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Books - ब्रह्मवर्चस् साधना की ध्यान - धारणा

Media: TEXT
Language: HINDI
TEXT


2. (क) पंचकोशों का स्वरूप

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पांच कोशों को पांच शरीर ही माना गया है—(1) अन्नमय कोश को फिजिकल बॉडी (2) प्राणमय कोश को ईथरिक बॉडी (3) मनोमय कोश को एस्ट्रल बॉडी (4) विज्ञानमय कोश को कॉस्मिक बॉडी (5) आनन्दमय कोश को कॉजल बॉडी कहते हैं। अन्नमय कोश ऐसे पदार्थों का बना है जो आंखों से देखे और हाथ से छुए जा सकते हैं, जिस पर शल्य क्रिया और चिकित्सा उपचार का प्रभाव पड़ता है। इसके अतिरिक्त चार शरीर ऐसे सूक्ष्म तत्वों से बने हैं जो इन्द्रियगम्य तो नहीं हैं किन्तु बुद्धिगम्य अवश्य हैं। उनके अस्तित्व का परिचय उनकी गतिविधियों से उत्पन्न होने वाली प्रतिक्रियाओं को देखकर आसानी से जाना जा सकता है। जीवित मनुष्य में आंका जाने वाला विद्युत प्रवाह, तेजोवलय एवं मरने के बाद प्रेत सत्ता के रूप में अनुभव आने वाला कलेवर प्राणमय कोश कहा जाता है। मानसिक कल्पनाओं, बौद्धिक प्रखरताओं के फलस्वरूप जो विज्ञान, कला, साहित्य आदि के क्षेत्रों में चमत्कारी उपलब्धियां सामने आती हैं वे मनोमय कोश की विकृतियां कही जा सकती हैं।

यों प्राण को नाड़ी समूह में काम करने वाली और कोशिकाओं में उभरने वाली बिजली के रूप में आंका जा सकता है। मन को मस्तिष्क के अणुओं में लिपटा हुआ पाया जा सकता है। फिर भी यह प्राण और मन चेतना के स्वतन्त्र स्तर हैं जो नाड़ी संस्थान और मस्तिष्क संस्थान के माध्यम से प्रकट होते हैं। यों तो आत्मा का परिचय भी शरीर के माध्यम से ही मिलता है, फिर भी आत्मा का स्वतन्त्र अस्तित्व शरीर से भिन्न है। विज्ञानमय कोश चेतना की तरह है जिसे अतींद्रिय क्षमता एवं भाव सम्वेदना के रूप में जाना जाता है। आनन्दमय कोश वह है जिसके सजग होने पर आत्मबोध होता है। स्थिति प्रज्ञ की—जीवन मुक्त की—परमहंस की दिव्य दृष्टि प्राप्त होती है। सामान्यतया चेतना की दिव्य परतें प्रसुप्त स्थिति में पड़ी रहती हैं। उनका बहुत थोड़ा अंश ही काम-काजी दैनिक जीवन में प्रयुक्त होता है। शेष सुरक्षित पूंजी की तरह जमा रहता है। साधनात्मक पात्रता सिद्ध करने पर ही उन प्रसुप्त विभूतियों को प्राप्त किया जा सकता है। पिता द्वारा उत्तराधिकार में छोड़ी गई सम्पत्ति का स्वामित्व तो बच्चों का हो जाता है, पर वे उसे स्वेच्छापूर्वक उपयोग तभी कर सकते हैं जब वयस्क हो जाते हैं। अल्प वयस्क रहने तक उस सम्पदा का स्वामित्व दूसरे संरक्षकों के हाथ में ही रहता है। बीज में विशाल वृक्ष की समग्र सम्भावनाएं सन्निहित रहती हैं, किन्तु उसका विस्तार उगाने, सींचने की कृषि विद्या के सहारे ही होता है। जीवात्मा बीज है, उसमें कल्प-वृक्ष बनने की समस्त सम्भावनाएं विद्यमान हैं। उन सम्भावनाओं को साकार बनाने की सफलता साधना द्वारा ही उपलब्ध होती है।

