
साधना की क्रम व्यवस्था
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पंचकोश अनावरण एवं कुण्डलिनी जागरण साधनाओं को अति विशिष्ट एवं दुःसाध्य साधनाएं माना जाता रहा है। किसी हद तक यह उक्ति ठीक भी है। किन्तु अपना प्रयास सदैव यही रहा है कि हर उपयोगी प्रक्रिया को यथासाध्य जनोपयोगी बनाया जाय। प्रभु कृपा से इस प्रकार के कार्यों में अब तक आशातीत सफलता भी मिली है। अत्यन्त गूढ़ एवं कठिन समझी जाने वाली गायत्री साधना का जनोपयोगी बन जाना इसका प्रमाण है। देश-विदेश में करोड़ों व्यक्ति गायत्री साधना की सुगम विधि को अपनाकर वेदमाता की कृपा के अधिकारी बने हैं—बन रहे हैं। ब्रह्म वर्चस् साधना के अन्तर्गत पंचकोशी एवं कुण्डलिनी साधनाओं को भी उसी भाव से इस रूप में विकसित—प्रस्तुत किया गया है कि हर स्थिति का व्यक्ति थोड़ी-सी तत्परता बरत कर इन उच्चस्तरीय योग साधनाओं का पर्याप्त लाभ प्राप्त कर सके।
ब्रह्म वर्चस् साधना के अन्तर्गत दोनों ही साधनाओं का प्रमुख आधार ध्यान धारणा को माना गया है। यही उचित भी है। मनुष्य के अन्दर दो दुघर्ष शक्तियां हैं—संकल्प एवं भाव सम्वेदना। इनमें शरीर के स्थूल अंगों से लेकर सूक्ष्म संस्थान तक हर पक्ष को प्रभावित करने की सामर्थ्य है। ध्यान धारणा में इन्हीं को प्रखर बनाकर सुनिश्चित दिशा में नियोजित किया जाता है। इसीलिए पंचकोश जागरण एवं कुण्डलिनी योग जैसी ही साधनाओं के लिए मुख्य आधार ध्यान धारणा को ही बनाया गया है। यों हर साधना के साथ पांच-पांच सहायक साधनाएं भी रखी गई हैं। उनका अभ्यास साधक अलग से क्रमशः बढ़ाता रहता है। जैसे-जैसे उनमें गति बढ़ती है, वैसे ही वैसे साधकों की ध्यान धारणा अधिकाधिक प्रखर प्रगाढ़ होती चली जाती है। इस पुस्तक में साधना की मुख्य धारा—ध्यान धारणा की क्रम-व्यवस्था समझाई गई है। सहयोगी साधनाओं का दर्शन और स्वरूप भिन्न पुस्तक ‘ब्रह्म वर्चस् की दस सहयोगी साधनाएं’ में दिया गया है।
उच्चस्तरीय साधना में अन्तःशक्तियों को विशेष दिशा एवं धारा से प्रवाहित किया जाता है। उसके लिए संकल्प एवं भाव सम्वेदनाओं द्वारा उन्हें ठेला ढकेला जाता है। शक्ति-धाराओं को किसी विशेष दिशा में लगाना असाधारण पुरुषार्थ का कार्य है। साधक अपनी शक्ति उसके लिए लगाता ही है, किन्तु साथ ही दिव्य-शक्तियों का सहयोग भी मांगता है। गायत्री मन्त्र के अन्त में ‘प्रचोदयात्’ कहकर अपनी चेतना को श्रेष्ठ मार्ग पर ठेल कर बढ़ा देने की ही प्रार्थना की गई है। उच्चस्तरीय योगसाधना में इस धारणा को सामान्य प्रार्थना स्तर के ऊपर प्रखर संकल्प, व्याकुलता भरे आग्रह, प्रखर निर्देश में बदलना पड़ता है। तभी साधना प्राणवान बनती है।
पंचकोशीय साधना एवं कुण्डलिनी योग दोनों के लिए संकल्प एवं भाव-सम्वेदना को दिशा देने के लिए निर्धारित व्यवस्थित संकेत बना दिये गये हैं। इसी क्रम से ध्यान प्रयोग किया जाना चाहिए। हर संकेत के बाद थोड़ा समय दिया जाता है ताकि अन्तःचेतना उसे आत्मसात कर सके, क्रियान्वित कर सके। प्रस्तुत निर्देशों के आधार पर ध्यान धारणा में औसतन 45 मिनट का समय लगता है।
