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Magazine - Year 2001 - Version 2

Media: TEXT
Language: HINDI
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श्रीमद्भगवद्गीता में योग -2

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हीरक जयंती वर्ष के संदर्भ में विगत अंक के योग−साधना विशेषाँक में प्रथम कड़ी में गीता में योग की चर्चा कहाँ−कहाँ किस−किस रूप में हुई है, इसका विवरण दिया गया था। इसमें हमने गीता के प्रथम चार अध्यायों की ही चर्चा की थी। अब चौथे अध्याय के कुछ शेष प्रसंगों से लेकर अठारहवें अध्याय तक ‘गीता में योग‘ की चर्चा इस कड़ी में। आगामी माह से युगगीता—27 के साथ अगस्त 2001 के अंक के बाद प्रवाह को पाठकगण पढ़ सकेंगे।

श्री भगवान् अर्जुन को बताते हैं कि कर्म करते हुए भी उनसे न बँधना सबसे बड़ा योग है। वे चौथे अध्याय के 22वें श्लोक में कहते हैं कि “जो बिना किसी प्रकार की इच्छा के प्राप्त हुए पदार्थों से संतुष्ट रहता है, ईर्ष्या का जिसमें अभाव होता है, हर्ष−शोक आदि द्वंद्वों से परे होता है तथा सिद्धि−असिद्धि में समान भाव बनाए रखता है, वही सच्चा कर्मयोगी है। उसे कर्म लिप्त नहीं करते। जो योगीजन अपनी समस्त इंद्रियों को संयमरूपी अग्नि में हवन करते हैं, वे न केवल यज्ञ का मर्म जानते हैं, सच्चे साधक भी हैं (श्लोक 26 से 38 तक)। यही नहीं नियमित आहार करने वाले प्राण और अपान की गति को रोक कर प्राणों को प्राणों में ही हवन करने वाले योगी तो इस महायज्ञ द्वारा पापों को भी नष्ट कर देते हैं (श्लोक 29, 30)।

योग विज्ञान का पाठ्य पुस्तिका : गीता

श्रीमद्भगवद्गीता बड़ा निराला ग्रंथ है। गागर में सागर समाए इस ग्रंथ में जितने गोते लगाए जाते हैं, उतने ही रत्न मिलते चले जाते हैं। योग विज्ञान की तो यह एक पाठ्य पुस्तिका है। यह पाठक पर निर्भर है कि वह किस सूत्र को इसमें से अपने ऊपर लागू करे व मात्र पठन−पाठन नहीं क्रियान्वयन की गहराई तक उतरे। इतना होने पर ही गीता का योग जीवन−योग बन पाता है। योग और यज्ञ का सार्थक समन्वय जो गीता में है, वह कहीं भी इतनी सुँदर काव्यात्मक अभिव्यक्ति के रूप में नहीं मिलता। इसके लिए वे अगला संकेत देते हैं कि यदि यह ज्ञान तू पाना ही चाहता है, तो तत्त्वदर्शी ज्ञानियों के पास जाकर भली−भाँति समझ, उनकी सेवा कर व निष्कपट सरल भाव से उनका उपदेश सुन (तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया। श्लोक 34, अध्याय 4) एवं यही ज्ञानरूपी नौका तुझे आप समुद्र से तार पाएगी (श्लोक 36) । इंद्रियों में संयम रखकर, साधनापरायण होकर एवं अंदर श्रद्धा विकसित कर ही व्यक्ति ऐसे ज्ञान को प्राप्त होता है, जो उसे शाँति एवं भगवद्सत्ता से एकाकार कराती है (श्लोक 59)। कर्मयोग में ज्ञान एवं ज्ञानयोग में कर्म का निराला समन्वय इन श्लोकों में हुआ है।

