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Books - गायत्री महाविज्ञान

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गायत्री का तन्त्रोक्त वाम-मार्ग

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वाम मार्ग, तन्त्र विद्या का आधार प्राणमय कोश है। जितनी शक्ति प्राण में या प्राणमय कोश के अन्तर्गत है, केवल उतनी तन्त्रोक्त प्रयोगों द्वारा चरितार्थ हो सकती है। ईश्वरप्राप्ति, आत्मसाक्षात्कार, जीवन मुक्ति, अन्त:करण का परिमार्जन आदि कार्य तन्त्र की पहुँच से बाहर हैं। वाम मार्ग से तो वह भौतिक प्रयोजन सध सकते हैं जो वैज्ञानिक यन्त्रों द्वारा सिद्ध हो सकते हैं।

बन्दूक की गोली मारकर या विष का इंजेक्शन देकर किसी मनुष्य का प्राणघात किया जा सकता है। तन्त्र द्वारा अभिचार क्रिया करके किसी दूसरे का प्राण लिया जा सकता है। निर्बल प्राण वाले मनुष्य पर तो प्रयोग और भी आसानी से हो जाते हैं, जैसे छोटी चिड़िया को मारने के लिए स्टेनगन की जरूरत नहीं पड़ती। गुलेल में रखकर फेंकी गई मामूली कंकड़ के आघात से ही चिड़िया गिर पड़ती है और पंख फड़फड़ाकर प्राण त्याग कर देती है। इसी प्रकार निर्बल प्राण वाले, कमजोर, बीमार, बालक, वृद्ध या डरपोक मनुष्य पर मामूली शक्ति का तांत्रिक भी प्रयोग कर लेता है और उन्हें घातक बीमारी और मृत्यु के मुँह में धकेल देता है।

शराब, चरस, गाँजा आदि नशीली चीजों की मात्रा शरीर में अधिक पहुँच जाए, तो मस्तिष्क की क्रिया पद्धति विकृत हो जाती है। नशे में मदहोश हुआ मनुष्य ठीक प्रकार सोचने, विचारने, निर्णय करने एवं अपने ऊपर काबू रखने में असमर्थ होता है। उसकी विचारधारा, वाणी एवं क्रिया में अस्तव्यस्तता होती है। उन्माद या पागलपन के सब लक्षण उस नशीली चीज की अधिक मात्रा से उत्पन्न हो जाते हैं। इसी प्रकार तान्त्रिक प्रयोगों द्वारा एक ऐसा सूक्ष्म नशीला प्रभाव किसी के मस्तिष्क में प्रवेश कराया जा सकता है कि उसकी बुद्धि पदच्युत हो जाए और तीव्र प्रयोग की दशा से कपड़े फाड़ने वाला पागल बन जाए अथवा मन्द प्रयोगों की दशा में अपनी बुद्धि की तीव्रता खो बैठे और चतुरता से वञ्चित होकर वज्रमूर्ख हो जाए।

कुछ विषैली औषधियाँ ऐसी हैं, जिन्हें भूल से सेवन कर लिया जाए तो शरीर में भंयकर उपद्रव खड़े हो जाते हैं। कै, दस्त, हिचकी, छींक, बेहोशी, मूर्च्छा, दर्द, अनिद्रा, भ्रम आदि रोग हो जाते हैं। इसी प्रकार तान्त्रिक विधान में ऐसी विधियाँ भी हैं, जिनके द्वारा एक प्रकार का विषैला पदार्थ किसी के शरीर में प्रवेश कराया जा सकता है।

विज्ञान ने रेडियो किरणों की शक्ति से अपने आप उड़ने वाला ‘रेडारबम’ नामक ऐसा यन्त्र बनाया है जो किसी निर्धारित स्थान पर जाकर गिरता है। कृत्या, घात, मारण आदि के अभिचारों में ऐसी ही सूक्ष्म क्रिया प्राणशक्ति के आधार पर की जाती है। दूरस्थ व्यक्ति पर वह तान्त्रिक ‘रेडार’ ऐसा गिरता है कि लक्ष्य को क्षत-विक्षत कर देता है।

