• News
  • Blogs
  • Gurukulam
English हिंदी
×

My Notes


  • TOC
    • गायत्री महाविज्ञान भाग १
    • गायत्री महाविज्ञान भाग ३
    • गायत्री महाविज्ञान भाग २
    • गायत्री द्वारा कुण्डलिनी जागरण
    • वेदमाता गायत्री की उत्पत्ति
    • ब्रह्म की स्फुरणा से गायत्री का प्रादुर्भाव
    • गायत्री सूक्ष्म शक्तियों का स्रोत है
    • गायत्री साधना से शक्तिकोशों का उद्भव
    • शरीर में गायत्री मंत्र के अक्षर
    • गायत्री और ब्रह्म की एकता
    • महापुरुषों द्वारा गायत्री महिमा का गान
    • त्रिविध दु:खों का निवारण
    • गायत्री उपेक्षा की भर्त्सना
    • गायत्री साधना से श्री समृद्धि और सफलता
    • गायत्री साधना से आपत्तियों का निवारण
    • जीवन का कायाकल्प
    • नारियों को वेद एवं गायत्री का अधिकार
    • देवियों की गायत्री साधना
    • गायत्री का शाप विमोचन और उत्कीलन का रहस्य
    • गायत्री की मूर्तिमान प्रतिमा यज्ञोपवीत (जनेऊ)
    • साधकों के लिये उपवीत आवश्यक है
    • गायत्री साधना का उद्देश्य
    • निष्काम साधना का तत्त्व ज्ञान
    • गायत्री से यज्ञ का सम्बन्ध
    • साधना- एकाग्रता और स्थिर चित्त से होनी चाहिए
    • पापनाशक और शक्तिवर्धक तपश्चर्याएँ
    • आत्मशक्ति का अकूत भण्डार :: अनुष्ठान
    • सदैव शुभ गायत्री यज्ञ
    • महिलाओं के लिये विशेष साधनाएँ
    • एक वर्ष की उद्यापन साधना
    • गायत्री साधना से अनेकों प्रयोजनों की सिद्धि
    • गायत्री का अर्थ चिन्तन
    • साधकों के स्वप्न निरर्थक नहीं होते
    • साधना की सफलता के लक्षण
    • सिद्धियों का दुरुपयोग न होना चाहिये
    • यह दिव्य प्रसाद औरों को भी बाँटिये
    • गायत्री महाविज्ञान भाग ३ भूमिका
    • गायत्री के पाँच मुख
    • अनन्त आनन्द की साधना
    • गायत्री मञ्जरी
    • उपवास - अन्नमय कोश की साधना
    • आसन - अन्नमय कोश की साधना
    • तत्त्व शुद्धि - अन्नमय कोश की साधना
    • तपश्चर्या - अन्नमय कोश की साधना
    • अन्नमय कोश और उसकी साधना
    • मनोमय कोश की साधना
    • ध्यान - मनोमय कोश की साधना
    • त्राटक - मनोमय कोश की साधना
    • जप - मनोमय कोश की साधना
    • तन्मात्रा साधना - मनोमय कोश की साधना
    • विज्ञानमय कोश की साधना
    • सोऽहं साधना - विज्ञानमय कोश की साधना
    • आत्मानुभूति योग - विज्ञानमय कोश की साधना
    • आत्मचिन्तन की साधना - विज्ञानमय कोश की साधना
    • स्वर योग - विज्ञानमय कोश की साधना
    • वायु साधना - विज्ञानमय कोश की साधना
    • ग्रन्थि-भेद - विज्ञानमय कोश की साधना
    • आनन्दमय कोश की साधना
    • नाद साधना - आनन्दमय कोश की साधना
    • बिन्दु साधना - आनन्दमय कोश की साधना
    • कला साधना - आनन्दमय कोश की साधना
    • तुरीयावस्था - आनन्दमय कोश की साधना
    • पंचकोशी साधना का ज्ञातव्य
    • गायत्री-साधना निष्फल नहीं जाती
    • पञ्चमुखी साधना का उद्देश्य
    • गायत्री का तन्त्रोक्त वाम-मार्ग
    • गायत्री की गुरु दीक्षा
    • आत्मकल्याण की तीन कक्षाएँ
    • मन्त्र दीक्षा - आत्मकल्याण की तीन कक्षाएँ
    • अग्नि दीक्षा - आत्मकल्याण की तीन कक्षाएँ
    • ब्रह्म दीक्षा - आत्मकल्याण की तीन कक्षाएँ
    • कल्याण मन्दिर का प्रवेश द्वार - आत्मकल्याण की तीन कक्षाएँ
    • ब्रह्मदीक्षा की दक्षिणा आत्मदान - आत्मकल्याण की तीन कक्षाएँ
    • वर्तमानकालीन कठिनाइयाँ - आत्मकल्याण की तीन कक्षाएँ
  • My Note
  • Books
    • SPIRITUALITY
    • Meditation
    • EMOTIONS
    • AMRITVANI
    • PERSONAL TRANSFORMATION
    • SOCIAL IMPROVEMENT
    • SELF HELP
    • INDIAN CULTURE
    • SCIENCE AND SPIRITUALITY
    • GAYATRI
    • LIFE MANAGEMENT
    • PERSONALITY REFINEMENT
    • UPASANA SADHANA
    • CONSTRUCTING ERA
    • STRESS MANAGEMENT
    • HEALTH AND FITNESS
    • FAMILY RELATIONSHIPS
    • TEEN AND STUDENTS
    • ART OF LIVING
    • INDIAN CULTURE PHILOSOPHY
    • THOUGHT REVOLUTION
    • TRANSFORMING ERA
    • PEACE AND HAPPINESS
    • INNER POTENTIALS
    • STUDENT LIFE
    • SCIENTIFIC SPIRITUALITY
    • HUMAN DIGNITY
    • WILL POWER MIND POWER
    • SCIENCE AND RELIGION
    • WOMEN EMPOWERMENT
  • Akhandjyoti
  • Login
  • TOC
    • गायत्री महाविज्ञान भाग १
    • गायत्री महाविज्ञान भाग ३
    • गायत्री महाविज्ञान भाग २
    • गायत्री द्वारा कुण्डलिनी जागरण
    • वेदमाता गायत्री की उत्पत्ति
    • ब्रह्म की स्फुरणा से गायत्री का प्रादुर्भाव
    • गायत्री सूक्ष्म शक्तियों का स्रोत है
    • गायत्री साधना से शक्तिकोशों का उद्भव
    • शरीर में गायत्री मंत्र के अक्षर
    • गायत्री और ब्रह्म की एकता
    • महापुरुषों द्वारा गायत्री महिमा का गान
    • त्रिविध दु:खों का निवारण
    • गायत्री उपेक्षा की भर्त्सना
    • गायत्री साधना से श्री समृद्धि और सफलता
    • गायत्री साधना से आपत्तियों का निवारण
    • जीवन का कायाकल्प
    • नारियों को वेद एवं गायत्री का अधिकार
    • देवियों की गायत्री साधना
    • गायत्री का शाप विमोचन और उत्कीलन का रहस्य
    • गायत्री की मूर्तिमान प्रतिमा यज्ञोपवीत (जनेऊ)
    • साधकों के लिये उपवीत आवश्यक है
    • गायत्री साधना का उद्देश्य
    • निष्काम साधना का तत्त्व ज्ञान
    • गायत्री से यज्ञ का सम्बन्ध
    • साधना- एकाग्रता और स्थिर चित्त से होनी चाहिए
    • पापनाशक और शक्तिवर्धक तपश्चर्याएँ
    • आत्मशक्ति का अकूत भण्डार :: अनुष्ठान
    • सदैव शुभ गायत्री यज्ञ
    • महिलाओं के लिये विशेष साधनाएँ
    • एक वर्ष की उद्यापन साधना
    • गायत्री साधना से अनेकों प्रयोजनों की सिद्धि
    • गायत्री का अर्थ चिन्तन
    • साधकों के स्वप्न निरर्थक नहीं होते
    • साधना की सफलता के लक्षण
    • सिद्धियों का दुरुपयोग न होना चाहिये
    • यह दिव्य प्रसाद औरों को भी बाँटिये
    • गायत्री महाविज्ञान भाग ३ भूमिका
    • गायत्री के पाँच मुख
    • अनन्त आनन्द की साधना
    • गायत्री मञ्जरी
    • उपवास - अन्नमय कोश की साधना
    • आसन - अन्नमय कोश की साधना
    • तत्त्व शुद्धि - अन्नमय कोश की साधना
    • तपश्चर्या - अन्नमय कोश की साधना
    • अन्नमय कोश और उसकी साधना
    • मनोमय कोश की साधना
    • ध्यान - मनोमय कोश की साधना
    • त्राटक - मनोमय कोश की साधना
    • जप - मनोमय कोश की साधना
    • तन्मात्रा साधना - मनोमय कोश की साधना
    • विज्ञानमय कोश की साधना
    • सोऽहं साधना - विज्ञानमय कोश की साधना
    • आत्मानुभूति योग - विज्ञानमय कोश की साधना
    • आत्मचिन्तन की साधना - विज्ञानमय कोश की साधना
    • स्वर योग - विज्ञानमय कोश की साधना
    • वायु साधना - विज्ञानमय कोश की साधना
    • ग्रन्थि-भेद - विज्ञानमय कोश की साधना
    • आनन्दमय कोश की साधना
    • नाद साधना - आनन्दमय कोश की साधना
    • बिन्दु साधना - आनन्दमय कोश की साधना
    • कला साधना - आनन्दमय कोश की साधना
    • तुरीयावस्था - आनन्दमय कोश की साधना
    • पंचकोशी साधना का ज्ञातव्य
    • गायत्री-साधना निष्फल नहीं जाती
    • पञ्चमुखी साधना का उद्देश्य
    • गायत्री का तन्त्रोक्त वाम-मार्ग
    • गायत्री की गुरु दीक्षा
    • आत्मकल्याण की तीन कक्षाएँ
    • मन्त्र दीक्षा - आत्मकल्याण की तीन कक्षाएँ
    • अग्नि दीक्षा - आत्मकल्याण की तीन कक्षाएँ
    • ब्रह्म दीक्षा - आत्मकल्याण की तीन कक्षाएँ
    • कल्याण मन्दिर का प्रवेश द्वार - आत्मकल्याण की तीन कक्षाएँ
    • ब्रह्मदीक्षा की दक्षिणा आत्मदान - आत्मकल्याण की तीन कक्षाएँ
    • वर्तमानकालीन कठिनाइयाँ - आत्मकल्याण की तीन कक्षाएँ
  • My Note
  • Books
    • SPIRITUALITY
    • Meditation
    • EMOTIONS
    • AMRITVANI
    • PERSONAL TRANSFORMATION
    • SOCIAL IMPROVEMENT
    • SELF HELP
    • INDIAN CULTURE
    • SCIENCE AND SPIRITUALITY
    • GAYATRI
    • LIFE MANAGEMENT
    • PERSONALITY REFINEMENT
    • UPASANA SADHANA
    • CONSTRUCTING ERA
    • STRESS MANAGEMENT
    • HEALTH AND FITNESS
    • FAMILY RELATIONSHIPS
    • TEEN AND STUDENTS
    • ART OF LIVING
    • INDIAN CULTURE PHILOSOPHY
    • THOUGHT REVOLUTION
    • TRANSFORMING ERA
    • PEACE AND HAPPINESS
    • INNER POTENTIALS
    • STUDENT LIFE
    • SCIENTIFIC SPIRITUALITY
    • HUMAN DIGNITY
    • WILL POWER MIND POWER
    • SCIENCE AND RELIGION
    • WOMEN EMPOWERMENT
  • Akhandjyoti
  • Login




