
2. (ग से च) सविता अवतरण का ध्यान
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अन्नमय कोश के जागरण में सविता शक्ति का उपयोग किया जाता है। पंचकोश साधना—गायत्री उपासना का ही उच्चस्तरीय योगाभ्यास है। गायत्री मन्त्र एवं उसका जपात्मक अनुष्ठान की परिधि को गायत्री माता कहते हैं। ज्ञान और विज्ञान के आधार वेद ज्ञान की जननी होने के कारण उसे वेदमाता भी कहा जाता है। गायत्री का प्राण सविता है। उच्चस्तरीय गायत्री साधना में सविता शक्ति का ही आश्रय लिया जाता है। पांचों कोशों के जागरण में हर बार उसी के सहारे प्रगति होती है। अन्नमय कोश को जागृत करने में भी सविता शक्ति का ही आह्वान अवतरण किया जाता है।
ध्यान के प्रारम्भिक भाग में सविता को इष्ट, लक्ष्य, उपास्य, आराध्य रूप में अन्तःकरण में प्रतिष्ठित किया जाता है। एकत्व समर्पण में उसी के साथ घनिष्ठता, तन्मयता स्थापित की जाती है। अन्नमय कोश की साधना में ध्यान धारणा द्वारा काय-कलेवर में—जीवन शरीर में सविता के आह्वान अवतरण की भूमिका बनती है।
स्थूल शरीर के केन्द्र नाभि को माना गया है। गर्भस्थ बालक के शरीर में माता के अनुदान नाभि मार्ग से ही पहुंचते हैं, अस्तु वही प्रथम मुख है। प्रत्यक्ष शरीर में तो मस्तिष्क एवं हृदय को प्रधान अंग माना गया है किन्तु जीवन शरीर का मध्य केन्द्र नाभि है। आयुर्वेदीय नाड़ी परीक्षा में नाड़ी केन्द्र को शरीर की धुरी माना गया है। योग नाड़ियों का उद्गम भी वहीं से बताया गया है। नाभि को धुरी इसलिए कहा गया है कि वह स्थान शरीर के ठीक बीचों बीच है। धुरी मध्य में ही रहती है।
शरीर के जीवित रहने का चिह्न उसमें पाई जाने वाली ऊष्मा है। मृतक का शरीर ठण्डा हो जाता है, पेट की जठराग्नि पर ही भोजन पचता है। रक्त की गर्मी ही उसके संचार का कारण है। यह संव्याप्त अग्नि ही रोगों से लड़ती है। यही उत्साह एवं स्फूर्ति प्रदान करती है। ओजस् इसी को कहते हैं। पृथ्वी पर पाये जाने वाले अग्नि तत्व का केन्द्र सूर्य है। सूर्य यदि ठण्डा होने लगे तो यह पृथ्वी भी ठण्डी हो जायगी। काय-कलेवर में चेहरे पर आकर्षण—आंखों में चमक एवं गतिविधियों में सक्रियता दिखाई पड़ती है, उसका मूल आधार वह जीवन अग्नि ही है, इसमें कमी पड़ जाने पर काया बलिष्ठ होते हुए भी निर्जीव जैसी बन जाती है। मुर्दनी और उदासी छाई रहती है। आलसी और प्रमादी लोगों में सब कुछ ठीक-ठाक होते हुए भी जब ऊर्जा की कमी रहती है तो वही पिछड़ेपन का—कायिक दुर्बलता का प्रधान कारण बन जाता है।
अन्नमय कोश की ध्यान धारणा में सविता देव का प्रवेश नाभि मार्ग से होकर समस्त स्थूल शरीर और जीवन शरीर में होता है। श्रद्धा ही शक्ति बन जाती है। संकल्पों का चुम्बकत्व असाधारण है। ध्यान में यह श्रद्धा और संकल्प का सम्मिश्रण ही वह तत्व है जिसके बल पर भौतिक अनुकूलताओं से लेकर सूक्ष्म जगत की दिव्य शक्तियों तक को अपने निकट खींच बुलाया जाता है। ध्यान का स्तर यदि कल्पनाएं मात्र हो तो उसका परिणाम भी शिथिल रहेगा, पर यदि उस भाव चित्र को सुनिश्चित तथ्य की तरह श्रद्धा, विश्वास के रूप में अपनाया जाय तो उसकी प्रतिक्रिया भी ऐसी ही होगी मानो साक्षात् सविता नाभिचक्र के—अग्निचक्र के—माध्यम से समस्त शरीर में प्रवेश कर रहे हों।
यह ध्यान जितना ही श्रद्धा सिक्त होता है उतनी ही तात्कालिक एवं दूरगामी प्रतिक्रिया सामने आती है। ध्यान के समय भी शरीर में गर्मी बढ़ती प्रतीत होती है, श्वास की गति और रक्त–संचार में तीव्रता का अनुभव होता है—तापमान बढ़ गया-सा लगता है। पीछे भी प्रतीत होता है कि पहले की अपेक्षा सक्रियता बढ़ गई है, उदासी दूर हुई है और उत्साह एवं स्फूर्ति में उभार आया है।
