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Magazine - Year 2001 - Version 2

Media: TEXT
Language: HINDI
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राष्ट्रों व संस्कृतियों के विकास का माध्यम है भाषा

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भाषा भावों की अभिव्यक्ति है, विचारों का परिधान है। कल्पनाएँ अपना रंग भाषा के धरातल पर ही रंगती हैं। अव्यक्त इसी से प्राणवान हो व्यक्त होता है। धर्म, संस्कृति, इतिहास, साहित्य सभी अपना आकार भाषा के द्वारा लेते हैं। हरेक की अपनी भिन्न भाषा होती है। उपयोगिता के आधार पर इसका विकास होता है। भाषा रूपी इस साँस्कृतिक विरासत को नजरअंदाज करने से यह निरन्तर ह्रास होती जा रही है।

भाषा शब्द संस्कृति की भाषा धातु से बना है, जिसका अर्थ है बोलना या कहना। अर्थात् भाषा वह है जिसे बोला जाए। प्लेटो ने सोफिस्ट में वर्णन करते हुए कहता है विचार आत्मा की मूक या अध्वन्यात्मक संकेत हैं। यही जब ध्वन्यात्मक होकर शब्दों द्वारा प्रकट होता है तो इसे भाषा की संज्ञा दी जाती है। एनसाइक्लोपीडिया ऑफ ब्रिटेनिका में इसे इस तरह से परिभाषित किया है-भाषा स्वर संकेत का वह इच्छित माध्यम है जिसके तहत मानव समाज में संस्कृति व विचारों को सम्प्रेषित करता है। कालरिज कहते हैं-भाषा मानव मस्तिष्क की वह शास्त्रशाला है जिसने अतीत की सफलताओं के जयस्मारक और भावी विकास के लिए अस्त्र-शस्त्र एक सिक्के के दो पहलू की तरह साथ रहते हैं।

भाषा की उत्पत्ति के बारे में दो मत हैं। प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष। समय-समय पर अनेकों विद्वानों ने अपने मत व्यक्त किए हैं। 18वीं सदी में गियाम्बटिस्टा, ब्रसंस, काण्डिलाक, रूसो तथा हर्डर ने इस विषय पर शोध की थी। हर्डर की शोध को इसमें प्रमुख माना जाता है। 19वीं शताब्दी में इस विषय में शोध करने वालों में त्वायरग्रिम, राये, डार्विन, हम्बोल्ट, शइत्जर, अनेस्ट रेनन, जेर्म्पसन, मैक्समूलर, गाइगर, स्टाइन्थल, स्वीट, मार्टी, स्पेन्सर, रेगनाड तथा टेलर उल्लेखनीय हैं। भाषा उत्पत्ति का सिद्धान्त 20वीं सदी में वुन्ट, डिलेगुना, बर्नार्ड शाँ, होनिग्स्वाल्ड, रेवेज, जोहान्सन, हम्फरी तथा समरफेल्ट द्वारा दिया गया। यह सिद्धान्त दैवी उत्पत्ति सिद्धान्त, विकासवादी, धातु, निर्भय, अनुकरण, यो हे हो, इंगिन, टाटा, संगीत, संपर्क तथा समन्वित सिद्धान्त आदि रूपों में जाना जाता है। इसका वर्गीकरण भी कई आधारों पर किया गया है। महाद्वीप, देश, धर्म, काल, आवृत्ति, परिवार तथा प्रभाव के आधार पर यह वर्गीकरण हुआ है। इसका आकृतिमूलक वर्गीकरण योगात्मक तथा अयोगात्मक ढंग से किया जाता है। योगात्मक तीन भागों में बँटा है-शिष्ट, अशिष्ट तथा प्रतिशिष्ट। शिष्ट के अंतर्गत आने वाला बहुर्मुखी योगात्मक हिन्दी आदि भाषाओं की ओर संकेत करता है तो संस्कृत संयोगात्मक स्वरूप को दर्शाता है।

संस्कृत देव भाषा के रूप में जानी जाती है। यह प्राचीनतम भाषा है। मान्यता है कि शेष सारी भाषाओं की उत्पत्ति इसी से हुई है। अपनी राष्ट्र भाषा हिन्दी है। यह विश्व की तीसरे नम्बर की भाषा है। अपने देश में तकरीबन पचास करोड़ लोग इसका प्रयोग करते हैं। अपने देश की यह लोकप्रिय भाषा है। अहिन्दी क्षेत्र के रूप में माने जाने वाले आँध्रप्रदेश में 14 लाख 18 हजार 358 लोग हिन्दी बोलते हैं। केरल में इनकी संख्या 16466 हैं। पश्चिम बंगाल में 36,27,200 लोग इसका प्रयोग करते हैं। बिहार, मध्यप्रदेश, उत्तरप्रदेश, राजस्थान तथा हिमाँचल की तो यह राजभाषा है। यूँ तो पूरी दुनिया में 6000 से अधिक भाषाएँ है। भाषा की दृष्टिकोण से सर्वाधिक विविधता अपने ही देश में हैं। यहाँ करीब 600 भाषाएँ हैं। 15 भाषा तो राजकीय भाषाओं के रूप में प्रयुक्त होती हैं।

