• News
  • Blogs
  • Gurukulam
English हिंदी
×

My Notes


  • TOC
    • स्मरण और समर्पण
    • व्यक्तित्व-गठन के छह महत्वपूर्ण चरण
    • प्रयासों में सहायता मिली (kahani)
    • ध्यानं निर्विषयं मनः
    • बुद्धि नहीं, सद्बुद्धि को महत्व मिले
    • महामानव बना देता है (kahani)
    • अकर्मण्यता - एक विष
    • रामकृष्ण परमहंस (Kahani)
    • आत्मोत्कर्ष हेतु तपश्चर्या के दो पक्ष
    • दोष का भागीदार (kahani)
    • आवश्यकता है प्रेम के परिष्कार एवं सुख के आध्यात्मीकरण की
    • सतत दान देता रहा (kahani)
    • इनसान बस अपने को जान ले
    • लक्ष्य से भ्रष्ट (kahani)
    • प्रभु! जड़-चेतन में, रोम-रोम में शाँति दीजिए
    • Quotation
    • गलत प्रव्रज्या में शरण दुःखदाय है
    • कागावा देश का गाँधी (kahani)
    • भारत का इतिहास, महाकाल का प्रसाद है - गंगा
    • बड़ी जिम्मेदारिया (kahani)
    • VigyapanSuchana
    • मिली समय-प्रबंधन की सीख
    • पवित्र, उच्च विचारों से आप्लावित उपनिषदों का ज्ञान
    • प्रभु की भूख (kahani)
    • हम अपने भाव में शाँत हो भर जाएं
    • Quotation
    • आयुर्वेद-5 - प्रदर रोग निवारण हेतु यज्ञोपचार प्रक्रिया
    • स्वार्थ से ऊपर उठकर पारिवारिक उत्तरदायित्व (kahani)
    • समर्पण, विसर्जन, विलय का महापर्व
    • वृक्ष उद्बोधन से पथिक का समाधान (kahani)
    • गुरु पूर्णिमा (13 जुलाई, 2003)- - विशेष-जनम-जनम के साक्षी व साथी हैं हमारे गुरुदेव
    • श्रम के देवता की आराधना (kahani)
    • शिष्य संजीवनी-1 - समर्पित दृढ़ता से आरंभ होती है यह साधना
    • महाकवि माघ की उदारता (kahani)
    • अंतर्जगत की यात्रा का ज्ञान विज्ञान- - अभ्यास की सफलता हेतु कुछ अनिवार्य शर्तें
    • कृति हमेशा के लिए अमर बना गई(kahani)
    • गुरुगीता-12 - शिवभाव से करें नित्य सद्गुरु का ध्यान
    • स्वामी रामतीर्थ (kahani)
    • परमवंदनीया माताजी की मातृवाणी - गुरु को वरण करके तो देखिए
    • Kahani
    • युगागीता- 45 - योगेश्वर का प्रकाश स्तंभ बनने हेतु भावभरा आमंत्रण
    • VigyapanSuchana
    • चेतना की शिखर यात्रा-17 - सिद्धि के मार्ग पर संकल्प-1
    • Quotation
    • गुरुकथामृत-54 - सदगुरु के सदकै करूं, दिल अपनी का साछ
    • VigyapanSuchana
    • केंद्र के समाचार-विश्वव्यापी हलचलें- - क्या हो रहा है इन दिनों गायत्री परिवार में
    • अपनों से अपनी बात - कलातंत्र को परिष्कृत कर अब नई दिशा देनी है।
    • शिष्य की अभिव्यक्ति
    • शिष्य की अभिव्यक्ति (kavita)
  • My Note
  • Books
    • SPIRITUALITY
    • Meditation
    • EMOTIONS
    • AMRITVANI
    • PERSONAL TRANSFORMATION
    • SOCIAL IMPROVEMENT
    • SELF HELP
    • INDIAN CULTURE
    • SCIENCE AND SPIRITUALITY
    • GAYATRI
    • LIFE MANAGEMENT
    • PERSONALITY REFINEMENT
    • UPASANA SADHANA
    • CONSTRUCTING ERA
    • STRESS MANAGEMENT
    • HEALTH AND FITNESS
    • FAMILY RELATIONSHIPS
    • TEEN AND STUDENTS
    • ART OF LIVING
    • INDIAN CULTURE PHILOSOPHY
    • THOUGHT REVOLUTION
    • TRANSFORMING ERA
    • PEACE AND HAPPINESS
    • INNER POTENTIALS
    • STUDENT LIFE
    • SCIENTIFIC SPIRITUALITY
    • HUMAN DIGNITY
    • WILL POWER MIND POWER
    • SCIENCE AND RELIGION
    • WOMEN EMPOWERMENT