युद्धकाल में बमबारी करके खेत, मकान, कारखाने, उद्योग, उत्पादन, रेल, मोटर, पुल आदि नष्ट कर दिए जाते हैं जिससे उस स्थान के मनुष्य साधनहीन हो जाते हैं, उनकी सम्पन्नता और अमीरी उस बमवारी द्वारा नष्ट हो जाती है और वे थोड़े ही समय में असहाय बन जाते हैं। तन्त्र द्वारा किसी के सौभाग्य, वैभव और सम्पन्नता पर बमवारी करने से उसे इस प्रकार नष्ट किया जा सकता है कि सब हैरत में रह जाएँ कि उसका सब कुुछ इतनी जल्दी, इतने आकस्मिक रूप से कैसे नष्ट हो गया या होता जा रहा है?

कूटनीतिक जासूसी और व्यवसायी ठग ऐसा छद्म वेश बनाते और ऐसा जाल रचते हैं, जिसके आकर्षण, प्रलोभन और कुचक्र में फँसकर समझदार आदमी भी बेवकूफ बन जाता है। मेस्मेरिज्म एवं हिप्नोटिज्म द्वारा किसी के मस्तिष्क को अर्द्धसम्मोहित करके वशवर्ती बना लिया जाता है, फिर उस व्यक्ति को जैसे आदेश दिए जाएँ, तदनुसार ही आचरण करता है। मेस्मेरिज्म या तन्त्र से वशीभूत मनुष्य उसी प्रकार सोचता, विचारता, अनुभव करता है जैसा कि प्रयोक्ता का संकेत होता है। उसकी इच्छा, मनोवृत्ति भी उसी समय वैसी ही हो जाती है, जैसी कि कार्य करने की प्रेरणा दी जा रही हो। तन्त्रविद्या में मेस्मेरिज्म से अनेक गुनी प्रचण्ड शक्ति है; उसके द्वारा जिस मनुष्य पर गुप्त रूप से बौद्धिक वशीकरण का जाल फेंका जाता है, वह एक प्रकार की सूक्ष्म तन्द्रा में जाकर दूसरे का वशवर्ती हो जाता है। उसकी बुद्धि वही सोचती, वैसी ही इच्छा करती है, वैसा ही कार्य करती है जैसा कि उससे गुप्त षडयन्त्र द्वारा कराया जा रहा है। अपनी निज की विचारशीलता से वह प्राय: वंचित हो जाता है।

व्यभिचारी पुरुष कितनी सरल स्वभाव स्त्रियों पर इस प्रकार का जादू चलाते हैं कि उन्हें पथभ्रष्ट करने में सफल हो जाते हैं। किसी सीधी-सादी, कुलशील, पूरा संकोच और सम्मान करने वाली देवियाँ दूसरों के वशीभूत होकर अपनी प्रतिष्ठा, लोक-लज्जा आदि को तिलांजलि देकर ऐसा आचरण करती हैं, जिसे देखकर हैरत होती है कि इनकी बुद्धि ऐसे आकस्मिक तरीके से विपरीत क्यों हो गई? परन्तु वस्तुत: वे बेचारी निर्दोष होती हैं। वे बाज के चंगुल में फँसे हुए पक्षी या भेड़िये के मुँह में लगी हुई बकरी की तरह जिधर घसीटी जाती हैं, उधर ही घिसट जाती हैं।

इसी प्रकार दुराचारिणी स्त्रियाँ किन्हीं पुरुषों पर अपना तान्त्रिक प्रभाव डालकर उनकी नाक में नकेल डाल देती हैं और मनचाहे नाच नचाती हैं। कई वेश्याओं को इस प्रकार का जादू मालूम होता है। वे ऐसे पक्षी फँसा लेती हैं, जो अपना सब कुछ खो बैठने पर भी उस चंगुल से छूट नहीं पाते। उन फँसे हुए पक्षियों का स्वास्थ्य, सौंदर्य और धन अपहरण करके वे अपने स्वास्थ्य, सौंदर्य और धन को बढ़ाती रहती हैं।

