
संस्कृति को समर्पित अर्घ्य
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“मुझे परमधर्मात्मा सेठ झगडूशाह के दर्शन करने हैं।” गौरवर्ण आतप में तपकर ताम्र हो चुका था, क्षीणकाय और मलिनवत बतला रहे थे कि उस पर यदि किसी ने कृपा की है तो वह दरिद्रता की देवी ही है। इतने पर भी उसके मुख पर कर्मठता की उल्लासपूर्ण चमक थी।
“आप दूर से आये जान पड़ते हैं और ब्राह्मण लगते हैं। मैं आपके चरणों में प्रणाम करता हूँ।” हाथ जोड़कर, मस्तक झुकाकर उस काठियावाड़ी पुरुष ने बड़ी श्रद्धा के साथ प्रणाम किया।” झगडूशाह को आपके दर्शन करने चाहिये। वह कब ऐसा धर्मात्मा और दानी हुआ कि उसके दर्शन करने आप जैसे ब्राह्मण पधारें।”
“उन उदारचेता से आपको ईर्ष्या उचित नहीं।” आगन्तुक कैसे जानता उसके सामने जो घुटनों के ऊपर धोती बाँधे बिना उतरोय के किंचित स्थूलकाय, अधेड़ उम्र का, बड़ी-बड़ी मूँछों वाला व्यक्ति है, उसी से मिलने वह आया है और यही वह व्यक्ति है, जिसके समुद्री व्यापार को धाक सुदूर पश्चिम के गौराँग देशों तक मानी जाती हैं आगन्तुक ने उसे सामान्य व्यक्ति ही समझा था। “ मैं सेठजी से मिलकर ही विश्राम करूंगा। आप उनका घर बतलाने की कृपा करें।”
“आपके इस सेवक का ही नाम झगडूशाह है।” आगन्तुक दूर से आया है, उसके चरणों पर धूल की परत जम रही है। वह बहुत थका लगता है। उसे उलझन में डालना अनुचित जानकर प्रार्थना की गयी- “आप भीतर पधारने की कृपा करें।”
“आप!” आने वाला दो क्षण स्तब्ध देखता ही रह गया, सामने खड़े व्यक्ति को। उसने क्या-क्या सोच रखा था उसके बारे में। कितने तड़क-भड़क से सज्जित सेवक व आवास तथा सैनिकों से घिरे व्यक्तित्व की कल्पना की थी उसने और यह उसके सामने खड़ा ग्रामीण जैसा दिखता व्यक्ति.....।
“आप पधारें!” झगडूशाह ने फिर आग्रह किया।
“यह सेठ जी का निजी सदन है?” तनिक अवकाश मिलने पर एक सेवक से उसने पूछ लिया, “यह उनका अतिथि गृह है।” बड़ा सम्मानपूर्वक उत्तर मिला।
“सेठजी!” आप यदि अन्यथा अर्थ न लें तो मुझे एक बात पूछनी थी। “आप आज्ञा करें।” सेठ ने सरल भाव से कहा।
“आप देश के श्रेष्ठतम श्रीमंतों में से है। स्वदेश और विदेश के अनेकों धनपति आपके अतिथि होते होंगे। आपकी अतिथिशाला आपके गौरव के सर्वथा अनुरूप है किन्तु आप जानते हैं कि मैं ब्राह्मण हूँ और ब्राह्मण अतिथि का सत्कार धर्मनिष्ठ गृहस्थ प्रायः अपने घर में ही करते हैं। परम्परा से पृथक जो व्यवहार आपे किया है, उसका कुछ कारण तो होगा? मुझसे ऐसी कोई त्रुटि- कोई प्रमाद आपने....।”
“नहीं देव!” सेठ ने आतुरतापूर्वक ब्राह्मण के चरण पकड़ लिये। “आप हुए हैं। आपकी समुचित सेवा मेरा कर्तव्य है। विश्राम कर लें, तब यह दास आपके श्रीचरणों से अपने आवास को भी पवित्र करायेगा।”
विश्राम के पश्चात सेठ जी के घर जाने पर आगन्तुक को जो अनुभूति हुई, वह अवर्णनीय थी। उसे जहाँ ले जाया गया था- कठिनाई से ही कह सकते हैं कि वह झोपड़ी नहीं थी, क्योंकि पक्की दीवालों से बना घर था। कुल तीन कक्ष उसमें पूजन कक्ष भी शामिल था।