Books - गायत्री महाविज्ञान

Media: TEXT
Language: HINDI
TEXT TEXT SCAN TEXT


तत्त्व शुद्धि - अन्नमय कोश की साधना

Listen online

View page note

Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
×

Add Note


First 40 42 Last
यह सृष्टि पञ्चतत्त्वों से बनी हुई है। प्राणियों के शरीर भी इन तत्त्वों से बने हुए हैं। मिट्टी, जल, वायु, अग्नि और आकाश, इन पाँच तत्त्वों का यह सब कुछ सम्प्रसार है। जितनी वस्तुएँ दृष्टिगोचर होती हैं या इन्द्रियों द्वारा अनुभव में आती हैं, उन सबकी उत्पत्ति पञ्चतत्त्वों द्वारा हुई है। वस्तुओं का परिवर्तन, उत्पत्ति, विकास तथा विनाश इन तत्त्वों की मात्रा में परिवर्तन आने से होता है।

यह प्रसिद्ध है कि जलवायु का स्वास्थ्य पर प्रभाव पड़ता है। शीत प्रधान देशों तथा यूरोपियन लोगों का रंग, रूप, कद, स्वास्थ्य अफ्रीका के तथा उष्ण प्रदेशवासियों के रंग, रूप, कद, स्वास्थ्य से सर्वथा भिन्न होता है। पंजाबी, कश्मीरी, बंगाली, मद्रासी लोगों के शरीर एवं स्वास्थ्य की भिन्नता प्रत्यक्ष है। यह जलवायु का ही अन्तर है।

किन्हीं प्रदेशों में मलेरिया, पीला बुखार, पेचिस, चर्मरोग, फीलपाँव, कुष्ठ आदि रोगों की बाढ़- सी रहती है और किन्हीं स्थान की जलवायु ऐसी होती है कि वहाँ जाने पर तपेदिक सरीखे कष्टसाध्य रोग भी अच्छे हो जाते हैं। पशु- पक्षी, घास- अन्न, फल, औषधि आदि के रंग, रूप, स्वास्थ्य, गुण, प्रकृति आदि में भी जलवायु के अनुसार अन्तर पड़ता है। इसी प्रकार वर्षा, गर्मी, सर्दी का तत्त्व परिवर्तन प्राणियों में अनेक प्रकार के सूक्ष्म परिवर्तन कर देता है।

आयुर्वेद शास्त्र में वात- पित्त का असन्तुलन रोगों का कारण बताया है। वात का अर्थ है- वायु, पित्त का अर्थ है- गरमी, कफ का अर्थ है- जल। पाँच तत्त्वों में पृथ्वी शरीर का स्थिर आधार है। मिट्टी से ही शरीर बना है और जला देने या गाड़ देने पर केवल मिट्टी रूप में ही इसका अस्तित्व रह जाता है, इसलिए पृथ्वी तत्त्व तो शरीर का स्थिर आधार होने से वह रोग आदि का कारण नहीं बनता।