तन्त्र द्वारा स्त्री पुरुष आपस में एक-दूसरे की शक्ति को चूसते हैं। ऐसे साधन तन्त्र प्रक्रिया में मौजूद हैं, जिनके द्वारा एक पुरुष अपनी सहगामिनी स्त्री की जीवनशक्ति को, प्राणशक्ति को चूसकर उसे छूँछ कर सकता है और स्वयं उससे परिपुष्ट हो सकता है। अण्डों की प्राणशक्ति चूसकर तगड़े बनने एवं दूसरों के रक्त का इंजेक्शन लेकर अपने शरीर को पुष्ट करने के उदाहरण अनेक होते हैं, पर ऐसे भी उदाहरण होते हैं कि समागम द्वारा साथी की सूक्ष्म प्राणशक्ति को चूस लिया जाए। तान्त्रिक प्रधानता के मध्यकालीन युग में बड़े आदमी इस आधार पर बहुविवाह की ओर अग्रसर हो रहे थे और रनवासों में सैकड़ों रानियाँ रखी जाने लगी थीं।

इस प्रक्रिया को स्त्रियाँ भी अपना लेती हैं। जादूगरनी स्त्रियाँ सुंदर युवकों को मेढ़ा, बकरा, तोता आदि बना लेती थीं, ऐसी कथाएँ सुनी जाती हैं। तोता, बकरा आदि बनाना आज कठिन है, पर अब भी ऐसी घटनाएँ देखी गई हैं कि वृद्धा तन्त्रसाधिनी युवकों को चूसती हैं और वे अनिच्छुक होते हुए भी अपनी प्राणशक्ति खोते रहने के लिए विवश होते हैं। इससे एक पक्ष पुष्ट होता है और दूसरा अपनी स्वाभाविक शक्ति से वंचित होकर दिन-दिन दुर्बल होता जाता है।

वाम-मार्ग के पंचमकारों में पंचम मकार ‘मैथुन’ है। अन्नमय कोश और प्राणमय कोश के सम्मिलित मैथुन से यह महत्त्वपूर्ण क्रिया होती है। इस अगणित गुप्त, अन्तरंग, शक्तियों के अनुलोम-विलोम क्रम के आकर्षण-विकर्षण, घूर्णन-चूर्णन, आकुंचन-विकुंचन, प्रत्यारोहण, अभिवर्द्धन, वशीकरण, प्रत्यावर्तन आदि सूक्ष्म मन्थन होते हैं, जिनके कारण जोड़े में, स्त्री-पुरुष के शरीरों में आपसी महत्त्वपूर्ण आदान-प्रदान होता है। रति-क्रिया साधारणत: एक अत्यन्त साधारण शारीरिक क्रिया दिखाई देती है, पर उसका सूक्ष्म महत्त्व अत्यधिक है। उस महत्त्व को समझते हुए ही भारतीय धर्म में सर्वसाधारण की सुरक्षा का, हितों का ध्यान रखते हुए इस संबंध में अनेक मर्यादाएँ बाँधी गई हैं।

मस्तिष्क, हृदय और जननेन्द्रियाँ शरीर में ये तीन शक्तिपुंज हैं। इन्हीं स्थानों में ब्रह्मग्रन्थि, विष्णुग्रन्थि, रुद्रग्रन्थि हैं। वाम-मार्ग में काली तत्त्व से संबंधित होने के कारण रुद्रग्रन्थि से जब शक्ति संचय करने के लिए कूर्म प्राण को आधार बनाना होता है, तो मैथुन द्वारा सामर्थ्य-भण्डार जमा किया जाता है। जननेन्द्रिय के प्रभाव क्षेत्र में मूलाधार चक्र, स्वाधिष्ठान चक्र, वज्र मेरु, तड़ित, कच्छप, कुंडल, सर्पिणी, रुद्रग्रन्थि, समान, कृकल, अपान, कूर्म, प्राण, अलम्बुषा, डाकिनी, सुषुम्ना आदि के अवस्थान हैं। इनका आकुंचन-प्रकुंचन जब तन्त्रविद्या के आधार पर होता है तो यह शक्ति उत्पन्न होती है और वह शक्ति दोनों ही दिशा में उलटी-सीधी चल सकती है। इस विद्या के ज्ञाता जननेन्द्रिय का उचित रीति से योग करके आशातीत लाभ उठाते हैं, परन्तु जो लोग इस विषय में अनभिज्ञ हैं, वे स्वास्थ्य और जीवनी शक्ति को खो बैठते हैं। साधारणत: रति-क्रिया में क्षय ही अधिक होता है, अधिकांश नर-नारी उसमें अपने बल को खोते ही हैं, पर तन्त्र के गुप्त विधानों द्वारा अन्नमय और प्राणमय कोशों की सुप्त शक्तियाँ इससे जगाई भी जा सकती हैं।

