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Books - गायत्री महाविज्ञान

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स्वर योग - विज्ञानमय कोश की साधना

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First 52 54 Last
विज्ञानमय कोश वायु प्रधान कोश होने के कारण उसकी स्थिति में वायु संस्थान विशेष रूप से सजग रहता है। इस वायु तत्त्व पर यदि अधिकार प्राप्त कर लिया जाए तो अनेक प्रकार से अपना हित सम्पादन किया जा सकता है।

स्वर शास्त्र के अनुसार श्वास-प्रश्वास के मार्गों को नाड़ी कहते हैं। शरीर में ऐसी नाड़ियों की संख्या ७२००० है। इनको सिर्फ नसें न समझना चाहिए, स्पष्टत: यह प्राण-वायु आवागमन के मार्ग हैं। नाभि में इसी प्रकार की एक नाड़ी कुण्डली के आकार में है, जिसमें से (१) इड़ा, (२) पिङ्गला, (३) सुषुम्ना, (४) गान्धारी, (५) हस्त-जिह्वा, (६) पूषा, (७) यशश्विनी, (८) अलम्बुषा, (९) कुहू तथा (१०) शंखिनी नामक दस नाड़ियाँ निकली हैं और यह शरीर के विभिन्न भागों की ओर चली जाती हैं। इनमें से पहली तीन प्रधान हैं। इड़ा को ‘चन्द्र’ कहते हैं जो बाएँ नथुने में है। पिंगला को ‘सूर्य कहते हैं, यह दाहिने नथुने में है। सुषुम्ना को वायु कहते हैं जो दोनों नथुनों के मध्य में है। जिस प्रकार संसार में सूर्य और चन्द्र नियमित रूप से अपना-अपना काम करते हैं, उसी प्रकार इड़ा, पिंगला भी इस जीवन में अपना-अपना कार्य नियमित रूप से करती हैं। इन तीनों के अतिरिक्त अन्य सात प्रमुख नाड़ियों के स्थान इस प्रकार हैं—गान्धारी बायीं आँख में, हस्तजिह्वा दाहिनी आँख में, पूषा दाहिने कान में, यशश्विनी बाएँ कान में, अलम्बुषा मुख में, कुहू लिंग देश में और शंखिनी गुदा (मूलाधार) में। इस प्रकार शरीर के दस द्वारों में दस नाड़ियाँ हैं।

हठयोग में नाभिकन्द अर्थात् कुण्डलिनी स्थान गुदा द्वार से लिंग देश की ओर दो अँगुल हटकर मूलाधार चक्र माना गया है। स्वर योग में वह स्थिति माननीय न होगी। स्वर योग शरीर शास्त्र से सम्बन्ध रखता है और शरीर की नाभि या मध्य केन्द्र गुदा-मूल में नहीं, वरन् उदर की टुण्डी में ही हो सकता है; इसलिए यहाँ ‘नाभि देश’ का तात्पर्य उदर की टुण्डी मानना ही ठीक है। श्वास क्रिया का प्रत्यक्ष सम्बन्ध उदर से ही है, इसलिए प्राणायाम द्वारा उदर संस्थान तक प्राण वायु को ले जाकर नाभि केन्द्र से इस प्रकार घर्षण किया जाता है कि वहाँ की सुप्त शक्तियों का जागरण हो सके।

