• News
  • Blogs
  • Gurukulam
English हिंदी
×

My Notes


  • TOC
    • गायत्री महाविज्ञान भाग १
    • गायत्री महाविज्ञान भाग ३
    • गायत्री महाविज्ञान भाग २
    • गायत्री द्वारा कुण्डलिनी जागरण
    • वेदमाता गायत्री की उत्पत्ति
    • ब्रह्म की स्फुरणा से गायत्री का प्रादुर्भाव
    • गायत्री सूक्ष्म शक्तियों का स्रोत है
    • गायत्री साधना से शक्तिकोशों का उद्भव
    • शरीर में गायत्री मंत्र के अक्षर
    • गायत्री और ब्रह्म की एकता
    • महापुरुषों द्वारा गायत्री महिमा का गान
    • त्रिविध दु:खों का निवारण
    • गायत्री उपेक्षा की भर्त्सना
    • गायत्री साधना से श्री समृद्धि और सफलता
    • गायत्री साधना से आपत्तियों का निवारण
    • जीवन का कायाकल्प
    • नारियों को वेद एवं गायत्री का अधिकार
    • देवियों की गायत्री साधना
    • गायत्री का शाप विमोचन और उत्कीलन का रहस्य
    • गायत्री की मूर्तिमान प्रतिमा यज्ञोपवीत (जनेऊ)
    • साधकों के लिये उपवीत आवश्यक है
    • गायत्री साधना का उद्देश्य
    • निष्काम साधना का तत्त्व ज्ञान
    • गायत्री से यज्ञ का सम्बन्ध
    • साधना- एकाग्रता और स्थिर चित्त से होनी चाहिए
    • पापनाशक और शक्तिवर्धक तपश्चर्याएँ
    • आत्मशक्ति का अकूत भण्डार :: अनुष्ठान
    • सदैव शुभ गायत्री यज्ञ
    • महिलाओं के लिये विशेष साधनाएँ
    • एक वर्ष की उद्यापन साधना
    • गायत्री साधना से अनेकों प्रयोजनों की सिद्धि
    • गायत्री का अर्थ चिन्तन
    • साधकों के स्वप्न निरर्थक नहीं होते
    • साधना की सफलता के लक्षण
    • सिद्धियों का दुरुपयोग न होना चाहिये
    • यह दिव्य प्रसाद औरों को भी बाँटिये
    • गायत्री महाविज्ञान भाग ३ भूमिका
    • गायत्री के पाँच मुख
    • अनन्त आनन्द की साधना
    • गायत्री मञ्जरी
    • उपवास - अन्नमय कोश की साधना
    • आसन - अन्नमय कोश की साधना
    • तत्त्व शुद्धि - अन्नमय कोश की साधना
    • तपश्चर्या - अन्नमय कोश की साधना
    • अन्नमय कोश और उसकी साधना
    • मनोमय कोश की साधना
    • ध्यान - मनोमय कोश की साधना
    • त्राटक - मनोमय कोश की साधना
    • जप - मनोमय कोश की साधना
    • तन्मात्रा साधना - मनोमय कोश की साधना
    • विज्ञानमय कोश की साधना
    • सोऽहं साधना - विज्ञानमय कोश की साधना
    • आत्मानुभूति योग - विज्ञानमय कोश की साधना
    • आत्मचिन्तन की साधना - विज्ञानमय कोश की साधना
    • स्वर योग - विज्ञानमय कोश की साधना
    • वायु साधना - विज्ञानमय कोश की साधना
    • ग्रन्थि-भेद - विज्ञानमय कोश की साधना
    • आनन्दमय कोश की साधना
    • नाद साधना - आनन्दमय कोश की साधना
    • बिन्दु साधना - आनन्दमय कोश की साधना
    • कला साधना - आनन्दमय कोश की साधना
    • तुरीयावस्था - आनन्दमय कोश की साधना
    • पंचकोशी साधना का ज्ञातव्य
    • गायत्री-साधना निष्फल नहीं जाती
    • पञ्चमुखी साधना का उद्देश्य
    • गायत्री का तन्त्रोक्त वाम-मार्ग
    • गायत्री की गुरु दीक्षा
    • आत्मकल्याण की तीन कक्षाएँ
    • मन्त्र दीक्षा - आत्मकल्याण की तीन कक्षाएँ
    • अग्नि दीक्षा - आत्मकल्याण की तीन कक्षाएँ
    • ब्रह्म दीक्षा - आत्मकल्याण की तीन कक्षाएँ
    • कल्याण मन्दिर का प्रवेश द्वार - आत्मकल्याण की तीन कक्षाएँ
    • ब्रह्मदीक्षा की दक्षिणा आत्मदान - आत्मकल्याण की तीन कक्षाएँ
    • वर्तमानकालीन कठिनाइयाँ - आत्मकल्याण की तीन कक्षाएँ
  • My Note
  • Books
    • SPIRITUALITY
    • Meditation
    • EMOTIONS
    • AMRITVANI
    • PERSONAL TRANSFORMATION
    • SOCIAL IMPROVEMENT
    • SELF HELP
    • INDIAN CULTURE
    • SCIENCE AND SPIRITUALITY
    • GAYATRI
    • LIFE MANAGEMENT
    • PERSONALITY REFINEMENT
    • UPASANA SADHANA
    • CONSTRUCTING ERA
    • STRESS MANAGEMENT
    • HEALTH AND FITNESS
    • FAMILY RELATIONSHIPS
    • TEEN AND STUDENTS
    • ART OF LIVING
    • INDIAN CULTURE PHILOSOPHY
    • THOUGHT REVOLUTION
    • TRANSFORMING ERA
    • PEACE AND HAPPINESS
    • INNER POTENTIALS
    • STUDENT LIFE
    • SCIENTIFIC SPIRITUALITY
    • HUMAN DIGNITY
    • WILL POWER MIND POWER
    • SCIENCE AND RELIGION
    • WOMEN EMPOWERMENT