वाम-मार्ग में मैथुन को इन्द्रियभोग की क्षुद्र सरसता के रूप में नहीं लिया जाता, वरन् शक्तिकेन्द्रों के जागरण एवं मन्थन द्वारा अभीष्ट सिद्धि के लिए उसका उपयोग होता है। सप्त प्राणों का जागरण एवं एक ही सामर्थ्यों का दूसरे शरीर में परिवर्तन, हस्तान्तरण करने के लिए इसका ‘रति साधना’ के रूप में प्रयोग होता है। मानव प्राणी के लिए परमात्मा द्वारा दिए हुए अत्यन्त महत्त्वपूर्ण उपहार इस ‘रति’ और प्राण के पुंज को ईश्वरीय भाव से परम श्रद्धा के साथ पूजा जाता है। शिव-लिंग के साथ शक्ति-योनि के तादात्म्य की मूर्तियाँ आमतौर से पूजी जाती हैं। उनमें जननेन्द्रिय में स्थित दिव्यशक्ति के प्रति उच्चकोटि की श्रद्धा का संकेत है। क्षुद्र सरसता के लिए उसका प्रयोग तो हेय ही माना गया है।

चूँकि इस विद्या के सार्वजनिक उद्घाटन से इसका दुरुपयोग होने और अनैतिकता फैलने का पूरा खतरा है, इसलिए इसे अत्यन्त गोपनीय रखा गया है । उपर्युक्त पंक्तियों में तन्त्र में सन्निहित शक्तियों के सम्बन्ध में कुछ प्रकाश डालना ही यहाँ अभीष्ट है।

किसी अस्त्र को आगे की ओर भी चलाया जा सकता है और पीछे की ओर भी। ईख से स्वादिष्ट मिष्टान्न भी बन सकता है और मदिरा भी। गायत्री महाशक्ति को जहाँ आत्मकल्याण एवं सात्त्विक प्रयोजनों के लिए लगाया जाता है, वहाँ उसे तामसिक प्रयोजनों में भी प्रयुक्त किया जा सकता है। गायत्री का दक्षिण मार्ग भी है और वाम मार्ग भी। दक्षिण मार्ग वेदोक्त, सतोगुणी, सरल, धर्मपूर्ण एवं कल्याण का साधन है। वाम मार्ग तन्त्रोक्त, तमोगुणी, दुस्साहसपूर्ण अनैतिक एवं सांसारिक चमत्कारों को सिद्ध करने वाला है।

गायत्री के दक्षिण मार्ग की शक्ति का स्रोत ब्रह्म का परम सतोगुणी ‘ह्रीं’ तत्त्व है और वाम मार्ग का महातत्त्व ‘क्लीं’ केंद्र से अपनी शक्ति प्राप्त करता है। अपने या दूसरे के प्राण का मन्थन करन के तन्त्र की तड़ित शक्ति उत्पन्न की जाती है। रति और प्राण के मन्थन एवं रतिकर्म के सम्बन्ध में पिछले पृष्ठ पर कुछ प्रकाश डाला जा चुका है। दूसरा मन्थन किसी प्राणी के वध द्वारा होता है। प्राणान्त समय में भी प्राणी का प्राण मैथुन की भाँति उत्तेजित, उद्विग्न एवं व्याकुल होता है, उस स्थिति में भी तान्त्रिक लोग उस प्राणशक्ति का बहुत भाग खींचकर अपना शक्ति-भण्डार भर लेते हैं। नीति-अनीति का ध्यान न रखने वाला तान्त्रिक पशु-पक्षियों का बलिदान इसी प्रयोजन के लिए करते हैं।