योगी की भोगों में रुचि नहीं होती

आगे भगवान् पाँचवें कर्मसंन्यासयोग नामक अध्याय में कहते हैं कि कर्मयोग और संन्यास एक ही समझे जाने चाहिए। अंतःकरण को वश में करके योगी नवद्वारों वाले शरीररूपी घर में सब कर्मों को मन से त्याग कर आनंदपूर्वक सच्चिदानंद परमात्मा के स्वरूप में ही सदैव स्थित रहता है। (श्लोक 13, अध्याय 5)। बाहर के विषयों के प्रति आसक्ति छोड़ जो साधक आत्मा में स्थित ध्यानजनित सात्विक आनंद की प्राप्ति का प्रयास करता है, वह निश्चित ही उस ‘अक्षय आनंद’ की अनुभूति भी करता है (श्लोक 21, अध्याय 5)।” न तेषु रमते बुधः” के माध्यम से इसके अगले श्लोक में भगवान् अर्जुन को बताते हैं कि योगी की भोगों में रुचि नहीं होती, क्योंकि वह जानता है कि ये दुःख के ही हेतु हैं। अतः बुद्धिमान−विवेकी पुरुष उनमें अपना मन नहीं लगाता। सचमुच यही तो सभी प्रकार से योग−साधना की सफलता की कुँजी है। इसी अध्याय में भगवान् ध्यानस्थ होने की विधि भी बताते हैं। वे कहते हैं कि “बाहर के विषय−भोगों का चिंतन न करते हुए उन्हें बाहर ही रख (मन में न आने देकर) नेत्रों की दृष्टि को भृकुटी के बीच में स्थित करके तथा नासिका में विचरने वाले प्राण और अपान वायु को सम करके, जिसकी इंद्रियाँ, मन व बुद्धि जीत ली गई हैं, ऐसा मोक्ष की इच्छा रखने वाला योगी इच्छा, भय और क्रोध से रहित होकर परमात्मा को प्राप्त कर लेता है अर्थात् मुक्त हो जाता है (श्लोक 27, 28 अध्याय 5)। यह एक प्रकार से ध्यान की विधि भी है, अंतः त्राटक की क्रियापद्धति भी तथा अंतर्गुहा में प्रवेश करने का मार्गदर्शन भी। इससे सुँदर योग का शिक्षण और क्या हो सकता है।

जीवन कला से ध्यान योग तक

जीवन जीने की कला ही योग है। इसके लिए व्यक्ति को सबसे पहले अपने मन को जीतना सीखना होगा। ‘आत्मसंयम योग‘ नामक छठे अध्याय में भगवान् इसी कारण एक पते की बात कहते हैं—

उद्धरेदात्मनाऽत्मानं नात्मानमवसादयेत्। आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः॥

“योगी को चाहिए कि अपने द्वारा ही संसार समुद्र से अपना उद्धार करे, अपने को अधोगति में न डाले। यह मनुष्य स्वयं ही तो अपना मित्र है और स्वयं ही अपना शत्रु।” अपने विचारों पर नियंत्रण कर जो न इंद्रियों के भोगों में, न कर्मों की आसक्ति में रुचि रखे, सदैव श्रेष्ठ चिंतन कर अपने आत्मविकास के लिए अपना पथ प्रशस्त करता चले, ऐसा व्यक्ति ही सही अर्थों में योगेश्वर श्रीकृष्ण के अनुसार योगी है। भगवान् 13, 14 श्लोक में ध्यानयोग की क्रियापद्धति पुनः अर्जुन को सिखाते हैं। वे कहते हैं कि “योगी को काया, सिर और गले को समान एवं अचल रखते हुए, स्थिर शरीर रखकर, अपनी नासिका के अग्रभाग पर दृष्टि जमाकर, अन्य दिशाओं को न देखकर, ब्रह्मचर्य में स्थित होकर, बिना किसी भय के, शाँत अंतःकरण के साथ परमात्मा में मन लगाना चाहिए। ऐसे योगी को परमानंद की पराकाष्ठारूपी चिरस्थाई शाँति मिलती है।”

