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Books - गायत्री महाविज्ञान

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गायत्री के पाँच मुख

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गायत्री को पञ्चमुखी कहा गया है। पञ्चमुखी शंकर की भाँति गायत्री भी पञ्चमुखी है। पुराणों में ऐसा वर्णन कई जगह आया है जिसमें वेदमाता गायत्री को पाँच मुखों वाली कहा गया है। अधिक मुख, अधिक हाथ- पाँव वाले देवताओं का होना कुछ अटपटा- सा लगता है। इसलिए बहुधा इस सम्बन्ध में सन्देह प्रकट किया जाता है। चार मुख वाले ब्रह्माजी, पाँच मुख वाले शिवजी, छह मुख वाले कार्तिकेयजी बताए गए हैं। चतुर्भुजी विष्णु, अष्टभुजी दुर्गा, दशभुजी गणेश प्रसिद्ध हैं। ऐसे उदाहरण कुछ और भी हैं। रावण के दस सिर और बीस भुजाएँ भी प्रसिद्ध हैं। सहस्रबाहु की हजार भुजा और इन्द्र के हजार नेत्रों का वर्णन है।

यह प्रकट है कि अन्योक्तियाँ  पहेलियाँ बड़ी आकर् एवं मनोर होती हैं, इनके पूछने और उत्तर देने में रहस्योद्घाटन की एक विशेष महत्त्वपूर्ण मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया का विकास होता है। छोटे बच्चों से पहेलियाँ पूछते हैं तो वे उस विलक्षण प्रश्न का उत्तर खोजने में अपने मस्तिष्क को दूर- दूर तक दौड़ाते हैं और उत्तर खोजने में बुद्धि पर काफी जोर देते हैं। स्वयं नहीं सूझ पड़ता तो दूसरों से आग्रहपूर्वक पूछते हैं। जब तक उस विलक्षण पहेली का उत्तर नहीं मिल जाता, तब तक उनके मन में बड़ी उत्सुकता, बेचैनी रहती है। इस प्रकार सीधे- सादे नीरस प्रश्नों की अपेक्षा टेढ़े- मेढ़े उलझन भरे विलक्षण प्रश्न- पहेलियों के द्वारा हल करने से बालकों को बौद्धिक विकास और मनोरंजन दोनों प्राप्त होते हैं।


देवताओं के अधिक अंगों का रहस्य

देव- दानवों के अधिक मुख और अधिक अंग ऐसी ही रहस्यमय पहेलियाँ हैं, जिनमें तत्सम्बन्धी प्रमुख तथ्यों का रहस्य सन्निहित होता है। वह सोचता है ऐसी विचित्रता क्यों हुई? इस प्रश्न- पहेली का समाधान करने के निमित्त जब वह अन्वेषण करता है, तब पता चल जाता है कि इस बहाने कैसे महत्त्वपूर्ण तथ्य उसे प्राप्त होते हैं। अनुभव कहता है कि यदि इस प्रकार उलझी पहेली न होती, तो शायद उनका ध्यान भी इन रहस्यमय बातों की  न जाता और वह उस अमूल्य जानकारी से वंचित रह जाता। पहेलियों के उत्तर बालकों को ऐसी दृढ़तापूर्वक याद हो जाते हैं कि वे भूलते नहीं। आध्यात्मिक कक्षा का विद्यार्थी भी अधिक मुख वाले देवताओं को समझने के लिए जब उत्सुक होता है, तो उसे वे अद्भुत बातें सहज ही विदित हो जाती हैं जो उस दिव्य महाशक्ति से सम्बद्ध हैं।

कभी अवसर मिलेगा तो सभी देवताओं की आकृतियों के बारे में विस्तारपूर्वक पाठकों को बताएँगे। हनुमान जी की पूँछ, गणेश जी की सूँड़, हयग्रीव का अश्वमुख, ब्रह्माजी के चार मुख, दुर्गाजी की आठ भुजाएँ, शिवजी के तीन नेत्र, कार्तिकेय जी के छह मुख तथा इन देवताओं के मूषक, मोर, बैल, सिंह आदि वाहनों में क्या रहस्य हैं? इसका विस्तृत विवेचन फिर कभी करेंगे। आज तो गायत्री के पाँच मुखों के सम्बन्ध में ही प्रकाश डालना है।

गायत्री सुव्यवस्थत जीवन का, धार्मिक जीवन का अविच्छन्न अंग है, तो उसे भली प्रकार समझना, उसके मर्म, रहस्य, तथ्य और उपकरणों को जानना भी आवश्यक है। डॉक्टर, इञ्जीनियर, यन्त्रविद्, बढ़ई, लोहार, रंगरेज, हलवाई, सुनार, दरजी, कुम्हार, जुलाहा, नट, कथावाचक, अध्यापक, गायक, किसान आदि सभी वर्ग के कार्यकर्त्ता अपने काम की बारीकयों को जानते हैं और प्रयोग- विधि तथा हानि- लाभ के कारणों को समझते हैं। गायत्री विद्या के जिज्ञासुओं और प्रयोक्ताओं को भी अपने विषय में भली प्रकार परिचित होना चाहिए, अन्यथा सफलता का क्षेत्र अवरुद्ध हो जाएगा। ऋषियों ने गायत्री के पाँच मुख बताकर हमें यह बताया है कि इस महाशक्ति के अन्तर्गत पाँच तथ्य ऐसे हैं जिनको जानकर और उनका ठीक प्रकार अवगाहन करके संसार- सागर के सभी दुस्तर दुरितों से पार हुआ जा सकता है।

