अग्नि के समतुल्य माना जाने लगा है।

वैयक्तिक चेतना विश्वव्यापी समष्टि चेतना का ही एक अंग है। व्यक्ति के अन्दर उसके निजी क्रिया-कलापों, चिन्तन, विचारणा, भावना, आकाँक्षा तक तो वह स्वतंत्र है, किन्तु इसके आगे उस पर समष्टि चेतना का अंकुश है। इस समष्टि चेतना को विज्ञान क्षेत्र में ब्रह्माणी चेतना नाम दिया गया है इस तथ्य को व्यक्ति और समाज के उदाहरण से भी भली-भाँति समझा जा सकता है। व्यक्ति समाज का ही एक अविच्छिन्न अंग है। वह समाज से अलग नहीं रह सकता। एकाकी रहने लगे, तो भी वह समाज से पृथक होने का दावा नहीं कर सकता। उसे अब तक जो ज्ञान, अनुभव, संस्कार, कौशल मिला है, जो शरीर पोषण प्राप्त हुआ है, सबके लिये वह समाज का ही ऋणी है। यदि वह नितान्त एकान्त में रहने लगे, संन्यासी बनकर गिरिकन्दराओं में जीवन व्यतीत करने लगे, तो भी उसे निर्वाह के लिये कुछ उपकरण साथ रखने ही पड़ेंगे। माला, कमण्डलु, कौपिंग, कुल्हाड़ी जैसी साधनों के बिना तो संन्यासियों के भी काम नहीं चलता। अंग्रेज समाजशास्त्री ई- डब्लूमैकी अपने ग्रंथ ‘सोसल मैन इन ऐन अनसोसल कल्चर’ में इस तथ्य को दृढ़ता के साथ प्रतिपादित करते हैं कि मनुष्य जब तक एकाकी रहा, तब तक वह आदिम जंगली स्थिति में रहा। उसका सामाजिक जीवन आरम्भ करना ही मनुष्य की प्रगति यात्रा का पहला चरण था। इस प्रकार एकान्तवासी कहलाने वाले का भूतकालीन और वर्तमान क्रिया कलाप निश्चित था अनिवार्य रूप से समाज के साथ जुड़ा रहता है तथा आगे भी यथावत बना रहेगा।

यों तो व्यक्ति स्वतंत्र इकाई प्रतीत होता है पर उसकी यह स्वतंत्रता एक सीमा तक ही है। उससे आगे उसे समाज की सहायता प्राप्त करनी ही पड़ेगी। भारतीय समाज विज्ञानियों का कथन है कि मनुष्य समाज से भी पृथक नहीं रह सकता। पृथक रहने वाला या तो पशु होगा या देवता। मनुष्य न ताक पशु है न देवता, इसलिये उसे सामाजिक संरचना के अंतर्गत ही अपना निर्वाह और विकास करना पड़ता है तथा उससे अविच्छिन्न रूप से सम्बन्ध रखना पड़ता है। ठीक इसी प्रकार व्यष्टि चेतना स्वतंत्र भले ही दिखायी दे, वह है समष्टि चेतना का ही एक अंग। लोक रुचि और लोक मान्यताओं के बदलते रहने का यही कारण है। लोगों का चिन्तन प्रवाह अपने में प्रायः एक ही दिशा में होता है। मनस्वी और स्वतंत्र चिन्तक हर समय अपवाद स्वरूप हुए हैं, परन्तु सामान्यतः लोकचिन्तन के प्रवाह की धारा एक ही दिशा में बहती है। युद्ध और शान्ति के दिनों में इस तथ्य को बड़ी आसानी से साकार हुआ देखा जा सकता है। अपने समय में पूर्वजों के कथन का प्रमाणित मान लेने की श्रद्धा अब उखड़ रही है तथा तर्क और प्रमाणों पर आधारित बुद्धिवाद को मान्यता मिली है। किसी जमाने में त्याग,बलिदान और आदर्शवादिता अपनाने में एक दूसरे के बीच प्रतिस्पर्धा चलती थी और इस क्षेत्र में जो जितना सफल होता था वह उतना ही गौरव अनुभव करता था। अब उससे सर्वथा भिन्न स्थिति है। इस समय विलासिता ही धर्म है। संग्रह, उपभोग और पद प्रदर्शन के प्रलोभन भूत हर मस्तिष्क पर छाया हुआ है। इसी प्रवाह को लोकमानस कहा जा सकता है। समय पर कई तरह के फैशन, कई तरह के व्यसन, कई तरह की परम्परायें बनती है। तथा कालान्तर में उसका स्थान नये फैशन, व्यसन और प्रचलन ले लेते हैं। जन सामान्य इस प्रवाह में अनजाने ही बहने लगते हैं।

