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Magazine - Year 2002 - Version 2

Media: TEXT
Language: HINDI
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वातव्याधि निवारण की यज्ञोपचार प्रक्रिया - 11

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First 31 33 Last
इस शृंखला के अंतर्गत सियाटिका रोग के बारे में पिछले लेख में विस्तारपूर्वक बताया जा चुका है। यहाँ पर ‘आमवत’ नामक कष्टकारी वातव्याधि के संबंध में उल्लेख किया जा रहा है कि कारणों से पैदा होता है और यज्ञोपचार द्वारा उससे कैसे छुटकारा पाया जा सकता है। आमवात को समस्त वातविकारों का जनक कहा जा सकता है। आरंभ होने के साथ ही यदि सही ढंग से उपचार न किया जाए, तो आगे चलकर विविध प्रकार के कष्टसाध्य वातविकार जैसे संधिवात, संधिशोथ जिन्हें चिकित्साविज्ञानी ‘आथ्राइटिस’ कहते हैं, पैदा हो जाते हैं। गठिया, जोड़ों का दर्द, पंगुता आदि वात विकृतियाँ इसी की देन हैं।

आमवात की निरुक्ति दो प्रकार से की जाती है, ‘आमेन सहितः वातः’ तथा आमश्च वातश्च आमवातः। अतः स्पष्ट है कि यह दो शब्दों के मेल से बना है, आम.वात। वस्तुतः जो खाद्यपदार्थ हम आहार के रूप में ग्रहण करते हैं, यदि वह ठीक तरह से पचता नहीं है, जठराग्नि कमजोर है, तो उससे जो कच्चा अपक्व रस बनता है, वह आँत के ऊपरी भाग-आमाशय में इकट्ठा होता रहता है। आयुर्वेद में इसे ही ‘आम’ कहते हैं। जब शरीर में संचरण करने वाली वायु प्रकुपित होकर आम से मिल जाती है और दूषित वायु के साथ पूरे शरीर में परिभ्रमण करने लगती है, तब इसे ‘आमवात’ कहते हैं। शरीर के त्रिकस्थानों, संधिस्थलों, जोड़ो आदि में प्रवेश करके यह उन स्थानों को जकड़ लेती है, लॉक कर देती है, तब अंगों में सूजन आ जाती है और हड्डी टूटने, बिच्छू के डंक मारने जैसी पीड़ा होती है। इसके साथ ही भूख न लगना, अरुचि, प्यास, आलस्य, ज्वर, हृदय में भारीपन, पैर, पिंडली, जंघा, घुटना, कमर, ग्रीवा आदि में शोथ, अनिद्रा, पेशाब की अधिकता, आँतों में गुड़गुड़ाहट एवं शरीर में दाह जैसे लक्षण उभर आते हैं।सही ढंग से उपचार न होने पर आमाशय में जमा हुआ यही आमरस जब कफ और पित्त से मिल जाता है, तो यह उक्त संधि स्थानों में एकत्र होकर सूजन और असह्य दर्द पैदा करता है। ऐसी स्थिति में एकत्र होकर सूजन और असह्य दर्द पैदा करता है। ऐसी स्थिति में चलना-फिरना दुष्कर हो जाता है कि आमवात ने जकड़ लिया है। पित्ताधिक्य आमवात में दाह और लाली होती है, वाताधिक्य आमवात में शूल होता है। कफ की अधिकता वाले आमवात में शरीर में जड़ता, भारीपन और खुजली अधिक होती है।

यों तो आमवात वृद्धावस्था का रोग माना जाता है, परंतु पेट की खराबी, आवश्यकता से अधिक खाने, अधिक शराब पीने, वासी भोजन करने आदि कारणों से वह किसी भी उम्र में हो सकता है। वंशानुगत कारणों से भी यह रोग हो जाता है। आमवात के कारणों का उल्लेख करते हुए आयुर्वेद के ग्रंथ ‘बंगसेन’ में कहा गया है-

"विरुद्धाहार चेष्टस्य मंदाग्नेर्निश्चलस्य च। स्निग्धं भुक्तवतो हृान्नं व्यायामज्चाथ कुर्वतः॥