दूसरे आकाश का सम्बन्ध मन से, बुद्धि एवं इन्द्रियों की सूक्ष्म तन्मात्राओं से है। स्थूल शरीर पर जलवायु और गर्मी का ही प्रभाव पड़ता है और उन्हीं प्रभावों के आधार पर रोग एवं स्वास्थ्य बहुत कुछ निर्भर रहते हैं।

वायु की मात्रा में अन्तर आ जाने से गठिया, लकवा, दर्द, कम्प, अकड़न, गुल्म, हड़फूटन, नाड़ी विक्षेप आदि रोग उत्पन्न होते हैं।

अग्रि तत्त्व के विकार से फोड़े- फुन्सी, चेचक, ज्वर, रक्त- पित्त, हैजा, दस्त, क्षय, श्वास, उपदंश, रक्तविकार आदि बढ़ते हैं।

जलतत्त्व की गड़बड़ी से जलोदर, पेचिस, संग्रहणी, बहुमूत्र, प्रमेह, स्वप्नदोष, सोम, प्रदर, जुकाम, अकड़न, अपच, शिथिलता सरीखे रोग उठ खड़े होते हैं। इस प्रकार तत्त्वों के घटने- बढ़ने से अनेक रोग उत्पन्न होते हैं।

आयुर्वेद के मत से विशेष प्रभावशाली, गतिशील, सक्रिय एवं स्थूल इस शरीर को स्थिर करने वाले कफ, वात- पित्त, अर्थात् जल- वायु ही हैं। दैनिक जीवन में जो उतार- चढ़ाव होते रहते हैं, उनमें इन तीन का ही प्रधान कारण होता है; फिर भी शेष दो तत्त्व पृथ्वी और आकाश शरीर पर स्थिर रूप में काफी प्रभाव डालते हैं। मोटा या पतला होना, लम्बा या ठिगना होना, रूपवान् या कुरूप होना, गोरा या काला होना, कोमल या सुदृढ़ होना शरीर में पृथ्वी तत्त्व की स्थिति से सम्बन्धित है। इसी प्रकार चतुरता- मूर्खता, सदाचार- दुराचार, नीचता- महानता, तीव्र बुद्धि- मन्द बुद्धि, सनक- दूरदर्शिता, खिन्नता- प्रसन्नता एवं गुण, कर्म, स्वभाव, इच्छा, आकांक्षा, भावना, आदर्श, लक्ष्य आदि बातें इस पर निर्भर रहती हैं कि आकाश तत्त्व की स्थिति क्या है? उन्माद, सनक, दिल की धड़कन, अनिद्रा, पागलपन, दुःस्वप्न, मृगी, मूर्च्छा, घबराहट, निराशा आदि रोगों में भी आकाश ही प्रधान कारण होता है।

रसोई का स्वादिष्ट तथा लाभदायक होना इस बात पर निर्भर है कि उनमें पड़ने वाली चीजें नियत मात्रा में हों। चावल, दलिया, दाल, हलुआ, रोटी आदि में अग्नि का प्रयोग कम रहे या अधिक हो जाए तो वह खाने लायक न होगी। इसी प्रकार पानी, नमक, चीनी, घी आदि की मात्रा बहुत कम या अधिक हो जाए तो भोजन का स्वाद, गुण तथा रूप बिगड़ जाएगा।

यही दशा शरीर की है। तत्त्वों की मात्रा में गड़बड़ी पड़ जाने से स्वास्थ्य में निश्चित रूप से खराबी आ जाती है। जलवायु, सर्दी- गर्मी (ऋतु प्रभाव) के कारण रोगी मनुष्य नीरोग और नीरोग रोगी बन सकता है।

योग- साधकों को जान लेना चाहिए कि पञ्चतत्त्वों से बने शरीर को सुरक्षित रखने का आधार यह है कि देह में सभी तत्त्व स्थिर मात्रा में रहें। गायत्री के पाँच मुख शरीर में पाँच तत्त्व बनकर निवास करते हैं। यही पाँच ज्ञानेन्द्रियों और पाँच कर्मेन्द्रियों को क्रियाशील रखते हैं। लापरवाही, अव्यवस्था और आहार- विहार के असंयम से तत्त्वों का सन्तुलन बिगड़कर रोगग्रस्त होना एक प्रकार से पञ्चमुखी गायत्री माता का, देह परमेश्वरी का तिरस्कार करना है।

वेदान्त शास्त्र में इन पाँच तत्त्वों को आत्मा का आवरण एवं बन्धन माना गया है। भगवान् शंकराचार्य ने ‘तत्त्व- बोध’ की संकेत पिटिका में ‘पञ्चीकरण विद्या’ बताई है। उनका कथन है कि बन्धन से मुक्ति प्राप्त करने के लिए पहले हमें यह भलीभाँति जान लेना चाहिए कि यह संसार और कुछ नहीं, केवल पञ्चभूतों के परमाणुओं का इधर- उधर उड़ते फिरना, संयुक्त और विमुक्त होते रहना मात्र है। जैसे वायु से प्रेरित बादल इधर- उधर उड़ते हैं तो उनके संयोग- वियोग से आकाश में पर्वत, रीछ, सिंह, पक्षी, वृक्ष, गुफा जैसे नाना प्रकार के कौतूहलपूर्ण चित्र क्षण- क्षण में बनते- बिगड़ते रहते हैं, उसी प्रकार इस संसार में नाना प्रकार के निर्माण, विकास और ध्वंस होते रहते हैं।

जैसे बादलों से बनने वाले चित्र मिथ्या हैं, भ्रम हैं, भुलावा हैं, स्वप्न हैं, वैसे ही संसार माया, भ्रम या स्वप्न है। यह पाँच भूतों के उड़ने- फिरने का खेल मात्र है। इसलिए उसे लीलाधर की लीला, नटवर की कला या माया बताया गया है।

कई अदूरदर्शी व्यक्ति ‘संसार- स्वप्न है’ यह सुनते ही आगबबूला हो जाते हैं और वेदान्त शास्त्र पर यह आरोप लगाते हैं कि इन विचारों के द्वारा लोगों में अकर्मण्यता, निराशा, निरुत्साह, अनिच्छा पैदा होगी और सांसारिक उन्नति की महत्त्वाकांक्षा शिथिल हो जाने से हमारा समाज या राष्ट्र पिछड़ा रह जाएगा। यह आक्षेप बहुत ही उथला और अविवेकपूर्ण है।

वेदान्त विरोधी इतना तो जानते ही हैं कि हमें मरना है और मरने पर कोई भी वस्तु साथ नहीं जाती। इतनी जानकारी होते हुए भी वे सांसारिक उन्नति को छोड़ते नहीं। स्वप्न में भी सब काम होते रहते हैं। इसी प्रकार शरीर का निर्माण भी ऐसे ढंग से हुआ है, उसमें पेट की, इन्द्रियों की, मन की क्षुधाएँ इतना प्रबल लगा दी गई हैं कि बिना कर्त्तव्यपरायण हुए कोई प्राणी क्षणभर भी चैन से नहीं बैठ सकता। निष्रिषुय व्यक्ति के लिए तो जीवन धारण किए रहना भी असम्भव है।

वेदान्त ने संसार की दार्शनिक विवेचना करते हुए उसे पञ्चभूतों का अस्थिर परमाणु- पुञ्ज, स्वप्न बताया है। इसका फलितार्थ यह होना चाहिए कि हम आत्मिक लाभ के लिए ही सांसारिक वस्तुओं का उपार्जन एवं उपयोग करें। वस्तुओं की मोहकता पर आसक्त होकर उनके सञ्चय एवं अनियन्त्रित भोगों की मृगतृष्णा से अपने आत्मिक हितों का बलिदान न करें।