  • Akhandjyoti
  • Login
  • TOC
    • स्मरण और समर्पण
    • व्यक्तित्व-गठन के छह महत्वपूर्ण चरण
    • प्रयासों में सहायता मिली (kahani)
    • ध्यानं निर्विषयं मनः
    • बुद्धि नहीं, सद्बुद्धि को महत्व मिले
    • महामानव बना देता है (kahani)
    • अकर्मण्यता - एक विष
    • रामकृष्ण परमहंस (Kahani)
    • आत्मोत्कर्ष हेतु तपश्चर्या के दो पक्ष
    • दोष का भागीदार (kahani)
    • आवश्यकता है प्रेम के परिष्कार एवं सुख के आध्यात्मीकरण की
    • सतत दान देता रहा (kahani)
    • इनसान बस अपने को जान ले
    • लक्ष्य से भ्रष्ट (kahani)
    • प्रभु! जड़-चेतन में, रोम-रोम में शाँति दीजिए
    • Quotation
    • गलत प्रव्रज्या में शरण दुःखदाय है
    • कागावा देश का गाँधी (kahani)
    • भारत का इतिहास, महाकाल का प्रसाद है - गंगा
    • बड़ी जिम्मेदारिया (kahani)
    • VigyapanSuchana
    • मिली समय-प्रबंधन की सीख
    • पवित्र, उच्च विचारों से आप्लावित उपनिषदों का ज्ञान
    • प्रभु की भूख (kahani)
    • हम अपने भाव में शाँत हो भर जाएं
    • Quotation
    • आयुर्वेद-5 - प्रदर रोग निवारण हेतु यज्ञोपचार प्रक्रिया
    • स्वार्थ से ऊपर उठकर पारिवारिक उत्तरदायित्व (kahani)
    • समर्पण, विसर्जन, विलय का महापर्व
    • वृक्ष उद्बोधन से पथिक का समाधान (kahani)
    • गुरु पूर्णिमा (13 जुलाई, 2003)- - विशेष-जनम-जनम के साक्षी व साथी हैं हमारे गुरुदेव
    • श्रम के देवता की आराधना (kahani)
    • शिष्य संजीवनी-1 - समर्पित दृढ़ता से आरंभ होती है यह साधना
    • महाकवि माघ की उदारता (kahani)
    • अंतर्जगत की यात्रा का ज्ञान विज्ञान- - अभ्यास की सफलता हेतु कुछ अनिवार्य शर्तें
    • कृति हमेशा के लिए अमर बना गई(kahani)
    • गुरुगीता-12 - शिवभाव से करें नित्य सद्गुरु का ध्यान
    • स्वामी रामतीर्थ (kahani)
    • परमवंदनीया माताजी की मातृवाणी - गुरु को वरण करके तो देखिए
    • Kahani
    • युगागीता- 45 - योगेश्वर का प्रकाश स्तंभ बनने हेतु भावभरा आमंत्रण
    • VigyapanSuchana
    • चेतना की शिखर यात्रा-17 - सिद्धि के मार्ग पर संकल्प-1
    • Quotation
    • गुरुकथामृत-54 - सदगुरु के सदकै करूं, दिल अपनी का साछ
    • VigyapanSuchana
    • केंद्र के समाचार-विश्वव्यापी हलचलें- - क्या हो रहा है इन दिनों गायत्री परिवार में
    • अपनों से अपनी बात - कलातंत्र को परिष्कृत कर अब नई दिशा देनी है।
    • शिष्य की अभिव्यक्ति
    • शिष्य की अभिव्यक्ति (kavita)
  • My Note
  • Books
    • SPIRITUALITY
    • Meditation
    • EMOTIONS
    • AMRITVANI
    • PERSONAL TRANSFORMATION
    • SOCIAL IMPROVEMENT
    • SELF HELP
    • INDIAN CULTURE
    • SCIENCE AND SPIRITUALITY
    • GAYATRI
    • LIFE MANAGEMENT
    • PERSONALITY REFINEMENT
    • UPASANA SADHANA
    • CONSTRUCTING ERA
    • STRESS MANAGEMENT
    • HEALTH AND FITNESS
    • FAMILY RELATIONSHIPS
    • TEEN AND STUDENTS
    • ART OF LIVING
    • INDIAN CULTURE PHILOSOPHY
    • THOUGHT REVOLUTION
    • TRANSFORMING ERA
    • PEACE AND HAPPINESS
    • INNER POTENTIALS
    • STUDENT LIFE
    • SCIENTIFIC SPIRITUALITY
    • HUMAN DIGNITY
    • WILL POWER MIND POWER
    • SCIENCE AND RELIGION
    • WOMEN EMPOWERMENT
  • Akhandjyoti
  • Login