विश्व में सबसे बड़ी भाषा चीनी है। सारे संसार में चीनी 60, अंग्रेजी 25, रूसी 18, स्पेनी 12, जर्मनी 10, जापानी 10, फ्राँसीसी 8, पुर्तगाली 6, इतालवी 6, अरबी 5 प्रतिशत लोगों द्वारा बोली जाती है। चीनी को मंदारिन भाषा भी बोला जाता है। साढ़े छियासी करोड़ लोग इसका प्रयोग करते हैं। चीन में सवा छः करोड़ कैंटनी, चार करोड़ बू, पाँच करोड़ मिन और दो करोड़ चीनी नागरिक होक्का बोलते हैं। यहाँ 70 लाख लोग उइगनू तथा 60 लाख लालोभाषी हैं। 50 लाख लोग मियाओ भाषा तथा 50 लाख तिब्बती भाषा का प्रयोग करते हैं। स्पेनिश का उपयोग 34 करोड़ लोग करते हैं। जापानी साढ़े 12 करोड़ लोगों के द्वारा बोली जाती है। सवा 7 करोड़ लोगों की भाषा कोरियन है। थाई भाषी कोई 5 करोड़ हैं। इस तरह संसार में मुश्किल से 10 प्रतिशत देश ऐसे हैं जिनकी राजकीय भाषा अंग्रेजी हैं। संयुक्त राष्ट्र संघ और विश्व व्यापार की दृष्टि से अंग्रेजी सबसे बड़ी एवं समृद्ध भाषा मानी जाती है। यह ब्रिटेन, अमेरिका, कनाडा, दक्षिण अमेरिका, आयरलैण्ड, आस्ट्रेलिया तथा न्यूजीलैण्ड की राजभाषा है।

विश्व की जनसंख्या 6 अरब के आसपास है। और छः हजार भाषाएँ प्रचलित हैं। इस तरह एक भाषा के पीछे करीबन 9 लाख व्यक्ति आते हैं। कुछ भाषा विश्व के बहुसंख्यकों द्वारा बोली जाती हैं। और कुछ ऐसे हैं जो मात्र 5 हजार लोगों द्वारा प्रयुक्त किया जाता है। भाषा की संख्या पश्चिम यूरोप में बहुत कम हैं। यहाँ 45 के करीब मूल भाषाएँ प्रचलित है। 1788 में आस्ट्रेलिया के स्थापना वर्ष में कम जनसंख्या के बावजूद यहाँ पर 250 भाषा थीं। कोलम्बस ने स्पष्ट किया है कि अमेरिका में मूल रूप से 1000 भाषाएँ प्रचलित थी। न्यू गुएना और अन्य पैसिफिक द्वीप समूह इससे भी समृद्ध माने जाते हैं। यहाँ की आबादी 40 लाख हैं जो विश्व जनसंख्या का मात्र दो प्रतिशत हैं। फिर भी यहाँ 1400 भाषाओं का उपयोग होता है। समस्त संसार का यह 25 प्रतिशत है। वानटु में 105 तथा फिलीपिन्स में 107 भाषाओं का प्रयोग मिलता है।

जेरेड डायमण्ड ने डिस्कवरी के फरवरी 1993 के अंक में भाषा की विशद् विवेचना की है। इसके अनुसार न्यूगुएना की भाषा बड़ी समृद्ध है। एक लोकोक्ति है-कोस कोस पर पानी बदले चार कोस पर बानी। इसी प्रकार न्यूगुएना में प्रति 10 से 20 किमी. के फासले पर भाषा एकदम परिवर्तित मिलती है। जैसे अमेरिकन और चीन की अंग्रेजी। यहाँ पर आपस में एक दूसरे की भाषा एकदम भिन्नता लिए होती है। कुछ कबीलों की स्थिति तो यह है कि मात्र 1000 लोग ही एक भाषा का प्रयोग करते हैं।

भाषा की विविधता ही इसकी शोभा है। यह भौगोलिक परिवेश तथा मानव की जनसंख्या के घनत्व पर भी निर्भर करती है।