चन्द्र और सूर्य की अदृश्य रश्मियों का प्रभाव स्वरों पर पड़ता है। सब जानते हैं कि चन्द्रमा का गुण शीतल और सूर्य का उष्ण है। शीतलता से स्थिरता, गम्भीरता, विवेक प्रभृति गुण उत्पन्न होते हैं और उष्णता से तेज, शौर्य, चञ्चलता, उत्साह, क्रियाशीलता, बल आदि गुणों का आविर्भाव होता है। मनुष्य को सांसारिक जीवन में शान्तिपूर्ण और अशान्तिपूर्ण दोनों ही तरह के काम करने पड़ते हैं। किसी भी काम का अन्तिम परिणाम उसके आरम्भ पर निर्भर है। इसलिए विवेकी पुरुष अपने कर्मों को आरम्भ करते समय यह देख लेते हैं कि हमारे शरीर और मन की स्वाभाविक स्थिति इस प्रकार काम करने के अनुकूल है कि नहीं? एक विद्यार्थी को रात में उस समय पाठ याद करने के लिए दिया जाए जबकि उसकी स्वाभाविक स्थिति निद्रा चाहती है, तो वह पाठ को अच्छी तरह याद न कर सकेगा। यदि यही पाठ उसे प्रात:काल की अनुकूल स्थिति में दिया जाए तो आसानी से सफलता मिल जाएगी। ध्यान, भजन, पूजा, मनन, चिन्तन के लिए एकान्त की आवश्यकता है, किन्तु उत्साह भरने और युद्ध के लिए कोलाहलपूर्ण वातावरण की, बाजों की घोर ध्वनि की आवश्यकता होती है। ऐसी उचित स्थितियों में किए कार्य अवश्य ही फलीभूत होते हैं। इसी दृष्टिकोण के आधार पर स्वर-योगियों ने आदेश किया है कि विवेकपूर्ण और स्थायी कार्य चन्द्र स्वर में किए जाने चाहिए; जैसे—विवाह, दान, मन्दिर, कुआँ, तालाब बनाना, नवीन वस्त्र धारण करना, घर बनाना, आभूषण बनवाना, शान्ति के काम, पुष्टि के काम, शफाखाना, औषधि देना, रसायन बनाना, मैत्री, व्यापार, बीज बोना, दूर की यात्रा, विद्याभ्यास, योग क्रिया आदि। यह सब कार्य ऐसे हैं जिनमें अधिक गम्भीरता और बुद्धिपूर्वक कार्य करने की आवश्यकता है, इसलिए इनका आरम्भ भी ऐसे ही समय में होना चाहिए, जब शरीर के सूक्ष्म कोश चन्द्रमा की शीतलता को ग्रहण कर रहे हों।

उत्तेजना, आवेश एवं जोश के साथ करने पर जो कार्य ठीक होते हैं, उनके लिए सूर्य स्वर उत्तम कहा गया है; जैसे— क्रूर कार्य, स्त्री-भोग, भ्रष्ट कार्य, युद्ध करना, देश का ध्वंस करना, विष खिलाना, मद्य पीना, हत्या करना, खेलना; काठ, पत्थर, पृथ्वी एवं रत्न को तोड़ना; तन्त्रविद्या, जुआ, चोरी, व्यायाम, नदी पार करना आदि। यहाँ उपर्युक्त कठोर कर्मों का समर्थन या निषेध नहीं है। शास्त्रकार ने तो एक वैज्ञानिक की तरह विश्लेषण कर दिया है कि ऐसे कार्य उस वक्त अच्छे होंगे, जब सूर्य की उष्णता के प्रभाव से जीवन तत्त्व उत्तेजित हो रहा हो। शान्तिपूर्ण मस्तिष्क से भली प्रकार ऐसे कार्यों को कोई व्यक्ति कैसे कर सकता? इसका तात्पर्य यह भी नहीं कि सूर्य स्वर में अच्छे कार्य नहीं होते। संघर्ष और युद्ध आदि कार्य देश, समाज अथवा आश्रित की रक्षार्थ भी हो सकते हैं और उनको सब कोई प्रशंसनीय बतलाता है। इसी प्रकार विशेष परिश्रम के कार्यों का सम्पादन भी समाज और परिवार के लिए अनिवार्य होता है। वे भी सूर्य स्वर में उत्तमतायुक्त होते हैं।

