
जनसमूह के साम्राज्य का एक यथार्थवादी विश्लेषण
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जीवन के अस्तित्व का हर पल हमारी संभावनाओं का बोध है। जीवन का अर्थ है जो हम हो सकते हैं उन संभावनाओं की सूची और साथ ही इन संभावनाओं में से एक का चयन, यानी इस बात का चुनाव कि हम वास्तव में क्या होने जा रहे हैं। हमारी परिस्थितियाँ अर्थात् संभावनाएं हमें प्रदत्त और हम पर आरोपित जीवन का अंश है। इन्हीं सबके कुल योग को हम संसार कहते हैं। यह एक नियति है जो हम पर इस संसार में, अभी तक इस क्षण के इस संसार में आते ही आरोपित हो जाते हैं। यह बन्दूक से निकली गोली के निश्चित प्रक्षेप-पथ से पूर्णतः भिन्न है। वह हम पर एक नहीं, अनेक पथ आरोपित करती है और हमें इस बात पर विवश करती है कि हम उन्हीं में से एक को चुनें। यह हमारे अस्तित्व की बड़ी विचित्र स्थिति है।
स्पेनी दार्शनिक एवं लेखक खोसे ओतेगा इ गास्संत के अनुसार जीवन की नियति निरी मशीनी नहीं, बल्कि एक जीवन्त परियोजना है। जीवन की संरचना का ज्ञान, संभावनाओं का चयन करना, निर्णय लेना अनिवार्य है। जीने का अर्थ है अपनी स्वतंत्रता का प्रयोग करने के लिए नियति द्वारा बाध्य होना, यह निश्चय करना कि हम इस संसार में क्या बनना चाहते हैं। हमारी निर्णय लेने की प्रक्रिया एक क्षण के लिए भी नहीं रुकती। निराशा के क्षणों में भी जब हम कुछ भी नहीं बनने के लिए तैयार होते हैं, हमें निर्णय न लेने का निर्णय लेना पड़ता है। ऐसे में यह कहना ठीक न होगा कि जीवन में परिस्थितियाँ निर्णायक होती हैं, बल्कि परिस्थितियाँ तो वह दुविधा है जो हर पल बदलती है और जिसकी उपस्थिति में हमें निर्णय लेना होता है। परन्तु वास्तव में निर्णय हमारे चरित्र पर निर्भर करता है।
ओर्तेगा के जीवन्त तर्क की मीमाँसा अस्तित्ववादी चिंतन में व्यक्ति की मूलभूत स्वतंत्रता एवं दायित्व के सिद्धान्त के निकट है। सार्त्र के अनुसार हम स्वतंत्र होने के लिए दण्डित हैं और हम क्या हैं का निर्णय हमसे बाध्य नहीं है। सार्त्र ने एजिस्टेनियलिज्म एण्ड ह्यमनिज्म में कहा है कि कम से कम एक ऐसा प्राणी है जिसका अस्तित्व उसके सत्त्व का पूर्ववर्ती है। वह प्राणी है मनुष्य। व्यक्तिगत जीवन से सामूहिक जीवन की ओर बढ़ते हुए ओर्तेगा कहते हैं- यही बात सामूहिक जीवन पर भी लागू होती है। उसमें भी पहले संभावनाओं का एक फैला हुआ क्षितिज होता है और फिर एक निश्चय जिसके आधार पर इस सामूहिक अस्तित्व के स्वरूप का चयन एवं निर्णय होता है। यह निश्चय उस समाज के चरित्र पर अर्थात् उसमें प्रभावी व्यक्तियों के चरित्र पर निर्भर करना है।
ओर्तेगा अपनी प्रसिद्ध रचना ‘जनसमूहों का विद्रोह’ में उल्लेख करते हैं कि आधुनिक युग के सामूहिक जीवन एवं उसमें आधिपत्य रखने वाले व्यक्ति के चरित्र का विश्लेषण इन दो आयामों में किया जा सकता है। पहला भीड़ यानी जनसमूहों का सामाजिक सत्ता पर पूर्ण नियंत्रण पाना और दूसरा भीड़ के आदमी अर्थात् जन मनुष्य का सामाजिक रंगमंच पर इस समझ के साथ आविर्भाव कि वह जो कुछ है उससे संतुष्ट है। उसे केवल अपने अधिकार से सरोकार है, दायित्वों से नहीं और न ही उन्हें निभाने की इच्छा।
