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Magazine - Year 2002 - Version 2

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प्रकृति की एक नैसर्गिक धरोहर

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प्रकृति का सुरीलापन पक्षियों से अभिव्यक्त होता है। शायद यही कारण है कि प्राचीन काल से पक्षियों के बोलने तथा गाने की ओर लोगों का ध्यान जाता रहा है। उनकी मधुर ध्वनियाँ आकर्षण का केन्द्र बिन्दु रही हैं। पौराणिक कथाओं में भी इस सम्बन्ध में रोचक विवरण प्राप्त होता है। जटायु द्वारा भगवान् राम के सीता अपहरण की सूचना तथा तोता-मैना की किस्सा से भला कौन परिचित नहीं है। जायसी के पद्मावत में तो हीरामन तोते ने ही समस्त कथानक को आगे बढ़ाया है। यह भले ही कल्पना पर आधारित हों परन्तु पक्षी समाज में भी भावों के आदान-प्रदान हेतु उनकी अपनी विशिष्ट भाषा का प्रयोग होता है। भले ही यह मानवेत्तर भाषा है, पर है यह उसी का स्वरूप ही।

बाग-बगीचों, खेत-खलिहानों तथा सुदूर नीले आकाश में उड़ते चहचहाते पक्षियों की बोलियाँ बड़ी ही मधुर लगती हैं। प्रातः उठते ही मुर्गे की बाँग, गौरैया की चहचहाट अपनी नीड़ से बाहर निकलकर उन्मुक्त आकाश में विचरते तोते की बोलियाँ अपनी बिरादरी के लिए संदेशयुक्त भाषा का ही एक प्रतिरूप है। पक्षी अपनी भाव-भंगिमाओं द्वारा तथा आँखों द्वारा भी आपस में बातें कर लेते हैं।

भाषा के रूप में पक्षी मुख्य रूप से दो प्रकार की ध्वनियों का प्रयोग करते हैं। पहली संगीतात्मक ध्वनि होती है, जिसे ‘पक्षी गान’ (bird song) कहते हैं। दूसरी सामान्य ध्वनि को पक्षियों का बोलना अर्थात् ‘पक्षी पुकार’ (bird call) कहा जाता है।

पक्षी गान अपनी संरचना में अत्यन्त जटिल होता है। इसका प्रयोग प्रायः नर पक्षी करते हैं। पक्षी जगत् में नर पक्षी संख्या में अधिक तथा मादाएँ अल्पसंख्यक होती हैं। सहवास ऋतु में मादा पक्षी को रिझाने के लिए नर पक्षी को काफी मेहनत करनी पड़ती है। इस प्रयास में वह खूब गाता है और विभिन्न प्रकार से गाता है। मिलन का यह मधुर गीत तब तक चलता रहता है जब तक उसे अपनी जीवन संगिनी न मिल जाए। पक्षी विशेषज्ञों के अनुसार पक्षी का यह गीत कई प्रकार का होता है। इस गीत की खास विशेषता है कि नर पक्षी इसमें अपनी समस्त कला एवं कौशल को झोंक देता है।

पक्षी जगत् में नर पक्षियों की बहुलता होने के कारण उनका वर्चस्व रहता है। कुछ पक्षियों के गीतों में इसी वर्चस्व का स्वर भी सुनाई देता है। कुछ पक्षियों का अपना विशेष क्षेत्र होता है। इस पर अधिकार जताने तथा अपनी उपस्थिति का आभास करवाने हेतु भी पक्षी संगीतात्मक ध्वनि निकालता है। दूसरा पक्षी जब सीमा उल्लंघन कर किसी दूसरे पक्षी के क्षेत्र विशेष में गाना आरम्भ करता है तो उस क्षेत्र के पक्षी के गीत में सरलता की अपेक्षा क्रोध युक्त चुनौती होती है। वह इस ध्वनि के माध्यम से ये जताना चाहता है कि उसके क्षेत्र विशेष के अधिकार का अतिक्रमण न किया जाए।