कर्त्तव्यरत रहना तो शरीर का स्वाभाविक धर्म है, इसे त्यागना किसी भी जीवित व्यक्ति के लिए सम्भव नहीं। वेदान्त की यह शिक्षा कि यह संसार पञ्चभूतों की क्रीड़ास्थली मात्र है, पूर्णतया विज्ञान सम्मत है। दार्शनिकों की भाँति वैज्ञानिक भी यही बताते हैं कि अणु- परमाणुओं के द्रुतगति से परिभ्रमण करने के कारण संसार की गतिशीलता है और पञ्चतत्त्वों से बने हुए ९६ जाति के परमाणु ही संसार की वस्तुओं, देहों, योनियों के उत्पादन एवं विनाश के हेतु हैं।

‘पञ्चीकरण विद्या’ के अनुसार साधक जब भली प्रकार यह बात हृदयङ्गम कर लेता है कि यह संसार उड़ते हुए परमाणुओं के संयोग- वियोग से क्षण- क्षण में बनने- बिगड़ने वाली चित्रावली मात्र है, तो उसका दृष्टिकोण भौतिक न रहकर आत्मिक हो जाता है। वह वस्तुओं का अनावश्यक मोह न करके उन बुराइयों से बच जाता है, जो लोभ और मोह को भड़काकर नाना प्रकार के पाप, तृष्णा, द्वेष, चिन्ता, शोक और अभावजन्य क्लेशों से जीवन को नारकीय बनाए हुए हैं।

देह या मन को अपना मानने का कोई कारण नहीं। यह जड़, परिवर्तनशील देह भी संसार के अन्य पदार्थों की भाँति ही पञ्चभौतिक है, इसलिए इसको अपने उपयोग की वस्तु, औजार या सवारी समझकर आनन्दमयी जीवन- यात्रा के लिए प्रयुक्त करना तो चाहिए, पर देह या मन की आवश्यक तृष्णाओं के पीछे आत्मा को परेशान नहीं करना चाहिए। इस मान्यता को हृदयंगम कराने के लिए शरीर का विश्लेषण करते हुए ‘तत्त्व- बोध’ में बताया गया है कि किस तत्त्व से शरीर का कौन- सा भाग बनता है?

पृथ्वी तत्त्व की प्रधानता से अस्थि, मांस, त्वचा, नाड़ी, रोम, आदि भारी पदार्थ बने हैं। जल की प्रधानता से मूत्र, कफ, रक्त, शुक्र आदि हुआ करते हैं। अग्नि तत्त्व के कारण भूख, प्यास, श्रम, थकान, निद्रा, क्लान्ति आदि का अस्तित्व है। वायु तत्त्व में चलना- फिरना, गति, क्रिया, सिकुड़ना- फैलना होता है। आकाश तत्त्व से काम, क्रोध, लोभ, मोह, भय आदि वृत्तियों, इच्छाओं और विचारधाराओं का आविर्भाव हुआ करता है। तात्पर्य यह है कि शरीर में जो कुछ अंग- प्रत्यंग, पदार्थ तथा प्रेरणा है, वह पञ्चतत्त्वों के आधार पर है।

जब इस प्रपञ्च रूप संसार और पञ्चावरण शरीर में से ‘अहम्’ की मान्यता हटाकर विश्वव्यापी चैतन्य आत्मा में अपने को परिव्याप्त मान लिया जाता है, तो वह परिपूर्ण मान्यता ही मुक्ति बन जाती है। शरीर और संसार की पञ्चभौतिक सत्ता को ‘प्रपञ्च’ शब्द से सम्बोधित किया गया है और वेदान्त शास्त्र में योग साधना का आदर्श है कि ‘मैं’ और ‘मेरा’ द्वैत छोड़कर केवल ‘मैं’ का अद्वैत सीखो। ‘विश्व में जो कुछ है, वह मैं आत्मा हूँ, मुझसे भिन्न कुछ नहीं’ यह मान्यता अद्वैत ब्रह्म को प्राप्त करा देती है।

इसी बात को भक्तिमार्गी दूसरे शब्दों में कहते हैं—‘जो कुछ है- तू है, मेरा अलग अपनत्व कुछ नहीं।’ दोनों ही मान्यताएँ बिल्कुल एक हैं। भक्तिमार्ग और वेदान्त में शब्दों के फेर के अतिरिक्त वस्तुतः कुछ अन्तर नहीं है।

अन्नमय कोश के परिमार्जन के लिए तीसरा उपाय ‘तत्त्वशुद्धि’ है। स्थूल रूप से शरीर के पञ्चतत्त्वों को ठीक रखने के लिए जल, वायु, ऋतु, प्रदेश और वातावरण का ध्यान रखना आवश्यक है। सूक्ष्म रूप से पञ्चीकरण विद्या के अनुसार तत्त्वज्ञान प्राप्त करके आत्मतत्त्व और अनात्मतत्त्व के अन्तर को समझते हुए प्रपञ्च से छुटकारा पाना चाहिए। तत्त्वशुद्धि के दोनों ही पहलू महत्त्वपूर्ण हैं। जिसे अपना अन्नमय कोश ठीक रखना है, उसे व्यावहारिक जीवन में पञ्चतत्त्वों की शुद्धि सम्बन्धी बातों का भी विशेष ध्यान रखना चाहिए।

(१) जल तत्त्व—जल से शरीर और वस्त्रों की शुद्धि बराबर करता रहे। स्नान करने का उद्देश्य केवल मैल छुड़ाना नहीं, वरन् पानी में रहने वाली ‘विशिवा’ नामक विद्युत् से देह को सतेज करना एवं ऑक्सीजन, नाइट्रोजन आदि बहुमूल्य तत्त्वों से शरीर को सींचना भी है। सबेरे शौच जाने से बीस- तीस मिनट पूर्व एक गिलास पानी पीना चाहिए जिससे रात का अपच धुल जाए और शौच साफ हो।

पानी को सदा घूँट- घूँट कर धीरे- धीरे दूध की तरह पीना चाहिए। हर घूँट के साथ यह भावना करते जाना चाहिए कि ‘इस अमृत तुल्य जल में जो शीतलता, मधुरता और शक्ति भरी हुई है, उसे खींचकर मैं अपने शरीर में धारण कर रहा हूँ।’ इस भावना के साथ पिया हुआ पानी दूध के समान गुणकारक होता है।

जिन स्थानों का पानी भारी, खारी, तेलिया, उथला, तालाबों का तथा हानिकारक हो, वहाँ रहने पर अन्नमय कोश में विकार पैदा होता है। कई स्थानों में पानी ऐसा होता है कि वहाँ फीलपाँव, अण्ड नासूर, जलोदर, कुष्ठ, खुजली, मलेरिया, जुएँ, मच्छर आदि का बहुत प्रसार होता है। ऐसे स्थानों को छोड़कर स्वस्थ, हलके, सुपाच्य जल के समीप अपना निवास रखना चाहिए। धनी लोग दूर स्थानों से भी अपने लिए उत्तम जल मँगा सकते हैं।

कभी- कभी एनिमा द्वारा पेट में औषधि मिश्रित जल चढ़ाकर आँतों की सफाई कर लेनी चाहिए। उससे सञ्चित मलों से उत्पन्न विष पेट में से निकल जाते हैं और चित्त बड़ा हलका हो जाता है। प्राचीनकाल में वस्ति क्रिया योग का आवश्यक अंग थी। अब एनिमा यन्त्र द्वारा यह क्रिया सुगम हो गई है।

