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Magazine - Year 1998 - Version 2

Media: TEXT
Language: HINDI
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जड़ें मन में, रोग तन में

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मानवी-काया मानवी-मस्तिष्क का प्रतिबिम्ब कही जा सकती हैं चिन्तन, मनन एवं भावनाओं के अनुरूप ही कायिक क्रिया-कलापों का निर्धारण होता है। भाव-संवेदनाओं और विचारणाओं की उत्कृष्टता के आधार पर ही हमारी आन्तरिक प्रणाली एवं प्राणऊर्जा का निर्माण होता है। विचार और भावनाओं की अदृश्य शक्ति का हमारे भारतीय शास्त्रों में गहन अध्ययन हुआ है और यह निष्कर्ष निकाला गया है कि स्थूल रूप से मनुष्य का जैसा भी कुछ जीवन है, उसकी भावनाओं का ही परिणाम है, भले ही उनका संबंध इस जीवन से न हो, पर कोई भी कष्ट या दुख, रोग-शोक या बीमारी हमार पूर्वकृत कर्मों और उससे पूर्व पैदा हुए मन के दुर्भावों का ही प्रतिफल है। यही कारण था कि प्राचीनकाल के ऋषि, मनीषी, प्रायः इसी प्रयत्न में रहते थे कि लोगों के मन निम्न और अधोगामी न बनने पायें इसके लिये कष्टसाध्य साधनाओं, तीर्थयात्राओं, सत्संग और नित्य स्वाध्याय के कार्यक्रमों का आध्यात्मिक, धार्मिक और वैराग्यपूर्ण चिन्तन का स्रोत मस्तिष्क में निरन्तर प्रवाहित था कि तब लोग स्वल्प-साधनों में ही अपार सुख-शान्ति का रसास्वादन करते थे।

योगवशिष्ठ 6/1/81/30-37 में उल्लेख है कि - “चित्त में उत्पन्न हुए विकार से ही शरीर में दोष उत्पन्न होते हैं। शरीर में क्षोभ या दोष उत्पन्न होने से प्राणों के प्रसार में विषमता आती है और प्राणों की गति में विकास होने से नाड़ियों के परस्पर सम्बन्ध में खराबी आ जाती है। कुछ नाड़ियों की शक्ति का तो स्राव हो जाता है और कुछ में जमाव हो जाता है।”

“प्राणों की गति में खराबी से अन्न अच्छी तरह नहीं पचता। कभी-कभी अधिक पचता है। प्राणों के सूक्ष्मयंत्रों में अन्न के स्थूल कण पहुँच जाते हैं और जमा होकर सड़ने लगते हैं, उसी से रोग उत्पन्न होते हैं। इस प्रकार मानसिक रोग- ‘आधि’ से ही शारीरिक रोग- ‘व्याधि’ व्याधि उत्पन्न होते हैं। उन्हें ठीक करने के लिये मनुष्य को औषधि की उतनी आवश्यकता नहीं, जितनी कि इस बात की कि वह अपने बुरे स्वभाव और मनोविकारों को ठीक कर लें।”

उक्त तथ्य की पुष्टि अब चिकित्सा अनुसंधानों से भी हो गयी है। वैज्ञानिक मनोवैज्ञानिक, चिकित्सक अब इस तथ्य को गहराई से समझने लगे हैं। इस संदर्भ में सुप्रसिद्ध चिकित्साविज्ञानी सर बी. डब्लू. रिचर्डसन ने अपनी कृति ‘दि फील्ड ऑफ डिसीजेज’ में लिखा है कि मानसिक उद्वेग एवं चिन्ताओं के कारण त्वचा की एलर्जी एवं फुन्सियों के प्रकोप देखे जाते हैं। कैंसर, हिस्टीरिया, मृगी आदि हालत में भी सबसे पहले मानसिक जगत में ही विकार बढ़े होते हैं।

