
पंचमुखी गायत्री की उच्चस्तरीय साधना का स्वरूप
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गायत्री शक्ति और गायत्री विद्या को भारतीय धर्म में सर्वोपरि स्थान दिया गया है। उसे वेदमाता—भारतीय धर्म और संस्कृति की जननी—उद्गम गंगोत्री कहा गया है। इस चौबीस अक्षर के छोटे-से मन्त्र के तीन चरण हैं। चौथा ॐ एवं तीन व्याहृतियों वाला चौथा चरण है। इन चारों चरणों का व्याख्यान चार वेदों में हुआ है। वेद भारतीय तत्व ज्ञान और धर्म अध्यात्म के भूल हैं। गायत्री उपासना की भी इतनी ही व्यापक एवं विस्तृत परिधि है।
गायत्री माता की अलंकारिक चित्रों, प्रतिमाओं में एक मुख—दो भुजाओं का चित्रण है। कमण्डलु और पुस्तक हाथ में है। इसका तात्पर्य इस महाशक्ति को मानवता की—उत्कृष्ट आध्यात्मिकता की प्रतिमा बनाकर उसे मानवी आराध्य के रूप में प्रस्तुत करना है। इस उपासना के दो आधार हैं—ज्ञान और कर्म। पुस्तक से ज्ञान का और कमण्डलु जल से कर्म का उद्बोधन कराया गया है। यही वेदमाता है। उसी को विश्व माता की संज्ञा दी गई है। सर्वजनीन और सर्वप्रथम इसी उपास्य को मान्यता दी गई है। उच्चस्तरीय साधना में इस प्रतीक प्रतिमा का रूप यत्किंचित् बदल जाता है। यह पंचमुखी है। योगाराधन में यही उपास्य है। पांच मुख और दस भुजा वाली प्रतिमा में कई संकेत है। दस भुजाएं, दस इन्द्रियों की सूक्ष्म शक्ति का संकेत करती हैं और बताती हैं कि उनकी संग्रहीत एवं दिव्य सामर्थ्य गायत्री माता की समर्थ भुजाओं के समतुल्य है। दसों दिशाओं में उसकी व्यापकता भरी हुई है। दस दिगपाल—दस दिग्राज पृथ्वी का संरक्षण करते माने गये हैं। गायत्री की दस भुजाएं ही दस दिगपाल हैं। उनमें थकाये हुए विविध आयुधों से यह पता चलता है कि वह सामर्थ्य कितने प्रकार की धाराएं प्रवाहित करती एवं कितने क्षेत्रों को प्रभावित करती हैं।
उच्चस्तरीय साधना में पंचमुखी गायत्री प्रतिमा में पंचकोशी गायत्री उपासना की आवश्यकता का संकेत है। यह पंचकोश अन्तर्जगत के पांच देव, पांच प्राण, पांच महान् सद्गुण पंचाग्नि, पंचतत्व, आत्म सत्ता के पांच कलेवर आदि कहे जाते हैं। पंच देवों की साधना से उन्हें जागृत सिद्ध कर लेने से जीवन में अनेकानेक सम्पत्तियों और विभूतियों के अवतरण का रहस्योद्घाटन किया गया है। पांच प्राणों को चेतना की पांच धाराएं, चिन्तन की प्रखरताएं कहा गया है। चेतना की उत्कृष्टता इन्हीं के आधार पर बढ़ती और प्रचण्ड होती है। प्राण विद्या की गायत्री विद्या का ही एक अंग है। गायत्री शब्द का अर्थ भी गय=प्राण+त्री=त्राता। अर्थात् प्राण शक्ति का परित्राण करने वाली दिव्य-क्षमता के रूप में किया गया है। कणोपनिषद् में पंचाग्नि विद्या के रूप में इस प्राण तत्व को इन्हीं पांच धाराओं के रूप में प्रस्तुत किया गया है।