ब्रह्मांडीय चेतना के अस्तित्व और उसके व्यक्ति चेतना के साथ सम्बन्धों व आदान प्रदान की बात अब दिनोंदिन स्पष्ट होती जा रही है तथा उसे प्रमाणित माना जा रहा है। मनुष्य के अचेतन मन को अत्याधिक अद्भुत और रहस्यमय होने की बात तथ्यरूप में स्वीकार कर ली गयी है। चेतन मन की बुद्धि क्षमता इसकी तुलना में अति तुच्छ है। इसी प्रकार अंतरिक्ष में मनुष्यों के छोड़े हुए विचार और उनके आदान-प्रदान की जानकारी भी ऐसे ही उथली और कम महत्व की समझे जानी लगी है और रहस्यमय उस प्रभाव को माना जाने लगा है, जो सृष्टि की अचेतन चेतना से सम्बन्ध है।

साधारणतया शरीर चेतना जीवन निर्वाह और आकाँक्षा पूर्ति में ही संलग्न दिखायी पड़ती है। इसकी हलचलों का प्रयोजन केवल शरीर को सुखी तथा सक्रिय बनाये रखना भर प्रतीत होता है, लगता है शरीर मुख्य है तथा उसकी तृप्ति, पुष्टि सुरक्षा एवं प्रगति के लिए सरंजाम जुटाने भर के लिये उसका सृजन एवं उदय हुआ है। आमतौर पर ऐसा ही समझा जाता है और इसी स्तर का उपयोग भी होता है। इतना ही नहीं, यह भी समझा जाता है कि शरीर-सुख के लिए मानवीय चेतना का जितना भी उपयोग हो सके, उत्तम है और इसी में उसकी सफलता-सार्थकता समझी जाती है।

इसमें वास्तविकता कितनी है? गहराई में उतरने पर बात कुछ दूसरी ही प्रतीत होती है। मानव शरीर व्यष्टि-चेतना के निवास का एक विकसित स्थल है। यहीं ब्रह्माण्डीय चेतना के साथ - जीव चेतना का मिलन-समागम संभव होता है और उस आदान प्रदान के आधार पर प्राणिजगत की अनेकानेक सुविधायें एवं संवेदनायें उपलब्ध होती हैं। इसमें कई ऐसे और इतने शक्तिशाली केन्द्र हैं कि उनमें माध्यम से पिण्ड और ब्रह्माण्ड की एकता का अनुभव एवं लाभ चमत्कारी रूप में दिखायी देने वाली मात्रा में हस्तगत कर सकना संभव हैं इनके अंतर्संबंधों और आदान प्रदान के क्रम को कोई खगोलीय प्रक्रियाओं द्वारा समझा जा सकता है।

उदाहरण के लिए, पृथ्वी को ही लिया जाय। प्रत्यक्षतः यह एकाकी दिखायी देती है। उसकी सम्पदा एवं हलचल अपनी ही परिधि में अपने लिये ही काम करती दृष्टिगोचर होती है। बहुत समय तक नक्षत्रविज्ञानी भी ऐसा ही मानते रहे। यह तो पीछे पता चला कि वह वस्तुतः अंतर्ग्रही आदान-प्रदान पर जीवित हैं। सूर्य-ऊर्जा का शोषण पृथ्वी पर वातावरण की सृष्टि करता है और इस वातावरण से, जिसे ऊर्जा-ईंधन भी कहा जा सकता है, जड़ परमाणुओं और चेतना जीवाणुओं को विभिन्न प्रकार की गतिविधियाँ संपन्न करने के लिए आवश्यक सामर्थ्य प्रचुरता से उपलब्ध होती है। पृथ्वी इस प्रकार अपनी विशिष्टताओं को बनाये रखने के लिए बहुत कुछ तो सूर्य पर निर्भर करती है। दूर रहते हुए भी सूर्य पृथ्वी को इतना उदार-दुलार देता है कि उसे देखते हुए पति-पत्नी या प्रेमी-प्रेमिका जैसा संबंध मानने को जी करता है। पृथ्वी भी तो सूर्य का मुँह निहारते रहने और परिक्रमा करते रहने में अपने जीवन की सार्थकता समझती है, न केवल सार्थक समझती है, वरन् सार्थक बनाती है।

चन्द्रमा यों पृथ्वी का उपग्रह है, पर वह भी पृथ्वी को कोई कम प्रभावित नहीं करता। यह प्रभाव समुद्र-तट पर जाकर प्रतिदिन के सामान्य रूप और पूर्णिमा-अमावस्या के ज्वार-भाटे देखकर सहज ही जाना जा सकता है। उल्लेखनीय है कि चन्द्रमा को ‘रसराज’ कहा गया है। यह संज्ञा अकारण ही नहीं दी गयी है। कृष्ण पक्ष और शुक्ल पक्ष में वनस्पतियों तथा प्राणियों की सरसता में जो घट-बढ़ होती रहती है, इससे पता चलता है कि चन्द्रमा न केवल पृथ्वी पर समुद्र को, वरन् पृथ्वी में विद्यमान समग्र सरसता को भी व्यापक रूप से प्रभावित करता है।