ध्यान के समय समस्त काया में सविता शक्ति का संचार, जीवन शरीर में ओजस् का उभार, व्यक्तित्व में नव-जीवन का संचार करता है। अधिक काम करने के लिए उमंग उठती है और इच्छा होती है कि कामों का स्तर ऐसा हो जो प्रतिष्ठा एवं सन्तोष की अभिवृद्धि कर सके। काम भी गौरवान्वित हो और कर्त्ता को भी यश मिले, तभी क्रिया की सार्थकता है। इस प्रकार की स्थिति बनाने के लिए यों व्यवस्थापरक योजना भी बनती और सफल होती है। साथ ही यदि सूक्ष्म प्रेरणाएं भी उसी स्तर की उठने लगे और अन्तःक्षेत्र में भी उसी प्रकार का ताना-बाना बुना जाने लगे तो दुहरा लाभ होता है। बाहरी प्रयत्न तो कई बार भार-भूत भी लगते हैं और आन्तरिक उत्साह की कमी से वे शिथिल, असफल भी होते हैं किन्तु यदि अन्तःप्रेरणा उभरने लगे तो अनायास ही गतिविधियां प्रगति की दिशा में अदम्य उत्साह के साथ दौड़ने लगती है। विकास-क्रम का प्रथम चरण यह आन्तरिक उत्साह ही है।
अन्नमय कोश में सविता देव का अग्नि रूप में प्रवृष्ट होने—समस्त शरीर का अग्नि पिण्ड, अग्नि पुंज, अग्निमय, सवितामय बन जाने की ध्यान धारणा एक नई आत्मानुभूति प्रस्तुत करती है। यह मात्र आत्म संकेत के आधार पर मिलने वाली अनुभूति या स्फुरणा नहीं है। इस धारणा के पीछे चिन्तन चुम्बकत्व द्वारा विश्व-व्यापी सविता प्रवाह में से महत्वपूर्ण अंश अपने में धारणा करते चलने का ऐसा लाभ भी है जिसे साधक क्रमशः आत्मसत्ता में अवतरित होते हुए प्रत्यक्ष देखता है। (ग) सविता शक्ति नुकीले किरण पुंज के रूप में, नाभि में प्रविष्ट होती है। उसके आघात से नाभिचक्र में तीव्र हलचल, तीव्र प्रकाश पैदा होता है। उसका संचार सारे शरीर में होता हुआ अनुभव करें।
(घ, ङ, च) सविता शक्ति शरीर को चलाने वाली जैवीय अग्नि—ऊर्जा के रूप में बदल रही है। प्रकाशित धाराओं के रूप में उसका संचार सारे शरीर में हो रहा है। शरीर अग्नि के गोले के रूप में अनुभव होता है। शरीर की हर इकाई दिव्य संस्कार से ओत-प्रोत होती है। अंग-प्रत्यंग में ओज, उत्साह, कर्मठता का उभार अनुभव करें।
ध्यान के प्रारम्भिक भाग में सविता को इष्ट, लक्ष्य, उपास्य, आराध्य रूप में अन्तःकरण में प्रतिष्ठित किया जाता है। एकत्व समर्पण में उसी के साथ घनिष्ठता, तन्मयता स्थापित की जाती है। अन्नमय कोश की साधना में ध्यान धारणा द्वारा काय-कलेवर में—जीवन शरीर में सविता के आह्वान अवतरण की भूमिका बनती है।
स्थूल शरीर के केन्द्र नाभि को माना गया है। गर्भस्थ बालक के शरीर में माता के अनुदान नाभि मार्ग से ही पहुंचते हैं, अस्तु वही प्रथम मुख है। प्रत्यक्ष शरीर में तो मस्तिष्क एवं हृदय को प्रधान अंग माना गया है किन्तु जीवन शरीर का मध्य केन्द्र नाभि है। आयुर्वेदीय नाड़ी परीक्षा में नाड़ी केन्द्र को शरीर की धुरी माना गया है। योग नाड़ियों का उद्गम भी वहीं से बताया गया है। नाभि को धुरी इसलिए कहा गया है कि वह स्थान शरीर के ठीक बीचों बीच है। धुरी मध्य में ही रहती है।
शरीर के जीवित रहने का चिह्न उसमें पाई जाने वाली ऊष्मा है। मृतक का शरीर ठण्डा हो जाता है, पेट की जठराग्नि पर ही भोजन पचता है। रक्त की गर्मी ही उसके संचार का कारण है। यह संव्याप्त अग्नि ही रोगों से लड़ती है। यही उत्साह एवं स्फूर्ति प्रदान करती है। ओजस् इसी को कहते हैं। पृथ्वी पर पाये जाने वाले अग्नि तत्व का केन्द्र सूर्य है। सूर्य यदि ठण्डा होने लगे तो यह पृथ्वी भी ठण्डी हो जायगी। काय-कलेवर में चेहरे पर आकर्षण—आंखों में चमक एवं गतिविधियों में सक्रियता दिखाई पड़ती है, उसका मूल आधार वह जीवन अग्नि ही है, इसमें कमी पड़ जाने पर काया बलिष्ठ होते हुए भी निर्जीव जैसी बन जाती है। मुर्दनी और उदासी छाई रहती है। आलसी और प्रमादी लोगों में सब कुछ ठीक-ठाक होते हुए भी जब ऊर्जा की कमी रहती है तो वही पिछड़ेपन का—कायिक दुर्बलता का प्रधान कारण बन जाता है।