Magazine - Year 2003 - Version 2

Media: TEXT
Language: HINDI
TEXT SCAN


व्यक्तित्व-गठन के छह महत्वपूर्ण चरण

Listen online

View page note

Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
×

Add Note


First 1 3 Last
व्यक्तित्व का विघटन युग की सबसे गंभीर समस्या है। अतः हर स्तर पर इसके निदान का मुद्दा मुखर है। मनोवैज्ञानिक क्षेत्र में इस संदर्भ में उत्कट प्रयास हुए हैं, परिणामस्वरूप व्यक्तित्व के रहस्यमयी आयामों को इसने उद्घाटित किया है; जो फ्रायड के इदं, इगो व सुपरइगो की अवधारणाओं से लेकर मैस्लो के आत्मसिद्धि एवं ‘मेटानीडज’ जैसे सिद्धान्तों तक विस्तृत है। किन्तु व्यक्तित्व के गठन पर इसमें समग्र दृष्टि का सर्वथा अभाव दृष्टिगोचर होता है। इस संदर्भ में भारतीय अध्यात्म का तत्त्वदर्शन एवं योग-मनोविज्ञान का साधना विज्ञान एक समग्र दृष्टि एवं उपचार प्रस्तुत करता है। क्योंकि प्रो. एडगर एस ब्राइटमैन के शब्दों में, यह एक समस्वर, समग्र एवं संगठित जीवन का प्रतिपादन करता है। स्वामी अखिलानन्द ने अपने ग्रंथ ‘मेन्टल हेल्थ एण्ड हिन्दु साइकोलॉजी’ में इस संदर्भ में कुछ सूत्र प्रतिपादित किए हैं जो व्यक्तित्व गठन पर महत्त्वपूर्ण प्रकाश डालते हैं।

इनके अनुसार सर्वप्रथम आवश्यकता, व्यक्ति की स्वयं के भावों को संगठित करने की इच्छा है। व्यक्ति में अपने बिखरे जीवन को समेटने की, इसे एक सार्थक दिशा में संवारने की उत्कट इच्छा होनी चाहिए। व्यक्तित्व के विकास की तीव्रता इसी इच्छा की प्रचण्डता पर निर्भर करती है। यदि इच्छा तीव्र नहीं है, तो प्रयास भी अस्थिर एवं शिथिल होंगे, अतः वाँछित परिणाम की आशा नहीं की जा सकती। व्यक्तित्व के भाव संगठन में आध्यात्मिक महापुरुषों का संग अतीव लाभदायी होता है। उनका सान्निध्य सहज ही उच्चतर अभीप्सा एवं प्रेरणा को जाग्रत् करता है, किन्तु ऐसे व्यक्तियों का सान्निध्य लाभ सदैव सुलभ नहीं होता। अतः व्यावहारिक समाधान यही है कि ऐसी महान् आध्यात्मिक विभूतियों के सत्साहित्य के स्वाध्याय एवं चिंतन-मनन द्वारा अपने चारों ओर एक उच्चतर वातावरण तैयार किया जाए। क्रमशः यह आदत व्यक्तित्व के भावनात्मक ढाँचे के रूपांतरण में एक महत्त्वपूर्ण कारक बन जाता है।

