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Magazine - Year 2003 - Version 2

Media: TEXT
Language: HINDI
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परमवंदनीया माताजी की मातृवाणी - गुरु को वरण करके तो देखिए

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(परमपूज्य गुरुदेव की सूक्ष्मीकरण की अवधि में गुरुपूर्णिमा 2/8/75 पर दिया गया प्रवचन )

गायत्री मंत्र हमारे साथ साथ -

ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो न प्रचोदयात्।

हमारे आत्मीय परिजनों ! आज का यह महान पर्व आत्मबोध का पर्व है, आत्मचिंतन का पर्व है। यह साधारण नहीं, असाधारण है। इसको गुरुपूर्णिमा का पर्व कहा गया है। अर्थात् उसका दिन जिसने कि सारी जिंदगी राह दिखाई। यह आज का पर्व है।यों तो यह व्यासपूर्णिमा भी है। व्यास जी ने अठारह पुराण लिखे थे। इस व्यासपूर्णिमा पर अपने उन्हीं व्यास जी का पूजन किया, लेकिन यह गुरुपूर्णिमा भी है। आज के महान पर्व पर हम उनका चिंतन करते है, जिन गुरुओं के अनुदानों से शिष्यों की झोली भर दी गई। उनको महान बना दिया गया। यह वही महापर्व है।

दोहरी भूमिका

आपको मैं आज की ही एक घटना सुनाती हूँ और यह कह सकती हूँ कि किस तरह अनायास ही वह अंजाम और वह जिम्मेदारी मुझे सौंप दी गई। आज सुबह से ही मैं गहन चिंतन उस जिम्मेदारी की ओर है, जो मुझको सौंपी गई है, लेकिन वह परोक्ष रूप से मेरे ऊपर आ गई है, मेरे कंधों पर आ गई हैं। आज में चिंतन में डूब गई कि अभी तक तो मैं माँ ही थी। इतने दिन तक हर व्यक्ति से यही कहते थे कि आशीर्वाद लेना है तो माताजी के पास जाइए, यज्ञ भस्म ले जाइए। आशीर्वाद माँगना है तो माताजी के पास जाइए और काम करना हैं तो मेरे पास आइए, लेकिन आचार्य जी ने आज जो शब्द कहा है,मैं समझती हूँ, वह शायद पहली बार कहा हैं। उन्होंने हमेशा यही कहा हैं कि जो मैं हूँ, वही माताजी हैं और जो माताजी हैं, वही मैं हूँ। ऊपर हम दो ही जाते है-मैं जाती हूँ और एक लड़का जाता है। आज जब वह प्रणाम करने गया तो उन्होंने यह कहा कि प्रणव ! गुरु तो नीचे बैठा है, तुम उसको प्रणाम करो। खैर, मैंने तो उस लड़के को हँसी में टाल दिया,लेकिन तभी से मैं उसी गहन चिंतन में ऐसी डूब गई हूँ कि अभी तक उसी में हूँ कि क्या मैं यह जिम्मेदारी निभा पाऊंगी।

बेटे! मुझे अंदर से विश्वास तो है कि उन्होंने जो भी निर्देश मुझे सौंपा है, मैंने उसे पूरा किया है और जी जान से पूरा किया है। इसे भी पूरा करूंगी मरते दम तक। मैं कभी यह नहीं कहलवा सकती कि गुरुजी ऐसे थे और माताजी ऐसी हैं। नहीं, ऐसा नहीं हो सकता, हम दोनों एक हैं और एक ही हैं। हम पूरा करके ही दिखाएँगे। बेटे, मेरी तो झोली अनायास ही भर गई, किससे? जिम्मेदारियों से।इनका हम निर्वाह करेंगे। उन्होंने इतनी बड़ी जिम्मेदारी सौंपी है तो इसलिए कि उसके लायक ये कंधे मजबूत भी हैं कि नहीं और नहीं हैं तो उनको मजबूत किया जाए और करना पड़ेगा।यह आवश्यक है।