गायत्री के पांच मुखों, पंचकोशों के रूप में उन पांच तत्वों की प्रखरता का वर्णन है जिनसे यह समस्त विश्व और मानव शरीर बना है। स्थूल रूप में यह पांच तत्व पैरों तले रौंदी जाने वाली मिट्टी, कपड़े धोने के लिए काम आने वाले पानी, चूल्हे में जलने वाली आग, पोला आकाश और उसमें मारी-मारी फिरने वाली हवा के रूप में देखे जाते हैं। पर यदि उनकी सूक्ष्म क्षमता पर गहराई से दृष्टि डाली जाय तो पता चलेगा कि इन तत्वों के नगण्य से परमाणु तक कितनी अद्भुत शक्ति अपने में धारण किये बैठे हैं। उनकी रासायनिक एवं ऊर्जागत क्षमता कितनी महान् है। पंच तत्वों से बना यह स्थूल जगत और उनकी तन्मात्राओं से बना सूक्ष्म जगत कितना अद्भुत, कितना रहस्यमय है, यह समझने का प्रयत्न किया जाता है तो बुद्धि थक कर उसे विराट् ब्रह्म की साकार प्रतिमा मानकर ही सन्तोष करती है। उन पांच तत्वों के अद्भुत रहस्यों का संकेत गायत्री के पांच मुखों में बताया गया है और समझाया गया है कि यदि इनका ठीक प्रकार उपयोग, परिष्कार किया जा सके तो उनका प्रतिफल प्रत्यक्ष पांच देवों की उपासना जैसे हो सकता है। पृथ्वी, अग्नि, वरुण, मरुत, अनन्त इन पांच देवताओं को पौराणिक कथा, प्रसंगों में उच्चस्तरीय क्षमता सम्पन्न बताया गया है। कुन्ती ने इन्हीं पांच देवताओं की आराधना करके पांच देवोपम पुत्र रत्न पाये थे। पंचमुखी, पंचकोशी उच्चस्तरीय गायत्री उपासना में तत्व–दर्शन की—तत्व साधना की गरिमा का संकेत है।
मानव सत्ता के तीन शरीर हैं—कारण सूक्ष्म और स्थूल। कारण शरीर में पांच सम्वेदनाएं, सूक्ष्म शरीर में पांच प्राण चेतनाएं और स्थूल शरीर में पांच शक्ति धाराएं विद्यमान हैं और उच्चस्तरीय साधना विज्ञान का सहारा लेकर उन्हें उभारे जाने का संकेत एवं निर्देश है।
पांच देवों में (1) भवानी (2) गणेश (3) ब्रह्मा (4) विष्णु (5) महेश की गणना होती है। इन्हें क्रमशः बलिष्ठता, बुद्धिमत्ता, उपार्जन शक्ति, अभिवर्धन पराक्रम एवं परिवर्तन की प्रखरता कह सकते हैं। यह पांच देवता ब्रह्माण्ड-व्यापी ईश्वरीय दिव्य शक्तियों के रूप में संव्याप्त हैं। सृष्टि सन्तुलन एवं संचालन में योगदान करते हैं। यही पांच शक्तियां आत्मसत्ता में भी विद्यमान हैं और इस छोटे ब्रह्माण्ड को सुखी समुन्नत बनाने का उत्तरदायित्व संभालते हैं। इन्हें पांच कोशों में सन्निहित अन्तर्जगत के पांच देव कहा जा सकता है। पंचकोश साधना की सफलता को उपरोक्त पांच देवताओं के द्वारा प्राप्त हो सकने वाले अनुदान वरदान के रूप में अनुभव किया जाता है।
कोश खजानों को भी कहते हैं। समुद्र को रत्नाकर कहा जाता है और उसके गर्भ में असीम रत्न राशि भरी होने की बात सर्वविदित है। जमीन में भी जल, तेल, धातुएं रत्न तथा अन्यान्य बहुमूल्य पदार्थ मिलते हैं। यह खजाने खुदाई करने पर ही मिलते हैं। पूर्वजों के द्वारा छोड़ा हुआ धन प्रायः जमीन में गढ़ा होता था। उत्तराधिकारी उसे खोदते, निकालते और लाभान्वित होते थे। ईश्वर प्रदत्त बहुमूल्य विभूतियां आत्मसत्ता के मर्मस्थलों में छिपी रहती हैं। पंचकोश जागरण की साधना से उस वैभव को—सिद्धि सम्पदा को साधक उपलब्ध करते हैं।
आत्मसत्ता के पांच कलेवरों के रूप में पंचकोशों को बहुत अधिक महत्व दिया जाता रहा है। शास्त्रकारों ने मानवीसत्ता को पांच वर्गों में विभक्त किया है। उनके नाम हैं—(1) अन्नमय कोश (2) प्राणमय कोश (3) मनोमय कोश (4) विज्ञानमय कोश (5) आनन्दमय कोश।