  • Akhandjyoti
  • Login
  • TOC
    • गायत्री महाविज्ञान भाग १
    • गायत्री महाविज्ञान भाग ३
    • गायत्री महाविज्ञान भाग २
    • गायत्री द्वारा कुण्डलिनी जागरण
    • वेदमाता गायत्री की उत्पत्ति
    • ब्रह्म की स्फुरणा से गायत्री का प्रादुर्भाव
    • गायत्री सूक्ष्म शक्तियों का स्रोत है
    • गायत्री साधना से शक्तिकोशों का उद्भव
    • शरीर में गायत्री मंत्र के अक्षर
    • गायत्री और ब्रह्म की एकता
    • महापुरुषों द्वारा गायत्री महिमा का गान
    • त्रिविध दु:खों का निवारण
    • गायत्री उपेक्षा की भर्त्सना
    • गायत्री साधना से श्री समृद्धि और सफलता
    • गायत्री साधना से आपत्तियों का निवारण
    • जीवन का कायाकल्प
    • नारियों को वेद एवं गायत्री का अधिकार
    • देवियों की गायत्री साधना
    • गायत्री का शाप विमोचन और उत्कीलन का रहस्य
    • गायत्री की मूर्तिमान प्रतिमा यज्ञोपवीत (जनेऊ)
    • साधकों के लिये उपवीत आवश्यक है
    • गायत्री साधना का उद्देश्य
    • निष्काम साधना का तत्त्व ज्ञान
    • गायत्री से यज्ञ का सम्बन्ध
    • साधना- एकाग्रता और स्थिर चित्त से होनी चाहिए
    • पापनाशक और शक्तिवर्धक तपश्चर्याएँ
    • आत्मशक्ति का अकूत भण्डार :: अनुष्ठान
    • सदैव शुभ गायत्री यज्ञ
    • महिलाओं के लिये विशेष साधनाएँ
    • एक वर्ष की उद्यापन साधना
    • गायत्री साधना से अनेकों प्रयोजनों की सिद्धि
    • गायत्री का अर्थ चिन्तन
    • साधकों के स्वप्न निरर्थक नहीं होते
    • साधना की सफलता के लक्षण
    • सिद्धियों का दुरुपयोग न होना चाहिये
    • यह दिव्य प्रसाद औरों को भी बाँटिये
    • गायत्री महाविज्ञान भाग ३ भूमिका
    • गायत्री के पाँच मुख
    • अनन्त आनन्द की साधना
    • गायत्री मञ्जरी
    • उपवास - अन्नमय कोश की साधना
    • आसन - अन्नमय कोश की साधना
    • तत्त्व शुद्धि - अन्नमय कोश की साधना
    • तपश्चर्या - अन्नमय कोश की साधना
    • अन्नमय कोश और उसकी साधना
    • मनोमय कोश की साधना
    • ध्यान - मनोमय कोश की साधना
    • त्राटक - मनोमय कोश की साधना
    • जप - मनोमय कोश की साधना
    • तन्मात्रा साधना - मनोमय कोश की साधना
    • विज्ञानमय कोश की साधना
    • सोऽहं साधना - विज्ञानमय कोश की साधना
    • आत्मानुभूति योग - विज्ञानमय कोश की साधना
    • आत्मचिन्तन की साधना - विज्ञानमय कोश की साधना
    • स्वर योग - विज्ञानमय कोश की साधना
    • वायु साधना - विज्ञानमय कोश की साधना
    • ग्रन्थि-भेद - विज्ञानमय कोश की साधना
    • आनन्दमय कोश की साधना
    • नाद साधना - आनन्दमय कोश की साधना
    • बिन्दु साधना - आनन्दमय कोश की साधना
    • कला साधना - आनन्दमय कोश की साधना
    • तुरीयावस्था - आनन्दमय कोश की साधना
    • पंचकोशी साधना का ज्ञातव्य
    • गायत्री-साधना निष्फल नहीं जाती
    • पञ्चमुखी साधना का उद्देश्य
    • गायत्री का तन्त्रोक्त वाम-मार्ग
    • गायत्री की गुरु दीक्षा
    • आत्मकल्याण की तीन कक्षाएँ
    • मन्त्र दीक्षा - आत्मकल्याण की तीन कक्षाएँ
    • अग्नि दीक्षा - आत्मकल्याण की तीन कक्षाएँ
    • ब्रह्म दीक्षा - आत्मकल्याण की तीन कक्षाएँ
    • कल्याण मन्दिर का प्रवेश द्वार - आत्मकल्याण की तीन कक्षाएँ
    • ब्रह्मदीक्षा की दक्षिणा आत्मदान - आत्मकल्याण की तीन कक्षाएँ
    • वर्तमानकालीन कठिनाइयाँ - आत्मकल्याण की तीन कक्षाएँ
  • My Note
  • Books
    • SPIRITUALITY
    • Meditation
    • EMOTIONS
    • AMRITVANI
    • PERSONAL TRANSFORMATION
    • SOCIAL IMPROVEMENT
    • SELF HELP
    • INDIAN CULTURE
    • SCIENCE AND SPIRITUALITY
    • GAYATRI
    • LIFE MANAGEMENT
    • PERSONALITY REFINEMENT
    • UPASANA SADHANA
    • CONSTRUCTING ERA
    • STRESS MANAGEMENT
    • HEALTH AND FITNESS
    • FAMILY RELATIONSHIPS
    • TEEN AND STUDENTS
    • ART OF LIVING
    • INDIAN CULTURE PHILOSOPHY
    • THOUGHT REVOLUTION
    • TRANSFORMING ERA
    • PEACE AND HAPPINESS
    • INNER POTENTIALS
    • STUDENT LIFE
    • SCIENTIFIC SPIRITUALITY
    • HUMAN DIGNITY
    • WILL POWER MIND POWER
    • SCIENCE AND RELIGION
    • WOMEN EMPOWERMENT
  • Akhandjyoti
  • Login