जल चिकित्सा पद्धति रोग निवारण एवं स्वास्थ्य सम्वर्द्धन के लिए बड़ी उपयुक्त है। डॉक्टर लुईक ने इस विज्ञान पर स्वतन्त्र ग्रन्थ लिखे हैं। उनकी बताई पद्धति से किए गए कटि स्नान, मेहन स्नान, मेरुदण्ड स्नान, गीली चादर लपेटना, कपड़े का पलस्तर आदि से रोग निवारण में बड़ी सहायता मिलती है।

(२) अग्नि तत्त्व—सूर्य के प्रकाश के अधिक सम्पकर् में रहने का प्रयत्न करना चाहिए। घर की सभी खिड़कियाँ खुली रहनी चाहिए ताकि धूप और हवा खूब आती रहे। सबेरे की धूप नंगे शरीर पर लेने का प्रयत्न करना चाहिए। सूर्यताप से तपाए हुए जल का उपयोग करना, भीगे बदन पर धूप लेना उपयोगी है।

सूर्य की सप्त किरणें, अल्ट्रा वायलेट और अल्फा वायलेट किरणें स्वास्थ्य के लिए बड़ी उपयोगी साबित हुई हैं। वे जल के साथ धूप का मिश्रण होने से खिंच आती हैं। धूप में रखकर रंगीन काँच से संपूर्ण रोगों की चिकित्सा करने की विस्तृत विधि तथा अग्नि और जल के सम्मिश्रण से भाप बन जाने पर उसके द्वारा अनेक रोगों का उपचार करने की विधि सूर्य चिकित्सा विज्ञान की किसी भी प्रामाणिक पुस्तक से देखी जा सकती है।

रविवार को उपवास रखना सूर्य की तेजस्विता एवं बलदायिनी शक्ति का आह्वान है। पूरा या आंशिक उपवास शरीर की कान्ति और आत्मिक तेज को बढ़ाने वाला सिद्ध होता है।

(३) वायु तत्त्व—घनी आबादी के मकान जहाँ धूल, धुआँ, सील की भरमार रहती है और शुद्ध वायु का आवागमन नहीं होता, वे स्थान स्वास्थ्य के लिए खतरनाक हैं। हमारा निवास खुली हवा में होना चाहिए। दिन में वृक्ष और पौधों से ओषजन वायु (ऑक्सीजन) निकलती है, वह मनुष्य के लिए बड़ी उपयोगी है। जहाँ तक हो सके वृक्ष- पौधों के बीच अपना दैनिक कार्यक्रम करना चाहिए। अपने घर, आँगन, चबूतरे आदि पर वृक्ष- पौधे लगाने चाहिए।

प्रातःकाल की वायु बड़ी स्वास्थ्यप्रद होती है, उसे सेवन करने के लिए तेज चाल से टहलने के लिए जाना चाहिए। दुर्गन्धित एवं बन्द हवा के स्थान से अपना निवास दूर ही रखना चाहिए। तराई, सील, नमी के स्थानों की वायु, ज्वर आदि पैदा करती है। तेज हवा के झोकों से त्वचा फट जाती है। अधिक ठण्डी या गर्म हवा से निमोनिया या लू लगना जैसे रोग हो सकते हैं। इस प्रकार के प्रतिकूल मौसम से अपनी रक्षा करनी चाहिए।

प्राणायाम द्वारा फेफड़ों का व्यायाम होता है और शुद्ध वायु से रक्त की शुद्धि होती है। इसलिए स्वच्छ वायु के स्थान में बैठकर नित्य प्राणायाम करना चाहिए। प्राणायाम की विधि प्राणमय कोश की साधना के प्रकरण में लिखेंगे।

हवन करना—अग्नि तत्त्व के संयोग से हवन, वायु को शुद्ध करता है। जो वस्तु अग्नि में जलाई जाती है, वह नष्ट नहीं होती वरन् सूक्ष्म होकर वायुमण्डल में फैल जाती है। भिन्न- भिन्न वृक्षों की समिधाओं एवं हवन सामग्रियों में अलग- अलग गुण हैं। उनके द्वारा ऐसा वायुमण्डल रखा जा सकता है, जो शरीर और मन को स्वस्थ बनाने में सहायक हो। किस समिधा और किन- किन सामग्रियों से किस विधान के साथ हवन करने का क्या परिणाम होता है? इसका विस्तृत विधान बताने के लिए ‘गायत्री यज्ञ विधान’ लिखा गया है।

गायत्री साधकों को तो अपने अन्नमय कोश की वायु शुद्धि के लिए कुछ हवन सामग्री बनाकर रख लेनी चाहिए, जिसे धूपदानी में थोड़ी- थोड़ी जलाकर उससे अपने निवास स्थान की वायु शुद्धि करते रहना चाहिए।

चन्दन चूरा, देवदारु, जायफल, इलायची, जावित्री, अगर- तगर, कपूर, छार- छबीला, नागरमोथा, खस, कर्पूर कचरी तथा मेवाएँ जौ कूट करके थोड़ा घी और शक्कर मिलाकर धूप बन जाती है। इस धूप की बड़ी मनमोहक एवं स्वास्थ्यवर्द्धक गन्ध आती है। बाजार से भी कोई अच्छी अगरबत्ती या धूपबत्ती लेकर काम चलाया जा सकता है। साधना काल में सुगन्ध की ऐसी व्यवस्था कर लेना उत्तम है।

श्वास मुुँह से नहीं, सदा नाक से ही लेना चाहिए। कपड़े से मुँह ढककर नहीं सोना चाहिए और किसी के मुँह के इतना पास नहीं सोना चाहिए कि उसकी छोड़ी हुई साँस अपने भीतर जाए। धूलि, धुआँ और दुर्गन्धभरी अशुद्ध वायु से सदा बचना चाहिए।

(४) पृथ्वी तत्त्व—शुद्ध मिट्टी में विष- निवारण की अद्भुत शक्ति होती है। गन्दे हाथों को मिट्टी से माँजकर शुद्ध किया जाता है। प्राचीनकाल में ऋषि- मुनि जमीन खोदकर गुफा बना लेते थे और उसमें रहा करते थे। इससे उनके स्वास्थ्य पर बड़ा अच्छा असर पड़ता था। मिट्टी उनके शरीर के दूषित विकारों को खींच लेती थी, साथ ही भूमि से निकलने वाले वाष्प द्वारा देह का पोषण भी होता रहता था। समाधि लगाने के लिए गुफाएँ उपयुक्त स्थान समझी जाती हैं, क्योंकि चारों ओर मिट्टी से घिरे होने के कारण शरीर को साँस द्वारा ही बहुत- सा आहार प्राप्त हो जाता है और कई दिनों तक भोजन की आवश्यकता नहीं पड़ती या कम भोजन से काम चल जाता है।

छोटे बालक जो प्रकृति के अधिक समीप हैं, पृथ्वी के महत्त्व को जानते हैं। वे भूमि पर खेलना, भूमि पर लेटना गद्दों- तकियों की अपेक्षा अधिक पसन्द करते हैं। पशुओं को देखिए, वे अपनी थकान मिटाने के लिए जमीन पर लोट लगाते हैं और लोट- पोटकर पृथ्वी की पोषण शक्ति से फिर ताजगी प्राप्त कर लेते हैं। तीर्थयात्रा एवं धर्म- कार्यों के लिए नंगे पैरों चलने का विधान है। तपस्वी लोग भूमि पर शयन करते हैं।

