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Magazine - Year 2001 - Version 2

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Language: HINDI
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कहीं भावी संतति पोपली ही न हो

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भोजन के संदर्भ में मनुष्य शरीर में दाँतों का महत्वपूर्ण स्थान है। दाँत न हों, कम हों, कमजोर हो, तो खाने में आनंद नहीं आता, कारण कि स्वाभाविकता भोजन को चबाने में है, यों ही निगल जाने में नहीं। जब दाँतों द्वारा आहार को चबाया जाता है, तो इस क्रम में मुँह की लार भी आकर उसमें मिल जाती है। इससे व्यंजन का स्वाद बढ़ता है और उसका परिपाक भी आसान हो जाता है। यह स्थिति पोपले मुँह में नहीं बन पाती, इसलिए ऐसे लोगों की पाचन शक्ति अक्सर खराब रहती है। अब ऐसा संदेह व्यक्त किया जा रहा है कि भविष्य में मनुष्य शायद पोपले ही हों, कारण, कि दाँतों की उपयोगिता शनैः−शनैः घटती जा रही है।

विकासवादी अवधारणा को सही मानें, तो यही कहना पड़ेगा कि मनुष्य के सार अवयव उनकी नियमित सक्रियता के कारण ही वर्तमान स्थिति में बने हुए हैं। निष्क्रियता ह्रास और विलुप्त पैदा करती है। नर मानवों में स्तन अवशेष, पूँछ की हड्डी, एपेंडिक्स इसी के उदाहरण हैं।

अब इसी शृंखला में विज्ञानवेत्ता दाँत को भी सम्मिलित कर रहे हैं। उनका कहना है कि मानवी दाँत का आकार धीरे− धीरे घटता जा रहा है और शायद आगे भी जारी रहे। यदि यह प्रक्रिया यथावत् बनी रही, तो इसकी चरम परिणति चूहों के छोटे−छोटे दाँतों के रूप में हो सकती है अथवा यह भी हो सकता है कि मुँह पूर्णतः दंतविहीन बन जाए। यह आशंका विज्ञानवेत्ताओं ने लंबे अध्ययनों के उपराँत प्रकट की है।

