
समर्पण, विसर्जन, विलय का महापर्व
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गुरुपूर्णिमा सद्गुरु के प्रति सर्वस्व समर्पण का महापर्व है। सद्गुरु गोविन्द है। वही सदाशिव और परम शक्ति है। सद्गुरु के मुख में ब्रह्म का वास होता है। उनकी वाणी ब्रह्मवाणी है। उनके वचन महामंत्र हैं। सद्गुरु ही साधना है और अंत में वही साध्य के रूप में प्राप्त होते हैं। सद्गुरु की कृपाशक्ति ही साधक में साधना की शक्ति बनती है। देहधारी मनुष्य जब सद्गुरु की कृपा-छाँह में आता है, तब वह शिष्य बनता है। उस शिष्य में गुरु जब अपने एक अंश को प्रतिष्ठित करते हैं, तब साधक के रूप में उसका नवसृजन होता है। शिष्य काय-कलेवर में सद्गुरु ही साधक के रूप में अवतार लेते हैं।
सद्गुरु स्वयं ब्रह्म हैं। उनके वचनों में ही ब्रह्मविद्या समाई है। इसलिए सन्त कबीरदास ने सद्गुरु को गोविन्द के समान माना है-
गुरु गोविन्द दोऊ खड़े, काके लागो पाय।
बलिहारी गुरु आपकी गोविन्द दियो बताय॥
गुरुगीता की भक्ति कथा में गुरु को भगवान् के पद से अलंकृत किया गया है-
गुरुर्ब्रह्म, गुरुर्विष्णु, गुरुर्देवो महेश्वरः।
गुरु साक्षात्परब्रह्म, तस्मै श्रीगुरुवे नमः॥
गुरुगीता साधक-संजीवनी है। देवेश्वर शिव ने इसमें गुरु को ब्रह्म के रूप में प्रतिपादित किया है। उनके इस संक्षिप्त कथन को किसी बौद्धिक क्षमता से नहीं, भावनाओं की अतल गहराई से ही समझा व अनुभव किया जा सकता है। सद्गुरु की कृपा से शिष्य को दिव्य दृष्टि मिलती है और फिर शिष्य ब्रह्म का दर्शन करने में सक्षम होता है। इस अपूर्व दर्शन में द्रष्ट, दृष्टि और दर्शन सब तदाकार-साकार हो जाते हैं। शिष्य, सद्गुरु एवं ब्रह्मतत्त्व के सभी भेद एवं विभाजन गिर जाते हैं, मिट जाते हैं। अतः सूर्यप्रकाश के समान इस सत्य में स्पष्ट है कि सद्गुरु ही ब्रह्म है और ब्रह्म ही सद्गुरु के रूप में साकार हुए हैं।
गुरु को ईश्वर के सदृश्य, देवता के सम्मान का भाव अर्वाचीन उपनिषद्काल तथा पुराणों में भी प्राप्त होता है। जैन, बौद्ध, सिक्ख आदि धर्मों में मातृदेवो भव, पितृ देवों भव, आचार्यदेवो भव कहकर गुरु की महनीय गरिमा को उजागर किया गया है। ताँत्रिक सम्प्रदाय में सर्वाधिक प्रधानता गुरु को दी गई है। मनु स्मृति में गुरु का महत्त्व निरूपण करते हुए तीन प्रकार के गुरुओं के पूजन का निर्देश दिया गया है। इसमें उपाध्याय, अध्यापक और संस्कार कराने वालों को भी गुरु रूप में वरण किया गया है-
लौकिकं वैदिकं वापि तथाऽध्यापक मेव च।
आप दीत् यतोज्ञानं तं पूर्व भभिवाद येत्॥
अमर कोष में गुरु के प्रति सम्मान की अभिव्यक्ति इस प्रकार मिलती है-
बृहस्पतिः सूराचार्यों गीष्पतिर्थिषणों गुरुः।