लोकमान्य तिलक ने कहा है-भाषा की समृद्धि स्वतंत्रता का बीज है। जब भी भाषा के प्रचलन में आजादी मिली उसका विकास हुआ। इतिहास इस बात का गवाह है 6000 बीसी में तकरीबन 10 हजार भाषाएँ थीं परन्तु इसके समुचित प्रचलन व विकास के अभाव में इस अमूल्य धरोहर से वंचित होना पड़ रहा है। इनमें से मात्र इस्ट्रस्कन, हिहीट, सुमेरियन आदि की लिपि सुरक्षित रह पायी है। हजारों तो बिना किसी संकेत के समाप्त हो गई। कौन जानता है इन्स और पिक्ट की बोली कैसी थी।

वासवेल कृत टुर टू दि हेबरिडीज में डॉ. जॉनसन का उद्गार व्यक्त हुआ है। इनके अनुसार जब कोई भाषा नष्ट हो जाती है तो मुझे अपार दुःख होता है। क्योंकि भाषाएँ राष्ट्र की वंशावलियाँ होती हैं। किसी भी राष्ट्र या समाज को दृढ़ता, एकता व साँस्कृतिक समृद्धि का परिचायक वहाँ की प्रचलित भाषाएँ होती हैं। इस विषय में अलास्का यूनिवर्सिटी के माइकल क्रास ने एक सर्वेक्षण किया है जिसके अनुसार विश्व में मात्र 170 भाषाएँ ही विभिन्न

देशों की राजभाषा है। इसमें तो 15 तो अपने देश में हैं। बहुत सारे देशों में अंग्रेजी, स्पेनिश, अरबी, पोर्तुगीस राजभाषा के रूप में प्रयुक्त होती है। मात्र 70 देश ही अपनी मूल भाषा का प्रयोग करते हैं। अगर 200 भाषाएँ ही राजभाषा का दर्जा पाएंगी तो शेष 5800 की क्या स्थिति होगी, इसे कौन विकसित करेगा? क्रास के मतानुसार किसी एक भाषा के विशेष प्रचलन से अन्य छोटी भाषाओं के विनाश का संकट बढ़ जाता है।

भाषा की स्थिति का वर्तमान दौर बड़ा ही निराशाजनक है। उत्तर पश्चिम काकेशस की भाषा उबिख को बोलने वाला एक ही व्यक्ति जिन्दा है। दक्षिण कैलिफोर्निया की इण्डियन भाषा कपेनो को बोलने वाला रोसिका नोलेस्क्वेज अंतिम व्यक्ति था। 1987 में इसकी मृत्यु के साथ ही इस भाषा का अवसान हो गया। नवीनतम सर्वेक्षण से स्पष्ट होता है कि विश्व में मूल भाषाओं को नई पीढ़ी उपेक्षित कर देती है। नई पीढ़ी प्रचलित भाषा को प्रयोग करती है जिससे मूल भाषा क्रमशः पतन की ओर अग्रसर हो रही है। अगर ऐसी स्थिति रही तो आगामी शताब्दी तक कुछ सौ की संख्या में ही भाषाएँ बची रह पायेंगी। भाषा का पतन न केवल कम संख्या में प्रयुक्त होती भाषा का हो रहा है बल्कि बण्डसी, ब्रंटेन तथा क्वेचुआ जैसी बड़ी भाषा का भी ह्रास हो रहा है। ब्रंटेन को एक लाख लोग तथा क्वेचुआ को साढ़े आठ लोग बोलते हैं। पतन के कारण को खोजने के लिए इसके धरातल का विश्लेषण करना होगा। इससे पता चलता है कि वैचारिक विभिन्नता, अवरोध तथा बड़े पैमाने पर हो रही उपेक्षा इसका मूल कारण है।

विश्व में भाषा के पतन का दूसरा सबसे महत्वपूर्ण कारण है उस पर डाला जाने वाला बाहरी दबाव। बाहरी ताकतों ने भाषाओं पर घोर अत्याचार किया है। सन् 1853 से 70 के बीच कैलीफोर्निया में ही इण्डियाना भाषा को उखाड़ फेंका गया। ब्रिटिश शासकों ने विश्व में सबसे अधिक तबाही मचायी। 1803 और 1835 में तस्मानिया की भाषा को नष्ट कर दिया। इन्होंने भारत में सैकड़ों वर्षों के शासन के दौरान भारतीय भाषाओं को समाप्त कर बलात् अंग्रेजी की स्थापना की। इसके लिए अनेकों प्रकार के हथकण्डों एवं कूटनीति का प्रयोग किया गया। नर्सरी से लेकर कान्वेंट स्कूल और कालेज खोले गए। नौकरी की सुविधा दी गई। अंग्रेजी को अन्य भाषाओं से श्रेष्ठ बताकर इसकी महत्ता प्रतिपादित की गई। लगभग यही स्थिति सारे विश्व के अन्य भागों की है।