मिशिगन विश्वविद्यालय में मानव विज्ञान के प्रोफेसर डॉ. सी. लोरिंग ब्रेस एवं उनके सहयोगियों डॉ. केविन डी. हण्ट और केरेन आर. रोजेनबर्ग ने 25 वर्षों तक इस दिशा में अथक खोज की है। उन्होंने विश्वभर की कब्रगाहों का भ्रमण किया और उनसे कंकालें खुदवाकर दाँतों की बारीकी से पड़ताल की। उनने मिश्र की प्राचीन ममियों के भी दाँत देखे और हजार हजार साल पुराने उन पिंजरों के दाँतों की भी नाप−तौल की, जो मानवी विकासवादी शृंखला की महत्त्वपूर्ण कड़ी माने जाती हैं। इस प्रकार उन्होंने एपमैन, क्रोमैगनन, निंडरथल जेसे आदि मानवों से लेकर वर्तमान मानव (होमोसेपियंस सेपियंस) तक के दाँतों का गहन अध्ययन किया। इस आधार पर उन्होंने निष्कर्ष निकाला कि आकार घटने की यह प्रक्रिया लगभग एक लाख वर्ष पूर्व तक आरंभ हुई, जब मनुष्य अपने विकासवादी कड़ी के निंडरथल पड़ाव पर था। तब उसका सिर बड़ा था, चिबुक बाहर की ओर निकला हुआ एवं दाँत वर्तमान मनुष्य से दुगने बड़े थे। उसे अपनी उदरपूर्ति जानवरों के कच्चे माँस से करनी पड़ती थी। इस कार्य में उनके बड़े−बड़े दाँत खूब सहायता करते। वे अपनी जिंदगी भली प्रकार गुजार रहे थे कि इसी बची एक प्राकृतिक आपदा आ उपस्थिति हुई। तापमान के अचानक गिर जाने से हिमयुग आ गया। इस विभीषिका से बहुत सारे जंतु मारे गए। जो बचे, अब उन्हीं से आदि मानवों को पेट भरना पड़ता। कई बार शिकार न मिलने के कारण उन्हें भूख भी रहना पड़ता। इसका हल उन्होंने कंद−मूल द्वारा निकाला। अब वे केवल माँसाहारी नहीं रहे, वरन् जीवित रहने के लिए वनस्पतियाँ भी खाने लगे। इस मध्य माँसाहार के साथ एक कठिनाई और आ गई। अतिशय ठंड के कारण अब वह जमने लगा। थोड़ी देर बाद ही वह इतना कठोर हो जाता कि उसे चीरना−फाड़ना दाँतों के बूते की बाहर की बात होती। इस समस्या को उन्होंने आग द्वारा दूर किया। वे माँस को गरम कर खाने लगे। इससे वह काफी मुलायम हो जाता और खाने में कम श्रम करना पड़ता। धीरे−धीरे यह आदत में सम्मिलित हो गया। इससे उनके दाँतों को काफी आराम मिलने लगा। इस आरामतलबी को उन्होंने और आगे बढ़ाया। संप्रति माँस आग में भूना जाने लगा। इससे दो लाभ हुए प्रथम, इसका स्वाद बढ़ गया एवं द्वितीय, दाँतों को खाने में बहुत ही कम मेहनत करनी पड़ती। इससे बड़े और नुकीले दाँतों की आवश्यकता समाप्त हो गई। प्रकृति का यह सामान्य नियम हैं कि जिस अंग की उपयोगिता या सक्रियता घट या मिट जाए, उसका ह्रास होने लगता है। बस यहीं से मनुष्य के दाँतों के आकार में घटोत्तरी शुरू हुई। शोधकर्त्ताओं का दावा है कि आज से दस हजार वर्ष पूर्व तक दाँतों का आकार प्रति दो हजार वर्ष में 1 प्रतिशत की दर से घट रहा था, पर वर्तमान में यह दर बढ़ गई है। अब दाँतों के आकार में 1 प्रतिशत हजार साल की दर से कमी आ रही है। आगे यह कमी और अधिक बढ़ सकती है—ऐसा अनुसंधानकर्त्ताओं का मत है।

वर्तमान मानवों में कुल दाँतों की संख्या 32 है, पर अन्वेषणकर्त्ता शरीरशास्त्रियों का कहना है कि आदि मानवों में इनकी संख्या 44 हुआ करती थी। जरूरत के हिसाब से इसमें भी कमी आई। जब खाने के तरीके में परिवर्तन हुआ, तो पुराने ढंग पर निर्मित दाँतों की बहुलता भी अनावश्यक प्रतीत होने लगी। फलतः शनैः−शनैः उसमें घटोत्तरी होती गई और अंततः 32 पर आकर स्थिर हुई। दाँतों की संख्या में इस कमी से जबड़े सिकुड़ते चले गए। जबड़ों के संकुचन से सिर और चेहरे के आकार भी घटे और ठुड्डी छोटी हुई। आगे यदि खाद्य शैली में और बदलाव आता है, तो न सिर्फ दाँतों के आकार घटेंगे, वरन् उनकी संख्या में भी कमी आएगी। इससे खोपड़ी भी छोटी होगी। इस प्रकार दाँतों की संख्या और आकार के साथ−साथ सिर भी छोटा होगा।

