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Magazine - Year 2001 - Version 2

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पीस उतारे हाथ से, सहज आसिकी नाहिं

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अद्वैत वेदान्त के प्रसिद्ध विद्वान् श्री मधुसूदन सरस्वती ने ‘अद्वैत-सिद्धि’ लिखी, पर इससे उन्हें संतुष्टि नहीं मिली। बाद में उन्होंने ‘आनन्द मन्दाकिनी’ एवं ‘सरस भक्तिशास्त्र-भक्ति रसायन’ की रचना की और यह स्वीकार किया कि अब उन्हें सच्चा सुख मिला है। सचमुच भक्ति इतनी सरस एवं मनमोहक है कि बड़े-बड़े ज्ञानी एवं तपस्वी भी प्रेम एवं आनन्द के इस महासागर में एक बार ही सही डुबकी अवश्य लगाते हैं।

भगवान् को भी भक्ति ही सबसे ज्यादा प्रिय है। श्री रामचरित मानस में प्रभु स्वयं कहते है- ‘यदि लोक और परलोक दोनों में आप सुख पाना चाहते हों तो मेरी यह बात गाँठ बाँध लीजिए कि सबसे सुलभ व सुख देने वाला मार्ग मेरी भक्ति (ईश्वर भक्ति) ही है। इस भक्ति की शाश्वत महिमा वेदों और पुराणों में भी गायी है। जब तक ज्ञान मार्ग पर चलने की बात है वह बहुत ही कठिन है और उसे पाने में बड़ी-बड़ी बाधाएँ आती हैं। उसका साधन भी सरल नहीं है। तथा मन के लिए कोई आधार भी नहीं है। यदि बहुत तपस्या करने पर कोई ज्ञान प्राप्त कर भी ले, तो भी यदि उसके हृदय में भक्ति न हो तो वह मुझे तनिक भी प्रिय नहीं लगता। मुझे भक्ति ही अत्यंत प्रिय है। वही मुझे आकर्षित करती है। मेरा और भक्त का मिलन कराती है।’

भक्ति में कहीं कोई विधि-निषेध नहीं है। भक्ति में सबका समान अधिकार है। उसे किसी भी अवस्था में शास्त्र से निषिद्ध नहीं कहा जा सकता। भक्ति विशुद्ध रूप से भगवान् के प्रति अनुराग है और अनुराग में अधिकार भेद का प्रश्न ही नहीं उठता। जिसके हृदय में भी भगवान् के प्रति अनुराग का उदय होता है, मनुष्य से लेकर पशु-पक्षी तक सभी पवित्र हो जाते हैं। ‘नारद भक्ति सूत्र’ में स्पष्ट कहा गया है कि भक्तों में जाति, विद्या, रूप, कुल, धन, क्रिया आदि का भेद नहीं होता।

भगवान् की भक्ति सर्वात्मा की ही सेवा है। इसी से भक्ति करने पर सम्पूर्ण विश्व को तृप्त करने का फल मिल जाता है। भक्त में सारे सद्गुण निवास करते हैं। भक्ति में स्वयं भगवान् भक्त के प्रति आकर्षित होते हैं। इतना आकर्षण धर्मानुष्ठान, योगाभ्यास, विद्या, तपस्या एवं त्याग में नहीं है क्योंकि भक्ति केवल परिश्रम, जानकारी अथवा स्पर्श मात्र नहीं है। यह प्रेम है। हृदय की एकता है। कहा भी गया है-भक्तेः फलमीश्वरवशीकारः।

अर्थात्- भक्ति में भगवान् को वश में करने की सामर्थ्य है।

भक्ति के आविर्भाव के साथ ही सारी अज्ञानता एवं पाप नष्ट हो जाते हैं। भागवत् के ग्यारहवें स्कंध में स्पष्ट वर्णित है कि ‘जैसे प्रदीप्त अग्नि ईंधन को भस्म कर देती है वैसे ही भगवद् भक्ति संचितादि पाप समूहों को संपूर्णतः भस्म कर देती है।’ पद्म पुराण में कहा गया है कि ‘ भक्ति से पाप के तीनों रूप- कूट, बीज और फलोन्मुख नष्ट हो जाते हैं। भागवत् के चतुर्थ स्कंध में बताया गया है कि इंद्रियों के संयम और मन को निर्विषय बनाने में ग्रंथिभेद नहीं होता, परन्तु भक्ति कर्माशय ग्रंथि को सर्वथा निर्ग्रंथ बना देती है।’