Books - गायत्री महाविज्ञान

Media: TEXT
Language: HINDI
TEXT TEXT SCAN TEXT


तन्मात्रा साधना - मनोमय कोश की साधना

Listen online

View page note

Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
×

Add Note


First 47 49 Last
यह बात प्रकट है कि हमारा शरीर एवं समस्त सञ्चार तन्त्र पञ्चतत्त्वों का बना हुआ है। पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि और आकाश इन पाँच तत्त्वों की मात्रा में अन्तर होने के कारण विविध आकार- प्रकार और गुण- धर्म की वस्तुएँ बन जाती हैं। इन पाँच तत्त्वों की जो सूक्ष्म शक्तियाँ हैं, इनकी इन्द्रियजन्य अनुभूति को ‘तन्मात्रा’ कहते हैं। शरीर में पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ हैं। ये पाँच तत्त्वों से बने हुए पदार्थों के संसर्ग में आने पर जैसा अनुभव करती हैं, उस अनुभव को ‘तन्मात्रा’ नाम से पुकारते हैं। शब्द, रूप, रस, गन्ध, स्पर्श ये पाँच तन्मात्राएँ हैं।

आकाश की तन्मात्रा ‘शब्द’ है। वह कान द्वारा हमें अनुभव होता है। कान ही आकाश तत्त्व की प्रधानता वाली इन्द्रिय है। अग्नि तत्त्व की तन्मात्रा ‘रूप’ है। यह अग्निप्रधान इन्द्रिय नेत्र द्वारा अनुभव किया जाता है। रूप को आँखें ही देखती हैं। जल तत्त्व की तन्मात्रा ‘रस’ है। रस का जलप्रधान इन्द्रिय जिह्वा द्वारा अनुभव होता है। षटरसों  का, खट्टे, मीठे, खारी, तीखे, कडुवे, कषैले का स्वाद जीभ पहचानती है। पृथ्वी तत्त्व की तन्मात्रा ‘गन्ध’ को पृथ्वी गुण प्रधान नासिका इन्द्रिय मालूम करती है। इसी प्रकार वायु तत्त्व की तन्मात्रा ‘स्पर्श’ का ज्ञान त्वचा को होता है। त्वचा में फैले हुए ज्ञान तन्तु दूसरी वस्तुओं का ताप, भार, घनत्व एवं उसके स्पर्श की प्रतिक्रिया का अनुभव कराते हैं।

इन्द्रियों में तन्मात्राओं का अनुभव कराने की शक्ति न हो, तो संसार का और शरीर का सम्बन्ध ही टूट जाए। जीव को संसार में जीवन यापन की सुविधा भले ही हो, पर किसी प्रकार का आनन्द शेष न रहेगा। संसार के विविध पदार्थों में जो हमें मनमोहक आकर्षण प्रतीत होते हैं, उनका एकमात्र कारण ‘तन्मात्रा’ शक्ति है। कल्पना कीजिए कि हम संसार के किसी पदार्थ के रूप को न देख सकें, तो सर्वत्र मौन एवं नीरवता ही रहेगी। स्वाद न चख सकें तो खाने में कोई अन्तर न रहेगा। गन्ध का अनुभव न हो तो हानिकारक सड़ाँध और उपयोगी उपवन में क्या फर्क किया जा सकेगा? त्वचा की शक्ति न हो तो सर्दी, गर्मी, स्नान, वायु सेवन, कोमल शय्या के सेवन आदि से कोई प्रयोजन न रह जाएगा।

परमात्मा ने पञ्चतत्त्वों में तन्मात्राएँ उत्पन्न कर और उनके अनुभव के लिए शरीर में ज्ञानेन्द्रियाँ बनाकर, शरीर और संसार को आपस में घनिष्ठ आकर्षण के साथ सम्बद्ध कर दिया है। यदि पञ्चतत्त्व केवल स्थूल ही होते, उनमें तन्मात्राएँ न होतीं, तो इन्द्रियों को संसार के किसी पदार्थ में कुछ आनन्द न आता, सब कुछ नीरस, निरर्थक और बेकार- सा दीख पड़ता। यदि तत्त्वों में तन्मात्राएँ होतीं, पर शरीर में ज्ञानेन्द्रियाँ न होतीं, तो जैसे वायु में फिरते रहने वाले कीटाणु केवल जीवन धारण ही करते हैं, उन्हें संसार में किसी प्रकार की रसानुभूति नहीं होती, इसी प्रकार मानव जीवन भी नीरस हो जाता। इन्द्रियों की सम्वेदना- शक्ति और तत्त्वों की तन्मात्राएँ मिलकर प्राणी को ऐसे अनेक शारीरिक और मानसिक रस अनुभव कराती हैं, जिनके लोभ से वह जीवन धारण किए रहता है, इस संसार को छोड़ना नहीं चाहता। उसकी यह चाहना ही जन्म- मरण के चक्र में, भव- बन्धन में बँधे रहने के लिए बाध्य करती है।

आत्मा की ओर न मुड़कर, आत्मकल्याण में प्रवृत्त न होकर सांसारिक वस्तुओं को संग्रह करने की, उनका स्वामी बनने की, उनके संपर्क की रसानुभूति को चखते रहने की लालसा में मनुष्य डूबा रहता है। रंग- बिरंगे खिलौने से खेलने में जैसे बच्चे बेतरह तन्मय हो जाते हैं और खाना- पीना सभी भूलकर खेल में लगे रहते हैं, उसी प्रकार तन्मात्राओं के खिलौने मन में ऐसे बस जाते हैं, इतने सुहावने लगते हैं कि उनसे खेलना छोड़ने की इच्छा नहीं होती। कई दृष्टियों से कष्टकर जीवन व्यतीत करते हुए भी लोग मरने को तैयार नहीं होते, मृत्यु का नाम सुनते ही काँपते हैं। इसका एकमात्र कारण यही है कि सांसारिक पदार्थों की तन्मात्राओं में जो मोहक आकर्षण है, वह कष्ट और अभाव की तुलना में मोहक और सरस है। कष्ट सहते हुए भी प्राणी उन्हें छोड़ने को तैयार नहीं होता।

पाँच इन्द्रियों के खूँटे से, पाँच तन्मात्राओं के रस्सों से जीव बँधा हुआ है। यह रस्से बड़े ही आकर्षक हैं। इन रस्सों में चमकीला, रंगीन, रेशम और सुनहरी कलावत्तू लगा हुआ है। खूँटे चाँदी- सोने के बने हुए हैं, उनमें हीरे जवाहरात जगमगा रहे हैं। जीव रूपी घोड़ा इन रस्सों से बँधा है। वह बन्धन के दुःख को भूल जाता है और रस्सों तथा खूँटों की सुन्दरता को देखकर छुटकारे की इच्छा तक करना छोड़ देता है। उसे वह बन्धन भी अच्छा लगता है। दिनभर गाड़ी में जुतने और चाबुक खाने के कष्टों को भी इन चमकीले रस्सों और खूँटों की तुलना में कुछ नहीं समझता। इसी बाल बुद्धि को, अदूरदर्शिता को, वास्तविकता न समझने को शास्त्रों में अविद्या, माया, भ्रान्ति आदि नामों से पुकारा गया है और इस भूल से बचने के लिए अनेक प्रकार की धार्मिक कथा- गाथाओं, उपासनाओं एवं साधनाओं का विधान किया गया है।

इन्द्रियों तथा तन्मात्राओं के मिश्रण से खुजली उत्पन्न होती है, उसे ही खुजाने के लिए मनुष्य के विविध विचार और कार्य होते हैं। वह दिन- रात इसी खाज को खुजाने के लिए गोरखधन्धे में लगा रहता है। मन को वश में करने एवं एकाग्र करने में बड़ी बाधा यह खुजली है, जो दूसरी ओर चित्त को जाने ही नहीं देती। खुजाने में जो मजा आता है, उसकी तुलना में और सब बातें हलकी मालूम होती हैं। इसलिए एकाग्रता की साधना पर से मन अक्सर उचट जाता है।

