
सत्यम्, शिवम्, सुन्दरम्
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सौंदर्य अभिलाषी कौन नहीं है? सुन्दरता की चाह किसे नहीं है? हर व्यक्ति सुन्दर बनना चाहता है और किसी न किसी रूप में इसकी ओर आकर्षित होता है। यूँ तो प्रकृति का हर घटक सुन्दरता का पर्याय है। परन्तु दृष्टिकोण का फेर है कि कौन किसे सुन्दर मानता है और वह किसका पुजारी है। वस्तुतः अन्तर मन को उकेरे बिना वास्तविक सौंदर्य का दर्शन सम्भव नहीं है। अंतर्दृष्टि एवं हृदय की आँखों से ही इसे देखा एवं आनन्द उठाया जा सकता है।
यूनान के विख्यात दार्शनिक सुकरात ने सौंदर्य को परिभाषित करके उल्लेख किया है कि जो नेत्र और श्रवण के माध्यम से प्रीतिकर हो वही सुन्दर है। अर्थात् हो आँखों को पसन्द आ जाए तथा जिसके बारे में सुनने में भी अच्छा लगे वही सुन्दर है अर्थात् सुन्दरता के लिए रूप ही नहीं गुणों का भी महत्त्व है। इनके शिष्य प्लेटो ने सौंदर्य को सृष्टि का मूल तत्त्व माना है। उनके अनुसार सत्य ही सुन्दर एवं यही श्रेष्ठ है। एक अन्य दार्शनिक काण्ट के मत में यह दो तरह से होता है। इसको प्रतिपादित करने के लिए उन्होंने तर्कशास्त्र का सहारा लेते हुए स्पष्ट किया है कि एक सौंदर्य शुद्ध, पवित्र एवं निरपेक्ष होता है तथा दूसरा सापेक्ष होता है। एक स्वयं सुन्दर है इसके लिए किसी भी वस्तु को होना आवश्यक नहीं है। ईश्वर सुन्दर है। वह हर स्थिति में सुन्दर होता है। परन्तु सापेक्ष सुन्दरता उसके आसपास स्थिति किसी अन्य व्यक्ति, वस्तु एवं स्थिति के तुलना पर आधारित होता है।
वास्तविक सौंदर्य में देवत्व एवं दिव्यत्व का भाव जुड़ा हुआ होता है। हीगेल ऐसी सुन्दरता को इन्द्रियों की अनुभूति माना है। परन्तु यथार्थ सौंदर्य तो इन्द्रियों एवं मन के अनुभव से परे है उसे भला कैसे प्रतिपादित किया जा सकता है। वह तो इन सबसे ऊपर है। अतः कालीदास ने कहा है ऐसा सौंदर्य गतिशील एवं नित्य नवीन होता है। इस प्रकार भारतीय दर्शन भी सौंदर्य से अभिभूत हुए बिना नहीं रह पाया। पर इसने अपनी अभिव्यक्ति का माध्यम बदलकर इसे इन्द्रियातीत कहा है। अर्थात् सौंदर्य की दिव्यता इतनी है कि वह इन्द्रियों द्वारा ग्रहण नहीं की जा सकती। इसी वजह से वेदान्त ने इसे अनिवर्चनीयवाद के कलेवर से अलंकृत किया।
सौंदर्य के तत्त्व को सभी ने अपने-अपने ढंग से परिभाषित एवं विश्लेषित किया है। इस संदर्भ में शैव दर्शन ने इसे कला के रूप में मान्यता प्रदान की है। कला के पारखी ही इसे समुचित सम्मान एवं आदर दे सकते हैं। अतः इन्होंने सौंदर्य को कला के रूप में स्वीकारा। भक्ति साहित्य में उस दिव्य सौंदर्य को दैहिक अंग-प्रत्यंग के हाव-भाव के अंतर्गत देखा एवं परखा जाता है। इनके मतानुसार शरीर ही ऐसा माध्यम है जो उसे ठीक ढंग से अभिव्यक्त कर सकता है। इसी के द्वारा ईश्वर की अद्भुत सुन्दरता को अनुभव किया जा सकता है। हालाँकि उनके अनुसार यह पूर्ण सत्य नहीं है पर यह अनुभव बोध कराने का उसका एक यंत्र तो हो ही सकता है।
ईश्वरीय सौंदर्य को जिसने जितनी मात्रा में हृदयंगम किया, उसमें वह उसी अनुपात में अवतरित होता है। अगर यह शरीर में उतरता है तो इसकी चमक, कान्ति एवं रंग-रूप निखर उठता है। फिर शरीर सदैव स्वस्थ, निरोग एवं प्रसन्न रहता है। देह कुरूप हो या अच्छी, पर यह तो प्रकृति की देन है। इसके प्राकृतिक स्वरूप में ही सुन्दरता निहित है। प्राकृतिक दिनचर्या का अनुसरण कर प्रकृति प्रदत्त इस शरीर के सौंदर्य को बनाया रखा जा सकता है।