व्यक्तित्व संगठन में दूसरी आवश्यकता है- जीवन का उच्च दर्शन या ध्येय। इसके बिना बिखराव को रोकने की कोई संभावना नहीं है। इस संदर्भ में बौद्धिक, नैतिक, जातीय या राष्ट्रीय आदर्श भी पर्याप्त नहीं हैं, क्योंकि संकीर्ण व विकृत होने पर ये विध्वंसक शक्ति का रूप ले सकते हैं। फिर सुखवादी दर्शन तो एक सिरे से घातक है। यह भोग और स्वार्थ को ही जीवन का आदर्श घोषित करता है तथा व्यक्तित्व के विखण्डन-बिखराव को ही गति देता है। अंतःजीवन का सर्वोच्च आदर्श, अंतर्निहित दिव्यता का जागरण एवं अभिव्यक्ति ही हो सकता है। यह परमात्मा के दिव्य अंश के रूप में अपनी पहचान की आस्था एवं धारणा पर आधारित है। यही आत्म संयम का यथार्थ आधार प्रस्तुत करता है। वासना व हिंसा की आदिम वृत्तियों और स्वार्थ, भय, ईर्ष्या-दंभ जैसे नकारात्मक भावों का निग्रह इसी आधार पर सधता है। भावनात्मक संगठन के लिए इनका समुचित नियंत्रण आवश्यक होता है। इन्हें न तो एकदम छूट दी जा सकती है और न ही इनका दमन ही समाधान है। व्यक्तित्व के संगठन के लिए जिस भाव स्थिरता एवं संतुलन की आवश्यकता होती है, वह इन दोनों अतियों के बीच, अवाँछनीय भावों के परिष्कार, परिमार्जन द्वारा ही संभव होता है। और जीवन का आध्यात्मिक ध्येय इसे संभव बनाता है।

तीसरा चरण, अपने समस्त भावों को ईश्वर की ओर उन्मुख करना है। ऐसा करते ही हम भावनात्मक बिखराव और स्वार्थपरक वृत्तियों की जड़ों पर प्रहार करते हैं। अपनी भाव प्रकृति एवं अभिरुचि के अनुसार हम ईश्वर को माता, पिता, बन्धु, सखा, स्वामी आदि मानते हुए किसी भी भाव में पावन सम्बन्ध स्थापित कर सकते हैं। और अपनी समस्त क्रियाओं को उसे अर्पित करते हुए इस भाव सम्बन्ध को पुष्ट कर सकते हैं। अपने ईष्ट-आराध्य के प्रति कुछ करने का भाव क्रमशः उसके प्रति अपनी भावनाओं को सघन बनाता है और परिणाम स्वरूप अन्य सभी भाव-संवेगों को संगठित करता है। शनैः-शनैः मानवीय सम्बन्धों और अन्तर्व्यैक्तिक व्यवहार में भी ईश्वर की उपस्थिति का अहसास होने लगता है। इस तरह समस्त क्रियाएँ क्रमशः व्यक्तित्व के भावनात्मक संगठन को सुनिश्चित करती हैं।

यह प्रक्रिया भाव प्रधान व्यक्तियों पर अधिक प्रभावी ढंग से लागू होती है। विविध धर्म के संत-भक्तों के जीवन में इसके चरमोत्कर्ष के दर्शन होते हैं। ईसाई धर्म में सेंट फ्राँसिस, सेंट एंथोनी, सेंट टेरेसा और संत थेरेस आदि इसके उदाहरण हैं। भारत में मीरा, सूर, तुलसी, रामकृष्ण परमहंस आदि इसी के जीवन्त प्रतिमान हैं।

व्यक्तित्व संगठन के चतुर्थ चरण में, व्यक्ति को अपनी प्रत्येक क्रिया में अपनी अंतर्निहित दिव्यता को अभिव्यक्त करने का प्रयास-पुरुषार्थ करना चाहिए। उसे दूसरों में ईश्वर की उपस्थिति को देखने का अभ्यास भी करना चाहिए। जिस भी क्षण अपनी दुर्बलता, अस्थिरता या दूसरों की विध्वंसक क्रिया के कारण निम्न वृत्तियाँ या भावनाएँ भड़क उठे, उसी क्षण उनमें ईश्वर के दर्शन के अभ्यास द्वारा इन विकारों को शान्त करना चाहिए। भगवान् बुद्ध ने ठीक ही कहा है कि क्रोध को क्रोध द्वारा नहीं जीता जा सकता, इसी तरह हिंसा को हिंसा द्वारा नहीं जीता जा सकता। इन्हें तो प्रेम द्वारा ही जीता जा सकता है। व्यक्ति क्रोध और हिंसा को जितना ही व्यक्त करता जाएगा, ये उतना ही बढ़ते जाते हैं। अर्थात् निम्न वृत्तियाँ अपनी अभिव्यक्ति द्वारा बढ़ती हैं। भोग द्वारा वासनाएँ शाँत नहीं होती, वे और भड़क उठती हैं। इन्हें खुली छूट देने का अर्थ है अपने अस्तित्त्व के बिखराव एवं विखण्डन को आमंत्रण देना।

