
गुरुकथामृत-21 - इन निमित्तों ने ही तो खड़ा किया है यह वटवृक्ष
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किसी भी व्यक्ति के मन में धर्म-धारणा की स्थापना करनी हो तो उसका विश्वस्त बनना पड़ता है। उसके मन में पल रहे संदेहों, जिज्ञासाओं का समाधान भी देना होता है। यदि आप नहीं देंगे तो भारतीय संस्कृति के मूल सिद्धाँतों की स्थापना गहराई से नहीं कर पाएँगे। गायत्री और यज्ञ दो ऐसी महत्त्वपूर्ण विधाएँ हैं, जो हमारी गुरुसत्ता ने जन-जन के मन में स्थापित कर दीं। इसमें निश्चित ही इस साहित्य ने बड़ी भूमिका निभाई, जो ‘अखण्ड ज्योति’ पत्रिका के रूप में प्रकाशित हो रहा था तथा गायत्री साहित्य के छोटे-छोटे ट्रैक्ट्स के रूप में उपलब्ध था। फिर भी मन तो शंकालु होता है। ऐसी कई बातों का समाधान तो मात्र पत्रों से हो पाता है या व्यक्तिगत चर्चा से। परमपूज्य गुरुदेव के पत्रों की भाषा पर जब हम दृष्टि डालते हैं तो लगता है कि किसी आध्यात्मिक मनश्चिकित्सक की तरह उन्होंने भूमिका निभाई। एक पत्र यहाँ प्रस्तुत है। यह श्री मदनमोहन सारस्वत जी को जोधपुर शहर में 21/12/1955 को लिखकर भेजा गया था।
“आप पति-पत्नी श्रद्धापूर्वक गायत्री उपासना में संलग्न हैं, यह देखकर हार्दिक प्रसन्नता होती है। अगहन सुदी 11 या पूर्णिमा को आप थोड़ा ब्रह्मभोज कर दें। आजकल प्राप्त हो, इसलिए पुस्तक वितरण का ब्रह्मभोज ही श्रेष्ठ है। यों दो-चार ब्राह्मणों को भोजन करा देने में भी हानि कुछ नहीं। हवन, तिल, जौ, चावल, घी, शक्कर, मेवा इन चीजों को मिलाकर कर लें। अच्छी हवन सामग्री बाजार में मिलती नहीं, इससे यही चीजें ठीक है।”
पत्र सामान्य है। यह लिखा गया है गायत्री महाविज्ञान, यज्ञविधान के लेखक के पूर्व तथा 1948 के ऐतिहासिक सहस्र कुँडी महायज्ञ के पूर्व। वह महायज्ञ स्वतः में एक शिक्षण था एवं उसके बाद वनौषधि प्रधान हवन सामग्री सबको सुलभ होती चली गई। सबसे महत्त्वपूर्ण बात है ब्रह्मभोज के संबंध में एक क्राँतिकारी चिंतन, जिसमें आज से प्रायः 46 वर्ष पूर्व वे लिखते हैं कि ब्राह्मणों को भोजन कराने की अपेक्षा उत्तम होगा कि वे श्रेष्ठ विचारों का प्रचार-प्रसार करने वाला ज्ञानयज्ञ कर लें। यही क्राँतिकारी चिंतन-चेतना ढेरों रूढ़िवादिताओं से भरी मान्यताओं को ध्वस्त करती चली गई।
एक दूसरा पत्र यज्ञ के कौतुकी प्रकारों से संबंधित है, जिसमें वे बड़ा स्पष्ट समाधान देते हैं। यह पत्र 21/2/1957 को श्री बैजनाथ प्रसाद शौनकिया जी को ( टीकमगढ़ म.प्र. ) लिखा गया था। वे लिखते हैं-
‘धनुषयज्ञ’ क्या होता है ? यह समझ में नहीं आया। यह हमने सुना भी नहीं है। शास्त्रों में भी यह शब्द कहीं देखते को नहीं मिला। राजा जनक के यहाँ धनुष टूटा जरूर था, पर नाम उसका भी धनुषयज्ञ नहीं था। ऐसे ऊटपटाँग मनमाने आयोजन चलाने की अपेक्षा यदि इन स्वामी जी को आए गायत्री यज्ञ के लिए तैयार कर सकें तो जनता की गाढ़ी कमाई का पैसा सफल हो सकता है। आप इस दिशा में प्रयत्न अवश्य करें। सफल हो गए तो एक बहुत बड़ी बात होगी।