दूसरे खगोलीय पिण्डों के बारे में भी यही बात लागू हुई देखी जा सकती है। सौरमण्डल के ग्रह- उपग्रह अपने-अपने स्तर के रंग-बिरंगे, छोटे-बड़े उपग्रह पृथ्वी पर नियमित और निरन्तर भेजते रहते हैं। पृथ्वी भी इन अनुदानों को चुपचाप नहीं ले लेती बल्कि उनका प्रतिदान चुकाती है। कहा जा सकता है कि वह आदान प्रदान के सामान्य शिष्टाचार को समझती है और उसी के अनुसार अपने प्रतिदान-प्रत्युपहार का क्रम निर्धारित करती है। इन प्रेषणों का लाभ वे ग्रह भी उसी प्रकार उठाते हैं, जिस प्रकार पृथ्वी उनसे उठाती है।

यह ब्रह्माण्ड एक विशाल शक्ति-सागर है और इसका प्रत्येक घटक एक-दूसरे से एक परिवार की तरह सम्बद्ध है। यह शक्ति-सागर जड़- चेतना से मिश्रित है। इसमें प्राणियों की सत्ता एक बुलबुले की तरह उठती, अपना स्वतंत्र अस्तित्व बनाती और समयानुसार विलीन हो जाती है। वैज्ञानिकों का प्रतिपादन है कि इस विराट शक्ति-संसार में दो धारायें हैं- एक भौतिक शक्ति है और दूसरी प्राणिज। ये दोनों शक्तिधारायें मिलकर एक युग्म बनाती हैं। विकासमान विज्ञान अब जीवन को रासायनिक संयोग मात्र नहीं मानता; अब विज्ञान भी मनश्चेतना की मरणोत्तरसत्ता को स्वीकार करने लगा है और चेतना को जगत की एक स्वतंत्रता सत्ता मानने की ओर अग्रसर है।

अपने देश के ऋषियों ने बहुत पहले ही इस सत्य को पहचाना था कि विश्व में जड़ और चेतन की द्विधा शक्ति अपने-अपने नियम प्रयोजनों में संलग्न है। पौराणिक शब्दावलियों में इस शक्तियों को ‘परा’ और ‘अपरा’ शक्ति कहते हैं। इस शक्ति-सागर का वैभव भी महासमुद्र की तरह ही है, जिसके किनारे बैठकर मनुष्य ने सीप और घोंघे ही ढूंढ़े हैं। झंकृत परमाणुओं में और चेतना जीवाणु घटकों में जो सामर्थ्य-चेतना विद्यमान है, उसका बहुत छोटा अंश ही जानना और प्राप्त कर पाना संभव हो सका है। खींचतान से, छीना-झपटी से सब कुछ पाना शक्य नहीं, वह तो समुद्र में घुस जाने से ही संभव है।

सीमित को असीम से और तुच्छता को महानता से जोड़ देने पर ही असाधारण हुआ जा सकता है और असामान्य विलक्षणतायें अर्जित की जा सकती है। सामान्य स्तर पर चेतना शरीर और उससे संबंधित अनेकों प्रयोजनों के बारे में ही सोचती, निर्णय करती और व्यवस्था बनाती है, असामान्य की स्थिति उच्चस्तरीय होती है और उस दशा में ब्रह्माण्ड चेतना के आदान-प्रदान की गति तीव्र होती है तथा ऐसी उपलब्धियाँ हस्तगत होती है, जिन्हें विलक्षण और चमत्कारिक ही कहा जा सकता है। सामान्य जानकारियाँ और सामान्य अनुभव तो इन्द्रियशक्ति के आधार पर ही प्राप्त होते है, लेकिन यदि प्रसुप्त अतीन्द्रिय शक्ति को जाग्रत किया जा सके, तो व्यापक ब्रह्माण्ड के साथ अपना संपर्क जुड़ सकता है और ससीम से असीम स्तर का बना जा सकता है।

इस प्रकार का विकास-विस्तार जिस आधार पर सम्पन्न हो सका है, वह योग है। योग-साधना का उद्देश्य ससीमता को असीमता के साथ जोड़ देना है। इस प्रयोजन में जो जितना ही सफल होता जाता है, वह उस वैभव पर उतना ही आधिपत्य स्थापित करता चलता है, जिसका प्रभाव जड़-चेतन जगत में अपने चारों ओर फैला हुआ दीख पड़ता है। सीमित रहने और सीमाबद्ध होने से मनुष्य तुच्छ और दरिद्र ही बना रहता है, पर असीम के साथ संलग्न हो जाने पर महानता प्राप्त करने में कोई कमी नहीं रह जाती। सम्पन्नता से भरे पूरे भण्डार में अपनी भागीदारी जितनी अधिक होती है, अपनी स्थिति उतनी ही विभूतिवान होती चली जाती है। सिद्धपुरुषों में दिखाई देने वाली विशिष्ट क्षमताएं और कुछ नहीं, विराट के साथ उनकी घनिष्ठता का ही उपहार है। वह स्थिति ऐसी बन जाती है कि उसमें आत्मा और परमात्मा के मध्य बहुत अन्तर नहीं रह जाता, दोनों एक समान दीख पड़ते हैं। यह वास्तव में व्यक्तिचेतना को विश्वचेतना से जोड़ देने की ही फलश्रुति है।

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