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Magazine - Year 2002 - Version 2

Media: TEXT
Language: HINDI
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यह मूल्यविहीन ‘प्रगति’ किस काम की

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First 17 19 Last
परिवर्तन जीवन का अनिवार्य अंग है। परिवर्तन की दिशा और दशा किसी ओर भी हो सकती है। इसकी दिशा अन्दर की ओर हो तो अंतर्जगत विकसित होता है और यदि वह बाहरी हो तो भौतिक जीवन सधता है। आज का भारतीय जीवन भौतिकता की ओर मुड़ गया है। परिणाम स्वरूप स्टेट्स सिम्बल रूपी नया मानदण्ड एवं मापदण्ड उभर कर सामने आया है। वहीं आज बहुसंख्यक लोगों के दृष्टिकोण का परिचायक है। बेशकीमती परिधान और खान-पान वैभव प्रदर्शन के प्रतीक बन गए हैं। आलीशान मकान, इम्पोर्टेड गाड़ियाँ और बैंक एकाउण्ट सफलता के मापदण्डों में गिने जाने लगे हैं।

कभी मानवीय मूल्यों को जीवन की सर्वोपरि उपलब्धि माना जाता था, परन्तु वर्तमान की परिभाषा इससे एकदम भिन्न है। इसी नवीन परिभाषा एवं नूतन व्याख्या ने व्यक्ति की जीवन शैली में जबर्दस्त बदलाव ला दिया है। बदलाव का यह दौर बीसवीं शताब्दी से शुरू हुआ है। यूँ तो बीती शताब्दी मानव इतिहास में सर्वाधिक उथल-पुथल भरी रही। अनेकों छोटी-बड़ी घटनाएँ हुई। इसके अलावा एक और बड़ी उपलब्धि के लिए इसे याद रखा जाएगा क्योंकि इसी सदी में एशिया और अफ्रीका उपमहाद्वीप से गुलामी और राजशाही का ग्रहण हटा। आजादी के इस नए परिवेश में तमाम देशों की मूल संस्कृति और जीवन शैली को नए ढंग से पनपने एवं विकसित होने का अवसर मिला।

अन्तर्राष्ट्रीय परिदृश्य पर सभी देशों को समानता एवं समरूपता का दर्जा मिला। वैश्वीकरण और सूचना प्रौद्योगिकी की नई क्राँति आई। इसने विश्व की संस्कृति को काल खण्डों की सीमा से परे ले जाकर एक नवीन पहचान दी। विश्व संस्कृति को एक स्वरूप मिला और इसकी एक अलग पहचान बनी। वैश्वीकरण और उससे प्राप्त आर्थिक स्वतंत्रता के परिणामस्वरूप दशक-दर-दशक नए-नए स्टेट्स सिम्बल अस्तित्व में आने लगे। प्राचीनता के गर्भ से ही नूतनता का जन्म होता है। परन्तु यहाँ नवीनता ने पुरानी मान्यताओं को पूरी तरह से नकार दिया। इस प्रकार जीवन शैली में आधुनिकता का समावेश तो हुआ और स्टेट्स सिम्बल के रूप में नये मापदण्ड भी बने लेकिन सभी प्राचीन और स्वीकृत मान्यताओं को ध्वस्त करके।

बीसवीं सदी का प्रारम्भ इतना भव्य और वैभवपूर्ण नहीं था। इसका आगाज विक्टोरिया काल के चमकदार प्रभाव के बीच हुआ था। यह वह दौर था जब नारी और पुरुष के मध्य भारी भेद था। समाज में पुरुष का ही वर्चस्व था। नारी तो घर की चारदीवारी के अन्दर की एक वस्तु मात्र थी। उन दिनों जमींदारी प्रथा प्रबल थी। बीसवीं सदी के शुरुआती दशकों में भारतीय जीवन शैली का स्टेट्स सिम्बल खानदानी रौब-दाब और आचार-व्यवहार हुआ करता था। रियासतों में रईस एवं धनाढ्य लोग ऐश्वर्य एवं विलासितापूर्ण जिन्दगी जीते थे। उनके विशालकाय बंगले होते थे। इतालवी झूमरों से सजे इन हवेलियों में फ्राँसीसी डिनरवेयर जैसी महंगी वस्तुओं की भरमार थी। दावतों और समारोहों के अवसर पर पार्शियन कालीनों से गुजर कर आते जाते लोग और गूँजती स्वर लहरियाँ किसी स्वप्नलोक जैसी थी। ये सब प्रतिष्ठ के चरम मापदण्ड थे।