गुरु के अनुदान

बेटे! आज मैं अपना हवाला दे रही थी। मेरे मन में यह बात रुकी नहीं सो मैंने अपना दिल हलका कर लिया। बेटे! यह जो पर्व है, इसमें अनायास ही अनुदान मिलता है और इतना मिलता है कि सँभाले नहीं सँभलता। मैं किन किनकी बात कहूँ आपसे। मैं रामकृष्ण परमहंस की बात कहना चाहती हूँ आपसे, जिन्होंने कि अपने विवेकानंद की झोली को सर दिया और वह निहाल हो गया। आया था नौकरी माँगने के लिए कि हमको नौकरी चाहिए, लेकिन यह क्या मिल गया! उनका नाम विवेकानंद तो पीछे पड़ा था, पहले वे नरेंद्र थे। रामकृष्ण परमहंस ने अपनी शक्ति को हस्ताँतरित कर दिया, दे दिया और वह महान हो गया। जो कुछ नहीं जानता था, वह सब कुछ जानने लगा। गुरु की शक्ति को वह जान गया और उसे सब कुछ मिल गया। देश में नहीं, विदेशों में, अमेरिका में शून्यवाद के ऊपर कोई बोल नहीं सकता था, वहाँ उसे बोलने के लिए कहा गया। उस धर्म महासभा में लोगों ने कहा कि हिंदुस्तान का यह लड़का क्या बोलेगा! उसका मजाक उड़ाने के लिए बस यों ही उससे कह दिया गया था कि शून्य पर बोलो, देखें आप में कितनी शक्ति है।

विवेकानन्द ने अपने गुरु का स्मरण किया कि गुरुदेव, आज परीक्षा की घड़ी आ गई है, कहीं आपके बच्चे की इज्जत न चली जाए। पीछे से पीठ थपथपा दी गई और कहा गया कि बेटे! तू यह तम समझना कि हमारा गुरु इस दुनिया में नहीं है। हम तेरे पास हैं और तू बोलता चला जा। विवेकानंद ने कमाल कर दिया। उसको जहाँ पंद्रह मिनट या आधा घंटा बोलने को मिला था, वहाँ वह घंटों बोलता चला गया। तालियाँ बजती रहीं, लोग कहते रहे कि अभी और बोलिए। यह सब कहाँ से आ रहा था? यह उस गुरु की कृपा है और उसका अनुदान है। वह चाहे तो सब कुछ बना सकता है। वह किसी की भी झोली खाली नहीं जाने देता। चाहे दूसरों की पीड़ा स्वयं ही क्यों न झेलनी पड़े, वह हँसता हुआ स्वयं झेल जाता है।

कहते हैं कि रामकृष्ण परमहंस को अंतिम दिनों में गले का कैंसर क्यों हुआ था? क्या इसलिए कि वे कोई संयम नहीं रखते थे? नहीं बेटे, ऐसी बात नहीं है। वे तो संत थे। उन्होंने दूसरों के दुःख-कष्टों को, उस जहर को खुद पिया और अपने बच्चों को उससे निकाला अर्थात् अपने शिष्यों की रक्षा की। बच्चों का, लड़कों का संबोधन जहाँ कहीं भी आएगा, वह शिष्यों के लिए आएगा। मुझसे शिष्य शब्द कहा नहीं जाता, इसलिए बार-बार मैं उस शिष्य शब्द को कहना नहीं चाहती हूँ। मेरे मुँह से बेटा, बच्चे और लड़का शब्द ही निकलता है। बच्चे एक-दो नहीं, असंख्य होते हैं, इसलिए अब आप अंदाजा लगा सकते हैं कि गुरु की कितनी बड़ी जिम्मेदारी होती है। गुरु की कृपा क्या होती है, चलिए मैं बताती हूँ। एक चाणक्य थे, जिनका कि एक बार किसी राजा ने अपमान कर दिया। उन्होंने सोचा कि क्या किया जाए? वैसे तो संत किसी से अपमान का बदला नहीं लेता है, लेकिन उन्होंने उसके सामने एक दासीपुत्र को लाकर खड़ा कर दिया। जो, लड़का कुछ नहीं जानता था, उसको खड़ा कर दिया और उसके सिर पर हाथ रख दिया। उन्होंने कहा कि देख मैंने तुझे शक्ति दे दी है और अब मैं तुझे सम्राट बना दूँगा। उसने कहा कि मैं तो जमीन पर पड़ा हूँ! तो एक नाचीज सिपाही हूँ, सम्राट कैसे बन सकता हूँ! तो क्या तुझे मेरे ऊपर विश्वास नहीं है, मैं तुझे सम्राट बनाकर ही रहूँगा। और उन्होंने उसे सम्राट बना दिया।

बेटे! यह होती है गुरु की कृपा और ये होते हैं गुरु के अनुदान। आप तो केवल उस भौतिक चीज को ही देखना चाहते हैं और मैं उसी का हवाला भी दूँगी। अगर कहीं आप उन सूक्ष्म शक्तियों की ओर चले जाएँ, जिन शक्तियों को लेकर व्यक्ति भगवान हो जाता है, हिम्मत वाला हो जाता है और ऐसे-ऐसे कठिन कार्य करता है, जिनकी वह कभी कल्पना भी नहीं कर सकता था। इसमें किसका हाथ है? यह गुरु का हाथ है और यह गुरु का अनुदान है, यह उनकी कृपा है, जो भौतिक चीजें भी देता है और आध्यात्मिक भी। वह भौतिक विपदाओं से भी निकालता है और अनायास ही वे उपलब्धियाँ भी उसको देता है, जिनको पाकर वह निहाल हो जाता हैं