मृत मनुष्यों के शरीरों में कुछ समय तक उपप्राणों का अस्तित्व सूक्ष्म अंश में बना रहता है। तान्त्रिक लोग श्मशान भूमि में मरघट जगाने की साधना करते हैं। अघोरी लोग शव-साधना करके मृतक की बची-खुची शक्ति चूसते हैं। देखा जाता है कि कई अघोरी मृतक की लाश को जमीन में से खोद ले जाते हैं। मृतकों की खोपड़ियाँ संग्रह करते हैं, चिताओं पर भोजन पकाते हैं। यह सब इसलिए किया जाता है कि मरे हुए शरीर के अति सूक्ष्म भागों के भीतर, विशेषत: खोपड़ी में जहाँ-जहाँ उपप्राणों की प्रसुप्त चेतना मिल जाती है। दाना-दाना बीनकर अनाज की बोरी भर लेने वाले कंजूसों की तरह अघोरी लोग हड्डियों का फास्फोरस मिश्रित ‘द्यु’ तत्त्व एक बड़ी मात्रा में इकट्ठा कर लेते हैं।

दक्षिण मार्ग किसान के विधिपूर्वक खेती करके न्यायानुमोदित अन्न-उपार्जन करने के समान है। किसान अपने अन्न को बड़ी सावधानी और मितव्ययिता से खर्च करता है, क्योंकि उसमें उसका दीर्घकालीन कठोर श्रम लगा है। पर डाकू की स्थिति ऐसी नहीं होती, वह दुस्साहसपूर्ण आक्रमण करता है और यदि सफल हुआ तो उस कमाई को होली की तरह फूँकता है। योगी लोग चमत्कार प्रदर्शन में अपनी शक्ति खर्च करते हुए किसान की भाँति झिझकते हैं, पर तान्त्रिक लोग अपने गौरव और बड़प्पन का आतंक जमाने के लिए छुद्र स्वार्थों के कारण दूसरों को अनुचित हानि-लाभ पहुँचाते हैं। अघोरी, कापालिक, रक्त बीज, वैतालिक, ब्रह्मराक्षस आदि कई संप्रदाय तांत्रिकों के होते हैं, उनकी साधना-पद्धति एवं कार्य-प्रणाली भिन्न-भिन्न होती है। स्त्रियों में डाकिनी, शाकिनी, कपालकुंडला, सर्पसूत्रा पद्धतियों का प्रचार अधिक पाया जाता है।

बन्दूक से गोली छूटते समय वह पीछे की ओर झटका मारती है। यदि सावधानी के साथ छाती से सटाकर बन्दूक को ठीक प्रकार से न रखा गया, तो वह ऐसे जोर का झटका देगी कि चलाने वाला ओंधे मुँह पीछे को गिर पड़ेगा। कभी-कभी इससे अनाड़ियों के गले की हँसली हड्डी तक टूट जाती है। तन्त्र द्वारा भी बन्दूक जैसी तेजी के साथ विस्फोट होता है, उसका झटका सहन करने योग्य स्थिति यदि साधक की न हो, तो उसे भयंकर खतरे में पड़ जाना होता है।

तन्त्र का शक्ति-स्रोत, दैवी, ईश्वरीय शक्ति नहीं वरन् भौतिक शक्ति है। प्रकृति के सूक्ष्म परमाणु अपनी धुरी पर द्रुतगति से भ्रमण करते हैं, तब उसके घर्षण से जो ऊष्मा पैदा होती है, उसका नाम काली या दुर्गा है। इस ऊष्मा को प्राप्त करने के लिए अस्वाभाविक, उलटा, प्रतिगामी मार्ग ग्रहण करना पड़ता है। जल का बहाव रोका जाए तो उस प्रतिरोध से एक शक्ति का उद्भव होता है। तान्त्रिक वाममार्ग पर चलते हैं, फलस्वरूप काली शक्ति का प्रतिरोध करके अपने को एक तामसिक, पंचभौतिक बल से सम्पन्न कर लेते हैं। उलटा आहार, उलटा विहार, उलटी दिनचर्या, उलटी गतिविधि सभी कुछ उनका उलटा होता है। अघोरी, रक्तबीजी, कापालिक, डाकिनी आदि के संपर्क में जो लोग रहे हैं, वे जानते हैं कि उनके आचरण कितने उलटे और वीभत्स होते हैं।

