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Books - ब्रह्मवर्चस् साधना की ध्यान - धारणा

Media: TEXT
Language: HINDI
TEXT


2. (घ) चक्र श्रृंखला का वेधन—जागरण

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काय-कलेवर में तो असंख्य शक्ति संस्थान हैं। प्रसुप्त स्थिति में वे मृतवत् पड़े रहते हैं, पर जब वे जागृत होते हैं तो अपना पराक्रम क्रुद्ध सिंह की तरह दिखाने लगते हैं। देव वरदान या सिद्धि चमत्कार के नाम से जानी जाने वाली विभूतियों के सम्बन्ध में समझा जाता है कि वे किसी बाहरी सत्ता के अनुग्रह का प्रतिफल हैं और वे सौभाग्य की तरह कहीं से अनुनय, विलय के आधार पर मिलती हैं। पर वस्तुतः ऐसा होता नहीं। वे अपने ही अन्तर्जगत् की प्रखरता के साथ प्रकट होने वाली उपलब्धियां भर होती हैं। आत्म-जागरण और ईश्वरीय अनुग्रह को अविच्छिन्न समझा जा सकता है।

साधना द्वारा जिन शक्ति संस्थानों को जगाया जा सकता है और जीवन के अनेक क्षेत्रों में जिनका चमत्कार देखा जा सकता है उनकी संख्या अगणित है। पर इनमें छह प्रमुख हैं। इन्हें षट्चक्र कहते हैं। मूलाधार मेरुदण्ड के सबसे नीचे भाग में है और सहस्रार सबसे ऊपर वाले छोर पर है। इनके मध्य में स्वाधिष्ठान, मणिपूर, अनाहत और विशुद्ध चक्र हैं। इस प्रकार मेरुदण्ड मार्ग में छह की संख्या पूरी हो जाती है। यहां एक शास्त्रीय विकल्प-मतभेद चला आता है। आज्ञाचक्र को षट्चक्रों में सम्मिलित किया जाय तो सहस्रार को केन्द्रीयसत्ता ठहराना पड़ेगा। यदि सहस्रार को षट्चक्रों में गिनते हैं तो आज्ञाचक्र को झरोखा, खिड़की, सर्चलाइट नाम देकर उसकी गणना अलग से करनी पड़ेगी। आज्ञाचक्र और सहस्रार दोनों को ही शक्ति चक्रों की शृंखला में गिन लिया जाय तो उनकी संख्या सात होती है। यह छह और सात का झंझट है। वस्तुतः यह सभी चक्र दिव्य-शक्तियों के अत्यन्त प्रभावोत्पादक संस्थान हैं। इनमें से न किसी का महत्व कम है और न प्रगति के पथ पर अग्रगामी आत्म-चेतना इनमें से किसी की उपेक्षा कर सकती है। हमें दोनों ही गणनाओं को मान्यता देनी चाहिए। किन्तु लाभान्वित सातों से होना चाहिए।

पुराणों में षट्चक्रों को शंकर जी (शिव) एवं पार्वती (शक्ति) के पुत्र शडमुखी कार्तिकेय के रूप में चित्रित किया गया है। उन्हें अग्नि ने अपने गर्भ में रखा और छह कृतिकाओं ने पालन किया था। ठण्ड होते ही उन्होंने दुर्दान्त दैत्यों को निरस्त किया है और देव शक्तियों में स्वर्गीय क्षेत्र का आधिपत्य वापिस दिलाने में भारी योगदान दिया। इस कथानक का विस्तृत वर्णन पुराणकारों ने जिस ढंग से किया है उससे स्पष्ट है कि यह मेरुदण्ड स्थिति षट्चक्रों के स्वरूप, रहस्य एवं प्रतिफल का ही कथापरक चित्रण है। सात की गणना भी कम महत्वपूर्ण नहीं है। सप्तद्वीप, सप्त समुद्र, सप्तलोक, सप्तऋषि, सूर्य रथ के सप्त अश्व आदि के स्वरूप एवं महत्व को यदि ठीक तरह पढ़ा जाय तो उन उपाख्यानों में सप्तचक्रों में सन्निहित क्षमता एवं जागरण की प्रतिक्रिया का सहज ही परिचय मिलता है। काया को यों ‘‘पिण्ड’’ कहते हैं, पर यदि उसकी दिव्य क्षमता के विस्तार पर दृष्टि डाली जाय तो वह एक पूरा ब्रह्माण्ड ही कहा जा सकता है।

