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Books - गायत्री महाविज्ञान

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तपश्चर्या - अन्नमय कोश की साधना

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तप का अर्थ है- उष्णता, गति, क्रियाशीलता, घर्षण, संघर्ष, तितिक्षा, कष्ट सहना। किसी वस्तु को निर्दोष, पवित्र एवं लाभदायक बनाना होता है तो उसे तपाया जाता है। सोना तपने से खरा हो जाता है। डॉक्टर पहले अपने औजारों को गरम कर लेते हैं, तब उनसे ऑपरेशन करते हैं। चाकू को शान पर न घिसा जाए तो काटने की शक्ति खो बैठेगा। हीरा खराद पर न चढ़ाया जाए तो उसमें चमक और सुन्दरता पैदा न होगी।

व्यायाम का कष्टसाध्य श्रम किए बिना कोई मनुष्य पहलवान नहीं हो सकता। अध्ययन का कठोर श्रम किए बिना विद्वान् बनना सम्भव नहीं। माता बच्चे को गर्भ में रखने एवं पालन- पोषण का कष्ट सहे बिना मातृत्त्व का सुख प्राप्त नहीं कर सकती। कपड़ों को धूप में न सुखाया जाए तो उनमें बदबू आने लगेगी। कोठी में बन्द रखा हुआ अन्न धूप में न डाला जाए तो घुन लग जाएगा। ईंट यदि भट्ठे में न पकें तो उनमें मजबूती नहीं आ सकती। बिना पके भोजन प्राण रक्षा नहीं कर सकता।

प्राचीनकाल में पार्वती ने तप करके मनचाहा फल पाया था। भगीरथ ने तप करके गंगा को भूलोक में बुलाया था। ध्रुव के तप ने भगवान् को द्रवित कर दिया था। तपस्वी लोग कठोर तपश्चर्या करके सिद्धियाँ प्राप्त करते थे। रावण, कुम्भकरण, मेघनाद, हिरण्यकशिपु, भस्मासुर आदि ने भी तप के प्रभाव से विलक्षण वरदान पाए थे। आज भी जिस किसी को जो कुछ प्राप्त हुआ है, वह तप के ही प्रभाव से प्राप्त हुआ है।

ईश्वर तपस्वी पर प्रसन्न होता है और उसे ही अभीष्ट आशीर्वाद देता है। जो धनी, सम्पन्न, सुन्दर, स्वस्थ, विद्वान्, प्रतिभाशाली, नेता, अधिकारी आदि के रूप में चमक रहे हैं, उनकी चमक वर्तमान के या पिछले तप के ऊपर ही अवलम्बित है। यदि वे नया तप नहीं करते और पुरानी तपश्चर्या की पूँजी को खा रहे हैं, तो उनकी चमक पूर्व पूँजी चुकते ही धुँधली हो जाएगी।

जो लोग आज गिरे हुए हैं, उनके उठने का एकमात्र मार्ग है- तप। बिना तप के कोई भी सिद्धि, कोई भी सफलता नहीं मिल सकती, न सांसारिक और न आत्मिक। कल्याण की ताली तप की तिजोरी में रखी हुई है। जो उसे खोलेगा, वही अभीष्ट वस्तु पायेगा।

दोनों हथेलियों को रगड़ा जाए तो वे गरम हो जाती हैं। दो लकड़ियों को घिसा जाए तो अग्नि पैदा हो जाएगी। गति, उष्णता, क्रिया, यह रगड़ का परिणाम है। मशीन को चलाने के लिए उसके किसी भी भाग में धक्का या दचका लगाना पड़ेगा, अन्यथा कीमती से कीमती मशीन भी बन्द ही पड़ी रहेगी।

शरीर को झटका लगाने के लिए व्यायाम या परिश्रम करना आवश्यक है। आत्मा में तेजस्विता, सामर्थ्य एवं चैतन्यता उत्पन्न करने के लिए तप करना होता है। बर्तन को न माँजने, मकान को न झाड़ने से अशुद्धि और मलिनता पैदा हो जाती है। तपश्चर्या छोड़ देने पर आत्मा भी अशक्त, निस्तेज एवं विकारग्रस्त हो जाती है। आलसी और आरामतलब शरीर में अन्नमय कोश की स्वस्थता स्थिर नहीं रह सकती। इसलिए उपवास, आसन, तत्त्वशुद्धि के साथ ही तपश्चर्या को प्रथम कोश की सुव्यवस्था का आवश्यक अंग बताया गया है।

प्राचीनकाल में तपश्चर्या को बड़ा महत्त्व दिया जाता था। जो व्यक्ति जितना परिश्रमी, कष्टसहिष्णु, साहसी, पुरुषार्थी एवं क्रियाशील होता था, उसकी उतनी ही प्रतिष्ठा होती थी। धनी, अमीर, राजा- महाराजा सभी के बालक गुरुकुलों में भेजे जाते थे, ताकि वे कठोर जीवन की शिक्षा प्राप्त करके अपने को इतना सुदृढ़ बना लें कि आपत्तियों से लड़ना और सम्पत्ति को प्राप्त करना सुगम हो सके।