जनजीवन केवल राजनीतिक नहीं होता, अपितु यह मूलतः बौद्धिक, नैतिक, आर्थिक एवं धार्मिक होता है। वह सभी सामूहिक रीति-रिवाजों का कुल योग होता है जिसमें वेशभूषा, मनोरंजन इत्यादि के साधन भी सम्मिलित हैं। आज हम उस भीड़ को देखते हैं जो सभी ओर विद्यमान है जिसने सहायता द्वारा रचे गए सभी साधनों को अपने वश में रखा है। इक्कीसवीं सदी के आगमन के साथ इसमें एक परिवर्तन आया है, एक नवीनता पैदा हो गई है जो कम से कम हमें पहले कुछ क्षणों के आश्चर्य भाव को एक औचित्य प्रदान करती है। चकित होना, सोच समझ की शुरुआत है। आश्चर्य से खुली आँखों के लिए संसार की प्रत्येक वस्तु एक खूबसूरत अजूबा है। आश्चर्यजनित उल्लास ऐसा उल्लास है जो बुद्धिजीवी को किसी दिव्यदर्शी के अविरल उन्माद की ओर ले जाता है। यह उन्माद क्रिकेट प्रेमी के उल्लास से जुदा किस्म का है। इसकी विशेषता है-उसकी आँखों में व्याप्त जिज्ञासा। इस भीड़ के घटक व्यक्ति किसी शून्य से नहीं उपजते हैं। ये विश्व भर में छोटे छोटे समूहों में अथवा अकेले ही यहाँ-वहाँ बिखरे हुए एक दूसरे से अलग और दूर जीवन जी रहे थे। उनमें से प्रत्येक व्यक्ति अथवा समूह का एक स्थान था जो संभवतः उसका अपना स्थान था। अब अचानक यही लोग विशाल जनसमूहों से जुड़े नजर आते हैं और जहाँ देखे वहाँ केवल भीड़ ही भीड़ नजर आती है। कुछ सीमा तक मानव संस्कृति की परिष्कृत रचनाएँ भी इससे अछूती नहीं है। समाज के महत्त्वपूर्ण स्थानों एवं संस्थानों पर भी यही भीड़ पाई जाने लगी है।
भीड़ की अवधारणा परिमाणात्मक एवं दृश्यमान है। समाज सदा से दो घटकों-अल्प योग्य जनों के समूह एवं विशाल जनसमूह की गतिशील एकता का योग है। योग्य जनों के समूह, व्यक्ति अथवा व्यक्तियों के वे छोटे समूह हैं जो विशेष रूप से सक्षम हैं। जिनमें कोई विशेष योग्यता है। जनसमूह उन साधारण लोगों की भीड़ है जिनमें कोई विशेष योग्यता नहीं है। अतः जनसमूह का अर्थ है औसत व्यक्ति। भीड़ की संरचना उसके संघटक व्यक्तियों के विचारों, इच्छाओं एवं जीने के ढंग में समानता की अपेक्षा रखती है। ऐसे समूहों में जो भीड़ अथवा जन समूह नहीं है। किसी विचार, इच्छा अथवा आदर्शों की समानता, सदस्यों के एक साथ होने का आधार होती है, जिसके कारण अन्य व्यक्ति उसमें सम्मिलित नहीं किये जा सकते।
योग्य जनों का समूह बनाने के लिए चाहे वह कोई भी समूह क्यों न हो यह आवश्यक है कि उसके संघटक व्यक्ति अपेक्षाकृत किन्हीं विशेष व्यक्तिगत कारणों के आधार पर भीड़ से अलग हों। जनसमूह को मनोवैज्ञानिक तथ्य के रूप में परिभाषित करने के लिए यह आवश्यक नहीं कि व्यक्ति समूह में दिखे। मात्र एक व्यक्ति का परिचय ही यथेष्ट है कि वह जनसमूह है अथवा नहीं। जनसमूह हर वह व्यक्ति है जो अपना मूल्याँकन अच्छा या बुरा नहीं कर पाता, बल्कि स्वयं को सबकी तरह मानता है और फिर भी पीड़ा अनुभव नहीं करता, यहाँ तक कि दूसरों के साथ अपनी समानता देखकर प्रसन्न होता है।
जनसमूहों की भीड़ ने सामाजिक जीवन का केन्द्र बिन्दु बनने का निश्चय कर लिया है और इसके साथ ही स्थान घेरने, साधनों का उपयोग करने एवं उन सभी सुखों को भोगने का भी जो अब तक कुछ विशेष व्यक्तियों के लिए आश्रित थे। वर्तमान समय में इसका स्वरूप परिवर्तित हो गया है। विशेष समूहों के कार्यों को हथिया लेने का जनसमूह का यह निश्चय मात्र उल्लास एवं आनंद की रेखा तक सीमित नहीं है और न ही हो सकता है, क्योंकि योग्य जनों के समूह के आदर्श कुछ और ही होते हैं। फिर भी आज समाज और साम्राज्य जनसमूह का है।
जनसमूहों के इस साम्राज्य में सकारात्मक एवं नकारात्मक दोनों ही पहलू विद्यमान हैं। जनसमूह की सक्रियता का सकारात्मक पक्ष है-इतिहास के स्तर में उभार। जिसे हम अपने युग के मानव जीवन में संभावनाओं की महान वृद्धि के रूप में अनुभव कर रहे हैं। दुनिया अचानक बड़ी हो गई है। और इसके साथ ही जीवन भी। आज मनुष्य का जीवन सर्वव्यापी हो गया है।