भारतीय मनोविज्ञान के अनुसार, भाव संवेगों को अभिव्यक्ति से पूर्व की स्थिति में अधिक प्रभावी ढंग से नियंत्रित किया जा सकता है। योग मनोविज्ञान के जनक महर्षि पतञ्जलि कहते हैं कि, संस्कारों का निग्रह व रूपांतरण होना चाहिए। अभ्यास और वैराग्य द्वारा यह कार्य सम्भव होता है। (पा.यो.सू.- 1/12) राजयोग में स्वामी विवेकानन्द जी इन अचेतन संस्कारों के नियंत्रण पर इतना ही बल देते हैं, जिससे कि उन्हें विध्वंसात्मक से रचनात्मक शक्तियों के रूप में रूपांतरित किया जा सके।

पाँचवा चरण, व्यक्तित्व को बिखराने वाली क्रोध, घृणा तथा अन्य वृत्तियों के प्रतिपक्षी भावों एवं विचारों का विकास है। उच्चतर गुणों का सचेतन विकास मन को प्रशान्त करता है और क्रमशः भाव संवेगों को संगठित करता है। (पा.यो.सू. 1/33) जितना अधिक उच्चतर भावनाएँ और परमार्थ-परायण वृत्तियाँ अभिव्यक्ति होती हैं, उतना ही प्रतिपक्षी वृत्तियाँ क्षीण होती हैं और व्यक्तित्व एक नया रूप एवं आकार लेने लगता है। यही चरित्र का निर्माण है। निम्नवृत्तियों का उच्चतर दिशा में नियोजन इसका केन्द्रिय तत्त्व है। रामकृष्ण परमहंस इस पर जोर देते हुए कहा करते थे- ‘ अपनी निम्न व हेय वृत्तियों को ईश्वर की ओर उन्मुख करो। यदि तुममें कामना और लोभ है तो ईश्वर के प्रेम की कामना करो और उसके पाने का लालच करो।’ इस तरह यह प्रक्रिया, भाव संवेगों को दबाने की बजाय इन्हें नियंत्रित, संचालित और क्रमशः रूपांतरित करती है। यह आधुनिक मनोविज्ञान द्वारा प्रतिपादित उदात्तीकरण (सत्त्लिमेशन) की प्रक्रिया से आगे गहनतम स्तर पर सक्रिय होती है। और इससे भी आगे, यह ध्येय के लिए संघर्षरत साधक को गहन भावनात्मक संतोष देती है।

अगला चरण एकाग्रता का अभ्यास है। ईश्वर का सतत चिन्तन-मनन मन की प्रसुप्त आध्यात्मिक शक्तियों को जगाता है और इस तरह आध्यात्मिक जीवन दर्शन को दैनन्दिन गतिविधियों में अभिव्यक्त होने का अवसर मिलता है। इस अभ्यास द्वारा व्यक्ति की इच्छा शक्ति का विकास होता है। इच्छा शक्ति के अभाव में वह आदर्श को व्यवहार में जीवन्त नहीं कर सकता। यह एक सहज नियम है कि बिखराव से ऊर्जा का क्षय होता है और एक बिन्दु पर केन्द्रित होने पर यह अत्यन्त शक्तिशाली बन जाती है। सामान्यतया मानसिक शक्ति विविध भाव संवेगात्मक वृत्तियों, अभिरुचियों और गतिविधियों में बिखरी रहती है। एकाग्रता का अभ्यास इसे एक बिन्दु पर केन्द्रित करता है, जिससे कि समस्त प्रसुप्त शक्तियाँ अभिव्यक्ति हो उठती हैं। तब व्यक्ति स्वयं में व दूसरों में ईश्वर को देख सकता है और अन्तर्व्यैक्तिक सम्बन्धों में उसका दृष्टिकोण बदल जाता है। समग्र रूप से संगठित व्यक्ति की इच्छा शक्ति एकीकृत होती है और किसी भी स्थिति में निम्नवृत्तियों को प्रश्रय नहीं देती है। वस्तुतः ऐसा व्यक्ति अपनी मानसिक, भावनात्मक एवं आध्यात्मिक शक्तियों का स्वामी होता है।

इस तरह जब उपरोक्त बताए गए छः चरणों के माध्यम से व्यक्तित्व का संगठन हो जाता है, तो व्यक्ति का समूचा जीवन दिव्य शाँति एवं प्रेम की सुवास से महक उठता है। परमार्थ परायणता उसका सहज स्वभाव बन जाती है और उसका अलौकिक स्पर्श कृपापात्र अभीप्सु को इसी दिशा की ओर उन्मुख करता है।

First 1 3 Last


Other Version of this book



Version 2
Type: TEXT
Language: HINDI
...