चंचल मन को साधें कैसे

योग किसका सध पाता है? भगवान् अगले श्लोकों में कहते हैं कि उन्हीं को यह सिद्धि मिल पाती है, जो न बहुत खाते हैं, न बिलकुल कम खाते, न बहुत शयन करते हैं, न ही सदा जागते रहते हैं, अर्थात् यथायोग्य आहार−विहार एवं नियमित दिनचर्या का पालन करते हैं (श्लोक 16, 17)। जब ध्यान सही लग जाता है, तो उसका पता कैसे चले? भगवान् कहते हैं कि “जिस प्रकार वायुरहित स्थान में स्थित दीपक चलायमान नहीं होता, वैसे ही परमात्मा के ध्यान में लगे हुए योगी का जीता हुआ चित्त जरा भी विचलित नहीं होता। (श्लोक 19), ध्यान से बुद्धि शुद्ध होती है एवं परमात्मा का साक्षात्कार भी होता है (श्लोक 20)। मन तो चंचल है। सहज ही भागेगा। भगवान् कहते हैं, “जिन विषयों में यह चंचल अस्थिर मन विचरता है उन विषयों से उसे हटाकर बार−बार परमात्मा में ही नियोजित करें, निरुद्ध करें।” (श्लोक 26)। इसी अध्याय में अर्जुन की शंका उभरकर आती है “चंचलं हि मनः कृष्ण प्रमाथि बलवद्दृढम्” यह मन बड़ा चंचल, जबर्दस्त स्वभाव वाला एवं दृढ़ है। इसे वश में करना तो वायु को रोकने के समान कठिन लग रहा है (श्लोक 34-अध्याय 6)। भगवान् कहते हैं—यह अभ्यास एवं वैराग्य के भाव के विकास से ही वश में आएगा। प्रयत्नपूर्वक अभ्यास करते रहने से पिछले अनेक जन्मों के संस्कार बल से संसिद्ध होकर पापरहित हो परमगति को प्राप्त कराता है, ऐसा है यह योग (श्लोक 45)। इतना कहकर वे कहते हैं कि योगी तपस्वियों से भी श्रेष्ठ है, शास्त्र ज्ञानियों से भी श्रेष्ठ है तथा सकाम कर्म करने वालों की तुलना में योगी श्रेष्ठ है, इसलिए उसे योगी ही बनना चाहिए। (श्लोक 46)। तस्माद्योगी भवार्जुन के साथ समर्पण का संदेश देकर भगवान् का यह संदेश छठे अध्याय के आत्मसंयम योग के रूप में समाप्त हो जाता है।

पाठकगण ‘युगगीता’ की प्राथमिक भूमिका के पृष्ठो के माध्यम से जानते हैं कि गीता के प्रथम छह अध्याय कर्मयोग प्रधान हैं, अगले छह अध्याय भक्तियोग प्रधान तथा अंतिम छह अध्याय ज्ञानयोग प्रधान हैं। योग—गीता के श्लोकों में, सभी अध्यायों में भावरूप में समाया है। फिर भी क्रियापक्ष की चर्चा छठे अध्याय के बाद कम है। योगी बनने के लिए क्या कुछ जरूरी है, सही योग भावभूमि में कैसे सध पाता है, सच्चा ज्ञानी बनकर कैसे परमात्मा में स्वयं को लय किया जाए, यह बात स्थान−स्थान पर आई है। उसी क्रम में आगे चलते हैं।