अन्नमय कोश का अर्थ है—इन्द्रिय चेतना, प्राणमय कोश अर्थात् जीवनी शक्ति, मनोमय कोश अर्थात् विचार बुद्धि, विज्ञानमय कोश अर्थात् भाव प्रवाह, आनन्दमय कोश अर्थात् आत्मबोध, आत्मस्वरूप में स्थिति यह पांच चेतना स्तर हैं।
अन्नमय कोश का अर्थ है—इन्द्रिय चेतना, प्राणमय कोश अर्थात् जीवनी शक्ति, मनोमय कोश अर्थात् विचार बुद्धि, विज्ञानमय कोश अर्थात् भाव प्रवाह, आनन्दमय कोश अर्थात् आत्मबोध, आत्मस्वरूप में स्थिति यह पांच चेतना स्तर हैं।
निम्न स्तर के प्राणी इनमें निम्न भूमिका में पड़े रहते हैं। कृमि-कीटकों की चेतना इन्द्रियों की प्रेरणा के इर्द-गिर्द अपना चिन्तन सीमित रखती है। वे शरीर की जीवनी-शक्ति मात्र से जीवित रहते हैं। संकल्प-बल उनके जीवन-मरण में सहायक नहीं होता। मनुष्य की जिजीविषा इस शरीर के अशक्त-असमर्थ होने पर भी जीवित रख सकती है, पर निम्न वर्ग के प्राणी मात्र सर्दी-गर्मी बढ़ने जैसे ऋतु प्रभावों से प्रभावित होकर अपना प्राण त्याग देते हैं उन्हें जीवन संघर्ष के अवरोध में पड़ने की इच्छा नहीं होती। प्राणमय कोश की क्षमता जीवनी-शक्ति के रूप में प्रकट होती है। जीवित रहने की सुदृढ़ और सुस्थिर इच्छा शक्ति के रूप में उसे देखा जा सकता है। स्वस्थ, सुदृढ़ और दीर्घ जीवन का लाभ शरीर को इसी आधार पर मिलता है। मनस्वी, ओजस्वी और तेजस्वी व्यक्तित्व ही विभिन्न क्षेत्रों में सफलताएं प्राप्त करते हैं। इसके विपरीत दीन-हीन, भयभीत, शंकाशील, निराश, खिन्न, हतप्रभ व्यक्ति अपने इसी दोष के कारण उपेक्षित, तिरस्कृत एवं उपहासास्पद बने रहते हैं। उत्साह के साथ अविच्छिन्न रूप से जुड़ी रहने वाली कर्मनिष्ठा का जहां अभाव होगा वहां अवनति और अवगति के अतिरिक्त और कुछ रहेगा ही नहीं। साहस बाजी मारता है। बहादुरों के गले में ही अनादि काल से विजय बैजन्ती पहनाई जाती रही है और अनन्त काल तक यही क्रम चलता रहेगा।
मनोमय कोश का अर्थ है—विचार शीलता, विवेक बुद्धि। यह तत्व जिसमें जितना सजग होगा उसे उसी स्तर का मनस्वी या मनोबल सम्पन्न कहा जायगा। यों मन हर जीवित प्राणी का होता है। कीट-पतंग भी उससे रहित नहीं हैं। पर मनोमय कोश के व्याख्याकारों ने उसे दूरदर्शिता, तर्क प्रखरता एवं विवेकशीलता के रूप में विस्तारपूर्वक समझाया है। मन की स्थिति हवा की तरह है, वह दिशा विशेष तक सीमित न रहकर स्वेच्छाचारी वन्य पशु की तरह किधर भी उछलता-कूदता है। पक्षियों की तरह किसी भी दिशा में चल पड़ता है। इसे दिशा देना, चिन्तन को अनुपयोगी प्रवाह में बहने से बचा कर उपयुक्त मार्ग पर सुनियोजित करना मनस्वी होने का प्रधान चिन्ह है। मनोनिग्रह-मनोजय इसी का नाम है।