तन्मात्राओं की रसानुभूति घोड़े की रस्सी अथवा खुजली के समान है। यह बहुत ही हल्की, छोटी और महत्त्वहीन वस्तु है। यह भावना अन्तःभूति में जमाने के लिए, मनोमय कोश की सुव्यवस्था के लिए तन्मात्राओं की साधना के अभ्यास बताए गए हैं। इन साधनाओं से अन्तःकरण यह अनुभव कर लेता है कि तन्मात्राएँ अनात्म वस्तु हैं। यह जड़ पञ्चतत्त्वों की सूक्ष्म प्रक्रिया मात्र है। यह मनोमय कोश में खुजली की तरह चिपट जाती है और एक निरर्थक- से झमेले, गोरखधन्धे में हमें फँसाकर लक्ष्यप्राप्ति से वञ्चित कर देती है। इसलिए इनकी अवास्तविकता, व्यर्थता एवं तुच्छता को भली प्रकार समझ लेना चाहिए। आगे चलकर पाँचों तन्मात्राओं की छोटी- छोटी सरल साधनाएँ बताई जायेंगी, जिनकी साधना करने से बुद्धि यह अनुभव कर लेती है कि शब्द, रूप, रस, गन्ध, स्पर्श का जीवन को चलाने में केवल उतना ही उपयोग है, जितना मशीन के पुर्जों में तेल का। इनमें आसक्त होने की आवश्यकता नहीं है।

दूसरी बात यह भी है कि मन स्वयं एक इन्द्रिय है। उसका लगाव सदा तन्मात्राओं की ओर रहता है। मन का विषय ही रसानुभूति है। साधनात्मक रसानुभूति में उसे लगा दिया जाए तो यह अपने विषय में भी लगता है और जो सूक्ष्म परिश्रम करना पड़ता है, उसके कारण अति सूक्ष्म मनःशक्तियों का जागरण होने से अनेक प्रकार के मानसिक लाभ भी होते हैं। पञ्च तन्मात्राओं की साधनाएँ इस प्रकार हैं—

शब्द साधना

एकान्त स्थान में जाइए, जहाँ किसी प्रकार शब्द या कोलाहल न होते हों। बाहर के शब्द भी न सुनाई पड़ते हों। रात्रि को जब चारों ओर शान्ति हो जाती हो, तब इस साधना के लिए बड़ा अच्छा अवसर मिलता है। दिन में करना हो तो कमरे में किवाड़ बन्द कर लेना चाहिए, ताकि बाहर से शब्द भीतर न आएँ।

(१) शान्त चित्त से पद्मासन लगाकर बैठिए। नेत्र बन्द कर लीजिए। एक छोटी घड़ी कान के पास ले जाइए और उसकी टिक- टिक को ध्यानपूर्वक सुनिए। अब धीरे- धीरे घड़ी को कान से दूर हटाते जाइए और ध्यान देकर उसकी टिक- टिक को सुनने का प्रयत्न कीजिए। घड़ी और कान की दूरी को बढ़ाते जाइए। धीरे- धीरे अभ्यास से घड़ी बहुत दूर रखी होने पर भी टिक- टिक कान में आती रहेगी। बीच में जब ध्वनि प्रभाव शिथिल हो जाए, तो घड़ी को कान के पास लगाकर कुछ देर तक उस ध्वनि को अच्छी तरह सुन लेना चाहिए और फिर दूर हटाकर सूक्ष्म कर्णेर्न्द्रिय से उस शब्द- प्रवाह को सुनने का प्रयत्न करना चाहिए।

(२) घड़ियाल में एक चोट मारकर उसकी आवाज को बहुत देर तक सुनते रहना और फिर बहुत देर तक उसे सूक्ष्म कर्णेन्द्रिय से सुनने का प्रयत्न करना। जब पूर्व ध्यान शिथिल हो जाए, तो फिर घड़ियाल में हथौड़ी मारकर, फिर उस ध्यान को ताजा कर लेना और फिर सूक्ष्म कर्णेन्द्रिय से सुनने का प्रयत्न करना; इस तरह बार- बार करके सूक्ष्म होती जाती ध्वनि को सुनने का प्रयत्न किया जाता है। योग ग्रन्थों में ‘मुष्टियोग’ नाम से इसी साधना का वर्णन है।

(३) किसी झरने के निकट या नहर की झील के निकट जाइए, जहाँ प्रपात का शब्द हो रहा हो। शान्त चित्त से इस शब्द- प्रवाह को कुछ देर सुनते रहिए। फिर कानों को उँगली डालकर बन्द कर लीजिए और सूक्ष्म कर्णेन्द्रिय द्वारा उस ध्वनि को सुनिए। बीच में जब शब्द शिथिल हो जाए तो उँगली ढीली करके उसे सुनिए और कान बन्द करके फिर उसी प्रकार ध्यान द्वारा ध्वनि ग्रहण कीजिए।

इन शब्द साधनाओं में लगे रहने से मन एकाग्र होता है, साथ ही सूक्ष्म कर्णेन्द्रिय जाग्रत् होती है, जिनके कारण दूर बैठकर बात करने वाले लोगों के शब्द सूक्ष्म कर्णेन्द्रिय में आ जाते हैं। सुदूर हो रही गुप्त वार्ताओं का आभास हो जाता है। देश- विदेश में हो रहे नृत्य, गीत, वाद्य आदि की ध्वनि तरंगें कानों में आकर चित्त को उल्लास- आनन्द से भर देती हैं। आगे चलकर यही साधना ‘कर्ण पिशाचिनी’ सिद्धि के रूप में प्रकट होती है। कहाँ क्या हो रहा है, किसके मन में क्या विचार उठ रहा है, किसकी वैखरी, मध्यमा, पश्यन्ति और परा वाणियाँ क्या- क्या कर रही हैं, भविष्य में क्या होने वाला है आदि बातों को कोई शक्ति सूक्ष्म कर्णेन्द्रिय में आकर इस प्रकार कह जाती है, मानो कोई अदृश्य प्राणी कान पर मुँह रखकर सारी बात कह रहा है। इस सफलता को ‘कर्ण पिशाचिनी सिद्धि’ कहते हैं।