मनुष्याणाँ सहस्रेषु

भगवान् ‘ज्ञान−विज्ञान योग‘ नामक सातवें अध्याय में कहते हैं, “अर्जुन! तू अनन्य प्रेम में भरकर, मुझमें आसक्ति रखकर मेरे परायण होकर, योग में लीन होकर, मेरे विभूतिवान स्वरूप को, जो गुणों से अभिपूरित है, बिना किसी प्रकार के संशय के जानने का प्रयास कर।” (प्रथम श्लोक) “हजारों मनुष्य जो जन्म लेते हैं, उनमें से कुछ ही मुझे प्राप्त करने का प्रयास करते हैं। उन यत्न करने वाले योगियों में से भी कोई एक ही मेरे परायण होकर मुझे तत्त्व से यथार्थ रूप में जान पाता है।” (श्लोक 3, अध्याय 7) अब यह जानना जरूरी है कि भगवान् को तत्त्व से कैसे जाना जाए। भगवान् के सही स्वरूप को कैसे समझा जाए। जानने के बाद ही तो आत्मतत्त्व (माइक्रोकाँसमाँस) का परमात्मतत्त्व (मैक्रोकाँसमाँस) में विलय हो पाएगा। यह जानकारी देने के लिए ही वे बताते हैं कि उनकी परा−अपरा प्रकृति में कहाँ−कहाँ मौजूदगी है। चार प्रकार के भक्त वे बताते हैं। अर्थार्थी (साँसारिक पदार्थों के लिए भजन करने वाले), आर्त (संकट निवारण के लिए भजन करने वाले), जिज्ञासु (परमात्मा को तत्त्वरूप में जानने की इच्छा से भजन करने वाले) तथा ज्ञानी। ऐसे में भगवान को प्रेमभक्ति रखने वाला ज्ञानी ही अति उत्तम जान पड़ता है (श्लोक 16, 17)। फिर भी वे कहते हैं, “मेरे भक्त चाहे जैसे अंत में वे मुझको ही प्राप्त होते हैं।”

‘मद्भक्ता यान्ति मामपि’ (श्लोक 23)। भगवान् इस अध्याय के शेष तथा आठवें अध्याय में अपने परमधाम की तथा उनमें दत्तचित्त हुए योगी की गति, पुनर्जन्म आदि की चर्चा करते हैं।

योगक्षेमं वहाम्यहम्

अन्यान्य मन से मुक्त होकर भगवान् का भजन, इनके नाम और गुणों का कीर्तन तथा उन्हीं में ध्यानयुक्त होकर अनन्य प्रेम से प्रभु की उपासना भी योग का एक साधन है, यह भगवान नवें अध्याय के 13-14 वें श्लोक में बताते हैं। “ऐसे अनन्य प्रेमी भक्तजनों को जो निष्काम भाव से भजन करते हैं, मैं स्वयं योगक्षेम प्राप्त करा देता हूँ।” यह आश्वासन प्रभु ने इसी अध्याय के 22वें श्लोक में दिया है। “पत्र, पुष्प, फल, जल जो भी कोई भक्त प्रेमभाव से अर्पित करता है, उसे भी वे प्रीति के साथ ग्रहण करते हैं।” यह भी उनकी घोषणा है (श्लोक 26)। कर्मबंधन से मुक्ति का एक ही उपाय है, जो कर्म करते हैं, खाते हैं, हवन करते हैं, दान देते हैं, तप करते हैं, वह सब उन्हीं प्रभु को अर्पित करें। (श्लोक 27)। ऐसा न होने पर तो व्यक्ति योनियों के चक्र में उलझता ही चला जाएगा। इसीलिए तो भगवत्परायण होकर योग में स्थित होना मुक्ति का मार्ग बताया गया है। भगवान् कहते हैं कि दुराचारी हो या कोई भी, यदि वह मेरी निष्काम भक्ति करता है, तो वह कभी नष्ट नहीं होता। (श्लोक 31)।

