
तुम्हारा सौजन्य भी और मेरा पराक्रम भी(Kahani)
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मंद वायु आँधी से बोली—”दीदी, मैं जहाँ जाती हूँ लोग स्वागत करते हैं। आपका आभास पाते ही डरते−छिपते हैं। हमारा लक्ष्य तो लोकमंगल का है, फिर क्यों आप इस रूप में सबको परेशान करती हैं।”
आँधी बोली—”बहन, तेरी उपयोगिता अपनी जगह है—मेरी अपनी जगह। स्थान−स्थान पर सड़न, जहरीला धुँआ, गुबार आदि एकत्रित हो जाते हैं। कहीं प्राणवायु की मात्रा कम हो जाती है। इनका निवारण तुम्हारी गति से संभव नहीं, इसीलिए कभी−कभी मैं सक्रिय हो जाती हूँ। तुम लोगों को तसल्ली देती हो, मैं घुटन पैदा करने वाले विकारों का निराकरण करती हूँ। लोकमंगल के लिए दोनों आवश्यक हैं। तुम्हारा सौजन्य भी और मेरा पराक्रम भी।”