वैभव एवं विलासिता का यह नजारा भारत के प्रमुख चार महानगरों में तेजी से विनिर्मित होते आलीशान भवनों में दृष्टिगोचर होता है। शाहदरी पहाड़ी, नीलगिरी और हिमालय की तलहटियों में भी ऐसे ही बंगलों का निर्माण हो रहा था, जहाँ पर समृद्ध एवं सम्पन्न लोग कुछ समय बिताने के लिए आया करते थे। इन भारतीय समुदाय की जीवन शैली बहुत कुछ अंग्रेजी सभ्यता में ढल चुकी थी। धनी लोग उन्हीं के जैसे अनुकरण करने को स्टेट्स सिम्बल मानते थे। इसलिए अपने महलों एवं मकानों को सजाने के लिए यूरोप और चीन से खूबसूरत फर्नीचर का आयात किया जाता था। ब्रितानी प्रभाव से प्रभावित इन कोठियों में बोन चाइना की क्राकरी, फ्राँसीसी क्रिस्टल और शैफील्ड सिल्वर आदि कीमती वस्तुएँ भी होती थीं। भारतीय किचन में अंग्रेजी भोज्य पदार्थों का प्रवेश हो गया था। उच्च वर्ग के इन लोगों के लिए लन्दन और पेरिस के सिले कपड़े स्टेट्स सिम्बल के पर्याय बन चुके थे।

इस प्रकार बीसवीं सदी के प्रारम्भिक दशकों में भारत के उच्च वर्गों में अंग्रेजी सभ्यता के प्रति जबर्दस्त आकर्षण था। शिफान, हीरे-मोती, कार, शराब, सिगार और अन्तर्राष्ट्रीय क्रूज लाइनरों से देश-विदेश की यात्राएँ वैभव की नई कहानी कहती थीं। इस वर्ग की भारतीय महिलाओं में भी इसका भारी प्रभाव पड़ा। परिणाम स्वरूप बाँब बाल, ऊँची हील की सैण्डिल, पेरिस की प्रसिद्ध जार्जेट साड़ियाँ आदि वेशभूषा के प्रति आकर्षण बढ़ा। उन्हीं दिनों रेसकोर्स शुरू हुए और घोड़ों की दौड़, गार्डन पार्टी व कैण्डल लाइट डिनर आदि प्रभाव व प्रतिष्ठ का सफलतम मापदण्ड माने जाते थे।

इसके ठीक दूसरी ओर बाजारीकृत अर्थव्यवस्था पर आश्रित वर्गों में अपने तरह का स्टेट्स सिम्बल प्रचलित हुआ। इनमें शहरों के बीच बड़ी-बड़ी इमारतें बनाना, चाँदी के बर्तनों का प्रयोग तथा घरेलू कामों के लिए नौकरों की फौज रखना जीवन के अंग बने। भारत में फैशन के रूप में जीन्स का प्रचलन भी इन्हीं दिनों प्रारम्भ हुआ।

चरम भौतिकता और प्रदर्शन से ओत-प्रोत इन स्टेट्स सिंबल में एकाएक बदलाव आया जब गाँधी जी दक्षिण अफ्रीका एवं ब्रिटेन से होकर भारत आये। अटूट देशभक्ति, नैतिक मूल्य और दृढ़ इच्छा शक्ति के प्रतीक गाँधी जी ने अपना वैभव त्यागा। उन्होंने अपनी स्विस घड़ियों, ब्रितानी सूटों को तिलाँजलि देकर मोटी व खुरदरी खादी को अपनाया। रियासत की हवेली त्यागकर आश्रम में रहने लगे। उनके इस त्यागमय जीवन का बड़ा व्यापक प्रभाव पड़ा। इसके इस प्रभाव से खादी देशभक्ति की प्रतीक बनने के साथ ही स्टेट्स सिम्बल भी बन गई। प्रत्येक समृद्ध परिवार में चरखा रखा जाने लगा जो बदलते समय का परिचायक था। सामूहिक प्रार्थना सभाएँ, आजादी के नारे, अखबारोँ में लेखन, प्रभात फेरी, मार्च और असहयोग जताते प्रदर्शन नए रूप में प्रतिष्ठित हुए।

