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Magazine - Year 2002 - Version 2

Media: TEXT
Language: HINDI
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अभिमन्यु एक मिथक नहीं सचाई

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आधुनिक अनुसंधान अपने सतत् प्रयास से इस निष्कर्ष पर पहुँचे हैं कि बालक अपने जन्म के पश्चात् नहीं बल्कि जन्म के पूर्व माँ के गर्भ से सीखने लगता है। यही कारण है कि शोधकर्त्ताओं का मत है कि संतान को सुयोग्य एवं सुसंस्कारित बनाने के लिए उसके जन्मदाता माता-पिता को भी सुसंस्कृत होना चाहिए। गर्भ से ही शिशु के शारीरिक, बौद्धिक एवं भावनात्मक विकास की प्रक्रिया प्रारम्भ हो जाती है। यह विकास गर्भवती माता एवं उसके चारों ओर के वातावरण के द्वारा प्रभावित होता है। गर्भवती माता का खान-पान, आचार-विचार उत्कृष्ट एवं सात्विक हो तथा वातावरण अनुकूल व दिव्य हो तो श्रेष्ठ शिशु का जन्म होता है।

महाभारत में कथा है कि अभिमन्यु ने अपनी माता सुभद्रा के गर्भ में ही चक्रव्यूह वेधन की शिक्षा प्राप्त कर ली थी। व्यास पुत्र शुकदेव ने भी अपनी माँ के गर्भ में सारा ज्ञान प्राप्त कर लिया था। ऐसे अनेकों पौराणिक आख्यान है, जिससे स्पष्ट होता है कि गर्भस्थ संतान अत्यन्त संवेदनशील होती है। इस तथ्य को आजकल वैज्ञानिक भी स्वीकार करने लगे हैं। उनका कहना है कि गर्भस्थ शिशु सुन सकता है एवं अनुभव भी कर सकता है। उसमें व्यक्ति के समान सपने देखने की क्षमता भी होती है। और यहाँ तक कि वह अपनी माँ द्वारा ग्रहण की गई भोज्य वस्तु का स्वाद भी परख सकता है।

शिशु का वास्तविक क्रियाविधि जन्म के कुछ सप्ताह पूर्व से ही प्रारम्भ हो जाती है। इस संदर्भ में जान हापकिन्स इन्स्टीट्यूट की मनोविज्ञानी जेनेट डियिएट्रो का कहना है कि एक नवजात शिशु एवं 32 सप्ताह के गर्भस्थ शिशु में कोई विशेष अन्तर नहीं होता। दोनों का व्यवहार प्रायः एक समान होता है। नौ सप्ताह का विकासशील बालक हिचकी ले सकता है और हमारे आस-पास के वातावरण के प्रति संवेदनशील होने लगता है। उसे जैसा परिवेश मिलता है उसी के अनुरूप ही वह विकसित होता है। इन दिनों आस्तिकता का वातावरण बनाये रखना चाहिए। गर्भवती माता को नियमित रूप से उपासना-साधना का क्रम बनाये रखना चाहिए। इससे अन्तःकरण पवित्र एवं शुद्ध होता है।निश्चय ही इसका प्रभाव गर्भस्थ शिशु पर भी पड़ता है।

श्रेष्ठ एवं परिष्कृत परिवेश में गर्भस्थ शिशु का समुचित विकास होता है। इस तथ्य को स्पष्ट करते हुए डियिएट्रो कहती हैं कि वातावरण के अनुरूप ही शिशु की संवेदना जाग्रत् होती है। और इसी आधार पर ही वह अपने सपनों की नन्हीं दुनिया बुनता है। अर्थात् शिशु को जैसा माहौल दिया जाता है, वह उसी तरह का सपना भी देखता है। कुछ वैज्ञानिकों का मत इससे भिन्न है। उनके अनुसार गर्भस्थ शिशु जब सपना देखता है तो उसकी आंखें एक वयस्क की आँखें के सदृश्य नींद में रैपिड आई मूवमेण्ट करती है।