गायत्री के पाँच मुख वास्तव में उसके पाँच भाग हैं—(१) ॐ, (२) भूः भुवः स्वः, (३) तत्सवतुर्वरेण्यम्, (४) भर्गो देवस्य धीमहि, (५) धियो योनः प्रचोदयात्। यज्ञोपवीत के पाँच भाग हैं- तीन लड़ें, चौथी मध्य ग्रन्थियाँ, पाँचवीं ब्रह्मग्रन्थि। पाँच देवता प्रसिद्ध हैं—ॐ अर्थात् गणश, व्याहृति अर्थात् भवानी, गायत्री का प्रथम चरण- ब्रह्मा, द्वितीय चरण- विष्णु, तृतीय चरण- महेश। इस प्रकार ये पाँच देवता गायत्री के प्रमुख शक्तिपुञ्ज कहे जा सकते हैं।

गायत्री के इन पाँच भागों में वे सन्देश छिपे हुए हैं, जो मानव जीवन की बाह्य एवं आन्तरिक समस्याओं को हल कर सकते हैं। हम क्या हैं? किस कारण जीवन धारण किए हुए हैं? हमारा लक्ष्य क्या है? अभावग्रस्त और दुःखी रहने का कारण क्या है? सांसारिक सम्पदाओं की और आत्मिक शान्ति की प्राप्ति किस प्रकार हो सकती है? कौन बन्धन हमें जन्म- मरण के चक्र में बाँधे हुए हैं? किस उपाय से छुटकारा मिल सकता है? अनन्त आनन्द का उद्गम कहाँ है? विश्व क्या है? संसार का और हमारा क्या सम्बन्ध है? जन्म- मृत्यु के त्रासदायक चक्र को कैसे तोड़ा जा सकता है? आदि जटिल प्रश्नों के सरल उत्तर उपरोक्त पंचकों में मौजूद हैं।

गायत्री के पाँच मुख असंख्य सूक्ष्म रहस्य और तत्त्व अपने भीतर छिपाए हुए हैं। उन्हें जानने के बाद मनुष्य को इतनी तृप्ति हो जाती है कि कुछ और जानने लायक बात उसको सू नहीं पड़ती। महर्षि उद्दालक ने उस विद्या की प्रतष्ठा की थी जिसे जानकर और कुछ जानना शेष नहीं रह जाता, वह विद्या गायत्री विद्या ही है। चार वेद और पाँचवाँ यज्ञ, यह पाँच ही गायत्री के पाँच मुख हैं, जिनमें समस्त ज्ञान- विज्ञान और धर्म- कर्म बीज रूप में केन्द्रीभूत हो रहा है।

शरीर पाँच तत्त्वों से बना हुआ है और आत्मा के पाँच कोश हैं। मिट्ट, पानी, हवा, अग्नि और आकाश के सम्मिश्रण से देह बनती है। गायत्री के पाँच मुख बताते हैं कि यह शरीर और कुछ नहीं, केवल पंचभूतों का, जड़ परमाणुओं का सम्मिश्रण मात्र है। यह हमारे लिए अत्यन्त उपयोगी औजार, सेवक एवं वाहन है। अपने आप को शरीर समझ बैठना भारी भूल है। इस भूल को ही माया या अविद्या कहते हैं। शरीर का एवं संसार का वास्तविक रूप समझ लेने पर जीव मोह- निद्रा से जाग उठता है और संचय, स्वामित्व एवं भोगों की बाल- क्रीड़ा से मुँह मोड़कर आत्मकल्याण की ओर लगता है। पाँचों मुखों का एक सन्देश यह है—पंचतत्त्वों से बने पदार्थों को केवल उपयोग की वस्तु समझें, उनमें लिप्त, तन्मय, आसक्त एवं मोहग्रस्त न हों।

गायत्री के पाँच मुखों से पञ्चकोशों का संकेत

पाँच मुखों का दूसरा संकेत आत्मा के कोशों की ओर है। जैसे शरीर से ऊपर बनियान, कुरता, बासकट, कोट और ओवरकोट एक के ऊपर एक पहन लेते हैं, वैसे ही आत्मा के ऊपर यह पाँच आवरण चढ़े हुए हैं। इन पाँचों को (१) अन्मय कोश, (२) प्राणमय कोश, (३) मनोमय कोश, (४) विज्ञानमय कोश, (५) आनन्दमय कोश कहते हैं। इन पाँच परकोटों के किले में जीव बन्दी बना हुआ है। जब इसके फाटक खुल जाते हैं तो आत्मा बन्नमुक्त हो जाती है।

