
महाक्रान्ति नारी ही करेगी
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
समाचार पढ़कर उसने सिर ऊपर उठाया और ‘ओह’! कहकर चुप हो गयी। उसकी आँखें छत की ओर ताकने लगीं। माथे की लकीरें, मुखमुद्रा यह सूचित कर रही थीं कि वह कुछ विशेष सोच में है। सामने बैठे हुए पति ने उसके भावों को पढ़ने का प्रयास करते हुए पूछा- “किस सोच में डूब गयीं?’
“लगता है अब महाक्रान्ति होकर रहेगी, कोई इसे रोक नहीं सकता।” उसका शरीर स्वयं की गहराइयों से उभरा।
“तुम्हें तो बस सुबह-शाम, दिन-रात क्रान्ति के ही सपने आते हैं।” कहने वाले के अधरों पर व्यंग्य भरी मुसकान खेल गयी।
“नहीं-नहीं, इन दिनों के समाचार-पत्रों की बारीकी से समीक्षा करें तो आप भी कह उठेंगे कि सचमुच वह सब आ जुआ है जो ‘युग-परिवर्तन’ के लिये आवश्यक है।”
“ऐसा क्या है इनमें।” व्यापारी पति का स्वर कुछ उपेक्षित-सा था।
“देख नहीं रहे, पूर्व संस्कारों और लोक-परम्परागत रूढ़ियों के श्वासरोधक वातावरण में जनसामान्य घुट रहा है। राजनैतिक, आर्थिक, सामाजिक भवन ऐसी दशा में रहने योग्य नहीं रह गया। एक नयी जीवनशैली की आवश्यकता प्रत्यक्ष दिखायी देती है। अब आज के ही समाचार पत्र में निकला लेख ‘क्रान्ति के नये आयाम’ पढ़कर देखिये ने।” कहकर उसने सामने रखे अखबार की ओर इशारा किया। फिर कुछ पल रुककर पति के चेहरे की ओर देखते हुए बोली- “विश्व के जिस कोने में झाँकें, हर ओर से नये विचारों की भरमार दिखाई देगी, जो जनजीवन में घुसने के लिये उतारू हैं। यह सब क्रान्ति की उठती आँधी की सूचनायें नहीं तो और क्या हैं?़”
पत्नी के इस वैदूष्यपूर्ण शब्दों को पति आश्चर्यचकित हो सुन रहा था। डाइनिंग टेबल पर पड़े समाचारपत्र को उलटते-पलटते बोला- “हम लोगों को इसमें क्या? हम तो व्यापारी हैं।”
“तो क्या आप समझते हैं, समग्र परिवर्तन होने पर व्यापारिक नीतियाँ न बदलेंगी।”
“क्यों बदलने लगीं भला?”
“नहीं, जब लोग धन कमाने के लिये पागलों की तरह उतारू हो जाते हैं। जब लोग दो चार सालों में ही तमाम धनराशि बटोरते और उतनी ही शीघ्र खो बैठते हैं, ऐसी दशा में यह बात साफ हो जाती है कि उत्पादन और वितरण का नियंत्रण रखने वाली हमारी आर्थिक संस्थायें लड़खड़ाने लगी हैं। आज सारे विश्व में इसी वजह से विपन्न आर्थिक संकट गहराया हुआ है। इतना ही नहीं ऐसे में वह समाज को सुख-समृद्धि देने की जगह दुःख-दैन्य अधिक देने लगती है और समाज भला यह क्यों सहने लगा? नयी व्यवस्था-आर्थिक ढाँचे को नये सिरे से ढालने के लिये दौड़-धूप शुरू हो जाती है। है न यही बात?” कहकर सामने बैठे पति के चेहरे पर नजर दौड़ाई। कोई उत्तर न पाकर उसने नौकर को मेज पर रखे बर्तनों को उठा ले जाने के लिये इशारा किया और स्वयं कुछ सोचने लगी। पति नये चिन्तन को पाकर स्तब्ध थे। यों इनके विवाह को अभी बहुत दिन नहीं हुए थे। विवाह के पूर्व उनकी पत्नी की सामाजिक कार्यों के प्रति लगन, क्रान्तिकारी विचारधारा को देखकर उसके पिता चिन्तित हो उठे कि कहीं बेटी क्रान्तिकारी न हो जाये और उन्होंने उसका विवाह मुम्बई के एक धनी नवयुवक से कर दिया। उम्मीद थी शायद अतुल वैभव के प्रवाह में उसकी विचारणा बह जाये। पर कहाँ? उसके इसी क्रांतिकारी स्वभाव के कारण घर में सभी उसे सनकी समझते। जो वैभव की कीचड़ में रहते हुए भी कमल की तरह उससे अलग थी।
फेर-बदलकर एक ही बाधा थी, उसका नारी होना, किन्तु क्या नारी होना कोई अभिशाप है? नहीं, तो फिर महापरिवर्तन के इस पर्व पर नारी आगे बढ़कर हिस्सा क्यों नहीं ले सकती? जबकि वह समाज का आधा भाग है। विचारों का प्रवाह अविरल बह राह था कि यकायक सामने बैठे पति ने प्रश्न किया- “चुप क्यों हो गयी?”