संकेतों को ध्यान में रख कर स्वतः ही उस क्रम से ध्यान करना बहुत कठिन है। संकेतों को भली प्रकार आत्म-सात कर लेने पर ही वैसा सम्भव हो सकता है। स्मृति पर जोर डालते ही ध्यान में लगने वाली मानसिक शक्ति बिखर जाती है और ध्यान की प्रखरता घट जाती है। अतः अच्छा यह है कि कुछ लोग सामूहिक रूप से ध्यान करने बैठें तथा एक व्यक्ति व्यवस्थित क्रम से संकेत बोलता रहे। इसके लिए टेप रिकॉर्डर का भी प्रयोग किया जा सकता है।
विशिष्ट साधना-क्रम का अभ्यास शान्ति-कुंज हरिद्वार में चलने वाले ‘ब्रह्म वर्चस्’ सत्रों में कराया जाता है। उपयुक्त वातावरण, प्रत्यक्ष मार्ग-दर्शन एवं समर्थ संरक्षण में की गई साधना का महत्व हर साधक जानता है। अस्तु प्रयास यही करना चाहिए कि साधना का प्रारम्भ किसी सत्र में उसे विधिवत् सीख कर ही किया जाय। जब तक यह सम्भव न हो तब तक ध्यान धारणा का अभ्यास अपने-अपने स्थान पर भी किया जा सकता है, किन्तु क्रिया साधनाओं को तो भली प्रकार समझे-सीखे बिना नहीं ही करना चाहिए। सहयोगी साधनाएं भिन्न-भिन्न मनोभूमि के व्यक्तियों के लिए भिन्न-भिन्न ढंग से करनी होती है। उन्हें भली प्रकार समझ कर करना ही उचित है। एक बार सीख कर उन्हें व्यक्तिगत रूप से ही क्रमशः आगे बढ़ाते रहना भी सम्भव है। ध्यान धारणा तो सामूहिक रूप से ही करना उचित है।
ध्यान धारणा का अभ्यास क्रम अपने-अपने स्थानों पर सप्ताह में एक बार ही किया जाना चाहिए। सहयोगी साधनाओं का अभ्यास, अपनी स्थिति के अनुरूप प्रतिदिन भी किया जा सकता है। ध्यान धारणा के लिए कोई कोलाहल हीन शान्त, स्थल चुनना चाहिए। प्रातःकाल ब्रह्म-मुहूर्त इसके लिए उपयुक्त समय है। सभी साधक स्वच्छतापूर्वक—व्यवस्थित रूप से वहां बैठें। टेप अथवा किसी व्यक्ति द्वारा संकेतों को दुहराया जाय। संकेतों के आधार पर साधक ध्यान धारणा का प्रयोग चालू रखे।
ध्यान धारणा की प्रखरता एवं लाभ इस बार पर निर्भर हैं साधक ने उसके दर्शन को उसके मर्म को कितनी गहराई से समझा—अपनाया है। संकेत तो सबके कानों में समान रूप से कम्पन उत्पन्न करेंगे, किन्तु अपनी-अपनी अन्तरंग तैयारी के आधार पर हर साधक के ध्यान की प्रगाढ़ता एवं उसके प्रभाव में भारी अन्तर होना सम्भव है। इसीलिए सप्ताह भर संकेतों के मर्म का अध्ययन मनन तथा एक बार उन्हें क्रियान्वित करने का ध्यान प्रयोग चलाने की बात कही गई है। साधक अपनी रुचि एवं मनःस्थिति के अनुरूप किसी एक ध्यान को ही हर सप्ताह करते रह सकते हैं। यदि दोनों को चलाना चाहें तो क्रमशः एक बार पंचकोशी तथा एक बार कुण्डलिनी जागरण का ध्यान प्रयोग किया जाना उचित है। यहां प्रारम्भ में ध्यान के संकेत दिये गये हैं तथा फिर उनके दर्शन तत्व ज्ञान एवं स्वरूप का उल्लेख किया जा रहा है। ध्यान के किस निर्देश के साथ किस अनुभूति के लिए प्रयास किया जाय, इसके लिए हर स्थल पर भिन्न टाइप में एक-एक पैराग्राफ जोड़ा गया है।