कालीऽस्मि लोकक्षयकृत्प्रवृद्धो

दसवें अध्याय (विभूति योग) में भगवान् अर्जुन को अपनी विभूतियों की जानकारी कराते हैं तथा फिर इतनी जिज्ञासा जगाकर ग्यारहवें अध्याय (विश्वरूप दर्शन योग) में दिव्य अलौकिक चक्षु प्रदान कर अपने विराट् रूप का, योगशक्ति का दिग्दर्शन करा देते हैं। “नमो नमस्तेऽस्तु सहस्त्रकृत्वः पुनश्च भूयोऽपि नमो नमस्ते” कहने वाला अर्जुन अति व्याकुल होकर कह उठता है कि” आप तो मुझे अपने चतुर्भुज विष्णु रूप में ही दर्शन कराइए।” अर्जुन के स्थिर चित्त को प्राप्त होने पर भगवान् कहते हैं कि सुदुर्दर्श अर्थात् बड़े दुर्लभ दर्शन वाला यह चतुर्भुज रूप मात्र अनन्य भक्ति के द्वारा देखा जा सकता है (श्लोक 53, 54)। बारहवाँ अध्याय (भक्तियोग) समर्पण की पराकाष्ठा तक अर्जुन को ले जाता है। भगवान् इसमें अपने भक्त से कहते हैं, “तू मुझ में ही में ही मन को लगा और मुझ में ही बुद्धि को लगा। इसके उपराँत तू मुझ में ही निवास करेगा, इसमें कुछ भी संशय नहीं है।” (श्लोक 8, अध्याय 12)। यही कुँजी है योग की। भगवान् में, आदर्शों में सत्प्रवृत्तियों में, मन व बुद्धि का नियोजित होना ही सच्च योग है। भगवान् कहते हैं कि “मुझमें अर्पण किए हुए मन−बुद्धि वाला मेरा भक्त मुझको प्रिय है।” (श्लोक 14) बारहवाँ अध्याय भक्तियोग के सर्वोपरि उत्कर्ष तक किसी भी योगी को ले जाता है। बीस श्लोकों वाला यह अध्याय हर साधक, हर योगी के लिए विशिष्ट महत्त्व वाला एवं नित्य पठनीय है।

श्रेत्रज्ञ एवं गुणात्रय की व्याख्या

तेरहवें से अठारहवें अध्याय तक ज्ञानयोगप्रधान गीता का उपदेश है। इसमें भी स्थान−स्थान पर योग साधनाप्रधान प्रसंग आए हैं। पहले ही श्लोक में श्री भगवान् कहते हैं कि यह शरीर एक ‘क्षेत्र’ है, खेत है, इसको जा जानता है वह क्षेत्रज्ञ तथा इसके तत्त्वज्ञान को जानने वाले को ज्ञानी कहते हैं। (श्लोक 1, अध्याय 13)। आगे भगवान् ज्ञान की परिभाषा देते हैं तथा परब्रह्म की व्याख्या करते हैं (ज्योतिषामपि तज्जयोतिः)। क्षेत्र−क्षेत्रज्ञ विभाग योग की यह व्याख्या प्रकृति, परब्रह्म व उससे एकत्व की परिणति पर केंद्रित है। अगला चौदहवाँ अध्याय गुणात्रय विभाग योग है। इसमें सतोगुण, रजोगुण, तमोगुण की व्याख्या है। कोई कैसे जाने कि उसमें योग−साधना द्वारा कुछ परिवर्तन हो रहे हैं, प्रगति हो रही है, इस निमित्त भगवान् श्रीकृष्ण अपने शिष्य से श्लोक 11 में कहते हैं कि “जिस समय इस देह में तथा अंतःकरण और इंद्रियों में चेतनता और विवेकशक्ति उत्पन्न होती है, उस समय ऐसा जानना चाहिए कि सत्त्वगुण बढ़ा है।” (श्लोक 11 अध्याय 14)। सत्त्वगुण से ज्ञान प्रात होता है एवं फल के रूप में सुख, परमशाँति एवं वैराग्य आदि की प्राप्ति होती है (16, 17 श्लोक)। योगसाधक निश्चित ही सतोगुण की कक्षा में उच्च स्थिति पर विराजमान होते हैं, ऐसा योगेश्वर का मानना है। भगवान् कहते हैं कि इन गुणों से परे जाकर गुणातीत भी बना जा सकता है, पर उसके लिए कर्त्तापन का अभिमान त्यागकर स्वयं को सच्चिदानंदघन परमात्मा में स्थापित करना होता है।