रूप साधना

(१) वेदमाता गायत्री का या सरस्वती, दुर्गा, लक्ष्मी, राम, कृष्ण आदि इष्टदेव का जो सबसे सुन्दर चित्र या प्रतिमा मिले, उसे लीजिए। एकान्त स्थान में ऐसी जगह बैठिए, जहाँ पर्याप्त प्रकाश हो। इस चित्र या प्रतिमा के अंग- प्रत्यंगों को मनोयोगपूर्वक देखिए। इसके सौन्दर्य एवं विशेषताओं को खूब बारीकी के साथ देखिए। एक मिनट इस प्रकार देखने के बाद नेत्रों को बन्द कर लीजिए। अब उस चित्र के रूप का ध्यान कीजिए और जो बारीकियाँ, विशेषताएँ अथवा सुन्दरताएँ चित्र में देखीं थीं, उन सबको कल्पनाशक्ति द्वारा ध्यान के चित्र में आरोपित कीजिए। फिर नेत्र खोल लीजिए और उस छवि को देखिए। ध्यान के साथ- साथ ॐ मन्त्र जपते रहिए। इस प्रकार बार- बार करने से वह रूप मन में बस जाएगा। उसका दिव्य नेत्रों से दर्शन करते हुए बड़ा आनन्द आयेगा। धीरे- धीरे इस चित्र की मुखाकृति बदलती मालूम देगी; हँसती, मुस्कराती, नाराज होती, उपेक्षा करती हुई भावभंगी दिखाई देगी। यह प्रतिमा स्वप्न में अथवा जागृति अवस्था में, नेत्रों के सामने आयेगी और कभी ऐसा अवसर आ सकता है, जिसे प्रत्यक्ष साक्षात्कार कहा जा सके। आरम्भ में यह साक्षात्कार धुँधला होता है। फिर धीरे- धीरे ध्यान सिद्ध होने से वह छवि अधिक स्पष्ट होने लगती है। पहले दिव्य दर्शन ध्यान क्षेत्र में ही रहता है, फिर प्रत्यक्ष परिलक्षित होने लगता है।

(२) किसी मनुष्य के रूप का ध्यान, जिन भावनाओं के साथ, प्रबल मनोयोगपूर्वक किया जाएगा, उन भावनाओं के अनुरूप उस व्यक्ति पर प्रभाव पड़ेगा। किसी के विचारों को बदलने, द्वेष मिटाने, मधुर सम्बन्ध उत्पन्न करने, बुरी आदतें छुड़ाने, आशीर्वाद या शाप से लाभ- हानि पहुँचाने आदि के प्रयोग इस साधना के आधार पर होते हैं। तान्त्रिक लोग विशेष कर्मकाण्डों एवं मन्त्रों द्वारा किसी मनुष्य का रूप आकर्षण करके उसे रोगी, पागल एवं वशवर्ती करते देखे गए हैं।

(३) छायापुरुष की सिद्धि भी रूप- साधना का एक अंग है। शुद्ध शरीर और शुद्ध वस्त्रों से बिना भोजन किए मनुष्य की लम्बाई के दर्पण के सामने खड़े होकर अपनी आकृति ध्यानपूर्वक देखिए। थोड़ी देर बाद नेत्र बन्द कर लीजिए और उस दर्पण की आकृति का ध्यान कीजिए। अपनी छवि आपको दृष्टिगोचर होने लगेगी। कई व्यक्ति दर्पण की अपेक्षा स्वच्छ पानी में, तिली के तेल या पिघले हुए घृत में अपनी छवि देखकर उसका ध्यान करते हैं। दर्पण की साधना- शान्तिदायक, तेल की संहारक और घृत की उत्पादक होती है। सूर्य और चन्द्रमा जब मध्य आकाश में ऐसे स्थान पर हों कि उनके प्रकाश में खड़े होने पर अपनी छाया साढ़े तीन हाथ रहे, उस समय अपनी छाया पर भी उस प्रकार साधन कल्याणकारक माना गया है।

दर्पण, जल, तेल, घृत आदि में मुखाकृति स्पष्ट दीखती है और नेत्र बन्द करके वैसा ही ध्यान हो जाता है। सूर्य चन्द्र की ओर पीठ करके खड़े होने से अपनी छाया सामने आती है। उसे खुले नेत्रों से भली प्रकार देखने के उपरान्त आँखें बन्द करके उस छाया का ध्यान करते हैं। कुछ दिनों के नियमित अभ्यास से उस छाया में अपनी आकृति भी दिखाई देने लगती है।

कुछ काल निरन्तर इस छाया- साधना को करते रहा जाए, तो अपनी आकृति की एक अलग सत्ता बन जाती है और उसमें अपने संकल्प एवं प्राण का सम्मिश्रण होते जाने से वह एक स्वतन्त्र चेतना का प्राणी बन जाता है। उसके अस्तित्व को ‘अपना जीवित भूत’ कह सकते हैं। आरम्भिक अवस्था में यह आकाश में उड़ता या अपने आस- पास फिरता दिखाई देता है। फिर उस पर जब अपना नियन्त्रण हो जाता है, तो आज्ञानुसार प्रकट होता तथा आचरण करता है। जिनका प्राण निर्बल है, उनका यह मानस पुत्र (छायापुरुष) भी निर्बल होगा और अपना रूप दिखाने के अतिरिक्त और कुछ विशेष कार्य न कर सकेगा। पर जिनका प्राण प्रबल होता है, उनका छायापुरुष दूसरे अदृश्य शरीर की भाँति कार्य करता है। एक स्थूल और दूसरी सूक्ष्म देह, दो प्रकट देहें पाकर साधक बहुत से महत्त्वपूर्ण लाभ प्राप्त कर लेता है। साथ ही रूप- साधना द्वारा मन का वश में होना तथा एकाग्र होना तो प्रत्यक्ष लाभ है ही।

रस साधना

जो फल आपको सबसे स्वादिष्ट लगता हो, उसे इस साधना के लिए लीजिए। जैसे आपको कलमी आम अधिक रुचिकर है, तो उसके छोटे- छोटे पाँच टुकड़े कीजिए। एक टुकड़ा जिह्वा के अग्र भाग पर एक मिनट तक रखा रहने दें और उसके स्वाद का स्मरण इस प्रकार करें कि बिना आम के भी आम का स्वाद जिह्वा को होता रहे। दो मिनट में वह अनुभव शिथिल होने लगेगा, फिर दूसरा टुकड़ा जीभ पर रखिए और पूर्ववत् उसे फेंककर आम के स्वाद का अनुभव कीजिए। इस प्रकार पाँच बार करने में पन्द्रह मिनट लगते हैं।

धीरे- धीरे जिह्वा पर कोई वस्तु रखने का समय कम करना चाहिए और बिना किसी वस्तु के रस के अनुभव करने का समय बढ़ाना चाहिए। कुछ समय पश्चात् बिना किसी वस्तु को जीभ पर रखे, केवल भावना मात्र से इच्छित वस्तु का पर्याप्त समय तक रसास्वादन किया जा सकता है। एक बात का ध्यान रहे कि एक ही फल का कम से कम एक सप्ताह तक प्रयोग होना चाहिए।