आज तप के, कष्टसहिष्णुता के महत्त्व को लोग भूल गए हैं और आरामतलबी, आलस्य, नजाकत को अमीरी का चिह्न मानने लगे हैं। फलस्वरूप पुरुषार्थ घटता जा रहा है और योग्यता द्वारा उपार्जन करने की अपेक्षा लोग छल, धूर्तता एवं अन्याय द्वारा बड़े बनने का प्रयत्न कर रहे हैं।

गायत्री साधकों को तपस्वी होना चाहिए। अस्वाद व्रत, उपवास, ऋतु- प्रभावों का सहना, तितिक्षा, घर्षण, आत्मकल्प, प्रदातव्य, निष्कासन, साधन, ब्रह्मचर्य, चान्द्रायण, मौन, अर्जन आदि तपश्चर्या की विधि पहले ही विस्तार से लिख चुके हैं। उनकी पुनरुक्ति करने की आवश्यकता नहीं। यहाँ तो इतना कहना पर्याप्त होगा कि अन्नमय कोश को स्वस्थ रखना है तो शरीर और मनका कार्य व्यस्त रखना चाहिए। श्रम, कर्त्तव्यपरायणता, जागरूकता और पुरुषार्थ को सदा साथ रखना चाहिए। समय को बहुमूल्य सम्पत्ति समझकर एक क्षण को भी निरर्थक न जाने देना चाहिए। परोपकार, लोकसेवा, सत्कार्य के लिए दान, यज्ञ भावना से किए जाने वाला परमार्थी जीवन प्रत्यक्ष तप है। दूसरों के लाभ के लिए अपने स्वार्थों का बलिदान करना तपस्वी जीवन का प्रधान चिह्न है। आज की स्थिति में प्राचीनकाल की भाँति तो तप नहीं किए जा सकते। अब शारीरिक स्थिति भी ऐसी नहीं रह गई कि भगीरथ, पार्वती या रावण के जैसे उग्र तप किए जा सकें। दीर्घकाल तक निराहार रहना या बिना विश्राम किए लम्बे समय तक साधनारत रहना आज सम्भव नहीं है। वैसा करने से शरीर तुरन्त पीड़ाग्रस्त हो जाएगा।

सतयुग में लम्बे समय तक दान, तप होते थे, क्योंकि उस समय शरीर में वायु तत्त्व प्रधान था। त्रेता में शरीरों में अग्नि तत्त्व की प्रधानता थी। द्वापर में जल तत्त्व अधिक था। उन युगों में जो साधनाएँ हो सकती थीं, आज नहीं हो सकतीं, क्योंकि आज कलियुग में मानव देहों में पृथ्वी तत्त्व प्रधान है। पृथ्वी तत्त्व अन्य सभी तत्त्वों से स्थूल है, इसलिए आधुनिक काल के शरीर उन तपस्याओं को नहीं कर सकते जो सतयुग, त्रेता आदि में आसानी से होती थीं।

दूसरी बात यह है कि वर्तमान समय में सामाजिक, आर्थिक बौद्धिक व्यवस्थाओं में परिवर्तन हो जाने से मनुष्य के रहन- सहन में बड़ा अन्तर पड़ गया है। बड़े नगरों में निवासियों को यान्त्रिक सभ्यता के बीच में रहने के फलस्वरूप शारीरिक श्रम बहुत कम करना पड़ता है और अधिकांश में कृत्रिम वातावरण के कारण शुद्ध जलवायु से भी वञ्चित रहना पड़ता है। ऐसी अवस्था में शरीर को पूर्वकालीन तप योग्य रहना कहाँ सम्भव हो सकता है?

कुछ समय पूर्व तक नेति, धोति, वस्ति, न्योली, वज्रोली, कपालभाति आदि क्रियाएँ आसानी से हो जाती थीं, उनके करने वाले अनेक योगी देखे जाते थे; पर अब युग- प्रभाव से उनकी साधना कठिन हो गई है। कोई बिरले ही हठयोग में सफल हो पाते हैं। जो किसी प्रकार इन क्रियाओं को करने भी लगते हैं, वे उनसे वह लाभ नहीं उठा पाते जो इन क्रियाओं से होना चाहिए।

अधिकांश हठयोगी तो इन कठिन साधनाओं के कारण किन्हीं कष्टसाध्य रोगों से ग्रसित हो जाते हैं। रक्त, पित्त, अन्त्रदाह, मूलाधार, कफ, अनिद्रा जैसे रोगों से ग्रसित होते हुए हमने अनेक हठयोगी देखे हैं। इसलिए वर्तमान काल की शारीरिक स्थितियों का ध्यान रखते हुए तपश्चर्या में बहुत सावधानी बरतने की आवश्यकता है। आज तो समाज सेवा, ज्ञान- प्रचार, स्वाध्याय, दान, इन्द्रिय संयम आदि के आधार पर ही हमारी तप साधना होनी चाहिए।
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