अनुसंधानकर्ताओं ने दीर्घकाल तक शरीर की थकावट के कारणों की जाँच में जो प्रयोग किये हैं, उनका निष्कर्ष है कि लोगों की थकावट का कारण शारीरिक परिश्रम नहीं होता, वरन् उतावलापन, घबराहट, चिन्ता, विषम मनःस्थिति या अत्यधिक भावुकता होती है। निराशाजनित घबराहट, अधूरी आशाएं और शक्ति से अधिक कामनाएं, भावुकता की परस्पर विरोधी उलझनें भी रोगी में थकान पैदा करती हैं। हीनभावना से भी शरीर टूटता है। थकान से बचने के लिये आवश्यक है कि मन में सदैव प्रसन्नता और आशावादी विचारों का संचार किये रखा जाये। मस्तिष्क की स्वस्थता आर आत्मा की सुख-शान्ति के लिये सुव्यवस्थित और अच्छे विचारों का मन में निरन्तर उठते रहना आवश्यक है। श्रेष्ठ विचार एवं उच्च भावनाएं ही आत्मा का भोजन और पेय है।

मनःचिकित्सकों का कहना है कि बुरे विचार रक्त में विकार उत्पन्न करते हैं और तभी शरीर में रोगाणुओं-विषाणुओं की वृद्धि होती है। यह विचार या भावनाओं के आवेश पर निर्भर है कि उनका प्रभाव धीरे होता है या शीघ्र, पर यह निश्चित है कि मन के भीतर अदृश्य रूप से जैसे अच्छे या बुरे विचार उठते रहते हैं, उसी तरह के रक्तकण शरीर को सशक्त या कमजोर बनाते रहते हैं, मनोभावों की तीव्रता की स्थिति में प्रभाव भी तीव्र होता है। यदि कोई विचार हल्के उठते हैं तो उससे शरीर की स्थूल प्रकृति धीरे-धीरे प्रभावित होती रहती है और उसका कोई दृश्यरूप कुछ समय के पश्चात् देखने में आता है।

भारत के ऋषियों ने तो मन की शक्ति-सामर्थ्य को मानव मात्र के लाभ हेतु उद्भासित किया ही है, पाश्चात्य वैज्ञानिकों एवं चिकित्सकों ने भी इस विषय पर काफी शोध कार्य किये हैं। ‘इन्फ्लुएन्स ऑफ दि माइण्ड अपान दि बॉडी’ नामक अपनी अनुसंधानपूर्ण कृति में विद्वान लेखक ने लिखा है कि पागलपन, मूढ़ता, लकवा, अधिक पसीना आना, पाण्डु रोग, बालों का शीघ्र गिरना, रक्तहीनता, घबराहट, गर्भाशय में बच्चों की विकृति, चर्मरोग, फोड़े-फुन्सियाँ, एग्जिमा आदि अनेक बीमारियाँ मानसिक क्षोभ स ही उत्पन्न होती हैं। इस तथ्य की पुष्टि अमेरिका के मनोवैज्ञानिक चिकित्सकों के एक दल से भी की है। उन्होंने जो रिपोर्ट प्रकाशित की है, उसके अनुसार, शारीरिक थकावट के सौ रोगियों में से 90 को काई शारीरिक रोग नहीं था, वरन् वे मानसिक दृष्टि से दूषित व्यक्ति थे। अपच के 70, गर्दन के दर्द के 75, सिर दर्द और चक्कर आने के 80-80, गले के दर्द के 90 और पेट में वायुविकार के 99 प्रतिशत रोगी केवल भावनाओं के दुष्परिणाम से पीड़ित थे। पेट में अल्सर जैसे मूत्राशय में सूजन जैसी बीमारियों के 50 प्रतिशत रोगी निर्विवाद रूप से अपने दुर्गुणों के कारण पीड़ित थे। शेष के बारे में कोई निश्चित राय इसलिये नहीं बनायी जा सकी, क्योंकि उनका विस्तृत मानसिक अध्ययन नहीं किया जा सका।