एकाग्रता का—चित्त-वृत्ति-निरोध का बहुत माहात्म्य योगशास्त्रों में बताया गया है। इसका अर्थ चिन्तन प्रक्रिया को ठप्प कर देना, एक ही ध्यान में निमग्न रहना नहीं, वरन् यह है कि विचारों का प्रवाह नियत निर्धारित प्रयोजन में ही रुचिपूर्वक लगा रहे। यह कुशलता जिनको करतलगत हो जाती है, वे जो भी लक्ष्य निश्चित करते हैं उसमें प्रायः अभीष्ट सफलता ही प्राप्त करके रहते हैं। बिखराव की दशा में चिन्तन की गहराई में उतरने का अवसर नहीं मिलता। अस्तु किसी विषय में प्रवीणता और पारंगतता भी हाथ नहीं लगती। संसार में विशेषज्ञों का स्वागत होता है, यहां हर क्षेत्र में ‘‘ए-वन’’ की मांग है और यह उपलब्धि कुशाग्र बुद्धि पर नहीं सघन मनोयोग के साथ सम्बद्ध है। यह मनोयोग का वरदान प्राप्त करने के लिए जो प्रयास व्यायाम करने पड़ते हैं उन्हें ही मनोमय कोश की साधना कहते हैं।
विज्ञानमय कोश को सामान्य भाषा में भावना प्रवाह कह सकते हैं। ये चेतना की गहराई में अवस्थित अन्तःकरण से सम्बन्धित है। विचार-शक्ति से भाव-शक्ति कहीं गहरी है, साथ ही उसकी क्षमता एवं प्रेरणा भी अत्याधिक सशक्त है। मनुष्य विचारशील ही नहीं सम्वेदनशील भी है। यह सम्वेदनाएं ही उत्कट स्तर की आकांक्षाएं उत्पन्न करती हैं और उन्हीं से प्रेरित होकर मनुष्य बेचैन-विचलित हो उठता है जब कि विचार प्रवाह, मात्र मस्तिष्कीय हलचल भर पैदा कर पाता है। देव और दैत्य का वर्गीकरण इस भाव चेतना के स्तर को देखकर ही किया जाता है।
विज्ञानमय कोश की सन्तुलित साधना मनुष्य को दयालु, उदार, सज्जन, सहृदय, संयमी एवं शालीन बनाती है। उसे दूसरों को दुःखी देखकर उसकी स्थिति में अपने को रखकर व्यथित होने की ‘सहानुभूति’ का अभ्यास होता है। तद्नुसार औरों का दुःख बंटाने की, सेवा परायणता की आकांक्षा सदा उठती रहती है। विभिन्न प्रकार के परमार्थ इसी स्थिति में बन पड़ते हैं। ऐसे व्यक्तियों की आत्म-भावना सुविस्तृत होते-होते अतीव व्यापक बन जाती है। तब दूसरों के सुख में भी अपने निज के जैसा आभास मिलता है। आनन्दमय कोश का विकास यह देखकर परखा जा सकता है कि मनुष्य क्षुब्ध, उद्विग्न, चिन्तित, खिन्न, रुष्ट असन्तुष्ट रहता है अथवा हंसती, मुस्कुराती, हलकी-फुलकी, सुखी सन्तुष्ट जिन्दगी जीता है। मोटी मान्यता यह है कि वस्तुओं, व्यक्तियों अथवा परिस्थितियों के कारण मनुष्य सुखी-दुःखी रहते हैं, पर गहराई से विचार करने पर यह मान्यता सर्वथा निरर्थक सिद्ध होती है। एक ही बात पर सोचने के अनेकों दृष्टिकोण होते हैं। सोचने का तरीका किस स्तर का अपनाया गया—यही है मनुष्य के खिन्न अथवा प्रसन्न रहने का कारण।
अपने स्वरूप का, संसार की वास्तविकता का बोध होने पर सर्वत्र आनन्द ही आनन्द है। दुःख तो अपने आपे को भूल जाने का, संसार को कुछ से कुछ समझ बैठने के अज्ञान का है। यह अज्ञान ही भव-बन्धन है, इसे ही माया कहते हैं। प्राणी त्रिविध ताप इसी नरक की आग में जलने से सहता है। सच्चिदानन्द परमात्मा के इस सुरम्य नन्दन वन जैसे उद्यान में दुःख का एक कण भी नहीं, दुःखी तो हम केवल अपने दृष्टि दोष के कारण होते हैं। वस्तु, व्यक्ति और परिस्थिति का विकृत रूप देखकर ही डरते और भयभीत होते हैं। यदि यह दृष्टि दोष सुधर जाय तो मिथ्या आभास के कारण उत्पन्न हुई भ्रान्ति का निवारण होने में देर न लगे और आत्मा की निरन्तर आनन्द उल्लास से परिपूर्ण परितृप्त रहने की स्थिति बनी रहे।