“चुप तो आप हो गये, मैं तो यह सोच रही थी कि इन क्षणों में हम लोगों का भी कुछ कर्तव्य है। आखिर हम समाज से अलग तो नहीं हैं। होने वाले परिवर्तन से अछूते भी नहीं रह सकते। क्यों न उत्साहपूर्वक जन-चेतना को जाग्रत करने हेतु उठें?”
“किन्तु व्यापार, जीविकोपार्जन, यह कौन करेगा?”
“ऐसा नहीं हो सकता कि आप व्यापार संभालें और मैं लोगों में परिवर्तनकारी विचारों की सरिता बहाऊँ।”
“तुम!” कहकर उसने आश्चर्य से पत्नी की ओर देखते हुए कहा- “हद करती हो, लोग क्या कहेंगे? रुस्तमजी के परिवार की कुलवधू हाटबाट घूमे, यों ही डोलती फिरे।” सुनकर उसे ऐसा लगा जिस कुर्सी पर वह बैठी है वह धंस रही है। थोड़े ही समय में स्वयं को संभालते हुए बोली- “अगर आप बुरा न मानें तो एक बात कहूँ।”
“कहो।”
“काफी समय से पुरुषों ने समाज में अपना एकाधिपत्य बनाये रखा है। जब-जब उन्होंने नारी के विषय में कानून-मर्यादायें बनायीं तो उस समय वे पूरी तरह भूल गये कि पुरुष को पैदा करने वाली माता, स्नेह देने वाली बहिन और कोई नहीं नारी है। उन्हें सिर्फ इतना याद रहा कि वह खिलौना है, मन बहलाने का साधन, विलास की वस्तु जिसकी कोई आकाँक्षा, अस्तित्व, विकास कुछ नहीं है। क्या यह सच नहीं है?”
सुनने वाला अचकचाकर बोला- “नहीं.... नहीं- यह बात नहीं है।” पर कहने से क्या? शब्दों की सच्चाई उसके अन्तर को भेदती चली गयी।
“यदि नहीं है, तो महिलायें सामाजिक गतिविधियों में हिस्सा क्यों नहीं ले सकतीं”।
वह सोचने लगा कथा तथ्यपूर्ण है। नारी और पुरुष सामाजिक विकास के दो गतिमान चरण हैं। प्रत्येक की अपनी विशेषताएं हैं। वह मुखर हो बोला- “तुम्हारा मत ठीक है। वर्तमान समय में आवश्यक हो गया है कि नारी अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभायें”
सुनकर उसे ऐसा लगा जैसे विश्व की सारी प्रसन्नता एक साथ आ जुटी हो। उसकी आँखों की चमक दूनी हो गयी। उल्लास भरे स्वर में बोली- “तो जन-चेतना के जागरण हेतु मैं सक्रिय हो सकती हूँ।”
“हाँ, मैं भी व्यापार से कुछ समय निकालकर अपनी भागीदारी निभाऊंगा।” जनजाग्रति हेतु क्रियाशील होने वाली यह महिला थी- भीकाजीकामा, जिनके प्रेरक कर्त्तृत्व ने अनेकों दिलों में देशप्रेम का तूफान ला दिया। उनके पति रुस्तमजीकामा बाम्बे क्रान्तिदल के संचालक हुए। यद्यपि 1936 में उन्होंने पंचभौतिक काय-कलेवर छोड़ दिया, किन्तु उनका कथन “क्रान्ति की सफलता नारी के बगैर नहीं” आज भी न केवल जीवन्त है, बल्कि पहले की अपेक्षा कहीं अधिक सच है।