लेकिन इस बारे में सब एक मत हैं कि गर्भवती माता को इन दिनों धैर्य, साहस, आशा और उत्साह के भाव बनाये रखना चाहिए। उसे सदा प्रसन्नचित्त रहना चाहिए। प्रसन्नता का यह प्रभाव उसके गर्भ में पलने वाले उस नन्हें बालक पर भी पड़ता है। इसकी पुष्टि करते हुए हार्वर्ड मेडिकल स्कूल के डेवलप मेण्टल साइकोलॉजिस्ट हीडेलाइज एल्ज ने एक रोचक विवरण प्रस्तुत किया है। उनके अनुसार माँ जब प्रसन्न एवं खुश रहती है तब उसके वह शिशु की गतिविधियाँ अद्भुत एवं निराली होती हैं। इस दौरान वह कभी एक हाथ से चेहरे को स्पर्श करता है तो एक हाथ से दूसरे हाथ को छूता है। इस प्रकार वह बड़ा ही मस्त रहता है। परन्तु जैसे ही माँ उदास एवं तनावग्रस्त हो जाती है वह बालक बड़ा ही डरा सहमा सा व्यवहार करता है। एल्ज का कहना है कि विकासशील शिशु अपने माता के प्रति अत्यन्त संवेदनशील होता है। अल्ट्रासाउण्ड के माध्यम से उसके इस क्रिया-कलाप को और भी अच्छी तरह से देखा जा सकता है। इस रिपोर्ट के अनुसार माँ के हंसने पर शिशु गर्भ में ऊपर-नीचे तैरता है और सिर को हिलाता है। जब कोई माँ स्क्रीन पर बालक के इस हरकतों को देखकर तेजी से हंसती है तो वह भी तेजी से ऊपर नीचे होता है।

इसके विपरीत यदि माँ की मनोभूमि ईर्ष्या, द्वेष, निराशा, चिन्ता, क्षोभ आदि मनोविकारों से ग्रस्त रहती है तो इसका प्रतिकूल प्रभाव उसके बच्चे पर भी पड़ता है। जो गर्भवती माताएँ ऐसी मनोभाव में रहती हैं, गर्भ में उनकी संतान ज्यादा उद्विग्न होती है। परिणाम स्वरूप जन्म के पश्चात वह उसके स्वभाव में चिड़चिड़ापन पाया जाता है। परन्तु शान्त एवं प्रसन्न रहने वाली माताओं की संतान गर्भ में भी शान्त एवं सहज बनी रहती हैं तथा जन्म के पश्चात् भी इन्हीं गुणों से युक्त पायी जाती हैं।

माता के आहार और व्यवहार का असर बच्चे के शरीर और मन पर देखा जा सकता है। प्रसिद्ध शिशु रोग विशेषज्ञ जेनेट के अनुसार पन्द्रह सप्ताह का गर्भस्थ शिशु इस प्रकार स्वाद ग्रहण करता है जैसे कि वह एक परिपक्व एवं वयस्क हो। उनका कहना है कि मिर्च-मसालेदार, अति ठण्डे-उत्तेजक भोजन में तीव्र गंध होती है। शिशु इस गंध के प्रति मातृगर्भ में आकर्षित होता है और बड़े होने पर उसे इस प्रकार के भोजन की लत पड़ जाती है। क्योंकि वह प्रारम्भ से ही ऐसे उत्तेजक भोजन के प्रति आकर्षित रहता है। परिणाम स्वरूप ऐसा बालक क्रोधी एवं जिद्दी स्वभाव का बन जाता है। इसकी पुष्टि करते हुए मोनेल केमिकल सेन्सेज सेण्टर फिलाडेल्फिया की जैव मनोवैज्ञानिक जली मेनेला कहती हैं कि शिशु माँ के भोजन से स्वाद ग्रहण करता है। इससे प्रतीत होता है कि वह अपने माता के भोजन के आधार पर परिपक्व एवं पोषित होता है। अन्त में यही आगे उसकी आदत बन जाती है। अतः गर्भवती माता को सात्विक, हल्का एवं पाचन योग्य भोजन ही ग्रहण करना चाहिए। उसे अधिक मसालेदार एवं गरिष्ठ भोजन से परहेज करना चाहिए।