यह एक तथ्य है कि रोग तन में नहीं, पहले मन में पनपता है। मानसिक स्थिति में विकृति आते ही शरीर का ढांचा लड़खड़ाने लगता है। स्पष्टतः सारे शरीर पर मन का नियंत्रण है। उसका एक अचेतन भाग रक्त संचार, श्वाँस- प्रश्वास, आकुंचन-प्रकुँचन, निद्रा, पलक झपकना, पाचन, मल-विसर्जन आदि स्वसंचालित क्रिया-कलापों पर नियंत्रण करता है और दूसरा सचेतन भाग विभिन्न प्रकार के जीवन-व्यवहारों के लिये दसों इन्द्रियों को, अंग-प्रत्यंगों को सक्रिय करता है। शरीर और मन का विच्छिन्न सम्बन्ध है। इस तथ्य को जो जानते हैं, उन्हें विदित है कि मन को असंतुलित करने का अर्थ न केवल शोक-सन्तापों में डूबकर असंतोष एवं उद्वेग की आग में जलना है, वरन् अच्छे-भले शरीर को भी रोगी बना डालना है।

अनेकों कठिन एवं कष्टसाध्य बीमारियों के उपचार ढूंढ़ लिये गये हैं, पर एक रोग आज भी ऐसा है जो अनेकों औषधियों के उपरान्त भी काबू में नहीं आ रहा है और वह है- जुकाम। शरीर-शास्त्रियों के अनुसार जुकाम के भी वायरस विषाणु होते हैं, पर उनकी प्रकृति अन्य सजातियों से सर्वथा भिन्न है। चेचक आदि का आक्रमण एक बार हो जाने के उपरान्त शरीर में उस रोग के लड़ने की शक्ति उत्पन्न हो जाती है, फलतः नये आक्रमण का खतरा नहीं रहता, पर जुकाम के बारे में यह बात नहीं है। वह बार-बार और लगातार होता रहता है। एक बार जिस दवा से अच्छा हुआ था, दूसरी बार उससे अच्छा नहीं होता, जबकि यह बात दूसरी बीमारियों पर लागू नहीं होती।

कनाडा के मूर्धन्य शरीरशास्त्री एवं मनोवैज्ञानिक डॉ. डेनियल कोपान का इस सम्बन्ध में कहना है कि जुकाम उतना शारीरिक नहीं, जितना मानसिक रोग है। जब मनुष्य थका हारा और निढाल होता है, तो उसे अपनी असफलतायें निकट दीखती हैं। उस लाँछन से बचने के लिये कमजोर मनोबल जुकाम को बुला लेता है, ताकि दूसरे उसकी हार का दोष इस आपत्ति के सिर मढ़ते हुए उसे निर्दोष ठहरा सकें। यह रोग वस्तुतः अंतर्मन का अनुदान है, जो व्यक्ति को स्वल्प शारीरिक कष्ट देकर उसे असफलता के लाँछन से बचाता है। ऐसा रोगी बहुत हद तक पराजय की आत्म-प्रताड़ना से बच जाता हैं। जुकाम की दैवीविपत्ति टूट पड़ने से वह हारा उसकी योग्यता, हिम्मत एवं चेष्टा में कोई कमी नहीं थी।यह मान लेने पर मनुष्य को सान्त्वना की एक हल्की थपकी मिल जाती है। अन्तःचेतना इसी प्रयोजन के लिए जुकाम का ताना-बाना बुनती है।

डॉ. कोपान ने अपनी मान्यता की पुष्टि में अनेकों प्रमाण प्रस्तुत किये हैं। खिलाड़ी लोग प्रतियोगिता के दिनों में, विद्यार्थी परीक्षा के दिनों में तथा प्रत्याशी चुनावतिथि पर प्रायः जुकाम-पीड़ित होते हैं और इनमें अधिकाँश ऐसे होते हैं जिन्हें अपनी सफलता पर सन्देह होता है और हार की विभीषिका दिन को कमजोर बना देती है।