शोधकर्त्ताओं का कहना है कि आदमी के वर्तमान रुझान को देखते हुए यह अनुमान लगाना कठिन नहीं कि भविष्य में उसके खान−पान के तरीकों में और परिवर्तन न आएगा। वे कहते हैं कि विज्ञान के विकास के साथ−साथ मनुष्य की जीवन शैली में क्राँतिकारी बदलाव आया। साक्षरता बढ़ी, तो दैनिक जीवन में भी इसका असर पड़ा। लोग अब अधिक परिष्कृत तरीकों का इस्तेमाल करने लगे। इसके दो फायदे हुए, समय और श्रम की बचत एवं कार्य में सुविधा। विज्ञान के उद्भव के बाद जीवन की गति अधिक तीव्र हुई, इसलिए लोग उन तरीकों का उपयोग प्रायः हर क्षेत्र में करने लगे। खान−पान संबंधी आहार वाला क्षेत्र भी इससे अछूता न रहा। उदाहरण के लिए, वे बताते हैं कि दाँत धोने वाले ब्रुश के विकास से पूर्व लोग प्रायः वृक्ष की मुलायम टहनियों के दतुवन से दाँत साफ किया करते थे। इसके लिए उसके अग्रभाव को चबा−चबाकर सबसे पहले उसकी कूची तैयार करनी पड़ती। फिर उस कूची से दाँत रगड़−रगड़कर साफ किए जाते। दाँत धोने की इस प्रणाली में दाँतों को नियमित श्रम करना पड़ता। इससे वे मजबूत बने रहते। ब्रुश के विकास से दाँतों का वह श्रम समाप्त हो गया, जिससे वे कमजोर होने लगे। आज भी ग्रामीण क्षेत्रों में दाँत साफ करने का यही परंपरागत तरीका काम में लाया जाता है।

इसके अतिरिक्त खाने की प्रणाली में भी परिवर्तन स्पष्ट दृष्टिगोचर हो रहा है। अब लोग खाने के प्राकृतिक उपायों को न अपनाकर कृत्रिम एवं अप्राकृतिक तरीकों का इस्तेमाल कर रहे हैं। लोग फलों को सीधे तौर पर न खाकर उनका रस लेना पसंद करते हैं। गन्ने को चबाने और चूसने की अब किसे फुर्सत है? मशीन से तुर्त−फुर्त में निकला उसका ‘जूस’ ही सबको भाता है। आज ठोस आहार की प्रवृत्ति घट रही है और उसका स्थान तरल आहार लेता जा रहा है। इस तरल आहार से दाँत की उपयोगिता एक प्रकार से समाप्त हो जाती है। इसके पीछे मनुष्य की आरामतलबी की मानसिकता ही जिम्मेदार है। अब वह अंगों को कष्ट देने से बचना चाहता है। इससे उनके (विशेषकर खाने और चबाने संबंधी अवयवों के) दुर्बल पड़ने और अंततः विलुप्त हो जाने की गंभीर आशंका जताई जा रही है। दाँतों पर हुई उपर्युक्त शोध इस संदेह की पुष्टि करती है—तो क्या भविष्य में दाँतों के घटने−मिटने के साथ−साथ खोपड़ी का आकार भी छोटा हो जाएगा? विज्ञानवेत्ता इसका उत्तर ‘हाँ’ में देते हुए कहते हैं कि निश्चित रूप से इससे सिर के आकार में फर्क पड़ेगा और तब शायद हमारा सिर क्रिकेट बॉल से कुछ ही बड़ा रह जाए।

यह व्यापक अध्ययन ‘इवॉल्युशन’ नामक शोध पत्रिका में पिछले दिनों विस्तारपूर्वक प्रकाशित हुआ है। इससे इसी निष्कर्ष पर पहुँचना पड़ता है कि निसर्ग ने हमें जो अवश्व जिस उद्देश्य हेतु प्रदान किए हैं, उनका उन−उन कार्यों में भली भाँति उपयोग होना चाहिए, अन्यथा पेड़ की खराब या रोगग्रस्त टहनी को जिस प्रकार काटना−छाँटना पड़ता है, संभव है कालाँतर में वे अंग हमसे उसी प्रकार वापस ले लिए जाएँ।

दाँत चर्वण तंत्र के महत्त्वपूर्ण अवयव हैं। उनकी उपयोगिता का बखान तो कोई दंतविहीन वयोवृद्ध ही ठीक−ठीक कर सकता है। हम तो उस स्थिति की मात्र कल्पना भर कर सकते हैं। टाँगरहित अपाहिज की जो अवस्था चलने−फिरने में होती है, कुछ वैसी ही लाचारी दंतरहित दशा में उठानी पड़ती होगी। इसलिए हमें उनकी सुरक्षा, मजबूती और उपयोगिता पर बराबर ध्यान देना चाहिए।

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