शरीर के लिए जिन रसों की आवश्यकता है, वे पर्याप्त मात्रा में आकाश में भ्रमण करते रहते हैं। संसार में जितने पदार्थ हैं, उनका कुछ अंश वायु रूप में, कुछ तरल रूप में और कुछ ठोस आकृति में रहता है। अन्न को हम ठोस आकृति में ही देखते हैं। भूमि में, जल में वह परमाणु रूप से रहता है और आकाश में अन्न का वायु अंश उड़ता रहता है। साधना की सिद्धि हो जाने पर आकाश में उड़ते फिरने वाले अन्नों को मनोबल द्वारा, संकल्प शक्ति के आकर्षण द्वारा खींचकर उदरस्थ किया जा सकता है। प्राचीनकाल में ऋषि लोग दीर्घकाल तक बिना अन्न- जल के तपस्याएँ करते थे। वे इस सिद्धि द्वारा आकाश में से ही अभीष्ट आहार प्राप्त कर लेते थे, इसलिए बिना अन्न- जल के भी उनका काम चलता था। इस साधना का साधक बहुमूल्य पौष्टिक पदार्थों, औषधियों एवं स्वादिष्ट रसों का उपभोग अपने साधन बल द्वारा ही कर सकता हैै तथा दूसरों के लिए वह वस्तुएँ आकाश में उत्पन्न करके इस तरह दे सकता है, मानो किसी के द्वारा कहीं से मँगाकर दी हों।

गन्ध साधना

नासिका के अग्र भाग पर त्राटक करना इस साधना में आवश्यक है। दोनों नेत्रों से एक साथ नासिका के अग्र भाग पर त्राटक नहीं हो सकता, इसलिए एक मिनट दाहिनी ओर तथा एक मिनट बाईं ओर करना उचित है। दाहिने नेत्र को प्रधानता देकर उससे नाक के दाहिने हिस्से को और फिर बाएँ नेत्र को प्रधानता देकर बाएँ हिस्से को गम्भीर दृष्टि से देखना चाहिए। आरम्भ एक- एक मिनट से करके अन्त में पाँच- पाँच मिनट तक बढ़ाया जा सकता है। इस त्राटक में नासिका की सूक्ष्म शक्तियाँ जाग्रत् होती हैं।

इस त्राटक के बाद कोई सुगन्धित तथा सुन्दर पुष्प लीजिए। उसे नासिका के समीप ले जाकर एक मिनट तक धीरे- धीरे सूँघिए और उसी गन्ध का भली प्रकार स्मरण कीजिए। इसके बाद फूल को फेंक दीजिए और बिना फूल के ही उस गन्ध का दो मिनट तक स्मरण कीजिए। इसके बाद दूसरा फूल लेकर फिर इसी क्रम की पुनरावृत्ति कीजिए। पाँच फूलों पर पन्द्रह मिनट प्रयोग करना चाहिए। स्मरण रहे, कम से कम एक सप्ताह तक एक ही फूल का प्रयोग होना चाहिए।

कोई भी सुन्दर पुष्प गन्ध साधना के लिए लिया जा सकता है। भिन्न पुष्पों के भिन्न गुण हैं। गुलाब प्रेमोत्पादक, चमेली बुद्धिवर्द्धक, गेन्दा उत्साह बढ़ाने वाला, चम्पा सौन्दर्यदायक, कन्नेर उष्ण, सूर्यमुखी ओजवर्द्धक है। प्रत्येक पुष्प में कुछ सूक्ष्म गुण होते हैं। जिस पुष्प को सामने रखकर उसका ध्यान किया जाएगा, उसी के सूक्ष्म गुण अपने में बढ़ेंगे।

हवन, गन्ध- योग से सम्बन्धित है। किन्हीं पदार्थों की सूक्ष्म प्राण शक्ति को प्राप्त करने के लिए उनसे विधिपूर्वक हवन किया जाता है। इससे उनका स्थूल रूप तो जल जाता है, पर सूक्ष्म रूप से वायु के साथ चारों ओर फैलकर निकटस्थ लोगों की प्राणशक्ति में अभिवृद्धि करता है। सुगन्धित वातावरण में अनुकूल प्राण की मात्रा अधिक होती है, इससे उसे नासिका द्वारा प्राप्त करते हुए अन्तःकरण प्रसन्न होता है।

गन्ध साधना से मन की एकाग्रता के अतिरिक्त भविष्य का आभास प्राप्त करने की शक्ति बढ़ती है। सूर्य स्वर (दायाँ) और चन्द्र स्वर (बायाँ) सिद्ध हो जाने पर साधक अच्छा भविष्य ज्ञाता हो सकता है। नासिका द्वारा साधा जाने वाला स्वरयोग भी गन्ध साधना की एक शाखा है।

स्पर्श साधना

(१) बर्फ या कोई अन्य शीतल वस्तु शरीर पर एक मिनट लगाकर फिर उसे उठायें और दो मिनट तक अनुभव करें कि वह ठण्डक मिल रही है। सह्य उष्णता का गरम किया हुआ पत्थर का टुकड़ा शरीर से स्पर्श कराकर उसकी अनुभूति कायम रहने की भावना करनी चाहिए। पंखा झलकर हवा करना, चिकना काँच का गोला या  रूई की गेंद त्वचा पर स्पर्श करके फिर उस स्पर्श का ध्यान रखना भी इस प्रकार का अभ्यास है। ब्रुश से रगड़ना, लोहे का गोला उठाना जैसे अभ्यासों से इसी प्रकार की ध्यान भावना की जा सकती है।

(२) किसी समतल  भूमि पर एक बहुत ही मुलायम गद्दा बिछाकर उस पर चित्त लेटे रहिए। कुछ देर तक उसकी कोमलता का स्पर्श सुख अनुभव करते रहिए। उसके बाद बिना गद्दा की कठोर जमीन या तख्त पर लेट जाइए। कठोर भूमि पर पड़े रहकर कोमल गद्दे के स्पर्श की भावना कीजिए, फिर पलटकर गद्दे पर आ जाइए और कठोर भूमि की कल्पना कीजिए। इस प्रकार भिन्न परिस्थिति में भिन्न वातावरण की भावना से तितिक्षा की सिद्धि मिलती है। स्पर्श साधना की सफलता से शारीरिक कष्टों को हँसते-हँसते सहने की शक्ति पैदा होती है।