जुकाम का कारण यों तो सर्दी-गर्मी या विषाणु माने जाते हैं और उसी को आधार मानकर उपचार किया जाता है, परन्तु इतने से ही रोग मूलरूप से समाप्त नहीं हो जाता। वस्तुतः जुकाम को शारीरिक नहीं, मानसिक रोग कहना अधिक उपयुक्त होगा। इन दिनों अधिकाँश रोगों के मूल में मानसिक विकृतियाँ सामने आ रही हैं। शरीर के अंदरूनी अवयवों में आयी खराबी के कारण उत्पन्न होने वाली परेशानियाँ तो आसानी से दूर हो जाती हैं। शरीर स्वयं ही उनकी सफाई कर लेता है, परन्तु कई घातक रोग- जिन्हें असाध्य भी कहा जाता है, मनोविकारों की ही परिणति होते हैं। हिस्टीरिया को ही लें, तो इस व्याधि से पीड़ित व्यक्ति की कैसी दयनीय स्थिति होती है, यह किसी से छिपा नहीं है। जब दौरा पड़ता है तब सारा शरीर विचित्र जकड़न एवं हड़कम्प की ऐसी स्थिति में फंस जाता है कि देखने वाले भी घबराने लगें। जहाँ सुरक्षा की व्यवस्था न हों, वहाँ यदि दौरा पड़ जाय तो दुर्घटना भी हो सकती है। सड़क पर गिरकर किसी वाहन की चपेट में आ जाने, आग की समीपता होने पर जल मरने की आशंका बनी ही रहती है। मस्तिष्कीय जड़ता के कारण बुद्धि मन्द होती जाती है और क्रिया-कुशलता की दृष्टि से ऐसा व्यक्ति पिछड़ता ही जाता है। हिस्टीरिया व आर्गेनिक इलीलेप्सी (मिरगी) में अन्तर है, पर लक्षण एक जैसे ही हैं। दौर पड़ने के बाद जब होश आता है कि रोगी अनुभव करता है, मानो कई दिनों की बीमारी के बाद उठने जैसी अशक्तता ने उसे घेर लिया है। लोग सोचते हैं कि ऐसा रोग होने की अपेक्षा यदि एक हाथ-पाँव चला जाता है तो कहीं अच्छा रहता।

हिस्टीरिया के सम्बन्ध में खोज-बीन करने पर इतना ही जाना जा सका है कि यह अचेतन मन में पड़ी हुई किसी ग्रन्थ का अवरोध है। मस्तिष्कीय संरचना के बारे में बहुत कुछ खोज-बीन हो चुकी है और उन खोजों के आधार पर इस निष्कर्ष पर पहुँचा गया है कि इस रोग का कारण मन में जमी हुई बहरी ग्रन्थियाँ हैं। विविध प्रकार की इस रोग सदृश मूर्च्छायें भी इसी तरह मानसिक सन्तुलन में प्रत्यक्ष या परोक्ष अवरोध उत्पन्न होने से पैदा होती है।