यह चक्र मेरुदण्ड मार्ग में अवस्थित है—आज्ञाचक्र यों भ्रूमध्य भाग में माना जाता है, पर वस्तुतः वह भी इस स्थान की सीध में थोड़ी गहराई में अवस्थित है। सहस्रार चक्र का स्थान मस्तिष्क मध्य है। सहस्रार को सूर्य माना जाय तो आज्ञाचक्र को उसका उपग्रह चन्द्रमा कहा जा सकता है। दोनों परस्पर अति घनिष्ठता से सम्बद्ध हैं और अति समीप भी हैं। अस्तु दोनों को ही मेरुदण्ड के उच्च भाग से सम्बन्धित मान लिया जाय और सातों को मेरुदण्ड से सम्बन्धित मान लिया जाय तो इसमें किसी प्रकार की अड़चन नहीं है। इतने पर भी जब चक्रों के जागरण का प्रश्न आता है तो उनकी संख्या छह ही मानी जाती है। सातवां सहस्रार जागरण का केन्द्र और ब्रह्म का प्रत्यक्ष प्रतीक मान लिया जाता है। जागरण के लिए तो षट्चक्रों पर ही जोर दिया जाता है।

मूलाधार से जब कुण्डलिनी शक्ति जागृत होती है तो वह ऊपर उठती है। गर्मी पाकर हवा ऊपर को ही उठती है। बादल बनने और चक्रवात उठने की क्रिया में यह प्रत्यक्ष देखा जा सकता है कि गर्मी का एक कार्य सम्बन्धित वस्तुओं को ऊपर उठाना भी है। शक्ति जागरण का ऊर्ध्वगामी हो जाना सहज सुलभ नहीं है। इसके मार्ग में अवरोध भी है। जिनसे निपटना पड़ता है। इन्हें लम्बी यात्रा के मार्ग में पड़ने वाले मील के पत्थर या विश्राम-गृह उपहार ग्रह भी कह सकते हैं। चक्र जागरण को चक्र-वेधन भी कहते हैं। जिस प्रकार बिखरे फूलों को—बिखरे मोतियों को वेंध कर एक सूत्र में पिरोया जाता है और उनकी माला बनती है, उसी प्रकार इस चक्र-वेधन प्रक्रिया को भी समझा जा सकता है। बिखराव में संघबद्धता में परिणत कर देने पर जो प्रतिफल उत्पन्न होता है, वही चक्र-वेधन प्रक्रिया का होता है।

भूमि का वेधन करके गहराई में उतरते जाने पर ही जल स्रोत धातुएं, खनिज पदार्थ, तेज आदि की उपलब्धियां हस्तगत होती हैं। काय-कलेवर भी एक प्रकार से भू-लोक ही है। उनमें जो सम्पदाएं दबी पड़ी हैं, उनमें कुछ परम उपयोगी षट्चक्रों के रूप में जानी जाती है। घर वालों को सोते हुए देखकर चोर घर में घुसते, घात लगाते और हानि पहुंचाते हैं। ठीक इसी प्रकार प्रसुप्त चक्रों की निस्तब्धता देखकर षट्रिपु—दुदन्ति दस्युओं की तरह भीतर घुस पड़ते हैं। आन्तरिक षडरिपुओं को काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद मत्सर कहा गया है। बाहरी शत्रु तो बाहरी हानि ही पहुंचा सकते हैं, पर यह आन्तरिक शत्रु तो सारे अन्तःक्षेत्र को ही खोखला करते और भविष्य को अन्धकारमय बनाते हैं। जैसे-जैसे जागृति आती है वैसे-वैसे इन शत्रुओं का पलायन होने लगता है। प्रकाश का प्रभात उगते ही निशाचर अपनी-अपनी कोंतरों में जा छिपते हैं। हिंस्र, पशु-पक्षी, कीड़े-मकोड़े, चोर आदि प्रायः रात में ही घात लगाते हैं और दिन निकलते ही अपनी हरकतें बन्द कर देते हैं। आन्तरिक षडरिपुओं के बारे में भी यही बात है। पशु प्रवृत्तियों का निराकरण न हो सकने के कारण आत्मिक प्रगति प्रायः रुकी ही पड़ी रहती है। कुण्डलिनी जागरण के तृतीय चरण में शट्चक्रों के शोधन, वेधन, जागरण, प्रक्रिया के साथ-साथ यह अवरोधों के निवारण का उद्देश्य भी पूरा होने लगता है।