यहां ध्यान रहे कि साधना मार्ग पर क्रमशः ही बढ़ा जा सकता है। उतावली में सामान्य लाभ भी हाथ से निकल जाते हैं। गायत्री के उच्चस्तरीय साधना क्रम में प्रवेश करने वाले हर साधक को पहले सामान्य गायत्री साधना द्वारा अपने अन्तःकरण को इतना सबल बना लेना चाहिए कि उच्चस्तरीय प्रयोगों को वह संभाल सके, चला सके। शान्ति-कुंज के सत्रों में तो नये साधकों से भी समर्थ संरक्षण में, साधना प्रारम्भ करा दी जाती है। किन्तु बाहर तो क्रमिक रूप से ही बढ़ना उचित है। प्रस्तुत ध्यान धारणा की समग्र प्रक्रिया को तीन चरणों में विभक्त किया जा सकता है।
(1) ध्यान भूमिका में प्रवेश—यह प्रक्रिया ध्यान मुद्रा से प्रारम्भ होकर सविता शक्ति से एकत्व अद्वैत की अनुभूति तक चलती है। यह चरण पंचकोश एवं कुण्डलिनी दोनों ही ध्यानों में समान रूप से समाविष्ट है।
(2) विशिष्ट ध्यान प्रयाग—इसके अन्तर्गत ध्यान धारणा द्वारा अन्तरंग की शक्ति-धाराओं को पंचकोशी अथवा कुण्डलिनी साधना के अनुरूप संचालित, संचारित किया जाता है। इसके लिए दोनों प्रक्रियाओं में भिन्न-भिन्न क्रम निर्धारित हैं।
(3) समापन शान्ति-पाठ—यह प्रक्रिया विशिष्ट प्रयोग के बाद में की जाती है और दोनों प्रकार के ध्यान क्रमों में समान रूप से होती है। यह चरण असतोमा सद्गमय से प्रारम्भ होकर पंच ॐकार तक चलती है।
उपरोक्त आधार पर दोनों प्रकार के ध्यान के संकेत प्रारम्भ एवं अन्त में एक जैसे ही हैं, बीच में ही उनमें भिन्नता है। फिर भी सुविधा की दृष्टि से दोनों ही ध्यान प्रक्रियाओं के संकेत प्रारम्भ से अन्त तक अलग-अलग दिये गये हैं। किन्तु व्याख्याओं में पुनरोक्ति उचित नहीं है। अस्तु ध्यान भूमिका में प्रवेश संकेतों की व्याख्या केवल पंचकोशी ध्यान की व्याख्या के साथ की गई है। बाद में कुण्डलिनी जागरण के विशिष्ट ध्यान प्रयोग की ही व्याख्या की गई है। अन्त में समापन शान्ति-पाठ खंड की व्याख्या की गई है।
ब्रह्म वर्चस् साधना के अन्तर्गत दोनों ही साधनाओं का प्रमुख आधार ध्यान धारणा को माना गया है। यही उचित भी है। मनुष्य के अन्दर दो दुघर्ष शक्तियां हैं—संकल्प एवं भाव सम्वेदना। इनमें शरीर के स्थूल अंगों से लेकर सूक्ष्म संस्थान तक हर पक्ष को प्रभावित करने की सामर्थ्य है। ध्यान धारणा में इन्हीं को प्रखर बनाकर सुनिश्चित दिशा में नियोजित किया जाता है। इसीलिए पंचकोश जागरण एवं कुण्डलिनी योग जैसी ही साधनाओं के लिए मुख्य आधार ध्यान धारणा को ही बनाया गया है। यों हर साधना के साथ पांच-पांच सहायक साधनाएं भी रखी गई हैं। उनका अभ्यास साधक अलग से क्रमशः बढ़ाता रहता है। जैसे-जैसे उनमें गति बढ़ती है, वैसे ही वैसे साधकों की ध्यान धारणा अधिकाधिक प्रखर प्रगाढ़ होती चली जाती है। इस पुस्तक में साधना की मुख्य धारा—ध्यान धारणा की क्रम-व्यवस्था समझाई गई है। सहयोगी साधनाओं का दर्शन और स्वरूप भिन्न पुस्तक ‘ब्रह्म वर्चस् की दस सहयोगी साधनाएं’ में दिया गया है।
