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Books - गायत्री महाविज्ञान

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गायत्री साधना से श्री समृद्धि और सफलता

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गायत्री त्रिगुणात्मक है। उसकी उपासना से जहाँ सतोगुण बढ़ता है, वहाँ कल्याणकारक एवं उपयोगी रजोगुण की भी अभिवृद्धि होती है।

रजोगुणी आत्मबल बढऩे से मनुष्य की गुप्त शक्तियाँ जाग्रत् होती हैं, जो सांसारिक जीवन के संघर्ष में अनुकूल प्रतिक्रिया उत्पन्न करती हैं। उत्साह, साहस, स्फूर्ति, निरालस्यता, आशा, दूरदर्शिता, तीव्र बुद्धि, अवसर की पहचान, वाणी मंव माधुर्य, व्यक्तित्व में आकर्षण, स्वभाव में मिलनसारी जैसी अनेक छोटी- बड़ी विशेषताएँ उन्नत तथा विकसित होती हैं, जिसके कारण ‘श्रीं’ तत्त्व का उपासक भीतर ही भीतर एक नये ढाँचे में ढलता रहता है। उसमें ऐसे परिवर्तन हो जाते हैं, जिनके कारण साधारण व्यक्ति भी धनी, समृद्ध हो सकता है।

गायत्री उपासक में ऐसी त्रुटियाँ, जो मनुष्य को दु:खी बनाती हैं, नष्ट होकर वे विशेषताएँ उत्पन्न होती हैं, जिनके कारण मनुष्य क्रमश: समृद्धि, सम्पन्नता और उन्नति की ओर अग्रसर होता है। गायत्री अपने साधकों की झोली में सोने की अशर्फियाँ नहीं उड़ेलती- यह ठीक है, परन्तु यह भी ठीक है कि वह साधक में उन विशेषताओं को उत्पन्न करती है, जिनके कारण वह अभावग्रस्त और दीन- हीन नहीं रह सकता। इस प्रकार के अनेकों उदाहरण हमारी जानकारी में हैं। उनमें से कुछ नीचे दिये जाते हैं।

टिप्पणी—यहाँ ग्रन्थ रचना के समय (सन् ५० के दशक) तक जुड़े साधकों में से कुछ के विवरण भर दिए गए हैं। युगऋषि के जीवनकाल में उनके सान्निध्य में हुई साधना से प्राप्त सफलताओं का यदि संकलन किया जाय, तो इस ग्रन्थ के आकार के कई भाग प्रकाशित करने पड़ेंगे। —प्रकाशक
ग्राम हर्रई, जिला छिन्दवाड़ा के पं. भूरेलाल ब्रह्मचारी लिखते हैं—‘रोजी में उत्तरोत्तर वृद्धि होने के कारण मैं धन- धान्य से परिपूर्ण हूँ। जिस कार्य में हाथ डालता हूँ, उसी में सफलता मिलती है। अनेक तरह के संकटों का निवारण आप ही आप हो जाता है, इतना तो अनुभव मेरे खुद का गायत्री मन्त्र जपने का है।’

झाँसी के पं. लक्ष्मीकान्त झा, व्याकरण, साहित्याचार्य लिखते हैं—‘बचपन से ही मुझे गायत्री पर श्रद्धा हो गयी थी और उसी समय से एक हजार मन्त्रों का नित्य जप करता हूँ। इसी के प्रताप से मैंने साहित्याचार्य, व्याकरणाचार्य, साहित्यरत्न तथा वेद- शात्री आदि परीक्षाएँ उत्तीर्ण की तथा संस्कृत कॉलेज झाँसी का प्रिन्सिपल बना। मैंने एक सेठ के १६ वर्षीय मरणासन्न पुत्र के प्राण गायत्री जप के प्रभाव से बचते हुए देखे हैं, जिससे मेरी श्रद्धा और भी सदृढ़ हो गयी है।’

वृन्दावन के पं. तुलसीदास शर्मा लिखते हैं—‘लगभग दस वर्ष हुए होंगे, श्री उडिय़ा बाबा की प्रेरणा से हाथरस निवासी लाला गणेशीलाल ने गंगा किनारे कर्णवास में २४ लक्ष गायत्री का अनुष्ठान कराया था। उसी समय से गणेशीलाल जी की आर्थिक दशा दिन- दिन ऊँची उठती गयी और अब उनकी प्रतिष्ठा- सम्पन्नता तब से चौगुनी है।’