अष्टावक्र एवं सुकरात के शारीरिक सौंदर्य से भला कौन परिचित नहीं है। शारीरिक दृष्टिकोण से ये भले ही इतने अच्छे नहीं थे, पर इन्होंने ईश्वरीय सौंदर्य को अपने अन्दर उतारा था। और वे दिव्य हो गए थे। उनका कुरूप शरीर भी प्रभु का यंत्र बना ओर अत्यन्त सुन्दर बन गया। जिसकी सृष्टि में इतनी सुन्दरता अटी पड़ी है। उसका सृजनकर्त्ता-रचयिता कितना सुन्दर हो सकता है। यह कल्पना से परे की चीज है। फिर उसके स्पर्श से क्या यह देह सुन्दर नहीं बन सकती, यह काया कान्तिवान नहीं हो सकती। शरीर की वास्तविक सुन्दरता स्वस्थ एवं निरोग रहकर प्रभु का यंत्र बन जाने में ही है।शरीर द्वारा ही भगवद्कर्म सम्पादित होता है। अतः शरीर चाहे जैसा भी हो, इसे ऐसा बनाना चाहिए ताकि इसके माध्यम से कर्म के रूप में भगवत् चेतना झर सके। यही शरीर का सच्चा सौंदर्य है।
मन का सौंदर्य उसके दिव्य विचारों में सन्निहित है। श्रेष्ठ एवं सद्विचारों से मन के सौंदर्य में सदा निखार आता रहता है। चिन्तन और मनन से यह पुष्ट होता है। और इसका आधार है स्वाध्याय। स्वाध्याय की प्रक्रिया में ही मन का अप्रतिम सौंदर्य छिपा पड़ा है। यह अत्यन्त सहज-सुलभ है और हर कोई इसे प्राप्त कर सकता है। मनस्वी का मन बड़ा सुन्दर होता है। स्वाध्याय ही इसका गूढ़ रहस्य है। इसके अभाव में मन रूपी दिव्य दर्पण में कुविचारों की धूल जमती रहती है और इसकी नैसर्गिक सुन्दरता नष्ट हो जाती है।
ऐसा मन बड़ा ही कुरूप एवं विकृत होता है। यह समस्त मानवीय मनोविकारों का जनक है। यह मन कुमार्गगामी होता है और शरीर को भी सद्कर्मों से विरत कर देता है। क्योंकि यही शरीर को नियंत्रित एवं नियमित करता है। जिसमें भी ऐसा कुरूप मन का वास होता है उसका शरीर दिखने में चाहे कितना भी अच्छा क्यों न लगता हो, परन्तु सुन्दर नहीं हो सकता। अतः मन के सौंदर्य को उभारा जाय ताकि उसमें श्रेष्ठ एवं सुन्दर विचार उठ सकें। नित्य स्वाध्याय द्वारा मन रूपी दर्पण को सदा स्वच्छ एवं साफ रखा जाना चाहिए। जिससे कि आन्तरिक सुन्दरता की झलक-झाँकी देखी जा सके। मन ही वह तत्त्व है जो बाह्य और आन्तरिक दोनों प्रकार के सौंदर्य का अनुभव कर सकता है।
मन में जहाँ विचारों का सौंदर्य होता है, वहीं हृदय भावनाओं के सौंदर्य का प्रतिनिधित्व करता है। वैचारिक सौंदर्य बड़ा ही प्रखर एवं प्रबल होता है, परन्तु भावनाओं के सौंदर्य में चाँदनी जैसी शीतलता होती है। किसी पीड़ित की पीड़ा से यह दयार्द्र हो उठता है और उसके प्रति मोम जैसा पिघलने लगता है। अपनी समुचित सेवा एवं सहयोग द्वारा उसके पीड़ा एवं कष्ट के निवारण करने करने लिए तत्पर हो उठता है। जिसमें भी ऐसी स्थिति आने लगी है और जो दुखी के दुःख से तथा पीड़ित की पीड़ा से व्यथित होने लगा हो तो समझा जा सकता है कि उसकी भावनात्मक सुन्दरता में वृद्धि होने लगी है।
सेवा एवं सहकार के माध्यम से भावनाओं के सौंदर्य में अभिवृद्धि होती है। क्योंकि इससे अहंकार गलता है। अहंकार ही ऐसा दृढ़ मलिन आवरण है जो भावना रूपी हृदय को आच्छादित किये रहता है। इसी हृदय में उस परम ऐश्वर्यशाली परमात्मा का गुप्त वास होता है। जिसे आत्मा के रूप में जाना जाता है। अहंकार गले बिना उसका आवरण हटे बगैर भला कैसे आत्मिक सौंदर्य का रसास्वादन किया जा सकता है। सेवा ही इस आवरण को हटाने की दिव्य साधना है। जिसके द्वारा हमें उस परम सौंदर्य की झलक-झाँकी दिखाती है। अतः आत्मिक सौंदर्य के आकाँक्षी को सदैव सेवा का व्रत अपनाये रहना चाहिए। इस व्रत से हृदय इतना पवित्र एवं परिष्कृत हो जाता है कि जीव में शिव का पावन सौंदर्य बोध होने लगता है।
इसी सत्य को अनुभव करके ऋषियों ने सौंदर्य को ‘सत्यम् शिवम् सुन्दरम्’ के रूप में परिभाषित किया है। निःसंदेह सौंदर्य वही सच्चा है जो मंगलमय एवं कल्याणकारी हो। जीवन में चरित्र, चिन्तन एवं व्यवहार को उत्कृष्ट एवं परिष्कृत करके ही ऐसे दिव्य सौंदर्य का अनुभव बोध किया जा सकता है। जब इस परम सौंदर्य का अनुभव होता है तो जीवन सौंदर्य का पर्याय बन जाता है। ऐसा सौंदर्य ही महान् है। और इसी की अभीप्सा करनी चाहिए, जो हमें परमात्मा के दिव्य सौंदर्य से तदाकार-एकाकार कर दे।