हमारी धर्म-संस्कृति में सभी को छूट है। मनोकामना प्रधान, दैवयज्ञ प्रधान ( जिनका जिक्र इस अंक की युगगीता में किया गया है ) कई आयोजन इस देश में होते रहते हैं, पर हमारी गुरुसत्ता तर्क की कसौटी पर बैजनाथ जी को समझाने व नेतृत्व लेकर मूढ़ मान्यताओं को मिटाने के लिए प्रेरित करती है कि ऐसे बेसिर-पैर के नाम पर यज्ञ कर जनता की कमाई पर गुलछर्रे उड़ाने वाले स्वामी जी का पर्दाफाश होना चाहिए । यह उस समय को देखते हुए एक क्राँतिधर्मी चिंतन था। जो गुरु द्वारा शिष्य को दिया गया। यों यज्ञ सदैव हितकारी होते हैं, किए जाने चाहिए, पर यह तो न ज्ञान-विज्ञान पर आधारित है, न किसी प्रकार की तर्क की कसौटी पर । ऐसे में यज्ञ के नाम पर फैलाने वाला पंडावाद तोड़े कौन ? परमपूज्य ने यही कार्य जीवनभर कर यज्ञ की सही अर्थों में पुनः प्रतिष्ठा की ।
कई व्यक्ति आज मिशन का इतना विराट् स्वरूप देखते हैं। 27 आश्वमेधिक, एक वाजपेय यज्ञ स्तर का पुरुषार्थ करने वाला, देव संस्कृति दिग्विजय करने वाला यह मिशन अभी-अभी तिरूपति का कार्यक्रम संपन्न करके चुक है। ऐसी स्थिति में लगता है कि गुरुसत्ता अपने जीवनकाल में जहाँ भी जाती होगी, वहाँ अपार भीड़ उमड़ती होगी, बड़े आयोजन होते होंगे। बड़े ही सरल मन वाले आत्मीयता के अमृत जन-जन को पिलाने वाले आचार्य श्री ने इस आधार पर संगठन नहीं खड़ा किया। वे 22/12/69 को मथुरा से विदाई लेने के लगभग डेढ़ वर्ष पूर्व इलाहाबाद हम जाने से पूर्व एक बार जरूर आएँगे। इस वर्ष का तो सारा समय घिर गया। अगले वर्ष ही अपना संभव होगा। दृष्टि में छोटे-बड़े कार्यक्रमों का कोई महत्त्व नहीं। अब तो केवल अपने बच्चों से मिलने और भरपूर प्यार कर लेने की कामना शेष रह गई है। सो अगले वर्ष जरूर आएँगे।”
पत्र की भाषा स्वतः अपने निर्मल भावों से बताती है कि पूज्यवर के लिए कार्यक्रम नहीं, अपने अभिन्न आत्मीय शिष्यों से मिलना ज्यादा महत्त्वपूर्ण था। इसी आधार पर तो यह संगठन खड़ा है। अब चलते-चलते एक छोटा-सा पत्र और।
हमारे स्वरूप, 18/9/54
पत्र मिला। समाचार हमें आपके पत्र के बिना भी विदित होता रहता है, फिर भी आप पत्र तो देते ही रहें। प्रयत्न जारी है।
श्रीराम शर्मा आचार्य
पत्र पढ़ें वे मनोभावों को देख कि पत्र लिखे बिना भी, पाए बिना भी परमपूज्य गुरुदेव अपने लाखों शिष्यों के बारे में जान लेते थे। पत्र तो निमित्त होते थे, पर इनसे सामीप्य का बोध होता था व लगता था व लगता था बिना मथुरा गए गुरुजी से मिल लिए हों। ऐसी सबके मनों को पढ़ने वाली गुरुसत्ता को उनके आध्यात्मिक जन्मदिवस (76वाँ) की पूर्व वेला में शतशत नमन-शतशत नमन।