
अकर्मण्यता - एक विष
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गाँव के मन्दिर में साधु महाराज ने डेरा जमा लिया था। सरल, आस्तिक, भोले-भाले गाँव के लोग उस पर अपनी श्रद्धा उड़ेलते थे। ग्रामीण नर-नारियों की यह भाव-श्रद्धा कई रूपों में व्यक्त होती थी। कोई उनके लिए व्यञ्जन-पकवानों की व्यवस्था करता था। कोई उन्हें खीर, मलाई, रबड़ी का भोग अर्पित करता था। कुछ ऐसे भी थे जो महाराज जी के लिए गाँजा-चिलम, सुल्फा का इन्तजाम करते थे। सरल-ग्रामीणों की श्रद्धा के बदले महात्मा जी उन्हें अपने त्याग के किस्से चटपटी शैली में सुनाते थे। इन किस्सों में त्याग की सुगन्ध के स्थान पर अहं भावना की झलक ही ज्यादा दिखाई देती थी।
शाम होते ही उनके आवास पर ग्रामीण लोगों का जमावड़ा लग जाता। ज्यों-ज्यों लोग जुड़ते जाते, त्यों-त्यों उनकी वाणी अधिक प्रदीप्त हो जाती। हर दिन वह एक चीज का बखान करना नहीं भूलते थे, कि आखिर किस तरह से उन्होंने अपनी पैतृक सम्पत्ति को छोड़ दिया। चालीस बीघे जमीन, दो मकान, बैलों की जोड़ी, सोने-चाँदी, लाखों की नकद सम्पत्ति सबका सब उन्होंने छोड़ दिया। अपनी बातों के बीच-बीच में वह अपने इस त्याग का सम्पुट जरूर लगाते। बात-चीत के इस निष्कर्ष में वह बताते कि कर्म हमेशा बन्धन का कारण है। कर्म होता ही अज्ञान के कारण है। जो अज्ञानी है, वही कर्म करते हैं। ज्ञानी जन तो सदा सन्तोष और तृप्ति का सुख अनुभव करते हैं।
गाँव के लोग साधु महाराज की इन बातों को सुनकर उनकी हाँ में हाँ मिलाते थे। जी महाराज! बहुत अच्छा महाराज! एकदम ठीक है महाराज! यही तो त्याग है महाराज! आपने कर्म त्याग दिया, तभी तो आप इतने महान् हैं महाराज! ऐसे ही अनेक कथन सुनकर उन्हें अपनी बातों को कहने के लिए ऊर्जा मिलती थी। साधु महाराज की चटपटी-लच्छेदार बातों ने वृद्धों के साथ युवकों को भी उलझा लिया था। एक वृद्धा विधवा के तीन युवा पुत्र भी उनके उपदेश को सुनने आने लगे थे।
उस दिन भी वह सदा की भाँति उपस्थित जनों से कह रहे थे, कर्म त्याग में ही सच्चा सुख है। जो कछुए की तरह अपने हाथ-पाँवों को सभी कामों से खींचकर अपने में लीन हो जाता है, वही परम सुखी है। उसी को परम शान्ति का अनुभव होता है। उनकी यह उपदेश कथा उन युवकों की माँ के कानों में भी पड़ी। वह उधर से अपने खेत पर जा रही थी। इस अकर्मण्यता के उपदेश ने उसे चौंका दिया। उसके पाँव ठिठक गए। वह तुरन्त उस स्थान पर आ पहुँची, जहाँ यह उपदेश चल रहा था।
वृद्धा विधवा ने पहले तो अपने छोटे लड़के को बुलाया और कहा- जा घड़ा उठा और पानी भर ला। मंझले से कहा- जाकर खेत की निराई कर। और तीसरे से कहा- घर की छत को ठीक करना है, जाकर काम में लग जा। जब उसके तीनों लड़के चले गए तब उसने साधु से कहा, महाराज आपके उपदेशों को सुनकर हमारे कई पड़ोसी वैसा ही आचरण करने लगे हैं। परिणाम यह है कि उनमें से कई अपने आलसीपन के कारण बीमारी से ग्रस्त हैं और ऋण के भार से दबे पड़े हैं। उन्हें शान्ति और सुख मिला या नहीं यह तो वही जाने।
वृद्धा बोलते-बोलते थोड़ी देर रुकी; फिर तीक्ष्ण स्वर में बोली, मैं आपसे प्रार्थना करती हूँ कि युवकों को आप अकर्मण्यता का विष न पिलाएँ। क्या आप को यह पता नहीं है कि जीवन के आरम्भ में हमेशा उद्यम की सीख दी जाती है। हे ज्ञानी पुरुष! अच्छा हो कि आप परिश्रमी गाँववासियों को अकर्मण्यता का पाठ पढ़ाने की बजाय उन्हें अक्षर ज्ञान सिखाएँ। उन्हें विवेकवान बनाएँ। क्योंकि जहाँ विवेक और ज्ञान होता है वहाँ शान्ति और सुख अपने आप ही खिंचे चले आते हैं।