पंचकोश जागरण का उद्देश्य यही है कि अन्तर्जगत की इन पांचों प्रचण्ड धाराओं को मूर्च्छना की स्थिति से उबारा जाय और प्रखर प्रेरणा से—सिद्धि समर्थता के रूप में विकसित किया जाय। तीन शरीरों के अन्तर्गत ही पांच कोश आते हैं। स्थूल शरीर और अन्नमय कोश एक ही बात है। सूक्ष्म शरीर में प्राणमय और मनोमय कोश आते हैं। कारण शरीर में विज्ञानमय और आनन्दमय कोशों की गणना की जाती है। विभाजन दोनों ही प्रकार किया जा सकता है। तीन शरीर एवं पांच कोश यह ऐसी ही गणना है जैसा कि एक रुपया या चार चवन्नी में अन्तर दीखता है। बारह मास या वामन सप्ताह मोटे तौर से भिन्न मालूम पड़ते हैं, पर वे वस्तुतः हैं एक ही। इसी प्रकार तीन शरीर एवं पांच कोशों को वर्गीकरण की सुविधा ही कहा जा सकता है। शरीर को शिर, धड़ एवं पैरों के रूप में अथवा त्वचा रक्त, मांस, अस्थि, मज्जा के रूप में वर्गीकृत किया जाय, शरीर की मूल सत्ता में कोई अन्तर नहीं आता।

तत्ववेत्ताओं के मतानुसार शरीरस्थ पांचों कोश असाधारण क्षमता सम्पन्न हैं। जिस प्रकार प्रत्येक शुक्राणु में एक बालक उत्पन्न करने की क्षमता होती है, उसी प्रकार पांच कोशों में से प्रत्येक को अपने ही स्तर का एक स्वतन्त्र देव पुरुष गढ़ लेने की क्षमता होती है। अलादीन के चिराग के साथ पांच जिन्न कहे गये हैं जो इशारा पाते ही बड़े-बड़े काम कर दिखाते थे। विक्रमादित्य की कथाओं में उसके पांच दिव्य शरीरधारी पांच ‘वीर’ होने की बात कही जाती है। वे भी ऐसे ही काम कर दिखाते थे जो शरीरधारी मनुष्यों के बलबूते के नहीं थे। यह उत्पादन आत्मसत्ता है। यह ‘वीर’ ‘जिन्न’ या देव पुरुष वस्तुतः अपनी ही चेतना द्वारा उत्पन्न की गई सन्तानें होती हैं। छाया पुरुष के बारे में कहा जाता है कि अपनी ही छाया को धूप में खड़े होकर अथवा दर्पण के सहारे सिद्ध कर लिया जाय तो वह शरीर रहित, शरीरधारी सेवक की तरह आज्ञा-पालन करती और बताये काम पूरे करती है। अपने ही स्तर का एक नया व्यक्तित्व उत्पन्न कर लेना छाया पुरुष कहलाता है। पांच कोशों में पांच छाया पुरुष जैसे—पांच समर्थ व्यक्तित्व प्रकट, उत्पन्न, सिद्ध कर लेने की गुंजाइश है। वे विश्वस्त एवं समर्थ सहयोगी मित्रों की तरह सहायता करने में निरन्तर जुटे रह सकते हैं।

प्रस्तुत साधना में इन कोशों को जागृत—सशक्त बनाने के लिए उनसे सम्बन्धित विशिष्ट केन्द्रों, चक्रों में सविता शक्ति के प्रवेश एवं संचार का ध्यान प्रयोग किया गया है। हर कोश से एक विशेष चक्र का सम्बन्ध है। यह चक्र दो तरह की क्षमता रखते हैं—एक आकर्षण ग्रहण की, दूसरी संचार-प्रसारण की। इसीलिए इनकी संगति भंवर एवं चक्रवात से बिठा ली जाती हैं। भंवर में जो चीज पड़ती है वह अन्दर खींच ली जाती है, यह ग्रहण की प्रक्रिया है। चक्रवात में पड़ कर हर वस्तु ऊपर उठती है, दूर तक फैल जाती है, यह संचरण का प्रतीक है। सविता शक्ति के प्रभावों से केन्द्रों की यह दोनों क्षमताएं और अधिक विकसित होती हैं। दिव्य अनुदानों को ग्रहण करना, आत्म-संस्थान में संचरित करना, दूसरों की सम्वेदनाओं की अनुभूति, अपनी सम्वेदनाओं का फैलाव, विकारों का निष्कासन आदि इसी आधार पर सम्भव होता है। अतः कोशों के जागरण अनावरण क्रम में इन केन्द्रों की शक्ति एवं क्रिया-कलापों का भली प्रकार समावेश किया जाना आवश्यक है।

ध्यान करें सविता देवता के प्रकाश से अपने अन्तर्जगत में प्रभात जैसी स्थिति पैदा हुई है। हर अवयव हर कोश जाग रहा है, सविता शक्ति का पान करके सशक्त तेजस्वी बनने के लिए आतुर हैं। शरीर में अनेक तरह के दिव्य प्रवाह पैदा हो रहे हैं।
First 9 11 Last


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