अपने गाने के लिए मशहूर राबिन नामक पक्षी द्वारा तो इन दोनों परिस्थितियों के लिए भिन्न-भिन्न संगीत का प्रयोग किया जाता है। पक्षी जगत् में चकावा-चकवी की जीवन शैली कुछ भिन्न है। इनमें चकवी चकवे को प्रसन्न एवं खुश करने के लिए गाती है। चकवा जब खुश हो जाता है तो चकवी अण्डे देने के बाद सेने का उत्तरदायित्व उसे सौंप कर किसी दूसरे चकवे को प्रसन्न करने के लिए मुक्त हो जाती है। इधर चकवा अण्डे सेने से लेकर शिशुओं के पालन-पोषण तक की समस्त जिम्मेदारी निभाता है। और उधर चकवी दूसरे चकवे के साथ विवाह रचा लेती है। इसी प्रकार चकवी चकावा को रिझाने हेतु गाती है।

कुछ पक्षियों की ऐसी प्रजातियाँ हैं, जिनमें नर और मादा दोनों मिलकर गाते हैं। कभी-कभी तो इनमें गाने के चौदह घटक पाये गये हैं। इनमें से पहले चार नर द्वारा गाये जाते हैं फिर माता तीन घटक दुहराती है। पुनः नर चार और मादा तीन घटक गाकर समाप्त करती है। अनेक बार नर पहले पूरे गीत को गाता है और फिर मादा उसका अनुसरण करती है। परन्तु यहाँ पर दोनों की लय एवं गीत में थोड़ा सा अन्तर झलकता है, जो स्वाभाविक है। झाड़ी वाले क्षेत्रों में आपस में संपर्क बनाये रखने के लिए भी पक्षी थोड़े-थोड़े अन्तराल में गाते रहते हैं।

कुछ पक्षियों का गायन ऋतु एवं परिस्थितियों के अनुकूल होता है। चैपिंज वर्षा आने के पूर्व ही गाना शुरू करता है। इसके गीत में वर्षा का आमंत्रण होता है। प्रच्छन्न काले-काले मेघ को देखकर मोर अपना पंख फैलाये सरगम का स्वर अलापता है। कोयल की मीठी कूक में वासन्ती उमंग भरी रहती है। ऋतुराज वसन्त में कोयल की मधुर तान किसी स्वर्गीय संगीत का आभास कराती है। उषा के आगमन से पूर्व ही मुर्गा बाँग लगा देता है। कुछ पक्षी तो सदाबहार गाते हैं। हिमालय में पायी जाने वाली भूरे पंखों वाली काली तुरदुस बुलबुल गान के लिए विख्यात है। मालाबार की सीटी जैसी आवाज करने वाली थ्रुस और रामा भी खूब गाते हैं।

पक्षियों की सामान्य आवाज को पक्षी पुकार कहा जाता है। यह पक्षियों द्वारा भिन्न-भिन्न उद्देश्यों की पूर्ति के लिए की जाती है। साथ-साथ उड़ने, एक साथ नीचे उतरने तथा एक साथ रात्रि विश्राम के लिए भी अलग-अलग ध्वनियों के माध्यम से सूचना का प्रयोग किया जाता है। बड़े-बड़े झुण्डों में रहने वाली गौरैया उड़ने से पूर्व उड़ने के बीच तथा धरती पर उतरते समय तीन प्रकार की बोली बोलती है। इसका उद्देश्य होता है कि पूरे झुण्ड को एक साथ लेकर उड़ना और एक साथ उतरना।