पांच कोशों की भावनात्मक पृष्ठभूमि यही है। इन्हीं कसौटियों पर कसकर किसी व्यक्ति की आन्तरिक स्थिति के बारे में जाना जा सकता है कि वह आत्मिक दृष्टि से कितना गिरा पिछड़ा है अथवा उठने विकसित होने में सफल हुआ।
गायत्री माता की अलंकारिक चित्रों, प्रतिमाओं में एक मुख—दो भुजाओं का चित्रण है। कमण्डलु और पुस्तक हाथ में है। इसका तात्पर्य इस महाशक्ति को मानवता की—उत्कृष्ट आध्यात्मिकता की प्रतिमा बनाकर उसे मानवी आराध्य के रूप में प्रस्तुत करना है। इस उपासना के दो आधार हैं—ज्ञान और कर्म। पुस्तक से ज्ञान का और कमण्डलु जल से कर्म का उद्बोधन कराया गया है। यही वेदमाता है। उसी को विश्व माता की संज्ञा दी गई है। सर्वजनीन और सर्वप्रथम इसी उपास्य को मान्यता दी गई है। उच्चस्तरीय साधना में इस प्रतीक प्रतिमा का रूप यत्किंचित् बदल जाता है। यह पंचमुखी है। योगाराधन में यही उपास्य है। पांच मुख और दस भुजा वाली प्रतिमा में कई संकेत है। दस भुजाएं, दस इन्द्रियों की सूक्ष्म शक्ति का संकेत करती हैं और बताती हैं कि उनकी संग्रहीत एवं दिव्य सामर्थ्य गायत्री माता की समर्थ भुजाओं के समतुल्य है। दसों दिशाओं में उसकी व्यापकता भरी हुई है। दस दिगपाल—दस दिग्राज पृथ्वी का संरक्षण करते माने गये हैं। गायत्री की दस भुजाएं ही दस दिगपाल हैं। उनमें थकाये हुए विविध आयुधों से यह पता चलता है कि वह सामर्थ्य कितने प्रकार की धाराएं प्रवाहित करती एवं कितने क्षेत्रों को प्रभावित करती हैं।
उच्चस्तरीय साधना में पंचमुखी गायत्री प्रतिमा में पंचकोशी गायत्री उपासना की आवश्यकता का संकेत है। यह पंचकोश अन्तर्जगत के पांच देव, पांच प्राण, पांच महान् सद्गुण पंचाग्नि, पंचतत्व, आत्म सत्ता के पांच कलेवर आदि कहे जाते हैं। पंच देवों की साधना से उन्हें जागृत सिद्ध कर लेने से जीवन में अनेकानेक सम्पत्तियों और विभूतियों के अवतरण का रहस्योद्घाटन किया गया है। पांच प्राणों को चेतना की पांच धाराएं, चिन्तन की प्रखरताएं कहा गया है। चेतना की उत्कृष्टता इन्हीं के आधार पर बढ़ती और प्रचण्ड होती है। प्राण विद्या की गायत्री विद्या का ही एक अंग है। गायत्री शब्द का अर्थ भी गय=प्राण+त्री=त्राता। अर्थात् प्राण शक्ति का परित्राण करने वाली दिव्य-क्षमता के रूप में किया गया है। कणोपनिषद् में पंचाग्नि विद्या के रूप में इस प्राण तत्व को इन्हीं पांच धाराओं के रूप में प्रस्तुत किया गया है।
गायत्री के पांच मुखों, पंचकोशों के रूप में उन पांच तत्वों की प्रखरता का वर्णन है जिनसे यह समस्त विश्व और मानव शरीर बना है। स्थूल रूप में यह पांच तत्व पैरों तले रौंदी जाने वाली मिट्टी, कपड़े धोने के लिए काम आने वाले पानी, चूल्हे में जलने वाली आग, पोला आकाश और उसमें मारी-मारी फिरने वाली हवा के रूप में देखे जाते हैं। पर यदि उनकी सूक्ष्म क्षमता पर गहराई से दृष्टि डाली जाय तो पता चलेगा कि इन तत्वों के नगण्य से परमाणु तक कितनी अद्भुत शक्ति अपने में धारण किये बैठे हैं। उनकी रासायनिक एवं ऊर्जागत क्षमता कितनी महान् है। पंच तत्वों से बना यह स्थूल जगत और उनकी तन्मात्राओं से बना सूक्ष्म जगत