प्रायः आभूषणरहित एक सामान्य नारी ने उसका सत्कार किया। सेठ उन्हें बार-बार ‘सती’ न कहते तो वह जान भी नहीं पाता कि वह सेठानी है। कोई विलास सामग्री नहीं। गुजरात काठियावाड़ में ग्रामीण कृषक के घर में भी उससे अधिक साज-सज्जा और सामग्री मिल जाती है। अतः उसने अनुभव किया कि वह किसी गृहस्थ के घर न पहुँचकर देवालय पहुँच गया है। “आप इतने अल्प में निर्वाह कैसे कर लेते हैं?” “अल्प में निर्वाह की बात ही कहाँ है अतिथि देवता?” सेठ के व्यवहार और वाणी में आडम्बर उसे सर्वथा नहीं दिखा। वे कह रहे थे- “अपने देश भारत की संस्कृति त्याग की संस्कृति है।” धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष इसके चार पाये हैं। समाज और संस्कृति के लिये इन चारों की समान मजबूती आवश्यक है। इसमें अर्थ की मजबूती का दायित्व व्यापारी वर्ग का है। अर्थ की मजबूती का एक ही अर्थ है- धन का अविरल प्रवाह, समाज के प्रत्येक व्यक्ति, प्रत्येक स्थिति तक समान रूप से पहुँचे। जिस पर उस प्रवाह- संचालन का दायित्व है वही यदि उसे अवरुद्ध करने लगे तो उससे बड़ी विडम्बना और क्या होगी?” “अवरुद्ध.....,” युवक अतिथि को समझने में कठिनाई हुई।
“धन को भोग के लिए अपने पास समेट- बटोरकर रख लेना प्रवाह को अवरुद्ध करना ही हुआ। झोपड़ी के निवासी भी क्या मेरी जैसी सुविधा जुटा पाते हैं?” जैसे सेठ को अपनी सादगी पर अभी सन्तोष नहीं था। “देव!” सेठ दो क्षण माँग रहे। “आपने अपने आगमन से मुझे धन्य किया। आपका परिचय भी जानना चाहता था एवं आने का उद्देश्य भी।”
“तक्षशिला से अध्ययन पूर्ण कर तीर्थयात्रा को निकल पड़ा था।” युवक ने बिना किसी भूमिका के परिचय दिया। “लोक मुझे शीलभद्र के नाम से जानता है। तीर्थयात्रा के प्रारम्भ से ही आपकी कीर्ति कानों में पहुँच चुकी थी। इधर आया तो आपके दर्शन की उत्कण्ठा हुई। अब आने का उद्देश्य बताता हूँ। आप जानते हैं देश में इस समय एक ही विश्वविद्यालय है- ‘तक्षशिला’, मेरी आकाँक्षा थी कि मगध में भी उसी स्तर का एक विद्याकेन्द्र स्थापित किया जाए, ताकि जा छात्र गंधार नहीं जा सकते, वे अपना शिक्षण यहाँ निकट रहकर पूर्णकर सक लें।”
“आकाँक्षा नहीं संकल्प कहें।” सेठ के मन में ऐसा उल्लास उमड़ पड़ा- जैसे उन्हें कोई निधि मिल गया हो। अब कहने को कुछ न बचा था- वर्तमान बिहार के राजगृह से आठ मील दूर नालन्दा में सेठ ने अपना वैभव उड़ेलना शुरू किया। विश्वविद्यालय के साथ आठ विस्तृत कक्ष और तीन सौ प्रकोष्ठ बने। सभासदन दस भागों में विभक्त था। शिक्षार्थियों के रहने के लिये तीन सौ छात्रावास भवन बने। भवन बनाकर ही सेठजी को संतुष्टि नहीं मिली। उन्होंने रत्नसागर, रत्नोधि और रत्नोरंजक नाम के तीन विशाल पुस्तकालयों की स्थापना के लिये अपरिमित धन दिया।
शीलभद्र उस महान विश्वविद्यालय के कुलपति हुए। शान्तरक्षित, शीघ्रवद्ध प्रभाकरमित्र आदि उनके सहयोगियों के प्रचंड, अध्यवसाय ने उस विद्याकेन्द्र को विद्यातीर्थ में परिणत कर दिया। चीनी यात्री ह्वेनसाँग के अनुसार- यह स्थान उस समय विश्व का अद्वितीय विद्यापीठ बन गया था। दूसरी सदी में आचार्य शीलभद्र के निर्देशन में उस स्थापना को पूर्ण कर सेठ ने कहा- “आज मैं अपनी संस्कृति को अर्घ्य देकर अर्थ का प्रयोजन सिद्ध कर स्वयं को धन्य मानता हूँ।” महान संस्कृति का विजयछत्र अभी भी अर्घ्यदान माँग रहा है। आवश्यकता उनकी है तो अि के प्रयोजन का पहचान सकें।