उच्चस्तरीय साधना में अन्तःशक्तियों को विशेष दिशा एवं धारा से प्रवाहित किया जाता है। उसके लिए संकल्प एवं भाव सम्वेदनाओं द्वारा उन्हें ठेला ढकेला जाता है। शक्ति-धाराओं को किसी विशेष दिशा में लगाना असाधारण पुरुषार्थ का कार्य है। साधक अपनी शक्ति उसके लिए लगाता ही है, किन्तु साथ ही दिव्य-शक्तियों का सहयोग भी मांगता है। गायत्री मन्त्र के अन्त में ‘प्रचोदयात्’ कहकर अपनी चेतना को श्रेष्ठ मार्ग पर ठेल कर बढ़ा देने की ही प्रार्थना की गई है। उच्चस्तरीय योगसाधना में इस धारणा को सामान्य प्रार्थना स्तर के ऊपर प्रखर संकल्प, व्याकुलता भरे आग्रह, प्रखर निर्देश में बदलना पड़ता है। तभी साधना प्राणवान बनती है।
पंचकोशीय साधना एवं कुण्डलिनी योग दोनों के लिए संकल्प एवं भाव-सम्वेदना को दिशा देने के लिए निर्धारित व्यवस्थित संकेत बना दिये गये हैं। इसी क्रम से ध्यान प्रयोग किया जाना चाहिए। हर संकेत के बाद थोड़ा समय दिया जाता है ताकि अन्तःचेतना उसे आत्मसात कर सके, क्रियान्वित कर सके। प्रस्तुत निर्देशों के आधार पर ध्यान धारणा में औसतन 45 मिनट का समय लगता है।
संकेतों को ध्यान में रख कर स्वतः ही उस क्रम से ध्यान करना बहुत कठिन है। संकेतों को भली प्रकार आत्म-सात कर लेने पर ही वैसा सम्भव हो सकता है। स्मृति पर जोर डालते ही ध्यान में लगने वाली मानसिक शक्ति बिखर जाती है और ध्यान की प्रखरता घट जाती है। अतः अच्छा यह है कि कुछ लोग सामूहिक रूप से ध्यान करने बैठें तथा एक व्यक्ति व्यवस्थित क्रम से संकेत बोलता रहे। इसके लिए टेप रिकॉर्डर का भी प्रयोग किया जा सकता है।
विशिष्ट साधना-क्रम का अभ्यास शान्ति-कुंज हरिद्वार में चलने वाले ‘ब्रह्म वर्चस्’ सत्रों में कराया जाता है। उपयुक्त वातावरण, प्रत्यक्ष मार्ग-दर्शन एवं समर्थ संरक्षण में की गई साधना का महत्व हर साधक जानता है। अस्तु प्रयास यही करना चाहिए कि साधना का प्रारम्भ किसी सत्र में उसे विधिवत् सीख कर ही किया जाय। जब तक यह सम्भव न हो तब तक ध्यान धारणा का अभ्यास अपने-अपने स्थान पर भी किया जा सकता है, किन्तु क्रिया साधनाओं को तो भली प्रकार समझे-सीखे बिना नहीं ही करना चाहिए। सहयोगी साधनाएं भिन्न-भिन्न मनोभूमि के व्यक्तियों के लिए भिन्न-भिन्न ढंग से करनी होती है। उन्हें भली प्रकार समझ कर करना ही उचित है। एक बार सीख कर उन्हें व्यक्तिगत रूप से ही क्रमशः आगे बढ़ाते रहना भी सम्भव है। ध्यान धारणा तो सामूहिक रूप से ही करना उचित है।
ध्यान धारणा का अभ्यास क्रम अपने-अपने स्थानों पर सप्ताह में एक बार ही किया जाना चाहिए। सहयोगी साधनाओं का अभ्यास, अपनी स्थिति के अनुरूप प्रतिदिन भी किया जा सकता है। ध्यान धारणा के लिए कोई कोलाहल हीन शान्त, स्थल चुनना चाहिए। प्रातःकाल ब्रह्म-मुहूर्त इसके लिए उपयुक्त समय है। सभी साधक स्वच्छतापूर्वक—व्यवस्थित रूप से वहां बैठें। टेप अथवा किसी व्यक्ति द्वारा संकेतों को दुहराया जाय। संकेतों के आधार पर साधक ध्यान धारणा का प्रयोग चालू रखे।