आजादी के पश्चात् ‘सादा जीवन-उच्च विचार’ का नारा नया मानदण्ड बना। इसी कारण सत्ता और शासन से लेकर आम जनता तक खादी को आत्मसात कर लिया था। उन दिनों गाँधी टोपी, खादी कुर्ता, चूड़ीदार पायजामा और धोती, सभ्यता के नए प्रतिमान बने। नेहरू जैकेट, जोधपुरी कोट और हैण्डहूम की साड़ियों ने तो जैसे प्रतिष्ठ को नई परिभाषा गढ़ दी। उन दिनों स्वदेशी के प्रति प्रबल आकर्षण था।

साठ और सत्तर के दशक में प्रतिष्ठ के इन मानदण्डों में फिर से परिवर्तन आने लगा। विदेशी यात्रा और उच्चशिक्षा में सफलता का सूत्र ढूंढ़ा जाने लगा। मध्यवर्ग की पुरानी पीढ़ी में इसका खासा प्रभाव पड़ा। कारण वे अपने लड़के-लड़कियों को महंगे कान्वेण्ट स्कूलों और विख्यात महाविद्यालयों में पढ़ाने लगे। हजारों हजार युवाओं का उच्च शिक्षा हेतु इंग्लैण्ड और अमेरिका जाना प्रतिष्ठ का अंग बना। उस जमाने में परिवार के किसी सदस्य का विदेश में होना गर्व का विषय माना जाता था। इसी वजह से भारत में स्टर्लिंग, पाउण्ड एवं डालर जैसी विदेशी मुद्राओं का आगमन हुआ और ये भी स्टेट्स सिम्बल में गिने जाने लगे।

साठ का दशक महिला मुक्ति आन्दोलन का साक्षी बना। वैयक्तिक स्वतंत्रता के इस रूमानी कल्पना ने भारतीय महिलाओं को संघर्ष की अग्रिम पंक्ति में लाकर खड़ा कर दिया। इस दशक की महिलाएँ पश्चिमी प्रभाव को अंगीकार करने के लिए तैयार थीं। और इसी वजह से महिला कानूनों में बदलाव आया, पारिवारिक स्थिति बदली और महिला रोजगार के नए-नए अवसर सामने आए। उन दिनों स्वनिर्भर महिलाओं को भी प्रतिष्ठ के नए मानदण्डों में स्वीकारा जाने लगा। इस प्रकार अस्सी की शुरुआत और सत्तर के दशक में अपना व्यवसाय और सफल उद्यम सही मायने में स्टेट्स सिम्बल बने।

अस्सी की दशक वैश्वीकरण के लिए प्रसिद्ध है। आर्थिक उदारीकरण के कारण महानगरों में सम्पदा एवं शेयर की खरीददारी आकर्षण के नए केन्द्र बने। इलेक्ट्रानिक साजो-सामानों से भरा अत्याधुनिक बंगलों में रहना महंगे होटलों में खाना खाना, कीमती अलंकार एवं परिधान और कारों का प्रयोग सम्मानित दृष्टि से देखा जाने लगा। इस वैभव प्रदर्शन में सादा जीवन उच्च विचार का सिद्धान्त दम तोड़ चुका था। बेशुमार दौलत की आय के कारण एक नये नवधनाढ्य वर्ग का जन्म हुआ, जिनका एक ही उद्देश्य था अपनी सम्पदा का खुला प्रदर्शन। यह प्रतिष्ठ का उच्चतम आदर्श बना जिसे हर कोई रातों रात पाने को व्यग्र हो उठा। इस प्रकार कीमती कपड़े विदेशी भोजन एवं बैंक एकाउण्ट को चरम सफलता माना जाने लगा।