कुछ क्षण के लिए जब दोनों नाड़ी इड़ा, पिंगला रुककर, सुषुम्ना चलती है, तब प्राय: शरीर सन्धि अवस्था में होता है। वह सन्ध्याकाल है। दिन के उदय और अस्त को भी सन्ध्याकाल कहते हैं। इस समय जन्म या मरण काल के समान पारलौकिक भावनाएँ मनुष्य में जाग्रत् होती हैं और संसार की ओर से विरक्ति, उदासीनता एवं अरुचि होने लगती है। स्वर की सन्ध्या से भी मनुष्य का चित्त सांसारिक कार्यों से कुछ उदासीन हो जाता है और अपने वर्तमान अनुचित कार्यों पर पश्चात्ताप स्वरूप खिन्नता प्रकट करता हुआ, कुछ आत्म-चिन्तन की ओर झुकता है। वह क्रिया बहुत ही सूक्ष्म होती है, अल्पकाल के लिए आती है, इसलिए हम अच्छी तरह पहचान भी नहीं पाते। यदि इस समय परमार्थ चिन्तन और ईश्वराराधना का अभ्यास किया जाए, तो नि:सन्देह उसमें बहुत उन्नति हो सकती है; किन्तु सांसारिक कार्यों के लिए यह स्थिति उपयुक्त नहीं है, इसलिए सुषुम्ना स्वर में आरम्भ होने वाले कार्यों का परिणाम अच्छा नहीं होता, वे अक्सर अधूरे या असफल रह जाते हैं। सुषुम्ना की दशा में मानसिक विकार दब जाते हैं और गहरे आत्मिक भाव का थोड़ा बहुत उदय होता है, इसलिए इस समय में दिए हुए शाप या वरदान अधिकांश फलीभूत होते हैं, क्योंकि इन भावनाओं के साथ आत्म-तत्त्व का बहुत कुछ सम्मिश्रण होता है। इड़ा शीत ऋतु है तो पिंगला ग्रीष्म ऋतु। जिस प्रकार शीत ऋतु के महीनों में शीत की प्रधानता रहती है, उसी प्रकार चन्द्र नाड़ी शीतल होती है और ग्रीष्म ऋतु के महीनों में जिस प्रकार गर्मी की प्रधानता रहती है, उसी प्रकार सूर्य नाड़ी में उष्णता एवं उत्तेजना का प्राधान्य होता है।

स्वर बदलना

कुछ विशेष कार्यों के सम्बन्ध में स्वर शास्त्रज्ञों के जो अनुभव हैं, उनकी जानकारी सर्वसाधारण के लिए बहुत ही सुविधाजनक होगी। बताया गया है कि प्रस्थान करते समय चलित स्वर के शरीर भाग को हाथ से स्पर्श करके उस चलित स्वर वाले कदम को आगे बढ़ाकर (यदि चन्द्र नाड़ी चलती हो तो ४ बार और सूर्य स्वर है तो ५ बार उसी पैर को जमीन पर पटक कर) प्रस्थान करना चाहिए। यदि किसी क्रोधी पुरुष के पास जाना है तो अचलित स्वर (जो स्वर न चल रहा हो) के पैर को पहले आगे बढ़ाकर प्रस्थान करना चाहिए और अचलित स्वर की ओर उस पुरुष को करके बातचीत करनी चाहिए। इसी रीति से उसकी बढ़ी हुई उष्णता को अपना अचलित स्वर की ओर का शान्त भाग अपनी आकर्षण विद्युत् से खींचकर शान्त बना देगा और मनोरथ में सिद्धि प्राप्त होगी। गुरु, मित्र, अफसर, राजदरबार से जबकि बाम स्वर चलित हो, तब वार्तालाप या कार्यारम्भ करना ठीक है।

कई बार ऐसे अवसर आते हैं, जब कार्य अत्यन्त ही आवश्यक हो सकता है, किन्तु उस समय स्वर विपरीत चलता है। तब क्या उस कार्य के किए बिना ही बैठा रहना चाहिए? नहीं, ऐसा करने की जरूरत नहीं है। जिस प्रकार जब रात को निद्रा आती है, किन्तु उस समय कुछ कार्य करना आवश्यक होता है, तब चाय आदि किसी उत्तेजक पदार्थ की सहायता से शरीर को चैतन्य करते हैं, उसी प्रकार हम कुछ उपायों द्वारा स्वर को बदल भी सकते हैं। नीचे कुछ ऐसे नियम लिखे जाते हैं—

(१) जो स्वर नहीं चल रहा, उसे अँगूठे से दबाएँ और जिस नथुने से साँस चलती है, उससे हवा खींचें। फिर जिससे साँस खींची है, उसे दबाकर पहले नथुने से-यानी जिस स्वर को चलाना है, उससे श्वास छोड़ें। इस प्रकार कुछ देर तक बार-बार करें, श्वास की चाल बदल जायेगी।