सच्चे योगी का क्या हो लक्ष्य

पंद्रहवाँ अध्याय पुरुषोत्तम योग है। संसाररूपी अश्वत्थ वृक्ष के माध्यम से यहाँ ज्ञान की जो व्याख्या की गई है, वह अपने में निराली है। ऊर्ध्व मूल वाले परमेश्वर के माध्यम से आरंभ इस वृक्ष की शाखा ब्रह्मरूप में अधोक्षेत्र में स्थित है तथा वेद इसके पत्ते हैं। इस वेद का तत्त्वज्ञान जिसे है, भगवान् कहते हैं—वह सच्चा योगी है। इस संसाररूपी पीपल वृक्ष की रचना को समझकर वैराग्यरूपी शास्त्र से अहंता, ममता, वासना, तृष्णा आदि मूलों को काटना ही सच्चे योगी का लक्ष्य होना चाहिए (श्लोक 1 से 4 तक)। वास्तव में आत्मतत्त्व को जानना ही योग की सर्वोच्च सिद्धि है। किंतु भगवान् के अनुसार इसके लिए अंतःकरण की शुद्धि अनिवार्य है (श्लोक 11)। अगला 16वाँ अध्याय है, दैवासुर संपद विभाग योग। इस अध्याय में भगवान् ने प्रथम श्लोक में ही “ज्ञान योग व्यवस्थितिः” कहकर दैवी संपदा के लक्षण बताए हैं। इसके आगे वे तीसरे अध्याय की तरह काम, क्रोध एवं लोभ को नरक के द्वार बताते हैं, जो आत्मा का नाश करने वाले हैं तथा योगी को पथभ्रष्ट करने वाले हैं। (श्लोक 21)।

श्रद्धामयोऽयं पुरुषः

अगला सत्रहवाँ अध्याय श्रद्धात्रय विभाग योग पर है। इसमें भगवान् तीसरे श्लोक में कहते हैं—

सत्त्वानुरुपा सर्वस्य श्रद्धा भवति भारत। श्रद्धामयोऽयं पुरुषो यो यच्छ्द्धः स एव सः॥

“हे भारत! सभी व्यक्तियों की श्रद्धा उनके अंतः करण के अनुरूप होती है। यह पुरुष श्रद्धामय है, इसलिए जो पुरुष जैसी श्रद्धा वाला है, वह स्वयं भी वही है।” इसकी विस्तार से व्याख्या की जाए, तो योगदर्शन का एक अति महत्त्वपूर्ण प्रसंग उजागर होता है कि जो व्यक्ति जैसा अपने विषय में चिंतन करता है, वह वैसा ही बनता चला जाता है, इसके व्यक्तित्व का निर्धारण उसकी स्वयं के प्रति दृष्टि के अनुसार तथा विधेयात्मक−निषेधात्मक चिंतन के अनुसार होता है। इसी अध्याय में भगवान् योगी का आहार भी वर्णित करते हैं

आयुः सत्त्वबलारोग्यसुखप्रीतिविवर्धनाः। रस्याः स्निग्धाः स्थिरा ह्द्या आहाराः सात्विकप्रियाः।

अर्थात् आयु, बुद्धि, बल, आरोग्य, सुख और प्रीति को बढ़ाने वाले रसयुक्त, चिकने और स्थिर रहने वाले तथा स्वभाव से ही मन को प्रिय ऐसे आहार अर्थात् भोज्य पदार्थ सात्विक साधक को प्रिय होते हैं अर्थात् योगी का यही आहार होना चाहिए। आगे भगवान कहते हैं कि योगी को मन संबंधी तप का भी पालन करना चाहिए। मन सदैव प्रसन्न हो, शाँत रहे उसका भगवत् चिंतन में नियोजन हो, मन का निग्रह होता रहे तथा अंतः करण के भाव पवित्र बने रहें (श्लोक 16)। भगवान् अंतिम श्लोक (28) में कहते हैं कि बिना श्रद्धा के किया गया कोई भी कार्य असत् है, न वह इस लोक में लाभदायक है, न मरने के बाद ही।