स्पर्श :-साधना से तितिक्षा की सिद्धि मिलती है। सर्दी, गर्मी, वर्षा, चोट, फोड़ा, दर्द आदि से जो शरीर को कष्ट होते हैं, उनका कारण त्वचा में जल की तरह फैले हुए ज्ञान-तन्तु ही हैं। यह ज्ञान-तन्तु छोटे से आघात, कष्ट या अनुभव को मस्तिष्क तक पहुँचाते हैं, तदनुसार मस्तिष्क को पीड़ा का भान होने लगता है। कोकीन का इञ्जेक्शन लगाकर इन ज्ञान-तन्तुओं को शिथिल कर दिया जाए, तो ऑपरेशन करने में भी उस स्थान पर पीड़ा नहीं होती। कोकीन इन्जेक्शन तो शरीर को पीछे से हानि भी पहुँचाता है, पर स्पर्श साधना द्वारा प्राप्त हुई ‘ज्ञानतन्तु नियन्त्रण शक्ति’ किसी प्रकार की हानि पहुँचाना तो दूर, उल्टी नाड़ी संस्थान के अनेक विकारों को दूर करने में सफल होती है, साथ ही शारीरिक पीड़ाओं का भान भी नहीं होने देती।

भीष्म पितामह उत्तरायण सूर्य आने की प्रतीक्षा में कई महीने बाणों से छिदे हुए पड़े रहे थे। तिल-तिल शरीर में बाण लगे थे, फिर भी कष्ट से चिल्लाना तो दूर, वे उपस्थित लोगों को बड़े ही गूढ़ विषयों का उपदेश देते रहे। ऐसा करना उनके लिए इसलिए सम्भव हो सका कि उन्हें तितिक्षा की सिद्धि थी; अन्यथा हजारों बाणों में छिदा होना तो दूर, एक सुई या काँटा लग जाने पर लोग होश-हवास भूल जाते हैं।

स्पर्श साधना से चित्त की वृत्तियाँ एकाग्र होती हैं। मन को वश में करने से जो लाभ मिलते हैं, उनके अतिरिक्त तितिक्षा की सिद्धि भी साथ में हो जाती है जिससे कर्मयोग एवं प्रकृति-प्रवाह से शरीर को होने वाले कष्टों को भोगने से साधक बच जाता है।

मन को आज्ञानुवर्ती, नियन्त्रित, अनुशासित बनाना जीवन को सफल बनाने की अत्यन्त महत्त्वपूर्ण समस्या है। अपना दृष्टिकोण चाहे आध्यात्मिक हो, चाहे भौतिक, चाहे अपनी प्रवृत्तियाँ परमार्थ की ओर हों या स्वार्थ की ओर, मन का नियन्त्रण हर स्थिति में आवश्यक है। उच्छृंखल, चञ्चल, अव्यवस्थित मन से न लोक, न परलोक, कुछ भी नहीं मिल सकता। मनोनिग्रह प्रत्येक व्यक्ति के लिए आवश्यक है।

मानसिक अव्यवस्था दूर करके मनोबल प्राप्त करने के लिए इस प्रकार जो साधनाएँ बताई गई हैं, वे बड़ी उपयोगी, सरल एवं सर्वसुलभ हैं। ध्यान, त्राटक, जप एवं तन्मात्रा साधना से मन की चञ्चलता दूर होती है, साथ ही चमत्कारी सिद्धियाँ भी मिलती हैं। इस प्रकार पाश्चात्य योगियों की मेस्मरिज्म के तरीके से की गई मन: साधनाओं की अपेक्षा भारतीय विधि की योग पद्धति से की गई साधना द्विगुणित लाभदायक होती है।

वश में किया हुआ मन सबसे बड़ा मित्र है। वह सांसारिक और आत्मिक दोनों ही प्रकार के अनेक ऐसे अद्भुत उपहार निरन्तर प्रदान करता रहता है, जिन्हें पाकर मानव जीवन धन्य हो जाता है। सुरलोक में ऐसा कल्पवृक्ष बताया गया है जिसके नीचे बैठकर मनचाही कामनाएँ पूरी हो जाती हैं। मृत्युलोक में वश में किया हुआ मन ही कल्पवृक्ष है। यह परम सौभाग्य जिसे प्राप्त हो गया, उसे अनन्त ऐश्वर्य का आधिपत्य ही प्राप्त हो गया समझिए।

अनियन्त्रित मन अनेक विपत्तियों की जड़ है। अग्नि जहाँ रखी जाएगी उसी स्थान को जलायेगी। जिस देह में असंयत मन रहेगा, उसमें नित नई विपत्तियाँ, कठिनाइयाँ, आपदाएँ, बुराइयाँ बरसती रहेंगी। इसलिए अध्यात्मविद्या के विद्वानों ने मन को वश में करने की साधना को बहुत ही महत्त्वपूर्ण माना है। गायत्री का तृतीय मुख मनोमय कोश है। इस कोश को सुव्यवस्थित कर लेना मानो तीसरे बन्धन को खोल लेना है, आत्मोन्नति की तीसरी कक्षा पार कर लेना है।




First 47 49 Last


Other Version of this book



Gayatri Mahavigyan Part 2
Type: SCAN
Language: EN
...

गायत्री महाविज्ञान-भाग ३
Type: SCAN
Language: EN
...

गायत्री महाविज्ञान भाग 2
Type: TEXT
Language: HINDI
...

गायत्री महाविज्ञान (तृतीय भाग)
Type: TEXT
Language: HINDI
...

Super Science of Gayatri
Type: SCAN
Language: ENGLISH
...

गायत्री महाविज्ञान
Type: SCAN
Language: HINDI
...

Gayatri Mahavigyan Part 1
Type: SCAN
Language: EN
...

Gayatri Mahavigyan Part 3
Type: SCAN
Language: EN
...

गायत्री महाविज्ञान-भाग १
Type: SCAN
Language: MARATHI
...

गायत्री महाविज्ञान-भाग २
Type: SCAN
Language: EN
...

गायत्री महाविज्ञान
Type: TEXT
Language: HINDI
...


Releted Books



गहना कर्मणोगतिः
Type: TEXT
Language: HINDI
...

गहना कर्मणोगतिः
Type: TEXT
Language: HINDI
...

गहना कर्मणोगतिः
Type: TEXT
Language: HINDI
...

गहना कर्मणोगतिः
Type: TEXT
Language: HINDI
...

गहना कर्मणोगतिः
Type: TEXT
Language: HINDI
...

गहना कर्मणोगतिः
Type: TEXT
Language: HINDI
...

गहना कर्मणोगतिः
Type: TEXT
Language: HINDI
...

गहना कर्मणोगतिः
Type: TEXT
Language: HINDI
...

गहना कर्मणोगतिः
Type: TEXT
Language: HINDI
...

गहना कर्मणोगतिः
Type: TEXT
Language: HINDI
...

गहना कर्मणोगतिः
Type: TEXT
Language: HINDI
...

21st Century The Dawn Of The Era Of Divine Descent On Earth
Type: SCAN
Language: ENGLISH
...