ध्यान धारणा की प्रखरता एवं लाभ इस बार पर निर्भर हैं साधक ने उसके दर्शन को उसके मर्म को कितनी गहराई से समझा—अपनाया है। संकेत तो सबके कानों में समान रूप से कम्पन उत्पन्न करेंगे, किन्तु अपनी-अपनी अन्तरंग तैयारी के आधार पर हर साधक के ध्यान की प्रगाढ़ता एवं उसके प्रभाव में भारी अन्तर होना सम्भव है। इसीलिए सप्ताह भर संकेतों के मर्म का अध्ययन मनन तथा एक बार उन्हें क्रियान्वित करने का ध्यान प्रयोग चलाने की बात कही गई है। साधक अपनी रुचि एवं मनःस्थिति के अनुरूप किसी एक ध्यान को ही हर सप्ताह करते रह सकते हैं। यदि दोनों को चलाना चाहें तो क्रमशः एक बार पंचकोशी तथा एक बार कुण्डलिनी जागरण का ध्यान प्रयोग किया जाना उचित है। यहां प्रारम्भ में ध्यान के संकेत दिये गये हैं तथा फिर उनके दर्शन तत्व ज्ञान एवं स्वरूप का उल्लेख किया जा रहा है। ध्यान के किस निर्देश के साथ किस अनुभूति के लिए प्रयास किया जाय, इसके लिए हर स्थल पर भिन्न टाइप में एक-एक पैराग्राफ जोड़ा गया है।
यहां ध्यान रहे कि साधना मार्ग पर क्रमशः ही बढ़ा जा सकता है। उतावली में सामान्य लाभ भी हाथ से निकल जाते हैं। गायत्री के उच्चस्तरीय साधना क्रम में प्रवेश करने वाले हर साधक को पहले सामान्य गायत्री साधना द्वारा अपने अन्तःकरण को इतना सबल बना लेना चाहिए कि उच्चस्तरीय प्रयोगों को वह संभाल सके, चला सके। शान्ति-कुंज के सत्रों में तो नये साधकों से भी समर्थ संरक्षण में, साधना प्रारम्भ करा दी जाती है। किन्तु बाहर तो क्रमिक रूप से ही बढ़ना उचित है। प्रस्तुत ध्यान धारणा की समग्र प्रक्रिया को तीन चरणों में विभक्त किया जा सकता है।
(1) ध्यान भूमिका में प्रवेश—यह प्रक्रिया ध्यान मुद्रा से प्रारम्भ होकर सविता शक्ति से एकत्व अद्वैत की अनुभूति तक चलती है। यह चरण पंचकोश एवं कुण्डलिनी दोनों ही ध्यानों में समान रूप से समाविष्ट है।
(2) विशिष्ट ध्यान प्रयाग—इसके अन्तर्गत ध्यान धारणा द्वारा अन्तरंग की शक्ति-धाराओं को पंचकोशी अथवा कुण्डलिनी साधना के अनुरूप संचालित, संचारित किया जाता है। इसके लिए दोनों प्रक्रियाओं में भिन्न-भिन्न क्रम निर्धारित हैं।
(3) समापन शान्ति-पाठ—यह प्रक्रिया विशिष्ट प्रयोग के बाद में की जाती है और दोनों प्रकार के ध्यान क्रमों में समान रूप से होती है। यह चरण असतोमा सद्गमय से प्रारम्भ होकर पंच ॐकार तक चलती है।
उपरोक्त आधार पर दोनों प्रकार के ध्यान के संकेत प्रारम्भ एवं अन्त में एक जैसे ही हैं, बीच में ही उनमें भिन्नता है। फिर भी सुविधा की दृष्टि से दोनों ही ध्यान प्रक्रियाओं के संकेत प्रारम्भ से अन्त तक अलग-अलग दिये गये हैं। किन्तु व्याख्याओं में पुनरोक्ति उचित नहीं है। अस्तु ध्यान भूमिका में प्रवेश संकेतों की व्याख्या केवल पंचकोशी ध्यान की व्याख्या के साथ की गई है। बाद में कुण्डलिनी जागरण के विशिष्ट ध्यान प्रयोग की ही व्याख्या की गई है। अन्त में समापन शान्ति-पाठ खंड की व्याख्या की गई है।