सत्तर और अस्सी के दशक में प्रारम्भ हुई आधुनिक जीवन शैली नब्बे के दशक में पूरे उफान पर रही। सेटेलाइट के इस युग में एशिया विश्व में भविष्य के महाद्वीप के रूप में उभरा। इस दौर में यूरोप की प्रचण्ड चुनौतियाँ समाप्तप्रायः हो चुकी थीं और अमेरिका प्रमुख आर्थिक स्रोत बन चुका था। ऐसे में एशिया का बदलता परिवेश और तकनीकी व औद्योगिक गतिविधियों ने भारतीयों में एक नई आशा एवं उत्साह का संचार किया। इस दौरान लोगों ने फिल्मों, पत्र-पत्रिकाओं और सेटेलाइट चैनलों के द्वारा अत्याधुनिक जीवन स्तर को गर्व के साथ अपनाया।

ऐश्वर्य एवं वैभव के इन नूतन मापदण्डों में प्रदर्शन व दिखावा ही एकमात्र उद्देश्य बना। इस चमक दमक से अभिभूत भारतीयों में सैण्ट्रो, होण्डासिटी, सिएना, सिएलो, ओपेल एस्ट्रा क्लब, मित्सुबीशी लेंसर, मर्सीडीज आदि इम्पोर्टेड गाड़ियाँ नए स्टेट्स सिम्बल बनीं। रिबॉक, एडीडास, नाइक, बुडलैण्ड ऐलेन सोली, लुडस फिलीप आदि ब्राण्डेड कंपनियों के डिजाइनर कपड़ों एवं जूते-चप्पलों को अत्यधिक महत्त्व दिया गया है। इसीलिए आर्डेन, एस्टी लाँडर, लैक्काम, कार्टियर, अरमानी, शैनेल सरीखे पुराने प्रचलित ब्राण्ड के साथ-साथ काल्विन, कलीन, टाँमी, डेविडाँफ, वर्साचे, वास, शल्फ, लारेन, आइअडोर जैसे परफ्यूम के अत्याधुनिक ब्राण्ड प्रतिष्ठ के अंग बन गये हैं।

आभूषणों में प्लेटिनम आज का नया स्टेट्स सिम्बल बनकर उभरा है। हीरे की भाँति चमकते अजूबे काँच के क्रिस्टल प्रतिष्ठ के पर्याय बन गये हैं। ये बेहद महंगे हैं। क्रिस्टल फर्नीचर की कीमतें लाखों में ही नहीं करोड़ों में है। एक क्रिस्टल छिपकली डेढ़ लाख रुपये की तो क्रिस्टल का हंस दो लाख का होता है। बकार्ट क्रिस्टल फर्नीचर की कीमत सवा दो करोड़ तक की होती है। स्वैरोवस्की, लेलिक, लाड्रो, बकार्ट, बलेराय एण्ड बोश, डोम, जे.जी दुरेन्द्र क्रिस्ट डी अरब्यूज से लेकर वाटर फोर्ड रिडेल, नेचडमैन, मार्कएसल, एटलाण्टी और बी.एस.एल आदि के ब्राण्डों को रखना आज की चरम प्रतिष्ठ एवं सम्मान सूचक माना जा रहा है। पानी की तरह पैसों को बहाकर इन्हें केवल झूठी प्रशंसा पाने हेतु अपनाया जा रहा है।

फैशन और फिटनेश भारतीय परिवेश में आधी की तरह छा गया है। यह हर युवा एवं युवती का आदर्श बन गया है। परन्तु स्टेट्स सिम्बल रूपी इस उपलब्धि को पाने के लिए हमें अपनी दुर्लभ साँस्कृतिक विरासत एवं सामाजिक मूल्यों का बलिदान करना पड़ा है। अगर गहराई से इस उपलब्धि का विश्लेषण किया जाए तो पता चलेगा कि हमने भले ही झूठा सामाजिक सम्मान अर्जित किया हो लेकिन मानवीय मूल्य हमसे छिन गये हैं। पाने के नाम पर हमने पाया कुछ नहीं और खोया अधिक है।

इसकी भरपाई तभी सम्भव है जब सेवा, सहकार, सहयोग, उदारता, विनम्रता, सच्चाई, ईमानदारी आदि आन्तरिक मूल्यों की प्रतिष्ठ हो। परिष्कृत जीवन शैली को अपनाकर ही वास्तविक समृद्धि एवं सम्पदा का अधिकार पाया जा सकता है। इस प्रकार भौतिकता के साथ आन्तरिकता का समन्वय करके ही हम सच्चा स्टेट्स सिम्बल पा सकते हैं। यह कुछ ऐसा होगा जिस पर हम सही भावों में गर्व कर सकें।

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