21st Century The Dawn Of The Era Of Divine Descent On Earth
Type: SCAN
Language: ENGLISH
...

21st Century The Dawn Of The Era Of Divine Descent On Earth
Type: SCAN
Language: ENGLISH
...

21st Century The Dawn Of The Era Of Divine Descent On Earth
Type: SCAN
Language: ENGLISH
...

21st Century The Dawn Of The Era Of Divine Descent On Earth
Type: SCAN
Language: ENGLISH
...

21st Century The Dawn Of The Era Of Divine Descent On Earth
Type: SCAN
Language: ENGLISH
...

21st Century The Dawn Of The Era Of Divine Descent On Earth
Type: SCAN
Language: ENGLISH
...

21st Century The Dawn Of The Era Of Divine Descent On Earth
Type: SCAN
Language: ENGLISH
...

21st Century The Dawn Of The Era Of Divine Descent On Earth
Type: SCAN
Language: ENGLISH
...

21st Century The Dawn Of The Era Of Divine Descent On Earth
Type: SCAN
Language: ENGLISH
...

21st Century The Dawn Of The Era Of Divine Descent On Earth
Type: SCAN
Language: ENGLISH
...

21st Century The Dawn Of The Era Of Divine Descent On Earth
Type: SCAN
Language: ENGLISH
...

गहना कर्मणोगतिः
Type: TEXT
Language: HINDI
...

Articles of Books

  • गायत्री महाविज्ञान भाग १
  • गायत्री महाविज्ञान भाग ३
  • गायत्री महाविज्ञान भाग २
  • गायत्री द्वारा कुण्डलिनी जागरण
  • वेदमाता गायत्री की उत्पत्ति
  • ब्रह्म की स्फुरणा से गायत्री का प्रादुर्भाव
  • गायत्री सूक्ष्म शक्तियों का स्रोत है
  • गायत्री साधना से शक्तिकोशों का उद्भव
  • शरीर में गायत्री मंत्र के अक्षर
  • गायत्री और ब्रह्म की एकता
  • महापुरुषों द्वारा गायत्री महिमा का गान
  • त्रिविध दु:खों का निवारण
  • गायत्री उपेक्षा की भर्त्सना
  • गायत्री साधना से श्री समृद्धि और सफलता
  • गायत्री साधना से आपत्तियों का निवारण
  • जीवन का कायाकल्प
  • नारियों को वेद एवं गायत्री का अधिकार
  • देवियों की गायत्री साधना
  • गायत्री का शाप विमोचन और उत्कीलन का रहस्य
  • गायत्री की मूर्तिमान प्रतिमा यज्ञोपवीत (जनेऊ)
  • साधकों के लिये उपवीत आवश्यक है
  • गायत्री साधना का उद्देश्य
  • निष्काम साधना का तत्त्व ज्ञान
  • गायत्री से यज्ञ का सम्बन्ध
  • साधना- एकाग्रता और स्थिर चित्त से होनी चाहिए
  • पापनाशक और शक्तिवर्धक तपश्चर्याएँ
  • आत्मशक्ति का अकूत भण्डार :: अनुष्ठान
  • सदैव शुभ गायत्री यज्ञ
  • महिलाओं के लिये विशेष साधनाएँ
  • एक वर्ष की उद्यापन साधना
  • गायत्री साधना से अनेकों प्रयोजनों की सिद्धि
  • गायत्री का अर्थ चिन्तन
  • साधकों के स्वप्न निरर्थक नहीं होते
  • साधना की सफलता के लक्षण
  • सिद्धियों का दुरुपयोग न होना चाहिये
  • यह दिव्य प्रसाद औरों को भी बाँटिये
  • गायत्री महाविज्ञान भाग ३ भूमिका
  • गायत्री के पाँच मुख
  • अनन्त आनन्द की साधना
  • गायत्री मञ्जरी
  • उपवास - अन्नमय कोश की साधना
  • आसन - अन्नमय कोश की साधना
  • तत्त्व शुद्धि - अन्नमय कोश की साधना
  • तपश्चर्या - अन्नमय कोश की साधना
  • अन्नमय कोश और उसकी साधना
  • मनोमय कोश की साधना
  • ध्यान - मनोमय कोश की साधना
  • त्राटक - मनोमय कोश की साधना
  • जप - मनोमय कोश की साधना
  • तन्मात्रा साधना - मनोमय कोश की साधना
  • विज्ञानमय कोश की साधना
  • सोऽहं साधना - विज्ञानमय कोश की साधना
  • आत्मानुभूति योग - विज्ञानमय कोश की साधना
  • आत्मचिन्तन की साधना - विज्ञानमय कोश की साधना
  • स्वर योग - विज्ञानमय कोश की साधना
  • वायु साधना - विज्ञानमय कोश की साधना
  • ग्रन्थि-भेद - विज्ञानमय कोश की साधना
  • आनन्दमय कोश की साधना
  • नाद साधना - आनन्दमय कोश की साधना
  • बिन्दु साधना - आनन्दमय कोश की साधना
  • कला साधना - आनन्दमय कोश की साधना
  • तुरीयावस्था - आनन्दमय कोश की साधना
  • पंचकोशी साधना का ज्ञातव्य
  • गायत्री-साधना निष्फल नहीं जाती
  • पञ्चमुखी साधना का उद्देश्य
  • गायत्री का तन्त्रोक्त वाम-मार्ग
  • गायत्री की गुरु दीक्षा
  • आत्मकल्याण की तीन कक्षाएँ
  • मन्त्र दीक्षा - आत्मकल्याण की तीन कक्षाएँ
  • अग्नि दीक्षा - आत्मकल्याण की तीन कक्षाएँ
  • ब्रह्म दीक्षा - आत्मकल्याण की तीन कक्षाएँ
  • कल्याण मन्दिर का प्रवेश द्वार - आत्मकल्याण की तीन कक्षाएँ
  • ब्रह्मदीक्षा की दक्षिणा आत्मदान - आत्मकल्याण की तीन कक्षाएँ
  • वर्तमानकालीन कठिनाइयाँ - आत्मकल्याण की तीन कक्षाएँ
Your browser does not support the video tag.
About Shantikunj

Shantikunj has emerged over the years as a unique center and fountain-head of a global movement of Yug Nirman Yojna (Movement for the Reconstruction of the Era) for moral-spiritual regeneration in the light of hoary Indian heritage.

Navigation Links
  • Home
  • Literature
  • News and Activities
  • Quotes and Thoughts
  • Videos and more
  • Audio
  • Join Us
  • Contact
Write to us

Click below and write to us your commenct and input.

Go

Copyright © SRI VEDMATA GAYATRI TRUST (TMD). All rights reserved. | Design by IT Cell Shantikunj