अन्नमय कोश की ध्यान धारणा में सविता देव का प्रवेश नाभि मार्ग से होकर समस्त स्थूल शरीर और जीवन शरीर में होता है। श्रद्धा ही शक्ति बन जाती है। संकल्पों का चुम्बकत्व असाधारण है। ध्यान में यह श्रद्धा और संकल्प का सम्मिश्रण ही वह तत्व है जिसके बल पर भौतिक अनुकूलताओं से लेकर सूक्ष्म जगत की दिव्य शक्तियों तक को अपने निकट खींच बुलाया जाता है। ध्यान का स्तर यदि कल्पनाएं मात्र हो तो उसका परिणाम भी शिथिल रहेगा, पर यदि उस भाव चित्र को सुनिश्चित तथ्य की तरह श्रद्धा, विश्वास के रूप में अपनाया जाय तो उसकी प्रतिक्रिया भी ऐसी ही होगी मानो साक्षात् सविता नाभिचक्र के—अग्निचक्र के—माध्यम से समस्त शरीर में प्रवेश कर रहे हों।
यह ध्यान जितना ही श्रद्धा सिक्त होता है उतनी ही तात्कालिक एवं दूरगामी प्रतिक्रिया सामने आती है। ध्यान के समय भी शरीर में गर्मी बढ़ती प्रतीत होती है, श्वास की गति और रक्त–संचार में तीव्रता का अनुभव होता है—तापमान बढ़ गया-सा लगता है। पीछे भी प्रतीत होता है कि पहले की अपेक्षा सक्रियता बढ़ गई है, उदासी दूर हुई है और उत्साह एवं स्फूर्ति में उभार आया है।
ध्यान के समय समस्त काया में सविता शक्ति का संचार, जीवन शरीर में ओजस् का उभार, व्यक्तित्व में नव-जीवन का संचार करता है। अधिक काम करने के लिए उमंग उठती है और इच्छा होती है कि कामों का स्तर ऐसा हो जो प्रतिष्ठा एवं सन्तोष की अभिवृद्धि कर सके। काम भी गौरवान्वित हो और कर्त्ता को भी यश मिले, तभी क्रिया की सार्थकता है। इस प्रकार की स्थिति बनाने के लिए यों व्यवस्थापरक योजना भी बनती और सफल होती है। साथ ही यदि सूक्ष्म प्रेरणाएं भी उसी स्तर की उठने लगे और अन्तःक्षेत्र में भी उसी प्रकार का ताना-बाना बुना जाने लगे तो दुहरा लाभ होता है। बाहरी प्रयत्न तो कई बार भार-भूत भी लगते हैं और आन्तरिक उत्साह की कमी से वे शिथिल, असफल भी होते हैं किन्तु यदि अन्तःप्रेरणा उभरने लगे तो अनायास ही गतिविधियां प्रगति की दिशा में अदम्य उत्साह के साथ दौड़ने लगती है। विकास-क्रम का प्रथम चरण यह आन्तरिक उत्साह ही है।
अन्नमय कोश में सविता देव का अग्नि रूप में प्रवृष्ट होने—समस्त शरीर का अग्नि पिण्ड, अग्नि पुंज, अग्निमय, सवितामय बन जाने की ध्यान धारणा एक नई आत्मानुभूति प्रस्तुत करती है। यह मात्र आत्म संकेत के आधार पर मिलने वाली अनुभूति या स्फुरणा नहीं है। इस धारणा के पीछे चिन्तन चुम्बकत्व द्वारा विश्व-व्यापी सविता प्रवाह में से महत्वपूर्ण अंश अपने में धारणा करते चलने का ऐसा लाभ भी है जिसे साधक क्रमशः आत्मसत्ता में अवतरित होते हुए प्रत्यक्ष देखता है। (ग) सविता शक्ति नुकीले किरण पुंज के रूप में, नाभि में प्रविष्ट होती है। उसके आघात से नाभिचक्र में तीव्र हलचल, तीव्र प्रकाश पैदा होता है। उसका संचार सारे शरीर में होता हुआ अनुभव करें।
(घ, ङ, च) सविता शक्ति शरीर को चलाने वाली जैवीय अग्नि—ऊर्जा के रूप में बदल रही है। प्रकाशित धाराओं के रूप में उसका संचार सारे शरीर में हो रहा है। शरीर अग्नि के गोले के रूप में अनुभव होता है। शरीर की हर इकाई दिव्य संस्कार से ओत-प्रोत होती है। अंग-प्रत्यंग में ओज, उत्साह, कर्मठता का उभार अनुभव करें।