भगवान् राम ने वालि वध की सामर्थ्य का परिचय देने के लिए सुग्रीव को सात ताड़ों का वेधन एक ही वाण में करके दिखाया था। चक्रवेधन को उसी के समतुल्य आत्मिक पराक्रम कहा जा सकता है। यह कुम्भकरण को जगाने के सदृश हैं। विष्णु भगवान् शेषशैय्या पर प्रसुप्त स्थिति में पड़े रहते हैं; पर वे जागृत किये जा सकें तो समय-समय पर अवतार लीलाओं का पराक्रम देखते हैं। आत्मसत्ता भी प्रसुप्त पड़ी हुई उपहासास्पद बनी रहती है, पर यदि उसे कुण्डलिनी जागरण जैसे साधना प्रयोगों द्वारा जागृत किया जा सके तो उसकी दिव्य सक्रियता देखकर आश्चर्यचकित रह जाना पड़ेगा।

चक्र जागरण को समग्र आत्म-जागृति का खण्ड प्रयास कह सकते हैं। लम्बी यात्रा एक बारगी नहीं हो सकती, उसके बीच-बीच में विराम लेने होते हैं। रेलगाड़ी स्टेशनों पर रुकती हुई गन्तव्य स्थान तक पहुंचती है। चक्रों को ऐसे ही विराम केन्द्र कहा जा सकता है जहां पिछले श्रम की थकान मिटाने और अगली यात्रा के लिए सामर्थ्य प्राप्त करने की सुविधा मिलती है। इस प्रयास में जो लाभ मिलने चाहिए वे भी प्राप्त होते चलने से स्कूली छात्रों को इनाम, उपहार देकर अधिक उत्साह से पढ़ने की प्रेरणा मिलने जैसा प्रसंग भी बन जाता है। चक्रों का जिस अनुपात से जागरण होता है, उसी क्रम से वे आत्मिक विभूतियां उभरती चली आती हैं जिन्हें चमत्कारी ऋद्धि-सिद्धियों के नाम से जाना जाता है।

चक्रवेध के समतुल्य और भी कई शब्द हैं जैसे—लक्ष्य-वेध, शब्द–वेध, चक्रव्यूह-वेध। इन वेधन कर्मों में कई महत्वपूर्ण सफलताएं छिपी हुई हैं। लक्ष्यवेध निशाना मारने को कहते हैं। युद्ध जीतने में—शत्रु को परास्त करने में—सही निशाना लगने का बहुत महत्व है। योजना बनाते समय लक्ष्य निर्धारित किया जाता है और उसकी प्राप्ति के लिए तत्परतापूर्वक प्रयत्न में जुटा जाता है। जीवन का लक्ष्य पूर्णता की प्राप्ति है। इसी प्रकार अन्य अनेक उद्देश्य हो सकते हैं जिन्हें लक्ष्य कहा जाय। लक्ष्य-वेध से—लक्ष्य प्राप्ति से जो प्रसन्नता एवं सफलता मिलती है उसके लाभ तथा आनन्द को सभी जानते हैं।

शब्दवेधी वाण की चर्चा सुनी जाती है। प्रभावशाली शब्दों से अन्तरवेध डालने वाली बात से भी सभी परिचित हैं। नादयोग—शब्दयोग है। शब्द ब्रह्म भी उसे कहते हैं। उसका वेधन ईश्वर प्राप्ति का ही एक प्रकार है। षट्चक्र वेधन को—चक्रवेध की—ऐसे ही शब्दवेध की उपमा दी जा सकती है।