(२) जिस नथुने से श्वास चल रहा हो, उसी करवट से लेट जायें, तो स्वर बदल जायेगा। इस प्रयोग के साथ पहला प्रयोग करने से स्वर और भी शीघ्र बदलता है।

(३) जिस तरफ का स्वर चल रहा हो, उस ओर की काँख (बगल) में कोई सख्त चीज कुछ देर दबाकर रखो तो स्वर बदल जाता है। पहले और दूसरे प्रयोग के साथ यह प्रयोग भी करने से शीघ्रता होती है।

(४) घी खाने से वाम स्वर और शहद खाने से दक्षिण स्वर चलना कहा जाता है।

(५) चलित स्वर में पुरानी स्वच्छ रूई का फाया रखने से स्वर बदलता है।

बहुधा जिस प्रकार बीमारी की दशा में शरीर को रोग-मुक्त करने के लिए चिकित्सा की जाती है, उसी प्रकार स्वर को ठीक अवस्था में लाने के लिए उन उपायों को काम में लाना चाहिए।

स्वर-संयम से दीर्घ जीवन—प्रत्येक प्राणी का पूर्ण आयु प्राप्त करना, दीर्घ जीवी होना उसकी श्वास क्रिया पर अवलम्बित है। पूर्व कर्मों के अनुसार जीवित रहने के लिए परमात्मा एक नियत संख्या में श्वास प्रदान करता है, वह श्वास समाप्त होने पर प्राणान्त हो जाता है। इस खजाने को जो प्राणी जितनी होशियारी से खर्च करेगा, वह उतने ही अधिक काल तक जीवित रह सकेगा और जो जितना व्यर्थ गँवा देगा, उतनी ही शीघ्र उसकी मृत्यु हो जाएगी। सामान्यत: हर एक मनुष्य दिन-रात में २१६०० श्वास लेता है। इससे कम श्वास लेने वाला दीर्घजीवी होता है, क्योंकि अपने धन का जितना कम व्यय होगा, उतने ही अधिक काल तक वह सञ्चित रहेगा। हमारे श्वास की पूँजी की भी यही दशा है। विश्व के समस्त प्राणियों में जो जीव जितना कम श्वास लेता है, वह उतने ही अधिक काल तक जीवित रहता है। नीचे की तालिका से इसका स्पष्टीकरण हो जाता है।

नाम प्राणी
    

श्वास की गति प्रति मिनट
    

   पूर्ण आयु

खरगोश
    

३८ बार
    

८ वर्ष

बन्दर
    

३२ बार
    

 १० वर्ष

कुत्ता
    

२९ बार
    

११ वर्ष

घोड़ा
    

१९ बार
    

३५ वर्ष

मनुष्य
    

१३ बार
    

१२० वर्ष

साँप
    

८ बार
    

१००० वर्ष

कछुआ
    

५ बार
    

२००० वर्ष

साधारण काम-काज में १२ बार, दौड़-धूप करने में १८ बार और मैथुन करते समय ३६ बार प्रति मिनट के हिसाब से श्वास चलता है, इसलिए विषयी और लम्पट मनुष्य की आयु घट जाती है और प्राणायाम करने वाले योगाभ्यासी दीर्घकाल तक जीवित रहते हैं। यहाँ यह न सोचना चाहिए कि चुपचाप बैठे रहने से कम साँस चलती है, इसलिए निष्क्रिय बैठे रहने से आयु बढ़ जाएगी; ऐसा नहीं हो सकता, क्योंकि निष्क्रिय बैठे रहने से शरीर के अन्य अंग निर्बल, अशक्त और बीमार हो जायेंगे, तदनुसार उनकी साँस का वेग बहुत ही बढ़ जाएगा। इसलिए शारीरिक अंगों को स्वस्थ रखने के लिए परिश्रम करना आवश्यक है; किन्तु शक्ति के बाहर परिश्रम भी नहीं करना चाहिए।