छत्रपति और समर्थ

शिवाजी को छत्रपति शिवाजी किसने बनाया था? समर्थ गुरु रामदास ने। उन्होंने उसे भवानी तलवार दे दी थी और तिलक लगाकर कहा था- जा बेटे, तू विजय पाएगा। उसने कहा कि मैं एक नाचीज, नन्हा-सा बालक, कद-काठी का छोटा, जिसके शरीर में जान नहीं, भला मैं कैसे विजय पा पाऊँगा! समर्थ गुरु रामदास ने कहा, बेटे, मैं परदे के पीछे रहूँगा और काम तू करेगा। श्रेय तू लेगा और कृपा मेरी चलेगी। मैं तेरी पीठ थपथपाऊँगा, तेरे पैरों में शक्ति दूँगा और चलेगा तू। चल, संग्राम में विजेता बन। हिम्मत वालों के तरीके से, दिलेरों के तरीके से आगे-आगे चल, बुजदिलों के तरीके से नहीं। अध्यात्म दिलेरों का है, कायरों का नहीं है, भगोड़ों का नहीं है। जो जरा’-जरा सी दिक्कतों को देखकर अपने बढ़े हुए कदम पीछे हटा लेते हैं, वे कौन हैं? भगोड़े हैं। और जो पहाड़ों को चकनाचूर कर देते हैं, वे कौन होते हैं? वे दिलेर होते है, हिम्मत वाले होते है, साहसी होते हैं। जो साहसी होते हैं, वे ही अपने लक्ष्य तक पहुँचते हैं और जो साहसी नहीं होते हैं, बुज़दिल होते हैं, जो कठिनाइयों से डर जाते हैं, वे लक्ष्य तक नहीं पहुँच पाते हैं।

जिन्हें कठिनाइयों ने घेर लिया है या वे स्वयं घिर गए हैं, फँस गए हैं, उनको कोई रास्ता नहीं दिखता। रास्ता दिखाने वाला अगर कहता भी है कि बेटे, इधर से चलिए, यह रास्ता है, लेकिन वह चलता नहीं है तो फिर गुरु किस प्रकार से देगा! बेटे, मिलेगा आपको भी। आज गुरुपर्व है। यहाँ से कोई भी खाली हाथ नहीं जाने वाला है। मैंने तो उसी दिन, जब आप लोग मिले थे, तभी कहा था कि यह वह दरवाजा है, जिससे कभी किसी की झोली आज तक खाली नहीं गई है और यह वायदा है हमारा कि कभी खाली जाएगी भी नहीं, चाहे अपनी झोली में एक नया पैसा ही क्यों न पड़ने वाला हो । हम अपना धर खाली कर देंगे, लेकिन अपनी झोली हम जरूर भरेंगे । हम फिर कमा लेंगे ।अपने लिए हम माँगेंगे नहीं, लेकिन आपके लिए मांगेंगे और हमेशा आपकी झोली भरते रहेंगे । हमारा यह आपसे पूरा वायदा है ।

एहसान नहीं, कर्तव्य

हमारे जितने परिजन यहाँ बैठे हुए है, उनमें से कितने ऐसे हैं जो किन -किन कठिनाइयों में से, जिंदगी और मौत में से निकलकर आए है। क्या वे कह सकते हैं या सोच सकते हैं कि इसके पीछे किसका हाथ हैं, जिसने आपकी उँगली पकड़ी है।और आपने उनका पल्ला पकड़ा है और उन्हीं के हो गए हैं । चलिए , यह उनकी महानता है कि आज तक उन्होंने अपने मुंह से यह नहीं कहा कि मैंने फलाँ व्यक्ति की मदद की है। बेटे, यह उनकी उदारता है जो उनने नहीं कहा, लेकिन आज मैं कहती हूँ कि उनके यहाँ रहते हुए किन-किन संकटों में से लोगों को निकाला गया है, उनको उबारा गया है। वे गुरु हैं और आप बच्चे हैं, आपको मिलना ही चाहिए। इसका मतलब यह नहीं है कि आपके ऊपर कोई एहसान किया गया है, नहीं बेटे, आपके ऊपर कोई एहसान नहीं किया गया है। हम इसको अपना फर्ज, अपना कर्त्तव्य और अपनी जिम्मेदारी समझते हैं और उसमें से आपको निकालने का प्रयास करते हैं और कई बार तो निकाल ही देते हैं। चलिए, मैं आपको एक घटना सुनाती हूँ।