यों तो गायत्री के पाँच मुखों में अनेक पंचकों के अद्भुत रहस्य छिपे हुए हैं, पर उन सबकी चर्चा इस पुस्तक में नहीं हो सकती। यहाँ तो हमें इन पाँचों कोशों पर ही कुछ प्रकाश डालना है। कोश खजाने को भी कहते हैं। आत्मा के पास ये पाँच खजाने हैं, इनमें से हर एक में बहुमूल्य सम्पदाएँ भरी पड़ी हैं। जैसे धन- कुबेरों के यहाँ नोट रखने की, चाँदी रखने की, सोना रखने की, जवाहरात रखने की, हुंडी- चैक आदि रखने की जगह अलग- अलग होती है, वैसे ही आत्मा के पास भी पाँच खजाने हैं। सिद्ध किए हुए पाँच कोशों के द्वारा ऐसी अगणत सम्पदाएँ, सुख- सुवधाएँ मिलती हैं, जिनको पाकर इसी जीवन में स्वर्गीय आनन्द की उपलब्धि होती है। योगी लोग उसी आनन्द के लिए तप करते हैं और देवता लोग उसी आनन्द के लिए नर- तन धारण करने को तरसते रहते हैं। कोशों का सदुपयोग अनन्त आनन्द का उत्पादक है और उनका दुरुपयोग पाँच परकोटों वाले कैदखाने के रूप में बन्धनकारक बन जाता है।

पंचकोशों का उपहार प्रभु ने हमारी अनन्त सुख- सुविधाओं के लिए दिया है। ये पाँच सवारियाँ हैं, जो अनिष्ट रूपी शत्रुओं का विनाश और आत्मसंरक्षण करने के लिए अतीव उपयोगी हैं। ये पाँच शक्तिशाली सेवक हैं, जो हर घड़ी आज्ञापालन के लिए प्रस्तुत रहते हैं। इन पाँच खजानों में अटूट सम्पदा भरी पड़ी है। इस पंचामृत का ऐसा स्वाद है कि जिसकी बूँद चखने के लिए मुक्त हुई आत्माएँ लौट- लौटकर नर- तन में अवतार लेती रहती हैं।

बिगड़ा हुआ अमृत विष हो जाता है। स्वामिभक्त कुत्ता पागल हो जाने पर अपने पालने वालों को ही संकट में डाल देता है। सड़ा हुआ अन्न विष्ठा कहलाता है। जीवन का आधार रक्त जब सड़ने लगता है, तो दुर्गन्धित पीव बनकर वेदनाकर फोड़े के रूप में प्रकट होता है। पंचकोशों का विकृत रूप भी हमारे लिए ऐसा ही दुःखदायी होता है। नाना प्रकार के पाप- तापों, क्लेशों, कलहों, दुःखों, दुर्भाग्यों, चिन्ता- शोकों, अभाव, दारिद्र्य, पीड़ा और वेदनाओं में तड़पते हुए मानव इस विकृति के ही शिकार हो रहे हैं। सुन्दरता और दृष्टि- ज्योति के केन्द्र नेत्रों में जब विकृति आ जाती है, दुःखने लगते हैं, तो सुन्दरता एक ओर रही, उलटी उन पर चिथड़ों की पट््टी बँध जाती है, सुन्दर दृश्य देखकर मनोरंजन करना तो दूर, दर्द के मारे मछली की तरह तड़पना पड़ता है। आनन्द के उद्गम पाँच कोशों की विकृति ही जीवन को दुःखी बनाती है, अन्यथा ईश्वर का राजकुमार जिस दिव्य रथ में बैठकर जिस नन्दन वन में आया है, उसमें आनन्द ही आनन्द मिलना चाहिए। दुःख- दुर्भाग्य का कारण इस विकृति के अतिरिक्त और कोई हो ही नहीं सकता।

पाँच तत्त्व, पाँच कोश, पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, पाँच कर्मेन्द्रियाँ, पाँच प्राण, पाँच उपप्राण, पाँच तन्मात्राएँ, पाँच यज्ञ, पाँच देव, पाँच योग, पाँच अग्नि, पाँच अंग, पाँच वर्ण, पाँच स्थिति, पाँच अवस्था, पाँच शूल, पाँच क्लेश आदि अनेक पंचक गायत्री के पाँच मुखों से सम्बन्धित हैं। इनको सिद्ध करने वाले पुरुषार्थी व्यक्ति ऋषि, राजर्षि, ब्रह्मर्षि, महर्षि, देवर्षि कहलाते हैं। आत्मोन्नति की पाँच कक्षाएँ हैं, पाँच भूमिकाएँ हैं। उनमें से जो जिस कक्षा की भूमिका को उत्तीर्ण कर लेता है, वह उसी श्रेणी का ऋषि बन जाता है। किसी समय भारत भूमि ऋषियों की भूमि थी। यहाँ ऋषि से कम तो कोई था ही नहीं, पर आज तो लोगों ने उस पंचायत का तिरस्कार कर रखा है और बुरी तरह प्रपञ्च में फँसकर पञ्चक्लेशों से पीड़ित हो रहे हैं।


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