स्वयं को अधिक विस्तृत, अधिक जीवन्त जानकर हमारा वर्तमान जीवन अतीत के प्रति आदर सम्मान खो चुका है। इसीलिए आधुनिक मनुष्य की अंतरात्मा में शक्ति का बोध तथा असुरक्षा का भाव-दोनों का विचित्र मिश्रण है। आज के जीवन की अपनी बड़ी हुई अंतःशान्ति के बोध ने उसके अपने अतीत को बौना कर दिया है। अपने बड़े हुए कार्य क्षेत्र के कारण मानव जीवन परम्परागत तौर-तरीकों, मान्यताओं एवं आदर्शों के ढाँचे से बाहर फैल गया है। जनसमूह के साम्राज्य का भयावह पक्ष यही है-हमारे युग का निर्देशन करने वाले मनुष्य का जीवन उद्देश्यहीन है। वह यूँ ही भीड़ के प्रवाह में बहे जा रहे हैं। इसके समक्ष बड़ी हुई संभावनाओं का जैविक संग्रह है, किन्तु क्रियाशीलता नहीं, लेकिन जनसमूह स्वयं को परिपूर्ण मानता है। उसकी आत्मा की अंतर्निहित वायुरुद्धता उसे अपनी निष्क्रियता पहचानने नहीं देती। इसीलिए वह उत्कृष्टता का प्रतिरोध है। उसके लिए तर्क, विवेक निरर्थक है। अतः वह उत्तेजक भाषणकर्त्ताओं का आसान निशाना बन जाता है।
जनसमूहों में रचे-बसे मनुष्य, मानव इतिहास के सिर चढ़े बालक हैं। जो अपने चारों ओर काव्य यंत्र, स्वास्थ्यकारी औषधियाँ, संरक्षक सरकारें और ऐशोआराम भरे विशेषाधिकार पाते हैं। किन्तु उन्हें अपने दायित्व का लेशमात्र भी आभास नहीं है। अतः जनसमूह के साम्राज्य ने एक द्वयअर्थक परिस्थितियों को जन्म दिया है। डेनियल बल ने ‘द कल्चरल काण्ट्रडिक्शन्स ऑफ कैपिटलिज्म’ ने इस द्यर्थक परिस्थिति के बारे में कहा है-आज मानवता का एक नई असाधारण व्यवस्था की ओर पारगमन हो सकता है, परन्तु यह उसकी नियति का ध्वंस भी हो सकता है। ओर्तेगा के मतानुसार जनसमूह का साम्राज्य यूरोपीय सहायता की ही स्वतः स्फूर्त उत्पना है और क्योंकि आधुनिक युग यूरोप के प्राधान्य का युग रहा है इसलिए स्वाभाविक है कि यूरोप की पतनशीलता उसकी साथ की घोषणा मानी जा सकती है। ओसबाल्ड स्पेंग्लर ने भी अपनी कृति ‘द डिक्लाइन ऑफ द वेस्ट’ में पाश्चात्य सहायता के पतन का उल्लेख किया है।
ओर्तेगा विश्वस्त हैं कि मानव सभ्यता का नैतिक केन्द्र न न्यूयार्क हो सकता है, न मास्को हालाँकि अपनी तमाम आपत्तियों के बावजूद वे स्वीकारते हैं कि साम्यवाद मानव प्रयास का भव्य प्रतीक था। क्योंकि यह मानवी कल्पना की ऊँची उड़ान थी। यदि मनुष्य के उल्लास के प्रति निरुत्साही प्राकृतिक शक्तियाँ इस प्रयास को विफल न करतीं और वे उसे पूर्णतः कार्यान्वित होने मात्र की स्वतंत्रता प्रदान कर देती तो इस महान् परियोजना की दीप्ति यूरोप के क्षितिज को मानो एक देदीप्यमान नक्षत्र के प्रकाश से भर चुकी होती। परन्तु साथ ही उनका यह भी संदेह था कि यूरोपीय रूसी साम्यवाद का समग्रीकरण नहीं कर पायेंगे क्योंकि इतिहास पर्यन्त उनके सभी प्रयास एवं शक्ति व्यक्तिवाद के मापक्रम में लगाए गए हैं।
रूसी साम्यवाद की विफलता यह सिद्ध करती है कि जनसमूह का साम्राज्य तभी टिक सकता है, जब उसे योग्यजनों के समूह का सहयोग मिले। योग्य जनों का दिशा-दर्शन ही जनसमूहों की प्रगति एवं सफलता का आधार है। ओर्तेगा की यही बातें परम पूज्य गुरुदेव के स्वतः स्फूर्त चिन्तन में उभरा। उनके द्वारा प्रेरित एवं प्रवर्तित विचार क्रान्ति अभियान योग्य जनों का ऐसा ही समूह है, जिसमें जीवन के अस्तित्व में समायी सम्भावनाओं की बोध कराने की क्षमता है। इसमें व्यक्ति, समाज एवं विश्व सभी के समुचित विकास की गहरी दृष्टि है। इसके द्वारा प्रचारित सूत्रों को समझकर मानवीय जीवन के उत्कर्ष के शिखर तक सुनिश्चित तौर पर पहुँचा जा सकता है।