अभी दो महीने हुए, यहाँ एक व्यक्ति आए और उन्होंने यह कहा कि माताजी! आप हमको नहीं जानती और हम आपको नहीं जानते। हाँ बेटे, कई बार लड़के आते हैं और कई-कई साल हो गए उनको आते, फिर भी मैं पूछ बैठती हूँ कि बेटा! तू कहाँ से आया है? तू क्या काम करता है? नाम से तो जानती हूँ लेकिन कई बार चेहरा भूल जाता है। मैंने उससे कहा, हाँ बेटे, ऐसा ही है, तुम बताओ, क्या कहना चाहते हो? उन्होंने कहा कि देखिए, यह चेहरा आज दिखाई पड़ रहा है, यह गुरुजी का और आपका दिया हुआ कैसे हो सकता है! बता तो सही।

उन्होंने कहा कि माताजी, मेरी गाड़ी पर उग्रवादियों ने सत्तर गोलियाँ चलाई, जिनमें मेरे तीन व्यक्ति मारे गए। उनमें मेरा बॉडीगार्ड भी था और चालक था तथा एक और व्यक्ति था, लेकिन मैं बच गया। उस समय मैं यही सोच रहा था कि गुरुजी से मुझे जुड़े हुए अभी थोड़े ही दिन हुए हैं और अभी मैंने उस पवित्र भूमि को आंखों से भी नहीं देखा। अब थोड़े दिन बाद ही उस पवित्र भूमि के दर्शन करने जाऊँगा, जहाँ से मुझे प्रेरणा मिली है। जहाँ से मुझे मार्गदर्शन मिला है और यह सब अनदेखे ही मिला है। उसको मैं प्रणाम करने जाना चाहता था। कहते हैं कि गुरुजी तो नहीं मिलते, तो क्या मुझे माँ भी जीवन में नहीं मिलेगी। बेटे, उसको एकाएक ऐसा महसूस हुआ, जैसे दोनों ओर उसके हम दानों बैठे हैं और सिर पर हाथ रखे हैं।

मैंने कहा कि बेटे, यह तेरा विश्वास है। भगवान ने तुझे बचा लिया, हम तो क्या थे, हम औरों को क्यों न बचा लें जो इतनी जानें जा रही हैं। बेटे! तेरी जान बच गई, भगवान करे, तू दीर्घायु हो, लेकिन बेटे अब तू बच गया है तो ऐसा मत करना कि बीवी और बच्चों के लिए ही अपनी सारी जिंदगी खपा डाले। जिस गुरु ने वहाँ जाकर तुझे बचाया, इतना कष्ट उठाया, जहाँ गोलियों से तुझे भूना जा रहा था, तू मरने वाला था। तब भी तो तू अपने बीबी-बच्चों से अलग होता कि नहीं, तो आज से तू उस समाज का, उस मिशन का बेटा है और तू भाई है,अतः सेवा कर। हाँ माताजी! यही चाहता था। मैंने कहा कि वेदपाल सिंह, पहले तू यह तो बता कि क्या तू मंत्री बनना चाहता है या काँग्रेस का हरियाणा का उपाध्यक्ष या फिर तुझे मुख्यमंत्री की जगह दिला दूँ। मैंने हँसते-हँसते यों ही कह दिया। वह बोला-अरे, नहीं माताजी! मुझे नहीं चाहिए यह, और न ही यह कल्पना करके मैं आया हूँ। मैं तो केवल आशीर्वाद लेने आया हूँ। अपने देश के लिए, अपने राज्य के लिए मेरे विचार पवित्र बने रहें और अगर काई अगर कोई कष्ट-कठिनाई भी आए तो मैं उसे हँसते-हँसते झेल लूँ, बस, यही आशीर्वाद लेने आया हूँ। थोड़े ही दिन से वह जुड़ा हुआ था। जिसने यहाँ देखा भी नहीं था, बेटे! उसे जीवनदान मिल गया।