साँस सदा पूरी और गहरी लेनी चाहिए तथा झुककर कभी न बैठना चाहिए। नाभि तक पूरी साँस लेने पर एक प्रकार से कुम्भक हो जाता है और श्वासों की संख्या कम हो जाती है। मेरुदण्ड के भीतर एक प्रकार का तरल जीवन तत्त्व प्रवाहित होता रहता है, जो सुषुम्ना को बलवान् बनाए रखता है, तदनुसार मस्तिष्क की पुष्टि होती रहती है। यदि मेरुदण्ड को झुका हुआ रखा जाए तो उस तरल तत्त्व का प्रवाह रुक जाता है और निर्बल सुषुम्ना मस्तिष्क का पोषण करने से वञ्चित रह जाती है।

सोते समय चित होकर नहीं लेटना चाहिए, इससे सुषुम्ना स्वर चलकर विघ्न पैदा होने की सम्भावना रहती है। ऐसी दशा में अशुभ तथा भयानक स्वप्न दिखाई पड़ते हैं। इसलिए भोजनोपरान्त पहले बाएँ, फिर दाहिने करवट लेटना चाहिए। भोजन के बाद कम से कम १५ मिनट आराम किए बिना यात्रा करना भी उचित नहीं है।

शीतलता से अग्नि मन्द पड़ जाती है और उष्णता से तीव्र होती है। यह प्रभाव हमारी जठराग्नि पर भी पड़ता है। सूर्य स्वर में पाचन शक्ति की वृद्धि रहती है, अतएव इसी स्वर में भोजन करना उत्तम है। इस नियम को सब लोग जानते हैं कि भोजन के उपरान्त बाएँ करवट से लेटे रहना चाहिए। उद्देश्य यही है कि बाएँ करवट लेटने से दक्षिण स्वर चलता है जिससे पाचन शक्ति प्रदीप्त होती है।

इड़ा, पिंगला और सुषुम्ना की गतिविधि पर ध्यान रखने से वायु-तत्त्व पर अपना अधिकार होता है। वायु के माध्यम से कितनी ही ऐसी बातें जानी जा सकती हैं, जिन्हें साधारण लोग नहीं जानते। मकड़ी को वर्षा से बहुत पहले पता लग जाता है कि मेघ बरसने वाला है, तदनुसार वह अपनी रक्षा का प्रबन्ध पहले से ही कर लेती है। कारण यह है कि वायु के साथ वर्षा का सूक्ष्म संयोग मिला रहता है, उसे मनुष्य समझ नहीं पाता; पर मकड़ी अपनी चेतना से यह अनुभव कर लेती है कि इतने समय बाद इतने वेग से पानी बरसने वाला है। मकड़ी में जैसी सूक्ष्म वायु परीक्षण चेतना होती है, उससे भी अधिक प्रबुद्ध चेतना स्वर-योगी को मिल जाती है। वह वर्षा, गर्मी को ही नहीं वरन् उससे भी सूक्ष्म बातें, भविष्य की सम्भावनाएँ, दुर्घटनाएँ, परिवर्तनशीलताएँ, विलक्षणताएँ अपनी दिव्यदृष्टि से जान लेता है।

कई स्वर-ज्ञाता ज्योतिषियों की भाँति इस विद्या द्वारा भविष्यवक्ताओं जैसा व्यवसाय करते हैं। स्वर के आधार पर ही मूक प्रश्न, तेजी-मन्दी, खोई वस्तु का पता, शुभ-अशुभ मुहूर्त आदि बातें बताते हैं। असफल होने की आशंका वाले, दुस्साहसपूर्ण कार्य करने वाले लोग भी स्वर का आश्रय लेकर अपना काम करते हैं। चोर, डाकू आदि इस सम्बन्ध में विशेष ध्यान रखते हैं। व्यापार, राजद्वार, चिकित्सा आदि जोखिम और जिम्मेदारी के कामों में भी स्वर विद्या के नियमों का ध्यान रखा जाता है। इस सम्बन्ध में ‘अखण्ड-ज्योति’ पत्रिका में सगय-समय पर तद्विषयक जानकारी प्रकाशित होती रहती है। उस सुविस्तृत ज्ञान का विवेचन यहाँ नहीं हो सकता। इस समय तो हमें केवल यह विचार करना है कि स्वर साधन से विज्ञानमय कोश की सुव्यवस्था में हमें किस प्रकार सहायता मिल सकती है।
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