प्रतापगढ़ के पं. हरनारायण शर्मा लिखते हैं—‘मेरे एक निकट सम्बन्धी ने काशी में एक महात्मा से धन प्राप्ति का उपाय पूछा। महात्मा ने उपदेश दिया कि प्रात:काल चार बजे उठकर शौचादि से निवृत्त होकर स्नान- सन्ध्या के बाद खड़े होकर नित्य एक हजार गायत्री मन्त्र का जप किया करो। उसने ऐसा ही किया, फलस्वरूप उसका आर्थिक कष्ट दूर हो गया।’

प्रयाग जिले के छितौना ग्राम निवासी पं. देवनारायण जी देवभाषा के असाधारण विद्वान् और गायत्री के अनन्य उपासक हैं। तीस वर्ष की आयु तक अध्ययन करने के उपरान्त उन्होंने गृहस्थाश्रम में प्रवेश किया। स्त्री बड़ी सुशील एवं पतिभक्त मिली। विवाह के बहुत काल बीत जाने पर भी जब कोई सन्तान नहीं हुई, तो वह अपने आपको बन्ध्यत्व से कलंकित समझकर दु:खी रहने लगी। पण्डित जी ने उसकी इच्छा जानकर सवा लक्ष जप का अनुष्ठान किया। कुछ ही दिन में उनके एक प्रतिभावान मेधावी पुत्र उत्पन्न हुआ।

प्रयाग के पास जमुनीपुर ग्राम में रामनिधि शास्त्री नामक एक विद्वान् ब्राह्मण रहते थे। वे अत्यन्त निर्धन थे, पर गायत्री साधना में उनकी बड़ी तत्परता थी। एक बार नौ दिन तक उपवास करके उन्होंने नवाह्न पुरश्चरण किया। पुरश्चरण के अन्तिम दिन अर्धरात्रि को भगवती गायत्री ने बड़े दिव्य स्वरूप में उन्हें दर्शन दिया और कहा, ‘तुम्हारे इस घर में अमुक स्थान पर अशर्फियों से भरा घड़ा रखा है, उसे निकालकर अपनी दरिद्रता दूर करो।’ पण्डित जी ने घड़ा निकाला और वे निर्धन से धनपति हो गये।

बड़ौदा के वकील रामचन्द्र कालीशंकर पाठक आरम्भ में १० रुपये मासिक की एक छोटी नौकरी करते थे। उस समय उन्होंने एक गायत्री पुरश्चरण किया, तब से उनकी रुचि विद्याध्ययन में लगी और धीरे- धीरे प्रसिद्ध कानूनदा हो गये। उनकी आमदनी भी कई गुनी बढ़ गयी।

गुजरात के मधुसूदन स्वामी का नाम संन्यास लेने के पहले मायाशंकर दयाशंकर पण्ड्या था। वे सिद्धपुर में रहते थे। आरम्भ में वे पच्चीस रुपये मासिक के नौकर थे। उन्होंने हर रोज एक हजार गायत्री जप से आरम्भ करके चार हजार तक बढ़ाया। फलस्वरूप उनकी पदवृद्धि हुई। वे राज्य रेलवे के असिस्टैण्ट ट्रैफिक सुपरिण्टेण्डेण्ट के ओहदे तक पहुँचे। उस समय उनका वेतन तीन सौ रुपया मासिक था। उत्तरावस्था में उन्होंने संन्यास ले लिया था।

माण्डूक्य उपनिषद् पर कारिका लिखने वाले विद्वान् श्री गौड़पाद का जन्म उनके पिता के उपवास पूर्वक सात दिन तक गायत्री जप करने के फलस्वरूप हुआ था।