अनुदान : गुरु का फर्ज

बेटे! अभी मैं अनुदानों की बात सुना रही थी, क्योंकि यह हमारा फर्ज है। एक लड़का और था पंजाब का। शायद पंजाब या चंडीगढ़ का कोई लड़का बैठा भी हो यहाँ पर, तो उसके ऊपर मुकदमे चल रहे थे। उसका ऐसा संगीन मुकदमा था कि शायद वह जेल में पहुँच जाता और जिंदगी भर उसका उससे पीछा नहीं छूटता, क्योंकि उसका ‘बॉस’ भी उसी चक्कर में फँसा हुआ था। एक रात जब वह सोया तो उसे लगा कि मुझे दो बजे जगाया गया है और गुरुजी ने मुझे जगाया है कि चल बेटे, तू उठ, तेरा मुकदमा है और तू सो रहा है। आज तुझे पूजा-प्रार्थना नहीं करनी है क्या? मैं उठ गया। रात देर से सोया था, अतः फिर सो गया। फिर से सो गया तो ढाई बजे मुझे ऐसा मालूम पड़ा कि मैं सोता हुआ ही बैठा दिया गया और जब मैंने आँखें खोलीं तो मुझे प्रत्यक्ष गुरुजी दिखाई पड़े। जब से मैंने दीक्षा ली है, तब से जब मैं किसी भी काम को जाता हूँ तब मैं आप दोनों को प्रणाम किए बगैर घर से कभी नहीं जात। जब मैंने मुड़कर देखा तो वे कह रहे हैं कि यह बता कि यह तेरा जो मुकदमा चल रहा है तो ये जो सज्जन खड़े हैं, क्या इन्हीं की अदालत में है? मैंने निगाह उठाकर देखा तो मुझे महसूस हुआ कि क्रीम कलर की पगड़ी पहने जो एक और सज्जन खड़े हैं, उन्हीं के पास मेरा केस था। मैंने कहा कि हाँ गुरुदेव! इन्हीं के पास है। उन्होंने कहा, तो जा।

जब मेरी आँख खुल गई तो मुझे चैन नहीं पड़ा। नहीं-धोकर मैं पूजा-प्रार्थना में बैठा तो मेरा मन नहीं लगा, तो मैं गाड़ी में चल दिया। रास्ते में मुझे एक व्यक्ति मिला जो वकील था। उसने कहा कि तुम्हारा मुकदमा चल रहा है और मैं तेरा वकील हूँ। मैंने कहा कि मैंने तो आपको वकील रखा ही नहीं है, मेरा तो वकील दूसरा है और मैं निश्चिंत हूँ। मुझे और कोई वकील नहीं चाहिए। जाने कौन है, चोर है, ठग है और चाहता क्या है? मैं यह सोच रहा था कि वह चला गया। जब वह अदालत में पहुँचा तो उसने कहा कि मैं हैरत में रह गया। पहले तो मुझे ऐसा लग रहा था कि मैं स्वप्न देख रहा हूँ, क्योंकि गुरुजी ने मुझे उठाया है और स्वप्न में ही मुझे दिखाया है, लेकिन अब जो मैं देख रहा हूँ कि वही क्रीम कलर की पगड़ी पहने वह व्यक्ति जज की कुर्सी पर बैठा है, जिसे कि रात में गुरुजी ने दिखाया था। बेटे! मैं तो आपसे इतना ही कहा रही हूँ, लेकिन पिछले दिन एक सज्जन और आए थे, जो उसी के कोई दोस्त थे। उन्होंने कहा कि माताजी! यही नहीं, जिस समय वह जजमेंट दे रहा था तो यह प्रत्यक्ष दिखाई पड़ता था कि उसके सिर पर दो हाथ गुरुजी ने प्रत्यक्ष रखे हैं। दो हाथ प्रत्यक्ष दिखाई पड़ते थे, लेकिन चेहरा नहीं दिखता था। वह इतना जाहिल, जल्लाद और खूँख्वार जज था कि वह उसे क्यों जीतने देता, लेकिन उसने फटाफट फाइल को देखा और जैसे वह इसी के लिए उस दिन आया है, उस दिन उसने सिर्फ एक ही मुकदमा अपने हाथ में लिया था और उसमें हम विजयी हुए।

बेटे! उस मुकदमें में केवल वही नहीं जीत गया, वरन् उसका बॉस भी जीत गया। इसके बाद उसने जो खर्रा लिखा, रजिस्टर में से कोई चार पन्ने लिखे होंगे। पहले तो मैंने कोई एकाध लाइन पढ़कर उसे रद्दी की टोकरी में डालना चाहा कि तभी एक लाइन काम की दीख गई। मैंने कहा, इसे पढ़ना चाहिए। जज वाली बात को मैं जानती थी, इसलिए कहा कि यह बात ठीक है।