भाषायी विविधता तथा पूर्वाग्रही मान्यता के कारण विश्व में अनेकों बार खून की नदियाँ बही हैं। यूगोस्लाविया का गृह युद्ध तथा सर्व और क्रोट्स के बीच भीषण युद्ध के पीछे भाषा भी एक कारण रही है। रूस के स्टालिन ने अपने ही देशों में लाखों लोगों की हत्या करा दी थी। इसके पीछे भाषा का संकट ही छाया हुआ था। यह भाषा संबंधी संकीर्ण सोच एवं दुराग्रह का परिणाम है। अन्यथा भाषा तो संस्कृति का वाहन है, उसका अंग है। इससे भला अशाँति, असंतोष कैसे फैलेगा? भाषा जो अंतर की अभिव्यक्ति है, प्रेम का प्रकाश बाँटना इसका धर्म है। यह तो हिंसक मानसिकता है जो ऐसा जघन्य कृत्य करती है।

मलयालम के शंकर कुरूप में इसकी महत्ता को इस प्रकार प्रदर्शित किया गया है। हे मानव! जबसे मैंने तुम्हारी भाषा सीखी तब से वह विश्वविमोहक भाषा भाल गया जिसमें स्नेह छोड़कर कोई शास्त्र नहीं, आनंद बिसारकर कोई अर्थ नहीं तथा रूप को त्यागकर कोई छंद नहीं। कविवर रवीन्द्र ने इसे बड़े ही आकर्षक ढंग से सजाया है-

हे समुद्र! तेरी क्या भाषा है? शाश्वत प्रश्न ही भाषा है। हे आकाश! तेरे उत्तर की क्या भाषा है? शाश्वत मौन की भाषा।

भाषा प्राणों का संचार करती है। यह हिम्मत, साहस और दृढ़ता का परिचायक है। बहुभाषी किसी भी देश में जाकर बस सकता है, परन्तु इसके लिए अपनी मूल भाषा को भुला देने की आवश्यकता नहीं। इस मामले में डेनमार्क बहुत समृद्ध हैं। 50 लाख डेन्स डेनिस का प्रयोग करते हैं। जो प्रायः सभी अंग्रेजी के साथ ही अन्य भाषा को भी जानते हैं। दो देशों, राज्यों व क्षेत्रों के सीमाओं के रहने वाले लोग भी कई भाषाओं के जानकार होते हैं। इससे विश्व में व्यापार, साँस्कृतिक आदान-प्रदान व शान्ति को बढ़ावा मिलता है। अतः हर व्यक्ति को अपने से संबंधित अन्य भाषाओं को जानना चाहिए। विनोबा कई भाषाओं के विद्वान थे। भारत के भूतपूर्व प्रधानमंत्री नरसिम्हाराव भी दर्जनों भाषाओं के पण्डित मानते जाते हैं।

भाषा मनुष्य अस्तित्व का एक जटिल उत्पाद है। हरेक भाषा आपस में एक दूसरे में भिन्नता लिए हुए होती है। इसकी ध्वनि संरचना तथा विचारों की प्रक्रिया में भी विविधता होती है। यह मनुष्य के हजारों वर्षों के कठिन शोध के फलस्वरूप प्राप्त होती है। भाषा किसी राष्ट्र या समाज के सामाजिक, साँस्कृतिक तथा साहित्यिक तत्त्वों का प्रतिनिधित्व करती है। इसके द्वारा मानव अपने विचार प्रकट करता है। लेखक, कवि अपनी अभिव्यक्ति को इसी के द्वारा समाज के सामने प्रकट करते हैं। भाषा में वह शक्ति व क्षमता निहित है जिससे कि मूर्छित राष्ट्र को जीवन्त और जाग्रत किया जा सके। वर्तमान समय को अश्लील और विषाक्त वातावरण के परिष्कार के लिए भाषा की पवित्रता तथा विचारों की उत्कृष्टता ही एकमात्र निदान है। अतः विश्व के छः हजार भाषाओं को सुरक्षित और विकसित करने का संकल्पबद्ध प्रयास होना चाहिए।

भाषाओं के विकास में ही राष्ट्रों व संस्कृतियों का विकास सन्निहित है। अतः विविध भाषाओं को समुचित सम्मान देकर विश्व शान्ति और सद्भावना की ओर कदम बढ़ाये जा सकते हैं। 21वीं सदी में एक विश्व भाषा की परिकल्पना की जा रही है। यह परिकल्पना सुखद है, पर इसका स्वरूप अवश्य ऐसा होना चाहिए कि भावी विश्व भाषा के आँचल में विश्व भर की सभी भाषाएँ अपना सुखमय विकास कर सकें।

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