
शिष्य की अभिव्यक्ति (kavita)
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जितना तुमने दिया, न उतना सारा जग हमको दे पाया,
जब-जब एक बूँद जल माँगा, तब तुमने बादल बरसाया।
जग ने दिए तनाव भरे दिन,
रातों में भीषण अँधियारे,
तुमने लौकिक और अलौकिक
काटे सारे कष्ट हमारे,
हमने केवल किया समर्पण, तुमने अपने शीश चढ़ाया।
जितना तुमने दिया, न उतना सारा जग हमको दे पाया।
जब हम थे असहाय, दे दिया
तुमने सबल सहारा हमको,
हम शापित थे, तुमने अपनी
चरण-धूलि से तारा हमको,
ऐसा प्राण-प्रवाह भर दिया, अब तो अंग-अंग उमगाया।
जितना तुमने दिया, न उतना सारा जग हमको दे पाया।
इस सूखे मरुथल में तुमने
ऐसी संवेदना बहाई,
पल-पल लगने लगी, हमें तो
अपनी-सी, हर पीर पराई,
ऐसी कृपा करी, जो मन का हर कोना-कोना सरसाया।
जितना तुमने दिया, न उतना सारा जग हमको दे पाया।
हमको दिया मनोबल ऐसा,
जो चट्टानों से टकराए,
हमें तपाया इतना, जिससे
जग में हम कुँदन कहलाए,
जो था भार, व्यर्थ-सा जीवन, तुमने उसको धन्य बनाया।
जितना तुमने दिया, न उतना सारा जग हमको दे पाया।
अब तक किया अनुग्रह तुमने,
अब कर्त्तव्य निभाएंगे हम,
ऋण का भार शीश पर अपने,
कभी न लेकर जाएँगे हम,
काम तुम्हारा ही करना है, पग न रहेगा अब अलसाया।
जितना तुमने दिया, न उतना सारा जग हमको दे पाया।
-शचीन्द्र भटनागर
*समाप्त*