Version 1
Type: SCAN
Language: HINDI
...


Releted Books


Articles of Books

  • स्मरण और समर्पण
  • व्यक्तित्व-गठन के छह महत्वपूर्ण चरण
  • प्रयासों में सहायता मिली (kahani)
  • ध्यानं निर्विषयं मनः
  • बुद्धि नहीं, सद्बुद्धि को महत्व मिले
  • महामानव बना देता है (kahani)
  • अकर्मण्यता - एक विष
  • रामकृष्ण परमहंस (Kahani)
  • आत्मोत्कर्ष हेतु तपश्चर्या के दो पक्ष
  • दोष का भागीदार (kahani)
  • आवश्यकता है प्रेम के परिष्कार एवं सुख के आध्यात्मीकरण की
  • सतत दान देता रहा (kahani)
  • इनसान बस अपने को जान ले
  • लक्ष्य से भ्रष्ट (kahani)
  • प्रभु! जड़-चेतन में, रोम-रोम में शाँति दीजिए
  • Quotation
  • गलत प्रव्रज्या में शरण दुःखदाय है
  • कागावा देश का गाँधी (kahani)
  • भारत का इतिहास, महाकाल का प्रसाद है - गंगा
  • बड़ी जिम्मेदारिया (kahani)
  • VigyapanSuchana
  • मिली समय-प्रबंधन की सीख
  • पवित्र, उच्च विचारों से आप्लावित उपनिषदों का ज्ञान
  • प्रभु की भूख (kahani)
  • हम अपने भाव में शाँत हो भर जाएं
  • Quotation
  • आयुर्वेद-5 - प्रदर रोग निवारण हेतु यज्ञोपचार प्रक्रिया
  • स्वार्थ से ऊपर उठकर पारिवारिक उत्तरदायित्व (kahani)
  • समर्पण, विसर्जन, विलय का महापर्व
  • वृक्ष उद्बोधन से पथिक का समाधान (kahani)
  • गुरु पूर्णिमा (13 जुलाई, 2003)- - विशेष-जनम-जनम के साक्षी व साथी हैं हमारे गुरुदेव
  • श्रम के देवता की आराधना (kahani)
  • शिष्य संजीवनी-1 - समर्पित दृढ़ता से आरंभ होती है यह साधना
  • महाकवि माघ की उदारता (kahani)
  • अंतर्जगत की यात्रा का ज्ञान विज्ञान- - अभ्यास की सफलता हेतु कुछ अनिवार्य शर्तें
  • कृति हमेशा के लिए अमर बना गई(kahani)
  • गुरुगीता-12 - शिवभाव से करें नित्य सद्गुरु का ध्यान
  • स्वामी रामतीर्थ (kahani)
  • परमवंदनीया माताजी की मातृवाणी - गुरु को वरण करके तो देखिए
  • Kahani
  • युगागीता- 45 - योगेश्वर का प्रकाश स्तंभ बनने हेतु भावभरा आमंत्रण
  • VigyapanSuchana
  • चेतना की शिखर यात्रा-17 - सिद्धि के मार्ग पर संकल्प-1
  • Quotation
  • गुरुकथामृत-54 - सदगुरु के सदकै करूं, दिल अपनी का साछ
  • VigyapanSuchana
  • केंद्र के समाचार-विश्वव्यापी हलचलें- - क्या हो रहा है इन दिनों गायत्री परिवार में
  • अपनों से अपनी बात - कलातंत्र को परिष्कृत कर अब नई दिशा देनी है।
  • शिष्य की अभिव्यक्ति
  • शिष्य की अभिव्यक्ति (kavita)
Your browser does not support the video tag.
About Shantikunj

Shantikunj has emerged over the years as a unique center and fountain-head of a global movement of Yug Nirman Yojna (Movement for the Reconstruction of the Era) for moral-spiritual regeneration in the light of hoary Indian heritage.

Navigation Links
  • Home
  • Literature
  • News and Activities
  • Quotes and Thoughts
  • Videos and more
  • Audio
  • Join Us
  • Contact
Write to us

Click below and write to us your commenct and input.

Go

Copyright © SRI VEDMATA GAYATRI TRUST (TMD). All rights reserved. | Design by IT Cell Shantikunj