सात्विक धारणा शक्ति

अंतिम अठारहवाँ अध्याय है—मोक्ष संन्यासयोग। पूरी गीता सुनने के बाद इसी में अर्जुन अंत में (73 वें श्लोक) कह बैठते हैं कि इतना सब श्रवण करने के बाद मेरा मोह नष्ट हो गया व मैंने स्मृति प्राप्त कर ली। अब मैं बिना किसी संशय के आपकी आज्ञा का पालन करूंगा। इस अध्याय में यज्ञ, दान, तप आदि के कई प्रकारों की व्याख्या के बाद 33वें श्लोक में भगवान् ने कहा है—

धृत्या यया धारयते मनः प्राणेन्द्रियक्रियाः। योगेनाव्यभिचारिण्याः धृतिः सा पार्थ सात्त्विकी॥

अर्थात् “हे पार्थ! जिस दोषरहित अव्यभिचारिणी धारण शक्ति से मनुष्य ध्यानयोग के द्वारा मन, प्राण और इंद्रियों की क्रियाओं को धारण करता है, वह धृति सात्विकी है।” भगवान् जिसे अव्यभिचारिणी धृति कह रहे हैं, उसका आशय है, भगवान के सिवाय अन्य साँसारिक दोषों पर विचार एवं उन विषयों को धारण करना व्यभिचार दोष है। जो उस दोष से रहित है, वह अव्यभिचारिणी धारणा है। भगवान् सात्विक सुख भी उसे कहते हैं, जिसमें व्यक्ति भगवान् के भजन, ध्यान, सेवादि में रमण करता है। विवेकशील दूरदर्शी उसी सुख की तलाश में रहते हैं, ऐसा भगवान् का मत है। (श्लोक 36, 37) अंतःकरण के निग्रह करने, इंद्रियों का दमन कर सतत परमात्मा की अनुभूति करने वाले को भगवान् ब्राह्मण कहते हैं (श्लोक 42)।

योगी के लक्षण

श्लोक 51-53 में योग की पराकाष्ठा की पहचान हेतु भगवान् कुछ लक्षण बताते हैं, “विशुद्ध बुद्धि वाला, हलका सात्विक भोजन नियमित करने वाला, एकाँत, शुद्ध देश का सेवन करने वाला, सात्विक धृति द्वारा अंतःकरण व इंद्रियों का संयम करके मन, वाणी और शरीर को वशीभूत कर लेने वाला, राग−द्वेष को सर्वथा नष्ट करके दृढ़ वैराग्य का आश्रय लेने वाला तथा अहं−−बल−काम−क्रोध−परिग्रह का त्याग कर निरंतर ध्यानयोग में लीन रहने वाला, ममता से दूर और परमशाँति से युक्त पुरुष सच्चिदानंद ब्रह्म में अभिन्न भाव से विराजमान होता है।”

कितनी सुँदर व विशद व्याख्या है एवं योग की फलश्रुतियों की पावन चर्चा है। परमेश्वर की शरण में ही जाने से परमशाँति मिलेगी, यह गीताकार का मत है। (श्लोक 62) एवं यही योग का लक्ष्य भी है। न प्रवचन से, न बहुत अध्ययन से, न ज्ञान से बल्कि परमात्मा को तत्त्व से समझकर आत्मसात् कर उनमें स्वयं को लय कर देना ही योग है एवं यही श्रीमद्भगवद्गीता का सबसे बड़ा व अनुपम संदेश है। इसी कारण वे कहते हैं,

सर्वधर्मान्परितयज्य मामेंकं शरणं व्रज। अहंत त्वा सर्वपापेभ्यों मोक्षयिष्यामि मा शुचः॥

तू संपूर्ण कर्त्तव्य−कर्मों को त्याग कर मुझमें उन्हें अर्पित कर के वल एक मुझ सर्वशक्तिमान परमेश्वर की शरण में आ जा। मैं तुझे सभी पापों से मुक्त कर दूँगा, तू शोक मत कर।” (श्लोक 66)।

इतना सुनने के बाद अर्जुन ही नहीं, किसी भी संशय युक्त योगपथ पर चलने वाले के सभी संदेह, संताप दूर हो जाते हैं एवं एक ही वाणी गुँजित होती है—

करिष्ये वचनं तव! करिष्ये वचनं तव॥

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