जीव आँगिरसौ वाचस्पतिक्षित्रः शिखण्डिजः॥
सन्त साहित्य में भी गुरु की विशेष महत्ता एवं विशेषता दर्शायी गयी है। चुँनाचे एवं गुरु नानक देव जी ने तो गुरु को वेदवत् स्वीकार किया है। वे सद्गुरु की आज्ञा को जीवन में परम, कल्याणमयी और सिद्धिदायक मानते हैं-
गुरुमुखिनादम् गुरुमुखि वेदम् रहिओ समाई।
गुरुईसरु गोरखुवर्मा गुरु पारवतीं माई॥
सन्त रज्जब अली भी सद्गुरु की प्राप्ति को प्रभु की असीम एवं अनन्त कृपा का प्रसाद मानते हुए कहते हैं-
जनम् सफल तब का भया चरनौचित्त लाया।
रज्जब रामदया करी, दादूगुरु पाया॥
इस्लाम धर्म के प्रवर्तक हजरत मोहम्मद पैगम्बर ने कुरआन-ए-शरीफ में मोमिनों को उपदेश दिया है, कि सद्गुरु के बिना विद्या की प्राप्ति नहीं होती, अतः गुरु का आदर एवं सम्मान का स्थान माता-पिता से भी बढ़कर है। चीन के सन्त शिन-हुआ ने भी गुरु की महिमा एवं गरिमा का गान किया है। उनके अनुसार समस्त विद्याएँ और शास्त्र दीपक के चित्र मात्र हैं। इनमें केवल दीपक बनाने की विधि-विधान का उल्लेख भर है। दीये के चित्र से आलोक नहीं बिखरता, रोशनी नहीं होती। गहन अंधकार में ये कुछ काम नहीं आते। परन्तु सद्गुरु से मिलना जैसे दीप्त दीये की ज्योति से मिलने जैसा है। अतः गुरु के अभाव में समस्त शास्त्र एवं सारी विद्याएँ अर्थहीन हो जाती हैं। ये अर्थवान् तभी होती हैं, जब सद्गुरु की प्राप्ति होती है।
गुरुचरण चरित के मंत्रद्रष्ट महाकवि तुलसी कहते हैं कि सद्गुरु मनुष्य देहधारी होते हुए भी सामान्य मनुष्य नहीं है। वह नर रूप में नारायण है- बंदऊँ गुरु पद, कृपा सिन्धु नर रूप हरि। सद्गुरु परमात्म चेतना का घनीभूत रूप होते हैं। वे जहाँ रहते हैं, उनकी तपश्चेतना का घनीभूत प्रभाव छाया रहता है। उनका निवास शिष्यों के लिए मुक्तिदायिनी काशी है। इस काशी के विश्वनाथ स्वयं गुरु हैं। यह अनुभवगम्य है, जिसे गुरु के प्रति अगाध आस्था एवं गहन श्रद्धा का संचार करके ही अनुभव किया जा सकता है। समर्पण के इस महाभाव में ही शिष्य का शिष्यत्व सधता-निखरता है। प्रगाढ़ गुरुभक्ति से ही गुरु कृपा का अवतरण होता है। जहाँ गुरु और शिष्य तदाकार-साकार हो जाते हैं। गुरु शिष्य का यह सम्बन्ध प्राणों का सम्बन्ध होता है, आत्मिक होता है। शिष्य गुरु के आध्यात्मिक गर्भ में पलता-बढ़ता, विकसित होता है। शिष्य गुरु का मानस पुत्र होता है, जिसमें एकमात्र गुरु का महा अस्तित्त्व लहराता रहता है।