मनोविकार अनेकानेक रोगों को जन्म देते हैं। अमेरिका के प्रसिद्ध मनःचिकित्सक डॉ. रवर्ट डी. राय ने विस्तृत सर्वेक्षण के बाद लिखा है कि कैंसर, हृदयरोग और क्षय जैसे रोगों को उत्पन्न करने में मनोविकृतियां भी प्रमुख हैं, फिर भी ऐसे व्यक्तियों की संख्या बहुत है, जो मानसिक विकृति से ग्रस्त रहते हैं। इनमें से एक-तिहाई ही उपचार के लिये आते हैं, दो तिहाई तो अपनी स्थिति को समझ तक नहीं पाते और ऐसे ही अस्त-व्यस्त स्थिति में स्वयं दुख पाते और दूसरों को दुख देते हुए भटकते रहते हैं। ‘दि फिलॉसफी ऑफ लौंग लाइफ’ नामक अपनी पुस्तक में जीनमाइनोल ने लिखा है कि जल्दी मृत्यु का एक बहुत बड़ा कारण है- मृत्युभय। लोग बुढ़ापा आने के साथ-साथ अथवा छुटपुट बीमारियाँ उत्पन्न होते ही मृत्यु की आशंका से भयभीत रहने लगते हैं और यह डर उनके मस्तिष्क की बाहरी पर्तों में इस कदर धंसता जाता है कि देर तक जी सकना कठिन बन जाता है। वह डर ही सबसे बड़ा रोग है, जो मृत्यु को अपेक्षाकृत जल्दी ही लाकर खड़ा कर देता है।

अरब देशों में कुछ शताब्दियों पूर्व एक प्रख्यात चिकित्सक हुए हैं- हकीम इब्नेसीना। उन्होंने अपनी पुस्तक ‘कानून’ में अपने ऐसे अनेकों चिकित्सा अनुभवों का उल्लेख किया है कि अमुक प्रचार के मानसिक उभारों के कारण शरीर में अमुक प्रकार की विकृतियाँ या बीमारियाँ उठ खड़ी होती हैं। चिकित्सा-उपचार में उन्होंने औषधियों के स्थान पर उनकी मनःस्थिति बदलने के उपाय बरते और असाध्य प्रतीत होने वाले रोग आसानी से अच्छे हो गये।

वस्तुतः हमारी अंतःचेतना का, विचारणा एवं भावना का जैसा भी स्तर होता है, उसकी के अनुरूप हमारे मन-मस्तिष्क, नाड़ी संस्थान एवं अवयवों के क्रिया-कलाप का ढाँचा विनिर्मित होता चला जाता है और तदनुरूप ही ढर्रा चलता है। आन्तरिक उद्वेग की ऊष्मा सारे ढाँचे को प्रभावित करती है और इतना ताप पैदा कर देती है, जिससे जीवन-तत्व अपनी नैसर्गिक कोमलता और सरलता को गंवा बैठता है। मनोविकार एक प्रकार की ऐसी आग भीतर ही भीतर जलाये रखते हैं, जिससे स्वास्थ्य के लिये उत्तरदायी तत्व स्वतः ही विनष्ट होते चले जायें। इन्द्रिय भोगों की ललक और संग्रह, स्वामित्व की लिप्सा को वासना एवं तृष्णा कहा जाता हैं। यह न बुझने वाली अग्नि शिखायें जिनके भीतर ही जल रही होंगी, वे अपनी शाँति और समस्वरता को निरन्तर खोते चले जायेंगे।

जिन्हें चिन्ता, भय, क्रोध, असंतोष सवार रहते हैं, जो निराश और अवसाद ग्रस्त बैठे रहते हैं, ईर्ष्या, द्वेष, प्रतिशोध, कपट और मत्सर की दुष्प्रवृत्तियाँ जिन पर सवार रहती हैं, चिन्तन में निकृष्टता भरी रहती हैं, उनका अन्तःकरण निरन्तर उद्विग्न रहता हैं। मन में तनिक भी संतोष समाधान नहीं होता। यह उद्विग्नता सारी अन्तःस्थिति में ज्वार-भाटा उठाती और उसे बेतरह मथती रहती है। ऐसी विषम स्थिति में ग्रस्त किसी भी व्यक्ति का स्वास्थ्य सन्तुलित नहीं रह सकता। अच्छा होगा कि अनावश्यक ताप पैदा करने वाले इन मनोविकारों, विक्षोभों से बचने और शाँत-सन्तुलित, संतुष्टि, हंसी-खुशी भरी जीवनरीति अपनाने का प्रयास किया जाय।

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