बेटे! मैं यह चमत्कार की बात नहीं बता रही हूँ, मैं तो यह कह रही हूँ कि ये अनुदान मिलते रहे हैं और मिलते रहेंगे। यह गुरुजी की सूक्ष्मीकरण साधना का प्रभाव है और फिर आप तो उनसे जुड़े हुए हैं, बँधे हुए हैं। यदि आपको अनुदान मिलता है तो इसमें आश्चर्य की क्या बात है, मिलना ही चाहिए आपको और मिलेगा भी। इसके साथ-साथ जब बिना माँगे ही हमको मिल रहा है, बिना माँगे ही अनुदानों से हमारी झोली भरी जा रही है, फिर उसकी थोड़ी-सी कीमत हम चुका दें तो क्या हर्ज है! उसकी कीमत आप तो क्या, बेटे, कभी चुकाई ही नहीं जा सकती। और उन अनुदानों की, जो जाने और अनजाने हमको प्राप्त होते रह हैं और हो रहे हैं, उनकी कीमत चुकाइए? नहीं बेटे, हजार जन्म में भी नहीं चुकाई जा सकती। हाँ, कुछ करने के लिए साहस किया जा सकता है। जो अनुदान मिले हैं, उन अनुदानों को यदि पेटी में रख दिया गया तो वे पेटी में बंद रखे रहेंगे। फिर वे किस काम आएंगे! जो अनुदान मिला है, जो जिम्मेदारी मिली है और जो रास्ता दर्शाया गया है, उस पर चलना है। निरंतर आप उस रास्ते पर चलिए। अगर आप चलेंगे तो पाएँगे कि जितना आपको मिला है, उससे और चौगुना, आठ गुना, सौ गुना और लाखों गुना मिल सकता है, लेकिन आपने तो उसको खरच कर दिया है।

अनुदान लगें लोक-मंगल में

बेटे! अनुदान जिस उद्देश्य के लिए दिया गया था, आपने उसी उद्देश्य में किया या नहीं किया? अगर आपने उसमें नहीं किया है तो मैं समझती हूँ कि वह निरर्थक चला गया और यदि लोक-मंगल में लगाया है तो मैं कहती हूँ कि लाखों गुना और करोड़ों गुना मिलने वाला है। बेटे! अपने जीवन में यही हुआ। जो कुछ भी हम बने हैं, उस महान गुरु की सत्ता ने बनाया है। चारों वेदों से लेकर एक सौ आठ उपनिषदों तक, छहों दर्शनों से लेकर अठारह पुराणों तक और आप सबकी सेवा करने तक, आखिर किसने बनाया? गुरु ने बनाया। अपने को सौंप दिया और हम निहाल हो गए। इसी तरीके से यदि आप भी अपने को सौंप पाएँ तो आप और भी ज्यादा निहाल हो सकते है। होंगे तो अभी भी, यह हमारा वायदा है। इस साल जो भी यहां से जाएँगे, आप देख लेना, मैंने कभी कहा तो नहीं है, लेकिन आज मैं हिम्मत करके कह रही हूँ, बेटे, आप सालभर के भीतर देखना कि आपकी पुनः स्थिति क्या है? आप तो भौतिक सफलताएँ चाहते है न, तो वो भी मिलेंगी, लेकिन हम उनको नाचीज समझते है। बेटे, हम जो भी आपको देना चाहते हैं, वह आध्यात्मिक शक्ति देना चाहतें हैं। यही बात मैं कल अपने लड़को से कह रही थी कि बेटे, यहाँ चार दिन के लिए आपको बुलाया गया हैं। आपकी बार विशेष अनुदान, विशेष शक्ति दी जा रही है और आपकी बैटरी चार्ज की जा रही हैं। आपको दिखाई नहीं पड़ रहा है, लेकिन बेटे आपकी बैटरी चार्ज की जा रही हैं, आपको शक्ति दी जा रही है। जो आपको लंबी यात्रा को पूरी कराएगी। आपको लंबी यात्रा पूरी करनी है और सारे जीवन आपको उस पथ पर चलना है।

एक छलाँग भर लगानी हैं

बेटे! आज के दिन हमको चिंतन करना चाहिए कि जिसने सारी जिंदगी हमारे लिए खपा डाली, हमको दे डाली उसके हाथ खाली है। उसके पास कुछ नहीं हैं, सब कुछ दे दिया। अपना खजाना खाली कर दिया। क्या आपको इन अनुदानों का मूल्याँकन किया ? अगर किया जाना है तो एक ही रूप में किया जाना है कि आपको थोड़ी-सी हिम्मत करनी है। एक छलाँग भर लगानी हैं। जैसा कि मैंने कल आपसे निवेदन किया था कि इस साल बेटे आपको हीरा बनना है हीरा कब बनता है? जबकि वह कोयले की खदान से बाहर निकलता है और कारीगर के हाथों में पड़ जाता है। कारीगर उसको तराशता है, अनेक एंगिलों से उसको बनाता है, तब उससे चमक निकलती है। उसी का नाम हीरा है, जो करोड़ों रुपये का होता है और आपकी की क्या कीमत है? अभी आपकी कीमत एक कौड़ी भी नहीं है। आप अभी मर कर जाएँगे और मिट्टी में मिल जाएँगे। जानवर की खाल भी काम आती है, परंतु इनसान की किसी काम में नहीं आती। अभी आपकी हस्ती मिट्टी में मिल जाने वाली है, लेकिन आपने अगर अपने को हीरा बना लिया तो बेटे, ऐसी कोई हस्ती नहीं है जो आपको मिट्टी में मिला दे।