इन प्रथाओं का उद्देश्य धर्म- साधना के नाम पर पृथ्वी की पोषक शक्ति द्वारा साधकों को लाभान्वित करना ही है। पक्के मकानों की अपेक्षा मिट्टी के झोंपड़ों में रहने वाले सदा अधिक स्वस्थ रहते हैं।

मिट्टी के उपयोग द्वारा स्वास्थ्य सुधार में हमें बहुत सहायता मिलती है। निर्दोष, पवित्र भूमि पर नंगे पाँवों टहलना चाहिए। जहाँ छोटी- छोटी हरी घास उग रही हो, वहाँ टहलना तो और भी अच्छा है।

पहलवान लोग चाहे वे अमीर ही क्यों न हों, रुई के गद्दों पर कसरत करने की अपेक्षा मुलायम मिट्टी के अखाड़ों में ही व्यायाम करते हैं, ताकि मिट्टी के अमूल्य गुणों का लाभ उनके शरीर को प्राप्त हो। साबुन के स्थान पर पोतनी या मुलतानी मिट्टी का उपयोग भी किया जा सकता है। वह मैल को दूर करेगी, विष को खींचेगी और त्वचा को कोमल, ताजा, चमकीला और प्रफुल्लित कर देगी।

मिट्टी शरीर पर लगाकर स्नान करना एक अच्छा उबटन है। इससे गर्मी के दिनों में उठने वाली घमोरियाँ और फुन्सियाँ दूर हो जाती हैं। सिर के बालों को मुलतानी मिट्टी से धोने का रिवाज अभी तक मौजूद है। इससे सिर का मैल दूर हो जाता है, खुरन्ट जमने बन्द हो जाते हैं, बाल काले, मुलायम एवं चिकने रहते हैं तथा मस्तिष्क में बड़ी तरावट पहुँचती है। हाथ साफ करने और बरतन माँजने के लिए मिट्टी से अच्छी और कोई चीज नहीं है।

फोड़े, फुन्सी, दाद, खाज, गठिया, जहरीले जानवरों के काटने, सूजन, जख्म, गिल्टी, नासूर, दुःखती हुई आँखों, कुष्ठ, उपदंश, रक्त विकार आदि रोगों पर गीली मिट्टी बाँधने से आश्चर्यजनक लाभ होता है। डॉ. लुईक ने अपनी जल चिकित्सा में मिट्टी की पट्टी के अनेक उपचार लिखे हैं। चूल्हे की जली हुई मिट्टी से दाँत माँजने, नाक के रोगों में मिट्टी के ढेले पर पानी डालकर सुँघाने, लू लगने पर पैरों के ऊपर मिट्टी थोप लेने की विधि से सब लोग परिचित हैं।

किसी स्थान पर बहुत समय तक मल- मूत्र डालते रहें, तो डालना बन्द कर देने के बाद भी बहुत समय तक वहाँ दुर्गन्ध आती रहती है। कारण यह है कि भूमि में शोषण शक्ति है, वह पदार्थों को सोख लेती है और उसका प्रभाव बहुत समय तक अपने अन्दर धारण किए रहती है।

पृथ्वी की सूक्ष्म शक्ति लोगों के सूक्ष्म विचारों और गुणों को सोखकर अपने में धारण कर लेती है। जिन स्थानों पर हत्या, व्यभिचार, जुआ आदि दुष्कर्म होते हैं, उन स्थानों का वातावरण ऐसा घातक हो जाता है कि वहाँ जाने वालों पर उनका प्रभाव पड़े बिना नहीं रहता।

श्मशान भूमि जहाँ अनेक मृत शरीर नष्ट हो जाते हैं, अपने में एक भयंकरता छिपाए बैठी रहती है। वहाँ जाने पर एक विलक्षण प्रभाव मनुष्य पर पड़ता है। अनेक तान्त्रिक साधना तो ऐसी हैं जिनके लिए केवल मरघट का वातावरण ही उपयुक्त होता है।

भूमिगत प्रभाव से गायत्री साधकों को लाभ उठाना चाहिए। जहाँ सत्पुरुष रहते हैं, जहाँ स्वाध्याय, सद्विचार, सत्कार्य होते हैं, वे स्थान प्रत्यक्ष तीर्थ हैं। उन स्थानों का वातावरण साधना की सफलता में बड़ा लाभदायक होता है। जिन स्थानों में किसी समय में कोई अवतार या दिव्य पुरुष रहे हैं, उन स्थानों की प्रभाव- शक्ति का सूक्ष्म निरीक्षण करके तीर्थ बनाए गए हैं। जहाँ कोई सिद्ध पुरुष या तपस्वी बहुत काल तक रहे हैं, वह स्थान सिद्धपीठ बन जाते हैं और वहाँ रहने वालों पर अनायास ही अपना प्रभाव डालते हैं।

सूक्ष्मदर्शी महात्माओं ने देखा है कि भगवान् कृष्ण की प्रत्यक्ष लीला तरंगें अभी तक ब्रजभूमि में बड़ी प्रभावपूर्ण स्थिति में मौजूद हैं। तीर्थवासियों के दूषित चित्तों के बावजूद इस भूमि की प्रभाव- शक्ति अब भी बनी हुई है और साधक को उसका स्पर्श होते ही शान्ति मिलती है। कितने ही मुमुक्षु अपनी आत्मिक शान्ति के लिए इस पुण्यभूमि में निवास करने का स्थायी या अल्पकालीन अवसर निकालते हैं। कारण यह है कि क्लेशयुक्त वातावरण के स्थान में जितने श्रम और समय में जितनी सफलता मिलती है, उसकी अपेक्षा पुण्य भूमि के वातावरण में कहीं जल्दी और कहीं अधिक लाभ होता है। तीर्थ- स्थानों में नंगे पैर भ्रमण करने का भी माहात्म्य इसलिए है कि उन स्थानों की पुण्य तरंगें अपने शरीर से स्पर्श करके आत्मशान्ति का हेतु बनें।

(५) आकाश तत्त्व—आकाश तत्त्व पिछले चार तत्त्वों की अपेक्षा अधिक सूक्ष्म होने से अधिक शक्तिशाली है। विश्वव्यापी पोल में, शून्याकाश में एक शक्तितत्त्व भरा हुआ है, जिसे अंगरेजी में ‘ईथर’ कहते हैं। पोले स्थान को खाली नहीं समझना चाहिए। वह वायु से सूक्ष्म होने के कारण प्रत्यक्ष रूप से अनुभव नहीं होता, तो भी उसका अस्तित्व पूर्णतया प्रमाणित है।

रेडियो द्वारा जो गायन, समाचार, भाषण आदि हम सुनते हैं, वे ईथर में, प्रकाश तत्त्व में तरंगों के रूप में आते हैं। जैसे पानी में ढेला फेंक देने पर उसकी लहर बनती है, इसी प्रकार ईथर (आकाश) में शब्दों की तरंगें पैदा होती हैं और पलक मारते विश्वभर में फैल जाती हैं। इसी विज्ञान के आधार पर रेडियो यन्त्र का आविष्कार हुआ है। एक स्थान पर शब्द- तरंगों के साथ बिजली की शक्ति मिलाकर उन्हें अधिक बलवती करके प्रवाहित कर दिया जाता है। अन्य स्थानों पर जहाँ रेडियो यन्त्र लगे हैं, उन आकाश में बहने वाली तरंगों को पकड़ लिया जाता है और प्रेषित सन्देश सुनाई देने लगते हैं।