    साहित्यकार पं. द्वारिकाप्रसाद चतुर्वेदी पहले इलाहाबाद में सिविल सर्जन विभाग में हैडक्लर्क थे। उन्होंने वारेन हैस्टिंग्ज का जीवन चरित्र लिखा, जो राजद्रोहात्मक समझा गया और नौकरी से हाथ धोना पड़ा। बड़ा कुटुम्ब और जीविका का साधन न रहना चिन्ता की बात थी। उन्होंने व्रतपूर्वक गायत्री का अनुष्ठान किया। इस तपस्या के फलस्वरूप उन्हें पुस्तक लेखन का स्वतन्त्र कार्य मिल गया और साहित्य रचना के क्षेत्र में उन्हें प्रसिद्धि प्राप्त हुई। उनकी आर्थिक स्थिति सुधर गयी। तब से उन्होंने पर्याप्त अनुष्ठान करने का अपना नियम बनाया और नित्य जप किया करते थे।

स्वर्गीय पं. बालकृष्ण भट्ट हिन्दी के प्रसिद्ध साहित्यकार थे। वे नित्य गायत्री के ५०० मन्त्र जपते थे और कहा करते थे कि गायत्री जप करने वालों को कभी कोई कमी नहीं रहती। भट्टजी सदा विद्या, धन, जन से भरे पूरे रहे।

प्रयाग विश्वविद्यालय के प्रोफेसर क्षेत्रेशचन्द्र चट्टोपाध्याय का भानजा उनके यहाँ रहकर पढ़ता था। इण्टर परीक्षा के दौरान लौजिक के पर्चे के दिन वह बहुत दु:खी था, क्योंकि उस विषय में वह बालक कच्चा था। प्रोफेसर साहब ने उसे प्रोत्साहन देकर परीक्षा देने भेजा और स्वयं छुट्टी लेकर आसन जमाकर गायत्री जपने लगे। जब तक बालक लौटा, तब तक बराबर जप करते रहे। बालक ने बताया, उसका वह पर्चा बहुत ही अच्छा हुआ और लिखते समय उसे लगता था मानो उसकी कलम पकडक़र कोई लिखाता चलता है। वह बहुत अच्छे नम्बरों से उत्तीर्ण हुआ।

इलाहाबाद के पं. प्रताप नारायण चतुर्वेदी की नौकरी छूट गई। बहुत तलाश करने पर भी जब कोई जगह न मिली, तो उन्होंने अपने पिता के आदेशानुसार गायत्री का सवा लक्ष जप किया। समाप्त होने पर उसी पायेनियर प्रेस में पहली नौकरी की अपेक्षा ढाई गुने वेतन की जगह मिल गयी, जहाँ कि पहले उन्हें कितनी ही बार मना कर दिया गया था।

कलकत्ता के शा. मोडक़मल केजड़ीवाल आरम्भ में जोधपुर राज्य के एक गाँव में १२ रुपये मासिक के अध्यापक थे। एक छोटी- सी पुस्तक से आकर्षित होकर उन्होंने गायत्री जपने का नित्य नियम बनाया। जप करते- करते अचानक उनके मन में स्फुरणा हुई कि मुझे कलकत्ता जाना चाहिए, वहाँ मेरी आर्थिक उन्नति होगी। निदान वे कलकत्ता पहुँचे। वहाँ व्यापारिक क्षेत्र में वे नौकरी करते रहे और श्रद्धापूर्वक गायत्री आराधना करते रहे। रुई के व्यापार से उन्हें भारी लाभ हुआ और थोड़े ही दिन में लखपति बन गए।

बुलढाना के श्री बद्रीप्रसाद वर्मा बहुत निर्बल आर्थिक स्थिति के आदमी थे। ५० रुपये मासिक में उन्हें अपने आठ आदमी के परिवार का गुजारा करना पड़ता था। कन्या विवाह योग्य हो गई। अच्छे घर में विवाह करने के लिए हजारों रुपया दहेज की आवश्यकता थी। वे दु:खी रहते और गायत्री माता के चरणों में आँसू बहाते रहते। अचानक ऐसा संयोग हुआ कि एक डिप्टी कलक्टर के लडक़े की बरात कन्या पक्ष वालों से झगड़ा करके बिना ब्याहे वापस लौट रही थी। डिप्टी साहब वर्माजी को जानते थे। रास्ते में उनका गाँव पड़ता था। उन्होंने वर्माजी के पास प्रस्ताव भेजा कि अपनी कन्या का विवाह आज ही हमारे लडक़े से कर दें। वर्माजी राजी हो गये। एम. ए. पास लडक़ा जो नहर विभाग में ६०० रुपये मासिक का इञ्जीनियर था, उससे उनकी कन्या की शादी कुल १५० रुपये में हो गयी।