यदि भक्ति सच्ची हो तो उपास्य देव के प्रति प्रेम बढ़ता जाता है। ध्यान में उन्हीं की छवि खेलने लगती है। ऐसी प्रतीति होने लगती है कि वे सदा समीप हैं। अंत में यह अवस्था आती है कि अंदर-बाहर वही है और वही सबके हृदय में है। उन्हें छोड़ ब्रह्मांड में और कोई नहीं। मेरे अंदर वही है और मैं भी वही हूँ। जब भी किसी जीवात्मा को ऐसा अनुभव हो तो समझना चाहिए कि उस पर इष्ट देव की असीम अनुकम्पा हुई है। कहा भी गया है- ‘मुक्तिः ददाति कश्चित् न भक्तियोगम्’ अर्थात् स्वयं भगवान् भी भजन करने वालों को मुक्ति सुलभ कर देते हैं, पर भक्ति सबको नहीं देते।

ऐसे प्राणी को साँसारिक मोह-माया फिर नहीं बाँध सकती। उसके अंदर सत्य का प्रकाश ज्योतिर्मान हो उठता है। वह स्वार्थपरता छोड़कर अन्य जीवों का भला सोचता है। देखने में एक साधारण मनुष्य होते हुए भी उसकी अन्तःस्फूर्ति प्रभु के द्वारा जाग्रत् हो चुकी होती है। वह दिव्य शक्ति स्वयं उसका पथ-प्रदर्शक बनती है। अहंकार तो उसे छू भी नहीं सकता। ‘मेरा मुझमें कुछ नहीं जो कुछ है सो तोर’ का अपने-आप चिंतन होने लगता है।

सभी भक्ति दर्शन ईश्वर के प्रति परमानुरक्ति को ही भक्ति कहते हैं। अंगिरा ने स्नेह, प्रेम एवं श्रद्धा के अतिरेक से ईश्वर के प्रति अलौकिक अनुराग को भक्ति की संज्ञा दी है। अज्ञातकतृक भक्ति मीमाँसा में भक्ति को मन के ‘उल्लास विशेष’ का नाम दिया गया है। उनके मत में रस की समग्र सामग्री से भक्ति का आविर्भाव होता है इसलिए वह रस ही है। वह जन्य नहीं है स्वयं उल्लसित रस है। स्वामी हरिहरानंदारण्य भक्ति के दो भेद मानते हैं। प्रथम, जिसमें शान्ति होती है वह परा भक्ति होती है, द्वितीय गौड़ी भक्ति है।

यह सत्य है कि ईश्वर के प्रति परमानुराग ही भक्ति है। परन्तु यह प्रश्न उठना भी स्वाभाविक है कि उसकी व्यावहारिक पहचान क्या है? हमारे ऋषियों ने इसकी कई पहचान बतायी हैं-

1. पराशर नंदन व्यास का अभिमत है कि सम्पूर्ण विश्व को परमात्मा का स्वरूप मानकर उसकी सेवा के रूप में वह अभिव्यक्त होता है।

2. शाण्डिल्य ऋषि का कथन है कि परम प्रियतम ईश्वर की जो भी वस्तु अपने को प्यारी लगे उसी में रम जाना भक्ति का लक्षण है।

3. गर्गाचार्य का मत है कि प्रभु के चरित्र, नाम गुण आदि का श्रवण और उनको गुनगुनाना प्यारा लगता है।

4. भारद्वाज ऋषि कहते हैं परमानन्द में मग्न होकर परमेश्वर की महिमा का वर्णन करना भक्ति है।