वाणी चार प्रकार की होती हैं— (१) वैखरी- जो मुँह से बोली और कानों से सुनी जाती है, जिसे ‘शब्द’ कहते हैं। (२) मध्यमा- जो संकेतों से, मुखाकृति से, भावभंगी से, नेत्रों से कही जाती है, इसे ‘भाव’ कहते हैं। (३) पश्यन्ती- जो मन से निकलती है और मन ही उसे सुन सकता है, इसे ‘विचार’ कहते हैं। (४) परा- यह आकांक्षा, इच्छा, निश्चय, प्रेरणा, शाप, वरदान आदि के रूप में अन्तःकरण से निकलती है, इसे ‘संकल्प’ कहते हैं। यह चारों ही वाणियाँ आकाश में तरंग रूप से प्रवाहित होती हैं। जो व्यक्ति जितना ही प्रभावशाली है, उसके शब्द, भाव, विचार और संकल्प आकाश में उतने ही प्रबल होकर प्रवाहित होते हैं।

आकाश में असंख्य प्रकृति के असंख्य व्यक्तियों द्वारा असंख्य प्रकार की स्थूल एवं सूक्ष्म शब्दावली प्रेषित होती रहती हैं। हमारा अपना मन जिस केन्द्र पर स्थिर होता है, उसी जाति के असंख्य प्रकार के विचार हमारे मस्तिष्क में धँस जाते हैं और अदृश्य रूप से उन अपने पूर्व निर्धारित विचारों की पुुष्टि करना आरम्भ कर देते हैं। यदि हमारा अपना विचार व्यभिचार करने का हो, तो असंख्य व्यभिचारियों द्वारा आकाश में प्रेषित किए गए वैसे ही शब्द, भाव, विचार और संकल्प हमारे ऊपर बरस पड़ते हैं और वैसे ही उपाय, सुझाव, मार्ग बताकर उसी ओर प्रोत्साहित कर देते हैं।

हमारे अपने स्वनिर्मित विचारों में एक मौलिक चुम्बकत्व होता है। उसी के अनुरूप आकाशगामी विचार हमारी ओर खिंचते हैं। रेडियो में जिस स्टेशन के मीटर पर सुई कर दी जाए, उसी के सन्देश सुनाई पड़ते हैं और उसी समय में जो अन्य स्टेशन बोल रहे हैं, उनकी वाणी हमारे रेडियो से टकराकर लौट जाती है, वह सुनाई नहीं देती। उसी प्रकार हमारे अपने स्वनिर्मित मौलिक विचार ही अपने सजातियों को आमन्त्रित करते हैं।

मरी लाश को देखकर कौआ चिल्लाता है तो सैकड़ों कौए उसकी आवाज सुनकर जमा हो जाते हैं। ऐसे ही अपने विचार भी सजातियों को बुलाकर एक अच्छी- खासी सेना जमा कर लेते हैं। फिर उस विचार- सैन्य की प्रबलता के आधार पर उसी दिशा में कार्य भी आरम्भ हो जाता है।

आकाश तत्त्व की इस विलक्षणता को ध्यान में रखते हुए हमें कुविचारों से विषधर सर्प की भाँति सावधान रहना चाहिए, अन्यथा वे अनेक स्वजातियों को बुलाकर हमारे लिए संकट उत्पन्न कर देंगे। जब कोई कुविचार मन में आए, तो तत्क्षण उसे मार भगाना चाहिए, अन्यथा वह सारे मानस क्षेत्र को वैसे ही खराब कर देगा, जैसे विष की थोड़ी- सी बूँद सारे भोजन को बिगाड़ देती है।

मन में सदा उत्तम, उच्च, उदार, सात्त्विक विचारों को ही स्थान देना चाहिए, जिससे उसी जाति के विचार अखिल आकाश में से खिंचकर हमारी ओर चले आयें और सन्मार्ग की ओर प्रेरित करें। उत्तम बात सोचते रहने, स्वाध्याय, मनन, आत्मचिन्तन, परमार्थ और उपासनामयी मनोभूमि हमारा बहुत कुछ कल्याण कर सकती है। यदि प्रतिकूल कार्य नहीं हो रहे हों, तो उच्च विचारधारा से भी सद्गति प्राप्त हो सकती है, भले ही उन विचारों के अनुरूप कार्य न हो रहे हों।

संकल्प कभी नष्ट नहीं होते। पूर्वकाल में ऋषि- मुनियों के, महापुरुषों के जो विचार, प्रवचन एवं संकल्प थे, वे अब भी आकाश में गूँज रहे हैं। यदि हमारी मनोभूमि अनुकूल हो, तो उन दिव्य आत्माओं का पथ- प्रदर्शन एवं सहारा भी हमें अवश्य प्राप्त होता रहेगा।

परब्रह्म की ब्राह्मी प्रेरणाएँ, शक्तियाँ, किरणें एवं तरगें भी आकाश द्वारा ही मानव अन्तःकरण को प्राप्त होती हैं। दैवी शक्तियाँ ईश्वर की विविध गुणों वाली किरणें ही तो हैं, आकाश द्वारा मन के माध्यम से उनका अवतरण होता है।

शिवजी ने आकाशवाहिनी गंगा को अपने शिर पर उतारा था, तब वह पृथ्वी पर बही थी। ब्रह्म की सर्वप्रधान दिव्य शक्ति आकाशवाहिनी गायत्री- गंगा को साधक सबसे पहले अपने मनःक्षेत्र में उतारता है। यह अवतरण होने पर ही जीवन के अन्य अंगों में वह पतितपावनी पुण्यधारा प्रवाहित होती है।

शरीर में मन या मस्तिष्क आकाश का प्रतिनिधि है। उसी में आकाशगामी, परम कल्याणकारक तत्त्वों का अवतरण होता है। इसलिए साधक को अपना मनःक्षेत्र ऐसा शुद्ध, परिमार्जित, स्वस्थ एवं सचेत रखना चाहिए, जिससे गायत्री का अवतरण बिना किसी कठिनाई के हो सके।
First 40 42 Last


Other Version of this book



Gayatri Mahavigyan Part 2
Type: SCAN
Language: EN
...

गायत्री महाविज्ञान-भाग ३
Type: SCAN
Language: EN
...

गायत्री महाविज्ञान भाग 2
Type: TEXT
Language: HINDI
...

गायत्री महाविज्ञान (तृतीय भाग)
Type: TEXT
Language: HINDI
...

Super Science of Gayatri
Type: SCAN
Language: ENGLISH
...

गायत्री महाविज्ञान
Type: SCAN
Language: HINDI
...

Gayatri Mahavigyan Part 1
Type: SCAN
Language: EN
...

Gayatri Mahavigyan Part 3
Type: SCAN
Language: EN
...

गायत्री महाविज्ञान-भाग १
Type: SCAN
Language: MARATHI
...

गायत्री महाविज्ञान-भाग २
Type: SCAN
Language: EN
...

गायत्री महाविज्ञान
Type: TEXT
Language: HINDI
...


Releted Books



गहना कर्मणोगतिः
Type: TEXT
Language: HINDI
...

गहना कर्मणोगतिः
Type: TEXT
Language: HINDI
...

गहना कर्मणोगतिः
Type: TEXT
Language: HINDI
...