देहरादून का बसन्त कुमार नामक छात्र एक वर्ष मैट्रिक में फेल हो चुका था। दूसरी वर्ष भी पास होने की आशा न थी। उसने गायत्री उपासना की और परीक्षा में अच्छे नम्बरों से पास हुआ।

सम्भलपुर के बाबू कौशलकिशोर माहेश्वरी असवर्ण माता- पिता से उत्पन्न होने के कारण जाति से बहिष्कृत थे। विवाह न होने के कारण उनका चित्त बड़ा दु:खी रहता था। गायत्री माता से अपना दु:ख रोकर चित्त हलका कर लेते थे। २६ वर्ष की आयु में उनकी शादी एक सुशिक्षित उच्च घराने की अत्यन्त रूपवती तथा सर्वगुण सम्पन्न कन्या के साथ हुई। माहेश्वरी जी के अन्य भाई- बहिनों की शादी भी उच्च तथा सम्पन्न परिवारों में हुई। जाति बहिष्कार के अपमान से उनका परिवार पूर्णतया मुक्त हो गया।

बहालपुर के राधाबल्लभ तिवारी के विवाह से १६ वर्ष बीत जाने पर भी सन्तान न हुई। उन्होंने गायत्री उपासना का आश्रय लिया। फलस्वरूप उन्हें एक कन्या और एक पुत्र की प्राप्ति हुई।

प्राचीनकाल में दशरथजी को गायत्री द्वारा पुत्रेष्टि यज्ञ करने पर और राजा दिलीप को गुरु वशिष्ठ के आश्रम में गायत्री उपासना करते हुए गो- दुग्ध का कल्प करने पर सुसन्तति की प्राप्ति हुई थी। राजा अश्वपति ने गायत्री यज्ञ करके सन्तान पाई थी। कुन्ती ने बिना पुरुष संभोग के गायत्री मन्त्र द्वारा सूर्य को आकर्षित करके कर्ण को उत्पन्न किया था।

दिल्ली में नई सडक़ पर श्री बुद्धूराम भट्ट नामक एक दुकानदार हैं। इनके ४५ वर्ष की आयु तक कोई सन्तान न हुई थी। गायत्री उपासना से उन्हें बड़ा ही सुन्दर तथा होनहार पुत्र प्राप्त हुआ।

गुरुकुल वृन्दावन के एक कार्यकर्ता सुदामा मिश्र के यहाँ १४ वर्ष से कोई बालक जन्मा नहीं था। गायत्री पुरश्चरण करने से उनके यहाँ एक पुत्र उत्पन्न हुआ और वंश चलने तथा घर के किवाड़ खुले रहने की चिन्ता दूर हो गयी।

सरसई के जीवनलाल वर्मा का तीन वर्ष का होनहार बालक स्वर्गवासी हो गया। उनका घर भर बालक के बिछोह से उद्विग्न था। उनने गायत्री की विशेष उपासना की। दूसरे मास उनकी पत्नी ने स्वप्न में देखा कि उनका बच्चा गोदी में चढ़ आया है और जैसे ही छाती से लगाना चाहा कि बच्चा उनके पेट में घुस गया है। इस स्वप्न के नौ महीने बाद जो बालक जन्मा, वह हर बात में उसी मरे हुए बालक की प्रतिमूर्ति था। इस बच्चे को पाकर उनका शोक पूर्णतया शान्त हो गया।