5. कश्यप ऋषि का मत है कि अपने सभी कर्म भगवान् को अर्पण करना भक्ति का लक्षण है।

6. देवर्षि नारद के अनुसार, अपना समग्र आचरण प्रभु को अर्पित कर देना एवं कभी भगवद् विस्मरण हो जाये तो परम व्याकुलता का अनुभव करना भक्ति का लक्षण है।

7. ब्रजवासियों ने अपनी मति, रति, गति, जीवन एवं प्राण भगवान् में लीन कर देने को भक्ति माना है।

भक्ति का अर्थ है श्रेष्ठता से प्रगाढ़ स्नेह। भक्ति में देवत्व के अनुरूप आत्म विस्तार की भावना का समावेश होता है। सच्चे भक्त में आदर्शों के प्रति प्रेम के साथ ही पिछड़ों को उठाने की सहज उत्कंठा भी होती है। उसके भीतर उमड़ने वाली श्रद्धा और करुणा कोरी भावना नहीं होती। अपितु उसकी यह विह्वलता अनेकों असमर्थों को अनुप्राणित करती है। विषधर को मणिमाला में, काँटों को फूलों में, लोहे को स्वर्ण में एवं विष को अमृत में बदलने वाली यह विनय रूपिणी भक्ति संतप्त मानव के लिए किसी अलौकिक औषधि से कम नहीं।

भक्ति मन की वह दशा है जिसमें देवत्व का माधुर्य, मानवी मन को प्रबल रूप से अपनी ओर खींच लेता है। जिसे यह प्राप्त होती है उसके अंतर्मन का हर द्वन्द्व मिट जाता है। सारे तनाव एवं संघर्ष समाप्त होकर मन की शक्ति में सिमट जाते हैं। मन के सारे विकार नष्ट हो जाते हैं एवं उदात्त भावों की सृष्टि होती है। मनुष्य ऐसे पुनीत वातावरण में स्वयं को परिवेष्टित करता है, जिसमें सारे अशुभ संकल्प-विकल्प तिरोहित हो जाते हैं।

आत्म समर्पण, एकाग्रता, निश्चलता, तीव्र उत्कंठा एवं दृढ़ श्रद्धा ही भक्ति को पल्लवित एवं पुष्पित करती है। भक्ति, भक्त के अंग-अंग, श्वास-श्वास से प्रकट होती है। भक्त का आचार, भक्त की शान्ति, भक्त की सेवावृत्ति, भक्त की सहज करुणा से सब स्वतः यह प्रकट कर देते हैं कि यहाँ भक्ति आ गई। अखण्ड को समझने के लिए स्वयं खण्ड-खण्ड होना पड़ता है। विराट् के आगे लघु बन जाना पड़ता है। भक्ति प्रवेश करती है दीनता के रूप में, प्रार्थना के रूप में। जब तक धन, रूप, वैभव, विद्या, पद का कुछ भी अभिमान अपनी पहचान का आकाँक्षी है तब तक भक्ति के रूप व ऐश्वर्य का आभास भी नहीं पाया जा सकता।

संत पलटू ने कहा है- ‘सीस उतारे हाथ से सहज आसिकी नाहिं’ अपने अन्तरतम के सिर को, अपने अहंकार को स्वयं ही काटना पड़ता है। इसे कोई दूसरा नहीं काट सकता। कोई अन्य उपाय नहीं है जिसके द्वारा इस भीतर के अहंकार को बाहर से काटा जा सके। वो अहंकार जो दूसरों की जरा सी चोट से तिलमिला जाता है। बदला और प्रतिशोध लेने को तैयार हो जाता है। इस अहंकार को स्वयं ही काट पाना निश्चित रूप से अत्यंत कठिन है।

समर्पण भक्ति की पहली शर्त है। समर्पण अर्थात् ‘मैं’ का विसर्जन। जिस ‘मैं’ के अहंकार को ज्ञानी व तपस्वी अंतिम कदम पर गिराते हैं, उसे भक्त को पहले ही कदम पर गिराना पड़ता है। जो यह सोचते हैं कि अपने को भी बचा लें और परमात्मा को भी पा लें निश्चय ही उसके लिए यह पथ महादुर्गम है।

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