बेटे, हमने जो पथ आपको दिखाया है, अगर आप उस पर चलें तो फिर आप मिट्टी में नहीं मिलेंगे। हम आप के साथ है। फिर आपका मूल्य कौड़ी का नहीं है। आपको ऊपर तो फिर करोड़ों-करोड़ों रुपये निछावर करके फेंक देंगे, वह मूल्य है आपका। हीरे का यही तो मूल्य होता है। एक करोड़ों-करोड़ों- जितने में भी बिकता होगा, जो कुछ भी उसकी कीमत होती होगी। लेकिन इंसान की कीमत कभी आँकी नहीं गई। गाँधी जी का जब देहावसान हुआ तो विदेशी लोगों ने माँग की कि जो इनका जो सर है, वह मिलना चाहिए। वे उस पर रिसर्च करना चाहते थे। ऐसे महामानव, संत और राष्ट्रपिता में खूबी क्या है? हिंदुस्तान वालों ने कह दिया, चल, हम अपने पिता का सर देंगे ? मूल्य लेंगे उसका? हमको नहीं चाहिए उसकी कीमत, चाहे वह अरबों-खरबों रुपये की ही क्यों न हों।

अंतरंग से गुरु को स्वीकार करें

बेटे! इनसान की कीमत बहुत है, यदि उसको सही दिशा मिल जाए और वह सही दिशा में चलने लगे तो। आपको सही दिशा तो मिल गई है, पर उस पर चलना आपका काम हैं कि आप सही में चलेंगे। आपने उस दिशा को स्वीकार किया है कि नहीं किया है या अंतरंग से स्वीकार किया है की नहीं है? आपने अपने गुरु को जीभ से स्वीकार किया है या अंतरंग से स्वीकार किया है? अंतरंग से किया है तो आपके गुरु आपके साथ हैं और हर समय आपके साथ हैं, चाहे वे दिखाई नहीं पड़ते हों। दिखाई नहीं पड़ते हैं क्या हुआ, शक्ल ही तो दिखाई नहीं पड़ती है लेकिन जो सारा-का-सारा विराट रूप है उनका, क्या वह आपको दिखाई नहीं पड़ता? आप इसमें झाँककर क्यों नहीं देखते? क्यों नहीं अपनी माँ की छवी में अपने गुरु को देखते? जब आपके सामने एक मौजूद है तो फिर आपने उसमें गुरु को क्यों नहीं झाँका? आप झाँकिए और उनको अपना काम करने दीजिए। आप बाध्य मत कीजिए। आप यह मत कहिए कि हम अनाथ हो गए हैं, हमको गुरुजी के दर्शन नहीं होते हैं। बेटे, आप अनाथ नहीं हैं और न ही अनाथ हो सकते है। फिर आपके मुख से यह निकल कैसे जाता है?

बेटे! आपने गुरुजी के विराट रूप को क्यों नहीं देखा? केवल शक्ल तक ही आप सीमित कैसे रह गए? क्यों नहीं पहचाना विराट स्वरूप को? आपने उन्हें अंतरंग में क्यों नहीं बैठाया? जिसने अंतरंग में बैठा लिया, बेटे, मैं कहूँगी कि वह हमारा लड़का महान है, चाहे वह किसी भी स्थिति में क्यों न हो। मैं उसको पैसे से नहीं तौलती, वरन् उसकी जीवात्मा से तौलती हूँ, क्योंकि जीवात्मा की दृष्टि से ही तो हम उनके गुरु बने हैं और ये मेरे बालक बने। बेटे! मैंने उस रोज कहा था विदाई वाले दिन कि मैं अपने राम की अपने राम की सीता हूँ। चलिए, वे भगवान थे तो मैं एक संत की, ऋषि की पत्नी हूँ। फिर बेटे,तुम्हारे गुरुजी का नाम भी तो श्रीमान है तो फिर मैं कौन हुई, सीता हुई कि नहीं? रहने दे, नाम भगवती है तो क्या मतलब, आखिर पत्नी हूँ उनकी । एक मायने में तो मैं कहती हूँ कि सीता से भी ज्यादा हूँ। वह इस नाते कि सीता के दो बच्चे थे लव और कुश,लेकिन अहा‐‐‐ यह माँ तो कैसी धन्य है! इसका कलेजा तो अपने बच्चों को देखकर और ज्यादा फूल जाता है, जहाँ लाखों-करोड़ों की संख्या में बच्चे है। इसलिए बेटे! तो मैं कहती हूँ कि शायद इस मायने में मैं भगवान की बराबरी नहीं करती, उस मायने में मैं नहीं कहती, लेकिन उस शक्ति की बराबरी जरूर कर रही हूँ कि मैंने दो बच्चों को जन्म नहीं, हजारों-लाखों बच्चों को जन्म दिया है। पिता ने दिया है और माँ ने दिया है। पिता ने दिया है सिद्धाँत से और माँ ने दिया है दुलार से।