गर्भस्थ सन्तान आवाज के प्रति बड़ा ही संवेदनशील होती है। इस परिप्रेक्ष्य में हीडेलाइज एल्ज ने अनेकों अनुसंधान किए हैं। उनके प्रायोगिक निष्कर्ष अत्यन्त रोचक हैं। इन प्रायोगिक परिणाम के आधार पर वह कहती हैं कि गर्भस्थ शिशु अत्यन्त विचलित हो उठता है और पैर पटकता है या धक्का देता है। मनोवैज्ञानिक फाफर के अनुसार यह स्थिति तब भी आती है जब माँ तेजी से बोलती है या रोती है। माँ के गीत गुनगुनाने से एवं धीमी आवाज से बोलने से शिशु की हृदयगति धीमी हो जाती है। इन निष्कर्षों के अनुसार गर्भस्थ शिशु तेज आवाज पसन्द नहीं करता है।

इस संदर्भ में अस्सी के दशक में अमेरिका के मनोविज्ञान के प्रोफेसर एन्थेनी जेम्स डी कैस्पर ने कई प्रयोग किया था। अपने प्रयोगों के निष्कर्ष में इनका कहना है कि गर्भस्थ सन्तान किसी अजनबी की आवाज की अपेक्षा अपनी माँ की आवाज सुनना अधिक पसन्द करती है। जन्म के कुछ समय पूर्व से तो वह अपनी माँ के स्वर को याद रखना एवं पहचानना भी शुरू कर देती है। डि कैस्पर एवं उनके सहयोगियों का कहना है कि बच्चा अपनी माँ की मातृभाषा याने जिसे वह हमेशा प्रयोग करती है, उसी को सुनना पसन्द करता है।

पेरिस के जीन पिएरे ने इस सम्बन्ध में और भी अनेक रोचक तथ्य प्रस्तुत करते हुए कहा है कि गर्भस्थ शिशु अपनी माँ की आवाज से भली भाँति परिचित होता है। वह कई आवाजों के मध्य अपने माँ की ध्वनि को पहचान लेता है। पिएरे के अनुसार उसका यह गुण जन्मजात होता है। इनका कहना है कि यदि शिशु को माँ के पेट के पास कोई गीत या कहानी सुनाई जाती है तो उसके हृदय गति में कमी पड़ जाती है। इसके विपरीत किसी अपरिचित की ध्वनि से यह गति स्थिर रहती है। अतः शिशु का अपने माता की लोरी के प्रति गहन लगाव होना स्वाभाविक है। संभव है इसी कारण माता की थपकी से बच्चा शान्त एवं चुप हो जाता है।

फाफर के अनुसार गर्भ में पलने वाला शिशु कहानी या गीत के वास्तविक शब्दों को ग्रहण नहीं करता पर उसके स्वर एवं भाव को सुनता है एवं उस पर प्रतिक्रिया व्यक्त करता है। इसलिए माता को चाहिए कि वह अपनी मनोभूमि को उच्चस्तरीय बनाये रखने के लिए स्वाध्याय करे। प्रेरणाप्रद जीवन निर्माण के साहित्य आदि के अध्ययन से उच्च विचारों का प्रवाह बना रहता है। यही प्रवाह बच्चों की मनोभूमि का निर्माण करता है। माँ जैसा चिन्तन करेगी उसी तरह से उसके बालक का स्वभाव विनिर्मित होगा। अतः गर्भवती माता को सदैव प्रसन्नचित्त, सन्तुष्ट एवं शान्त रहना चाहिए, जिससे कि उसके गर्भ से श्रेष्ठ आत्मा का अवतरण हो सके।

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