चक्रव्यूह युद्ध कला की एक संरचना है। जिसमें प्रतिद्वन्दी की घेराबन्दी की जाती है। जंगली हाथियों को पकड़ने के लिए उन्हें चारों ओर से घेर कर एक छोटे घेरे में लाया और बन्दी बनाया जाता है। शिकारियों को यही नीति अपनाते देखा गया है। वे सिंह, व्याघ्र आदि को चारों ओर से हंगामा मचा कर एक घेरे में समेटते लाते हैं और फिर उन्हें गोली का निशाना बनाते हैं। चक्रव्यूह एक युद्ध कला भी है। महाभारत में अभिमन्यु को ऐसी ही व्यूह रचना में फंसा कर मारा गया था। जीवात्मा भी ऐसे ही चक्रव्यूह में फंसा है। इसी घेराबन्दी को भव-बन्धन कहते हैं। पराधीनता यही है। इसी से छुटकारा पाने को मुक्ति या मोक्ष कहते हैं। दुष्प्रवृत्तियों और दुर्भावनाओं की घेरा-बन्दी में फंसा हुआ प्राणी जाल में फंसे पक्षी की तरह तड़पते हुए प्राण गंवाता है। बहेलिया मृग को जाल में फंसाता है—मछुए आटे की गोली का लोभ देकर मछली को कांटे से वेधते हैं ऐसी ही दुर्गति असुरता के वधिक द्वारा जाल में फंसाये जीवात्मा की होती है। इन चक्रव्यूहों से बच निकलने का जिसे अवसर मिले उसे सौभाग्यशाली गिना जायगा। कुण्डलिनी जागरण की—चक्रवेध प्रक्रिया को चक्रव्यूह वेधन के समतुल्य माना जाय तो इसमें तनिक भी अत्युक्ति नहीं है।

कुण्डलिनी जागरण की ध्यान धारणा के तीसरे चरण में षट्चक्रों का वेधन आता है। इस सन्दर्भ में यह भाव चित्र स्पष्ट किया जाता है कि मूलाधार केन्द्र में मन्थन प्रक्रिया के कारण प्राण ऊर्जा जागृत होती और ऊपर उठती है। मेरुदण्ड मार्ग में होती हुई वही सहस्रार तक पहुंचती है। इस मार्ग के मध्यवर्ती मोर्चों को उसे जीतना पड़ता है। विराम स्थलों पर ठहरना पड़ता है और उपहार जीतने की प्रतिस्पर्धा में भाग लेना पड़ता है। बिखरे मोती समेटने और एक सूत्र में पिरो कर माला के रूप में परिणत करने होते हैं। यही सब चक्रवेध की प्रक्रिया है। जिस प्रकार वरमा लकड़ी को—धरती को—छेदते हुए आगे बढ़ता है उसी प्रकार मूलाधार की जागृति प्राण शक्ति—कुण्डलिनी सुषुम्ना मार्ग की इस चक्र शृंखला को अपनी प्रचण्ड क्षमता से वेधन करती हुई लक्ष्य प्राप्ति के लिए आगे बढ़ती है। इस ध्यान में संकल्प एवं विश्वास का गहरा पुट रहने से यह कल्पना करने जैसी तुच्छ दीखने वाली बात वस्तुतः अत्यन्त प्रचण्ड सामर्थ्य सिद्ध होती है और वेधन के साथ जुड़े हुए समस्त उद्देश्यों की पूर्ति करती है।

ध्यान करें—मेरुदण्ड में सुषुम्ना एक प्रकाशवान् नली ट्यूब की तरह। उसमें विशिष्ट शक्ति केन्द्र नीचे मूलाधार, पेड़ू की सीध में—स्वाधिष्ठान, नाभि की सीध में—मणिपूर, हृदय की सीध में—अनाहत, कण्ठ की सीध में—विशुद्धि, भ्रू-मध्य की सीध में—आज्ञाचक्र एवं सबसे ऊपर सहस्रार चक्र। ध्यान क्रमशः तेज ग्रन्थियों के रूप में करें। मूलाधार से योगाग्नि के ज्योति कण गोली की तरह छूटते हैं तथा उन चक्रों से टक्कर मारते हैं। चक्रों के शक्ति केन्द्रों में हलचल एवं जागरण स्फुरण की अनुभूति होती है, उनसे शक्ति प्रवाह फूट पड़ते हैं।
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