द्रुतगति से एक नियत दिशा में दौड़ती हुई रेल, मोटर, नदी, वायु आदि के आगे आकर उसकी गति को रोकना और उस प्रतिरोध से शक्ति प्राप्त करना यह खतरनाक खेल है। हर कोई इसे कर भी नहीं सकता, क्योंकि प्रतिरोध के समय झटका लगता है। प्रतिरोध जितना कड़ा होगा, झटका उतना ही जबर्दस्त लगेगा। तन्त्र साधक जानते हैं कि जब कोलाहल से दूर एकान्त खण्डहरों, श्मशानों में अर्द्धरात्रि के समय उनकी साधना का मध्यकाल आता है, तब कितने रोमांचकारी भय आ उपस्थित होते हैं। गगनचुम्बी राक्षस, विशालकाय सर्प, लाल नेत्रों वाले शूकर और महिष, छुरी से दाँतों वाले सिंह साधक के आस-पास जिस रोमांचकारी भयंकरता से गर्जन-तर्जन करते हुए कोहराम मचाते और आक्रमण करते हैं, उनसे न तो डरना और न विचलित होना—यह साधारण काम नहीं है। साहस के अभाव में यदि इस प्रतिरोधी प्रतिक्रिया से साधक भयभीत हो जाए तो उसके प्राण संकट में पड़ सकते हैं। ऐसे अवसरों पर कोई व्यक्ति पागल, बीमार, गूँगे, बहरे, अन्धे हो जाते हैं। कइयों को प्राणों से हाथ धोना पड़ता है। इस मार्ग में साहसी और निर्भीक प्रकृति के मनुष्य ही सफलता पाते हैं।

ऐसी कितनी ही घटनाएँ हमें मालूम हैं जिनमें तन्त्र साधकों को खतरे से होकर गुजरना पड़ा है। विशेषत: जब किसी सूक्ष्म प्राण सत्ता को वशीभूत करना होता है, तो उसकी विपरीत प्रतिक्रिया बड़ी विकट होती है। सूक्ष्म जगत् रूपी समुद्र में मछलियों की भाँति कुछ चैतन्य प्राणधारियों में स्वतन्त्र सत्ताओं का अस्तित्व पाया जाता है। जैसे समुद्र में मछलियाँ अनेक जाति की होती हैं, उसी प्रकार यह सत्ताएँ भी अनेक स्वभावों, गुणों, शक्तियों से सम्पन्न होती हैं। इन्हें पितर, यक्ष, गन्धर्व, किन्नर, राक्षस, देव, दानव, ब्रह्मबेताल, कूष्माण्ड, भैरव, रक्तबीज आदि कहते हैं। उनमें से किसी को सिद्ध करके उसकी शक्ति से अपने प्रयोजनों को साधा जाता है। इनको सिद्ध करते समय वे उलटकर कुचले हुए सर्प की तरह ऐसा आक्रमण करते हैं कि निर्बल साधक के लिए उस चोट का झेलना कठिन होता है। ऐसे खतरे में पड़कर कई व्यक्ति इतने भयभीत एवं आतंकित होते हमने देखे हैं कि जिनकी छाती की रक्तवाहिनी नाड़ियाँ फट गईं और मुख, नाक तथा मल मार्ग से खून बहने लगा। ऐसे आहत लोगों में से अधिकांश को मृत्यु के मुख में प्रवेश करना पड़ा, जो बचे उनका शरीर और मस्तिष्क विकारग्रस्त हो गया।

भूतोन्माद, मानसिक भ्रम, आवेश, अज्ञात आत्माओं द्वारा कष्ट दिया जाना, दु:स्वप्न, तान्त्रिक के अभिचारी आक्रमण आदि किसी सूक्ष्म प्रक्रिया द्वारा जो व्यक्ति आक्रान्त हो रहा हो, उसे तान्त्रिक प्रयोगों द्वारा रोका जा सकता है और उस प्रयोक्ता पर उसी के प्रयोग को उलटाकर उस अत्याचार का मजा चखाया जा सकता है। परन्तु इस प्रकार के कार्य दक्षिणमार्गी गायत्री उपासना से भी हो सकते हैं। अभिचारियों या दुष्टों पर तात्कालिक उलटा आक्रमण करना तो तन्त्र द्वारा ही सम्भव है, पर हाँ, प्रयत्नों को वेदोक्त साधना से ही निष्फल किया जा सकता है और उनकी शक्ति को छीनकर भविष्य के लिए उन्हें विषरहित सर्प जैसा हतवीर्य बनाया जा सकता है। तन्त्र द्वारा किन्हीं स्त्री-पुरुषों की काम-शक्ति अपहरण करके उन्हें नपुंसक बना दिया जाता है, पर अति असंयम को दक्षिण मार्ग द्वारा भी संयमित किया जा सकता है। तन्त्र की शक्ति प्रधानत: मारक एवं आक्रमणकारी होती है, पर योग द्वारा शोधन, परिमार्जन, संचय एवं रचनात्मक निर्माण कार्य किया जाता है।