गहना कर्मणोगतिः
Type: TEXT
Language: HINDI
...

गहना कर्मणोगतिः
Type: TEXT
Language: HINDI
...

गहना कर्मणोगतिः
Type: TEXT
Language: HINDI
...

गहना कर्मणोगतिः
Type: TEXT
Language: HINDI
...

गहना कर्मणोगतिः
Type: TEXT
Language: HINDI
...

गहना कर्मणोगतिः
Type: TEXT
Language: HINDI
...

गहना कर्मणोगतिः
Type: TEXT
Language: HINDI
...

गहना कर्मणोगतिः
Type: TEXT
Language: HINDI
...

21st Century The Dawn Of The Era Of Divine Descent On Earth
Type: SCAN
Language: ENGLISH
...

21st Century The Dawn Of The Era Of Divine Descent On Earth
Type: SCAN
Language: ENGLISH
...

21st Century The Dawn Of The Era Of Divine Descent On Earth
Type: SCAN
Language: ENGLISH
...

21st Century The Dawn Of The Era Of Divine Descent On Earth
Type: SCAN
Language: ENGLISH
...

21st Century The Dawn Of The Era Of Divine Descent On Earth
Type: SCAN
Language: ENGLISH
...

21st Century The Dawn Of The Era Of Divine Descent On Earth
Type: SCAN
Language: ENGLISH
...

21st Century The Dawn Of The Era Of Divine Descent On Earth
Type: SCAN
Language: ENGLISH
...

21st Century The Dawn Of The Era Of Divine Descent On Earth
Type: SCAN
Language: ENGLISH
...

21st Century The Dawn Of The Era Of Divine Descent On Earth
Type: SCAN
Language: ENGLISH
...

21st Century The Dawn Of The Era Of Divine Descent On Earth
Type: SCAN
Language: ENGLISH
...

21st Century The Dawn Of The Era Of Divine Descent On Earth
Type: SCAN
Language: ENGLISH
...

21st Century The Dawn Of The Era Of Divine Descent On Earth
Type: SCAN
Language: ENGLISH
...

गहना कर्मणोगतिः
Type: TEXT
Language: HINDI
...

Articles of Books

  • गायत्री महाविज्ञान भाग १
  • गायत्री महाविज्ञान भाग ३
  • गायत्री महाविज्ञान भाग २
  • गायत्री द्वारा कुण्डलिनी जागरण
  • वेदमाता गायत्री की उत्पत्ति
  • ब्रह्म की स्फुरणा से गायत्री का प्रादुर्भाव
  • गायत्री सूक्ष्म शक्तियों का स्रोत है
  • गायत्री साधना से शक्तिकोशों का उद्भव
  • शरीर में गायत्री मंत्र के अक्षर
  • गायत्री और ब्रह्म की एकता
  • महापुरुषों द्वारा गायत्री महिमा का गान
  • त्रिविध दु:खों का निवारण
  • गायत्री उपेक्षा की भर्त्सना
  • गायत्री साधना से श्री समृद्धि और सफलता
  • गायत्री साधना से आपत्तियों का निवारण
  • जीवन का कायाकल्प
  • नारियों को वेद एवं गायत्री का अधिकार
  • देवियों की गायत्री साधना
  • गायत्री का शाप विमोचन और उत्कीलन का रहस्य
  • गायत्री की मूर्तिमान प्रतिमा यज्ञोपवीत (जनेऊ)
  • साधकों के लिये उपवीत आवश्यक है
  • गायत्री साधना का उद्देश्य
  • निष्काम साधना का तत्त्व ज्ञान
  • गायत्री से यज्ञ का सम्बन्ध
  • साधना- एकाग्रता और स्थिर चित्त से होनी चाहिए
  • पापनाशक और शक्तिवर्धक तपश्चर्याएँ
  • आत्मशक्ति का अकूत भण्डार :: अनुष्ठान
  • सदैव शुभ गायत्री यज्ञ
  • महिलाओं के लिये विशेष साधनाएँ
  • एक वर्ष की उद्यापन साधना
  • गायत्री साधना से अनेकों प्रयोजनों की सिद्धि
  • गायत्री का अर्थ चिन्तन
  • साधकों के स्वप्न निरर्थक नहीं होते
  • साधना की सफलता के लक्षण
  • सिद्धियों का दुरुपयोग न होना चाहिये
  • यह दिव्य प्रसाद औरों को भी बाँटिये
  • गायत्री महाविज्ञान भाग ३ भूमिका
  • गायत्री के पाँच मुख
  • अनन्त आनन्द की साधना
  • गायत्री मञ्जरी
  • उपवास - अन्नमय कोश की साधना
  • आसन - अन्नमय कोश की साधना
  • तत्त्व शुद्धि - अन्नमय कोश की साधना
  • तपश्चर्या - अन्नमय कोश की साधना
  • अन्नमय कोश और उसकी साधना
  • मनोमय कोश की साधना
  • ध्यान - मनोमय कोश की साधना
  • त्राटक - मनोमय कोश की साधना
  • जप - मनोमय कोश की साधना
  • तन्मात्रा साधना - मनोमय कोश की साधना
  • विज्ञानमय कोश की साधना
  • सोऽहं साधना - विज्ञानमय कोश की साधना
  • आत्मानुभूति योग - विज्ञानमय कोश की साधना
  • आत्मचिन्तन की साधना - विज्ञानमय कोश की साधना
  • स्वर योग - विज्ञानमय कोश की साधना
  • वायु साधना - विज्ञानमय कोश की साधना
  • ग्रन्थि-भेद - विज्ञानमय कोश की साधना
  • आनन्दमय कोश की साधना
  • नाद साधना - आनन्दमय कोश की साधना
  • बिन्दु साधना - आनन्दमय कोश की साधना
  • कला साधना - आनन्दमय कोश की साधना
  • तुरीयावस्था - आनन्दमय कोश की साधना
  • पंचकोशी साधना का ज्ञातव्य
  • गायत्री-साधना निष्फल नहीं जाती
  • पञ्चमुखी साधना का उद्देश्य
  • गायत्री का तन्त्रोक्त वाम-मार्ग
  • गायत्री की गुरु दीक्षा
  • आत्मकल्याण की तीन कक्षाएँ
  • मन्त्र दीक्षा - आत्मकल्याण की तीन कक्षाएँ
  • अग्नि दीक्षा - आत्मकल्याण की तीन कक्षाएँ
  • ब्रह्म दीक्षा - आत्मकल्याण की तीन कक्षाएँ
  • कल्याण मन्दिर का प्रवेश द्वार - आत्मकल्याण की तीन कक्षाएँ
  • ब्रह्मदीक्षा की दक्षिणा आत्मदान - आत्मकल्याण की तीन कक्षाएँ
  • वर्तमानकालीन कठिनाइयाँ - आत्मकल्याण की तीन कक्षाएँ
Your browser does not support the video tag.
About Shantikunj

Shantikunj has emerged over the years as a unique center and fountain-head of a global movement of Yug Nirman Yojna (Movement for the Reconstruction of the Era) for moral-spiritual regeneration in the light of hoary Indian heritage.

Navigation Links
  • Home
  • Literature
  • News and Activities
  • Quotes and Thoughts
  • Videos and more
  • Audio
  • Join Us
  • Contact
Write to us

Click below and write to us your commenct and input.

Go

Copyright © SRI VEDMATA GAYATRI TRUST (TMD). All rights reserved. | Design by IT Cell Shantikunj