बैजनाथ भाई रामजी भाई भुलारे ने कई बार विद्वानों के द्वारा गायत्री अनुष्ठान कराए। उन्हें हर अनुष्ठान में आश्चर्यजनक लाभ हुआ। छ: कन्याओं के बाद उन्हें पुत्र प्राप्त हुआ। १७ साल पुराना बवासीर अच्छा हो गया और व्यापार में इतना लाभ हुआ, जितना कि इससे पहले कभी नहीं हुआ था।
डोरी बाजार के पं. पूजा मिश्र का कथन है कि हमारे पिता जी पं. देवीप्रसाद जी एक गायत्री उपासक महात्मा के शिष्य थे। पिता जी की आर्थिक स्थिति खराब थी। उनको दु:खी देखकर महात्मा जी ने उन्हें गायत्री उपासना बताई। फलस्वरूप खेती में भारी लाभ होने लगा। छोटी- सी खेती की विशुद्ध आमदनी से उनकी हालत बहुत अच्छी हो गयी और बचत का २० हजार रुपया बैंक में जमा हो गया।

गुजरात के ईडर रियासत के निवासी पं. गौरीशंकर रेवाशंकर याज्ञिक ने १५ वर्ष की आयु से गायत्री उपासना आरम्भ कर दी थी और छोटी आयु में ही गायत्री के २४- २४ लाख के तीन पुरश्चरण किये थे। इसके फल से विद्या, ज्ञान तथा अन्य शुभ संस्कारों की इतनी वृद्धि हुई कि ये जहाँ गये, वहीं इनका आदर- सम्मान हुआ, सफलता प्राप्त हुई। इनके पूर्वज पूना में एक पाठशाला चलाते थे, जिसमें विद्यार्थियों को उच्चकोटि की धार्मिक शिक्षा दी जाती थी। गौरीशंकर जी ने उस पाठशाला को अपने घर पर ही चलाना आरम्भ किया और विद्यार्थियों को गायत्री उपासना का उपदेश देने लगे। इन्होंने यह नियम बना दिया कि जो असहाय विद्यार्थी अपने भोजन की व्यवस्था स्वयं न कर सकें, उनको एक हजार गायत्री जप प्रति दिन करने पर पाठशाला की तरफ से ही भोजन मिला करेगा। इसका परिणाम यह हुआ कि पूना के ब्राह्मणों में इनका घराना गुरु- गृह के नाम से प्रसिद्ध हो गया।

जबलपुर के राधेश्याम शर्मा के घर में आये दिन बीमारियाँ सताती थीं। उनकी आमदनी का एक बड़ा भाग वैद्य, डॉक्टरों के घर में चला जाता था। जब से उनने गायत्री उपासना आरम्भ की, उनके घर से बीमारी पूर्णतया विदा हो गयी।

सीकर के श्री शिव भगवान जी सोमानी तपेदिक से सख्त बीमार पड़े थे। उनके साले, मालेगाँव के शिवरतन जी मारू ने उन्हें गायत्री का मानसिक जप करने की सलाह दी, क्योंकि वे अपने पारिवारिक कलह तथा स्त्री की अस्वस्थता से छुटकारा प्राप्त कर चुके थे। सोमानी जी की बीमारी इतनी घातक हो चुकी थी कि डॉक्टर विलमोरिया जैसे सर्जन को कहना पड़ा कि पसली की तीन हड्डियाँ निकलवा दी जाएँ, तो ठीक होने की सम्भावना है, अन्यथा पन्द्रह दिन में हालत काबू से बाहर हो जायेगी। वैसी भयंकर स्थिति में सोमानी जी ने गायत्री माता का आँचल पकड़ा और पूर्ण स्वस्थ हो गये।

श्रीगोवर्धन पीठ के शंकराचार्य जी ने अपनी पुस्तक ‘मन्त्र- शक्ति योग’ के पृष्ठ १६७ पर लिखा है कि राव मामलतदार पहाड़पुर कोल्हापुर वाले गायत्री मन्त्र से साँप के जहर को उतार देते हैं।

रोहेड़ा निवासी श्री नैनूराम को बीस वर्ष की पुरानी वात व्याधि थी और बड़ी- बड़ी दवाएँ करा लेने पर भी अच्छी न हुई थी। गायत्री उपासना द्वारा उनका रोग पूर्णतया अच्छा हो गया।

इस प्रकार के अगणित उदाहरण उपलब्ध हो सकते हैं जिनमें गायत्री उपासना द्वारा राजसिक वैभव से साधक लाभान्वित हुए हैं।

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