गुरु-शिष्य के बीच प्राणों के इस सम्बन्ध से दिव्य परम्परा का आविर्भाव होता है। शिष्य गुरु के वचन एवं कार्य के निर्वाह में अपना समस्त जीवन विसर्जित कर देता है। इस तरह भगवान् शंकराचार्य के जीवन में गुरु गोविन्दपाद का अवतरण हुआ, जिनके दिव्य आदेश का पालन कर अद्वैतवादी शंकराचार्य जगत् विख्यात हो गये। मत्स्येन्द्रनाथ के सूत्रों को गोरखनाथ ने अपनाकर नाथ सम्प्रदाय को जन्म दिया। कबीर ने गुरु रामानन्द को गुरु वरण किया और एकमात्र मानव धर्म का प्रचार किया। रामानुजाचार्य ने यमुनाचार्य को, पुष्यमित्र ने पतंजलि को, चैतन्य ने माधवेन्द्र को, नारद ने सनत्कुमार को तथा कुमारजीव ने बन्धुदत्त को अपना सर्वस्व न्यौछावर कर शिष्यत्व की उपलब्धि की थी।
गुरु भगवान् के प्रतीक-प्रतिनिधि होते हैं। अतः वे भगवान् के कार्य को संचालित करने के लिए योग्य एवं सत्पात्र शिष्य की तलाश करते हैं। इस क्रम में स्वामी पूर्णानन्द ने विरजानन्द का, विरजानन्द ने दयानन्द का, निवृत्तिनाथ ने ज्ञानदेव का , नरहराचार्य ने तुलसीदास का, विशुद्धानन्द ने गोपीनाथ कविराज का, अनन्त महाप्रभु ने बाबा राघवदास का, जनार्दन पंत ने एकनाथ का, सुधीन्द्र तीर्थ ने राघवेन्द्र का, ब्रह्मन्द्र स्वामी ने बालाजी विश्वनाथ का, वसुगुप्त ने कल्कट का, विद्यारण्य ने हरिहर राय का शिष्य के रूप में चुनाव किया था।
शिष्य के अन्दर शिष्यत्व का भाव पनप गया हो तो सद्गुरु अपने आप ही उसे ढूंढ़ते हुए आ जाते हैं। स्वयं न भी आए तो शिष्य को अपने पास बुला लेते हैं। रामकृष्ण परमहंस विवेकानन्द को इसी तरह मिले थे। रामदास ने शिवाजी की तलाश की थी। चाणक्य ने चन्द्रगुप्त को उसके घर के पास जाकर ढूंढ़ लिया था। इसी प्रकार प्राणनाथ ने छत्रसाल को, कनकदास ने कृष्णदेव राय को, राजाराम शास्त्री ने केशव कर्वे को, माधव गोविन्द रानाडे ने गोखले को, गोखले ने गाँधी को, गाँधी जी ने विनोबा को, अण्णा साहब पटवर्धन ने तिलक को, तिलक ने सावरकर को खोजा था। गणेश शंकर विद्यार्थी आचार्य महावीर प्रसाद की खोज थे और चन्द्रशेखर आजाद रामप्रसाद बिस्मिल के, फिरोजशाह मेहता दादा भाई के, सुब्रह्मण्यम् भारती जी सुब्रह्मण्यम् अय्यर के शिष्य थे। एनी बसेण्ट ब्लावतास्की तथा निवेदिता स्वामी विवेकानन्द की उपलब्धि थी।
शिष्य के इस समर्पण, विसर्जन, विलय में ही शिष्योऽहम्, ‘मैं शिष्य हूँ’ का दिव्य सूत्र गूँजता है। सारे रिश्ते-नाते इस एक सम्बन्ध में विलीन हो जाते हैं। शिष्य ही साधक हो सकता है। और सद्गुरु उसके रोम-रोम, मन, प्राण, जीवन में समाए हुए होते हैं। शिष्य के लिए सद्गुरु ही एकमात्र नियन्ता, सूत्राधार होते हैं। वही संचालक हैं, जीवन में जो कुछ है, सो वही होते हैं। इस प्रकार समर्पण एवं गुरुभक्ति से शिष्य-साधक के जीवन में तप-साधना की समस्त उपलब्धियाँ-सिद्धियाँ सहज रूप में प्राप्त होती जाती हैं। गुरुकृपा से तत्त्वज्ञान, आत्मबोध, ईश्वर कृपा सभी कुछ सुलभ-सहज हो जाती हैं। गुरु पूर्णिमा सद्गुरु की इसी महा कृपा की अनुभूति का महापर्व है।