अर्थात् विरुद्ध आहार-विहार-प्रकृति विरुद्ध, समय विरुद्ध, संयोग विरुद्ध जैसे दूध-मछली आदि खाने और विरुद्ध चेष्टा करने, स्निग्ध आहार जैसे दूध, घी, मिठाई आदि गरिष्ठ पदार्थ लेने के पश्चात् बैठे रहने, शारीरिक श्रम न करने, जिह्वा पर नियंत्रण न रखने तथा भोजन करने के पश्चात् तुरंत व्यायाम करने या कठिन परिश्रम करने, नमी या सीलनयुक्त कमरों में निवास करने, धूप से आकर तुरंत ठंडे जल से स्नान करने या ठंडा जल पीने, ठंडी हवा में रात में खुले बदन सोने, पसीना रोकने, आम एवं वात को कुपित करने वाले वातावरण में रहने आदि कारणों से आमवात पैदा होता है। यदि यही आम पित्त स्थान में पहुँच जाए तो उसका पाचन हो जाता है, किंतु जब उपर्युक्त कारणों से यह वायु से संयुक्त होकर आमाशय, वक्षस्थल, कंठ, मस्तिष्क एवं संधिस्थलों आदि कफ वाले स्थानों में पहुँच जाता है तो अपक्व रह जाता है एवं धमनियों के मार्ग से चलने लगता है। प्रवाहित होता हुआ आमवात पित्त या कफ से संयुक्त होने पर दूषित हो जाता है और स्रोतों में रहने वाले रस को वहन करने वाली शिराओं को रोककर भारी कर देता है, जो आगे चलकर विविध प्रकार की दारुण वात-व्याधियों को जन्म देता है।

आयुर्वेद चिकित्सा में आमवात दूर करने वाले अनेकों औषधीय योग उपलब्ध हैं। अनेक विशिष्ट एवं बहुमूल्य रस-भस्मादि मिश्रित योग, क्वाथ, वातनाशक-दर्दनाशक तैल आदि के प्रयोग से नए पुराने आमवात को समूल नष्ट किया जा सकता है। इतने पर भी अनुभवी चिकित्सक एवं महंगी दवाओं की सहज उपलब्धता न होने के कारण जनसामान्य प्रायः इस दारुण कष्ट को झेलने के लिए विवश बने रहते हैं। ऐसी स्थिति में यज्ञ-चिकित्सा को अपनाकर हर कोई अपने आहार-विहार में परिवर्तन करते हुए सहज ही सभी प्रकार की वात व्याधियों से छुटकारा पा सकते हैं और नीरोग एवं दीर्घायुष्य जीवन आनंद उठा सकते हैं।

आमवात की विशेष हवन सामग्री

आमवात दूर करने के लिए जो हवन सामग्री बनाई जाती है, उसमें निम्नलिखित वस्तुएँ मिलाई जाती हैं, 1-रास्ना, 2-गिलोय, 3-अमलतास की पत्ती एवं फल का गूदा, 4-देवदार, 5-गोक्षुर, 6-एरंड की जड़, 7-पुनर्नवा (साँठी) 8-सोंठ, 9-बिल्वगिरी, 10-गंभारी छाल, 11 पाढ़ल छाल, 12-अरणी छाल, 13-अरलू, 14-शालिपर्णी पंचाँग, 15-पृश्निपर्णी, 16-छोटी एवं बड़ी कटोरी (दोनों), 17-कचूर, 18-बड़ी हरड़, 19-बच, 20-अतीस, 21-वासा, 22-गुग्गुल, 23-पीपर, 24-पिपरामूल, 25-शतावर, 26-असगंध, 27-विधारा, 28-प्रसारिणी, 29-पोहकर मूल, 30-अजवायन, 31-अजमोद, 32-वायविडंग, 33- चव्य, 34-चित्रक, 35-जीवंती, 36-इंद्रायण की जड़ व फलों का बीज, 37-कूठ, 38-जायफल, 39-कालीमिर्च, 40-सफेद जीरा, 41-गोरखमुँडी, 41-कुटकी, 42-निशोथ, 44-तेजपात, 45-दालचीनी, 46-कटसरैया, 47-मेथी, 48-मकोय, 49-इंद्र जौ और 50-बला।

उपर्युक्त सभी 5 चीजों को समान मात्रा में लेकर जौकुट पाउडर बना लेना चाहिए। यदि कुछ औषधियाँ न मिलें तो भी जितनी उपलब्ध हो सकें, उनसे ही यज्ञोपचार आरंभ कर देना चाहिए।

यज्ञोपचार में हवन करते समय पूर्व में बताई गई ‘काँमन हवन सामग्री नंबर 1’ को भी संभाग में मिला लिया जाता है। इस नंबर 1 की हवन सामग्री में जो चीजें मिलाई जाती हैं वे हैं, अगर, तगर, देवदार, श्वेत चंदन, लाल चंदन, जायफल, लौंग, गूगल, चिरायता, गिलोय एवं असगंध। इन्हें जौकुट करके एक अलग डिब्बे में पहले से ही तैयार करके रख लेते हैं और हवन करते वक्त प्रत्येक रोग की विशिष्ट हवन सामग्री में बराबर मात्रा में मिलाकर तब हवन करते हैं। हवन करने का मंत्र सूर्य गायत्री मंत्र ही रहेगा अर्थात् "ॐ भूर्भुवः स्वः भास्कराय विद्महे, दिवाकराय धीमहि तन्नः सूर्यः प्रचोदयात्।"