तन्त्र के चमत्कारी प्रलोभन असाधारण हैं। दूसरों पर आक्रमण करना तो उनके द्वारा बहुत ही सरल है। किसी को बीमारी, पागलपन, बुद्धिभ्रम, उच्चाटन उत्पन्न कर देना, प्राणघातक संकट में डाल देना आसान है। सूक्ष्म जगत् में भ्रमण करती हुई किसी ‘चेतनाग्रन्थि’ को प्राणवान् बनाकर उससे प्रेत, पिशाच, वैताल, भैरव, कर्ण पिशाचिनी, छाया पुरुष आदि के रूप में सेवक की तरह काम लेना, सुदूर देशों से अजनबी चीजें मँगा देना, गुप्त रखी हुई चीजें या अज्ञात व्यक्तियों के नाम-पते बता देना तान्त्रिक के लिए सम्भव है। आगे चलकर वेश बदल लेना या किसी वस्तु का रूप बदल देना भी उनके लिए सम्भव है। इसी प्रकार की अनेकों विलक्षणताएँ उनमें देखी जाती हैं, जिससे लोग बहुत प्रभावित होते हैं और उनकी भेंट-पूजा भी खूब होती है। परन्तु स्मरण रखना चाहिए कि इन व्यक्तियों की स्रोत परमाणुगत ऊष्मा (काली) ही है जो परिवर्तनशील है। यदि थोड़े दिनों साधना बन्द रखी जाए या प्रयोग छोड़ दिया जाए, तो उस शक्ति का घट जाना या समाप्त हो जाना अवश्यम्भावी है।

तन्त्र द्वारा कुछ छोटे-मोटे लाभ भी हो सकते हैं। किसी के तान्त्रिक आक्रमण को निष्फल करके किसी निर्दोष की हानि को बचा देना ऐसा ही सदुपयोग है। तान्त्रिक विधि से ‘शक्तिपात’ करके अपनी उत्तम शक्तियों का कुछ भाग किसी निर्बल मन वाले को देकर उसे ऊँचा उठा देना भी सदुपयोग ही है। और भी कुछ ऐसे ही प्रयोग हैं जिन्हें विशेष परिस्थिति में काम में लाया जाए, तो वह भी सदुपयोग ही कहा जाएगा। परन्तु असंस्कृत मनुष्य इस तमोगुण प्रधान शक्ति का सदा सदुपयोग ही करेंगे, इसका कुछ भरोसा नहीं। स्वार्थ साधना का अवसर हाथ में आने पर उसका लाभ छोड़ना किन्हीं विरलों का ही काम होता है।

तन्त्र अपने आप में कोई बुरी चीज नहीं है। वह एक विशुद्ध विज्ञान है। वैज्ञानिक लोग यन्त्रों और रासायनिक पदार्थों की सहायता से प्रकृति की सूक्ष्म शक्तियों का उपयोग करते हैं। तान्त्रिक अपने को ऐसी रासायनिक एवं यान्त्रिक स्थिति में ढाल लेता है कि अपने शरीर और मन को एक विशेष प्रकार से संचालित करके प्रकृति की सूक्ष्म शक्तियों का मनमाना उपयोग करे। इस विज्ञान का विद्यार्थी कोमल परमाणुओं वाला होना चाहिए, साथ ही साहसी प्रकृति का भी, कठोर और कमजोर मन वाले इस दिशा में अधिक प्रगति नहीं कर पाते। यही कारण है कि पुरुषों की अपेक्षा स्त्रियाँ अधिक आसानी से सफल तान्त्रिक बनती देखी गई हैं। छोटी-छोटी प्रारम्भिक सिद्धियाँ तो उन्हें स्वल्प प्रयत्न से ही प्राप्त हो जाती हैं।