सिद्धाँत के साथ दुलार

बेटे! उन्होंने आपको सिद्धाँत दिए हैं, प्रेरणा दी है तो दुलार मैंने भी दिया है। मेरा भी आपने सगी माँ का अधिकार है। आप न समझते हों तो मत समझिए। पर हम तो राम बादशाह हैं। स्वामी रामतीर्थ कहते थे कि ये सारा विश्व हमारा है और ये सारे बाग-बगीचे और जो बैंकें हैं, वे सब हमारी हैं। आपकी हैं,तो क्या आपकी जेब में पैसा हैं? अरे बेटे! ये ख्वाबों की दुनिया है और क्यों न देखा जाए! हमें ऊँचाई की ओर क्यों न देखा जाए! हमें ऊँचाई की ओर ही उठना चाहिए।

बेटे! मैं फिर उसी बात पर आती हूँ कि आज का यह महान पर्व है। आज यह आत्मचिंतन का पर्व है। अभी तक जितने अनुदान आपको मिले हैं और जो मिलने जा रहे हैं, आप उनका चिंतन कीजिए और उस चिंतन में डूब जाइए,सराबोर हो जाइए। आप गुरुजी में मिल जाइए और गुरुजी आप में। आप जब उनमें मिल जाएँगे तो आपको आत्मसाक्षात्कार हो जाएगा। आप जब उनको अपने में मिला लेंगे और उनमें आप मिल जाएँगे तो आपको अनुभव होगा कि गुरुजी हमारे हैं। बेटे! मुझको यह अनुभव होता है। जब मैं पहली बार यहाँ स्टेज पर आई थी तो बैठे नहीं पा रही थी। भीतर-ही-भीतर मेरी अजीब हालत हो रही थी और मुझे स्पष्ट अनुभव हो रहा था कि वे हमारे पास बैठे हैं। वे हमेशा इधर को बैठते थे और मैं उधर को बैठती थी। अभी भी देख लो, दो मसनद लगा रचो हैं। एक उनका लग रहा है और एक मेरा लग रहा है। दोनों के ही लगे हैं। गुरुजी हमेशा हमारे साथ हैं। बेटे, जब कभी मैं कहीं जाती थी तो रिक्शे में सबसे पहले वे मुझे ही बैठाते थे और कहते थे- पहले तुम बैठो, पीछे मैं बैठूँगा और उतरती भी पहले मैं ही थी । आज जब मैं गाड़ी से उतरी तो मुझे लगा कि वे मेरे पीछे उतर रहे हैं। उस समय की जो हालत थी, मैं आपको वर्णन नहीं कर सकती । यह पहला दिन था। यह देखकर बच्चे पानी लेकर भागे आए कि माताजी को क्या हो गया, क्या बात हो गई! बात कुछ नहीं हुई। मैंने अनुभव किया कि हर समय गुरुजी हमारे साथ हैं, पर उस समय वे दिखाई नहीं पड़े, मैं अकेली थी, ऐसा भी नहीं लगा, न मालूम भीतर ऐसा क्या लगा कि मैं भावनात्मक गहराई में डूबती चली गई।

बेटे! आपको उनकी शक्ल न दिखाई पड़ती हो तो क्या हुआ, वे आपने साथ हैं। यह गुरुपूर्णिमा का पर्व और यह संदेश उन्हीं का है। शब्द मेरे हैं, पर भाव प्रेरणा उन्हीं की है। फिर आज उन्होंने कहलवा ही डाला कि दोनों एक हैं। हम दोनों एक ही हो गए। बेटे, आज अनेक शुभकामनाएँ हमारे सभी बच्चों को, जो हमारे यहाँ उपस्थित हैं और जो नहीं हैं, उन सभी के लिए भी हमारी दोनों की ओर से हार्दिक शुभकामनाएँ और आशीर्वाद।

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