हवन करने के साथ ही उपयुक्त सभी पचास चीजों को अलग से बारीक पीसकर उनका कपड़छन चूर्ण तैयार कर लिया जाता है और सुबह-शाम एक-एक चम्मच कुनकुने जल के साथ आमवात के रोगी व्यक्ति को खिलाया जाता है। चूर्ण निगलने में प्रायः अरुचिकर लगता है, अतः इसका क्वाथ बनाकर निगलने से समस्या का समाधान भी हो जाता है और लाभ भी जल्दी मिलता है।

क्वाथ बनाने का सबसे सरल तरीका यह है, कि रात्रि में 5 ग्राम अर्थात् दस चम्मच उक्त चार चीजों के सम्मिलित पाउडर को लगभग एक लीटर शुद्ध जल में भिगो दिया जाए और सुबह उसे मंद आँच पर उबाला जाए। जब उबलकर क्वाथ का जलाँश चौथाई या 25 मि.ली. रह जाए, तो उसे ठंडा होने पर महीन कपड़े से छान लें और उसे ही सुबह-शाम दो बार में रोगी को पिलाएँ। अच्छा हो यदि अनुकूल पड़े तो पीते समय काढ़े में एक चुटकी सोंठ का चूर्ण और काला नमक मिला लिया जाए। इससे पाचन शक्ति को बल मिलता है और सूजन भी मिटती है। कभी-कभी क्वाथ में एरंड तैल (कैस्टर ऑयल-1 ग्राम) मिलाकर भी पिलाना चाहिए, जिससे आमाशय में एकत्र हुआ आम बाहर निकल जाता है।

आमवात-गठिया में जोड़ों में सूजन एवं असह्य दर्द मुख्य रूप से रुग्ण व्यक्ति को व्यथित करते हैं। इससे छुटकारा पाने का सबसे सरल तरीका यह है कि कपड़े में बालू की पोटली बाँधकर या यज्ञ भस्म को आग में या तवे पर बार-बार गरम करके सारे शरीर को कपड़े से ढ़ककर सिकाई की जाए। इससे पसीना निकलता है और शोथ तथा दर्द में राहत मिलती है। तदुपराँत दर्दनाशक तैल की हलकी मालिश करनी चाहिए।

आमवात के लिए दर्दनाशक तैल इस प्रकार बनाया जाता है, 1-मैदा, 2-महामेदास, 3-सौंठ, 4-मंजीष्ठ, 5-कूठ, 6-रास्ना, 7-लालचंदन, 8-जीवक, 9-ऋषभक, 10-काकोली, 11-क्षीरकाकोली, 12-कंटकारी, 13-एरंड जड़, 14-कटसरैया सभी 5-5 ग्राम लेकर कूट-पीसकर बारीक पाउडर बना लें। प्रसारिणी क्वाथ 5 ग्राम एवं तिल तेल एक किलोग्राम लेकर उसमें उक्त सभी चौदह चीजों का पाउडर डालकर तैल सिद्ध कर लें। जब सभी चीजें जल जाएं, केवल तैल शेष रहे, तो उसे ठंडा होने पर छान लें। यह तैल आमवात सहित सभी प्रकार के वात रोगों पर लाभदायक सिद्ध होता है।

आमवात पाचन तंत्र की गड़बड़ी के कारण उत्पन्न होता है, अतः रोगी के खान-पान में परहेज का अवश्य ध्यान रखना चाहिए। दूध, दही, गुड़ माँस, मछली, उड़द, बैंगन आदि एवं बादी करने वाली शीतल वस्तुएं आमवात के रोगी को नहीं खानी चाहिए। रात्रि जागरण, वेगों को रोकना, पुरवैया वायु, चिंता, शोक, आलस्य आदि इस महारोग के लिए अपथ्य हैं। परबल, करेला, बथुआ, कुलथी, लहसुन, सौंठ, मरिच, अजवायन, अदरक, एरंड तैल, कोदों, साँबा, मूँग, पुराना साठी चावल चना की दाल का युप आदि पथ्य हैं। पीने के पानी में 5-5 ग्राम चव्य, चित्रक, पीपर, पीपरामूल एवं सोंठ डालकर उबाल लें। 4 लीटर पानी उबलकर जब आधा रह जाए, तो छानकर ठंडा होने पर पीने को देते रहना चाहिए। आमवात रोगी के लिए यह जल अमृत के समान लाभकारी होता है।

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