तन्त्र एक स्वतन्त्र विज्ञान है। विज्ञान का दुरुपयोग भी हो सकता है और सदुपयोग भी। परन्तु इसका आधार अनुचित और खतरनाक है और शक्ति प्राप्त करने के उद्गत स्रोत अनैतिक, अवाञ्छनीय हैं, साथ ही प्राप्त सिद्धियाँ भी अस्थायी हैं। आमतौर से तान्त्रिक घाटे में रहता है। उससे संसार का जितना उपकार हो सकता है, उससे अधिक उपकार होता है, इसलिए चमत्कारी होते हुए भी इस मार्ग को निषिद्ध एवं गोपनीय ठहराया गया है। अन्य समस्त तन्त्र साधनों की अपेक्षा गायत्री का वाममार्ग अधिक शक्तिशाली है। अन्य सभी विधियों की अपेक्षा इस विधि से मार्ग सुगम पड़ता है, फिर भी निषिद्ध वस्तु त्याज्य है सर्वसाधारण के लिए तो उससे दूर रहना ही उचित है।

यों तन्त्र की कुछ सरल विधियाँ भी हैं। अनुभवी पथ-प्रदर्शक इन कठिनाइयों का मार्ग सरल बना सकते हैं। हिंसा, अनीति एवं अकर्म से बचकर ऐसे लाभों के लिए साधन कर सकते हैं जो व्यावहरिक जीवन में उपयोगी हों और अनर्थ से बचकर स्वार्थ-साधन होता रहे। पर यह लाभ तो दक्षिणमार्गी साधन से भी हो सकते हैं। जल्दबाजी का प्रलोभन छोड़कर यदि धैर्य और सात्त्विक साधन किए जाएँ तो उनके भी कम लाभ नहीं हैं। हमने दोनों मार्गों का लम्बे समय तक साधन करके यही पाया है कि दक्षिण मार्ग का राजपथ ही सर्वसुलभ है।

गायत्री द्वारा साधित तन्त्रविद्या का क्षेत्र बड़ा विस्तृत है। सर्प-विद्या, प्रेतविद्या, भविष्य-ज्ञान, अदृश्य वस्तुओं का देखना, परकाया-प्रवेश, घात-प्रतिघात, दृष्टि-बन्धन, मारण, उन्मादकरण, वशीकरण, विचार-सन्दोह, मोहनमन्त्र, रूपान्तरण, विस्मृत, सन्तान सुयोग, छाया पुरुष, भैरवी, अपहरण, आकर्षण-अभिकर्षण आदि अनेक ऐसे-ऐसे कार्य हो सकते हैं, जिनको अन्य किसी भी तान्त्रिक प्रक्रिया द्वारा किया जा सकता है। परन्तु यह स्पष्ट है कि तन्त्र की प्रणाली सर्वोपयोगी नहीं है, उसके अधिकारी कोई बिरले ही होते हैं।

दक्षिणमार्गी, वेदोक्त, योगसम्मत, गायत्री-साधना किसान द्वारा अन्न उपजाने के समान, धर्मसंगत, स्थिर लाभ देने वाली और लोक परलोक में सुखशान्ति देने वाली है। पाठकों का वास्तविक हित इसी राजपथ के अवलम्बन में है। दक्षिण मार्ग से, वेदोक्त साधन से जो लाभ मिलते हैं, वे ही आत्मा को शान्ति देने वाले, स्थायी रूप से उन्नति करने वाले एवं कठिनाइयों को हल करने वाले हैं। तन्त्र में चमत्कार बहुत हैं, वाममार्ग से आसुरी शक्तियाँ प्राप्त होती हैं, उसकी संहारक एवं आतंकवादी क्षमता बहुत है, परन्तु इससे किसी का भला नहीं हो सकता। तात्कालिक लाभ को ध्यान में रखकर जो लोग तन्त्र के फेर में पड़ते हैं, वे अन्तत: घाटे में रहते हैं। तन्त्रविद्या के अधिकारी वही हो सकते हैं जो तुच्छ स्वार्थों से ऊँचे उठे हुए हैं। परमाणु बम के रहस्य और प्रयोग हर किसी को नहीं बताए जा सकते, इसी प्रकार तन्त्र की खतरनाक जिम्मेदारी केवल सत्पात्रों को ही सौंपी जा सकती है।

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