साँप, नेवला, बिल्ली आदि जीव पक्षियों के जानी दुश्मन हैं। जब किसी पक्षी को इनसे सामना करना पड़ता है तो वह बड़ी कुशलता के साथ अपने अन्य साथी-सहयोगियों को इसकी सूचना पहुँचा देता है। इस अवसर पर निकाली गई ध्वनि आरोही और अवरोही होती हैं। खतरे की इस भाषा से पक्षी समाज अच्छी तरह से परिचित है तथा ये इसके लिए अत्यन्त सतर्क व सावधान होते हैं। पक्षी दोनों कानों से एक साथ नहीं सुन सकता। वह केवल एक ही कान से सुन सकता है। प्रकृति प्रदत्त यह विशेषता उनके लिए एक वरदान सिद्ध हुई है। जिस ओर आवाज आ रही हो उस ओर का कान पहले सुन लेता है तथा सुगमतापूर्वक उस आवाज के प्रति जानकारी प्राप्त कर लेता है। इस प्रकार पक्षी खतरों से अपना बचाव करता है। यही नहीं जब स्थिति सामान्य हो जाती है तो एक विशेष प्रकार की ध्वनि द्वारा सूचना सम्प्रेषित की जाती है, जिसे सुनकर पक्षी नियमपूर्वक चहचहाने लगते हैं।

जुदाई पक्षियों के लिए भी असहनीय होती है। एक के मारे जाने पर दूसरे द्वारा अत्यन्त करुण विलाप किया जाता है ऐसे पक्षियों में क्रौंच प्रमुख है। बहेलिये द्वारा क्रौंच पक्षी के वध तथा बिछुड़े पक्षी के कारुणिक विलाप ने महाकवि वाल्मीकि को द्रवित कर दिया था और उनके द्रवित हृदय से निकली आह ही विश्व प्रसिद्ध काव्य का मंगलाचरण सिद्ध हुआ।

प्रवासी पक्षी स्वदेश वापसी के समय एक साथ एकत्रित हो जाते हैं तथा झुण्ड बनाकर यात्रा करने के लिए एक विशेष प्रकार की भाषा का प्रयोग करते हैं। इसी भाषा का अनुसरण करके ही वे अनुशासित सिपाही की तरह झुण्ड में आते और जाते हैं। भाषा सम्बन्धी यह ज्ञान प्रायः उन्हें सहजान रूप में प्राप्त होता है। गाने वाले पक्षियों में कुछ को यह गुण सहज रूप में प्राप्त होता है तथा कुछ सीखते भी हैं। पक्षी विशेषज्ञों के अनुसार यदि कोयल के बच्चे को कोयल समाज से अलग रखकर अन्य पक्षियों की आवाजें सुनायी जायें तो वह तब भी कोयल की ही आवाज निकालेगा। दूसरी ओर बुलफिंच को जिस समाज में प्रारम्भ में रख दिया जाये वह उसी का गाना शुरू कर देता है।

भारतीय पक्षियों में पहाड़ी मैना इस मामले में निश्चय ही सबसे आगे है। वह मनुष्य की बोली को लगभग नकल कर लेती है। हालाँकि इस सिलसिले में तोते ज्यादा मशहूर हैं। तोते को मंत्र तक याद होते देखा गया है। भृंगराज एक गान-विधा-विशारद परन्तु वह अत्यन्त नकलची पक्षी है। इसकी सर्वोपरि विशेषता है विभिन्न गाने वाले पक्षियों के गानों की हूबहू नकल कर लेना। वह आस-पास के किसी भी पक्षी की नकल कर लेता है, जिससे भ्रम पैदा हो जाता है। संभवतः इसी वजह से जंगल का चक्रवर्ती सम्राट इससे बहुत चिढ़ता है और इसे देखना तक पसंद नहीं करता है।

जो भी हो पक्षी अपनी कोमल भावनाओं की अभिलाषी इन सुरीली तानों के माध्यम से करती हैं। यदि प्रकृति की इस नैसर्गिक धरोहर के प्रति हम भी संवेदनशील हों तो हमारे जीवन में भी अनेकों प्रकार की कोमल भावनाएँ फूट पड़ेंगी। जो हमें और औरों को भी प्रसन्न करने में सहायक होगी। हमारा जीवन और भी सरस और सुन्दर बन पाएगा।

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