कितना अद्भुत, कितना रहस्यमय है, यह समझने का प्रयत्न किया जाता है तो बुद्धि थक कर उसे विराट् ब्रह्म की साकार प्रतिमा मानकर ही सन्तोष करती है। उन पांच तत्वों के अद्भुत रहस्यों का संकेत गायत्री के पांच मुखों में बताया गया है और समझाया गया है कि यदि इनका ठीक प्रकार उपयोग, परिष्कार किया जा सके तो उनका प्रतिफल प्रत्यक्ष पांच देवों की उपासना जैसे हो सकता है। पृथ्वी, अग्नि, वरुण, मरुत, अनन्त इन पांच देवताओं को पौराणिक कथा, प्रसंगों में उच्चस्तरीय क्षमता सम्पन्न बताया गया है। कुन्ती ने इन्हीं पांच देवताओं की आराधना करके पांच देवोपम पुत्र रत्न पाये थे। पंचमुखी, पंचकोशी उच्चस्तरीय गायत्री उपासना में तत्व–दर्शन की—तत्व साधना की गरिमा का संकेत है।
मानव सत्ता के तीन शरीर हैं—कारण सूक्ष्म और स्थूल। कारण शरीर में पांच सम्वेदनाएं, सूक्ष्म शरीर में पांच प्राण चेतनाएं और स्थूल शरीर में पांच शक्ति धाराएं विद्यमान हैं और उच्चस्तरीय साधना विज्ञान का सहारा लेकर उन्हें उभारे जाने का संकेत एवं निर्देश है।
पांच देवों में (1) भवानी (2) गणेश (3) ब्रह्मा (4) विष्णु (5) महेश की गणना होती है। इन्हें क्रमशः बलिष्ठता, बुद्धिमत्ता, उपार्जन शक्ति, अभिवर्धन पराक्रम एवं परिवर्तन की प्रखरता कह सकते हैं। यह पांच देवता ब्रह्माण्ड-व्यापी ईश्वरीय दिव्य शक्तियों के रूप में संव्याप्त हैं। सृष्टि सन्तुलन एवं संचालन में योगदान करते हैं। यही पांच शक्तियां आत्मसत्ता में भी विद्यमान हैं और इस छोटे ब्रह्माण्ड को सुखी समुन्नत बनाने का उत्तरदायित्व संभालते हैं। इन्हें पांच कोशों में सन्निहित अन्तर्जगत के पांच देव कहा जा सकता है। पंचकोश साधना की सफलता को उपरोक्त पांच देवताओं के द्वारा प्राप्त हो सकने वाले अनुदान वरदान के रूप में अनुभव किया जाता है।
कोश खजानों को भी कहते हैं। समुद्र को रत्नाकर कहा जाता है और उसके गर्भ में असीम रत्न राशि भरी होने की बात सर्वविदित है। जमीन में भी जल, तेल, धातुएं रत्न तथा अन्यान्य बहुमूल्य पदार्थ मिलते हैं। यह खजाने खुदाई करने पर ही मिलते हैं। पूर्वजों के द्वारा छोड़ा हुआ धन प्रायः जमीन में गढ़ा होता था। उत्तराधिकारी उसे खोदते, निकालते और लाभान्वित होते थे। ईश्वर प्रदत्त बहुमूल्य विभूतियां आत्मसत्ता के मर्मस्थलों में छिपी रहती हैं। पंचकोश जागरण की साधना से उस वैभव को—सिद्धि सम्पदा को साधक उपलब्ध करते हैं।
आत्मसत्ता के पांच कलेवरों के रूप में पंचकोशों को बहुत अधिक महत्व दिया जाता रहा है। शास्त्रकारों ने मानवीसत्ता को पांच वर्गों में विभक्त किया है। उनके नाम हैं—(1) अन्नमय कोश (2) प्राणमय कोश (3) मनोमय कोश (4) विज्ञानमय कोश (5) आनन्दमय कोश।
अन्नमय कोश का अर्थ है—इन्द्रिय चेतना, प्राणमय कोश अर्थात् जीवनी शक्ति, मनोमय कोश अर्थात् विचार बुद्धि, विज्ञानमय कोश अर्थात् भाव प्रवाह, आनन्दमय कोश अर्थात् आत्मबोध, आत्मस्वरूप में स्थिति यह पांच चेतना स्तर हैं।
अन्नमय कोश का अर्थ है—इन्द्रिय चेतना, प्राणमय कोश अर्थात् जीवनी शक्ति, मनोमय कोश अर्थात् विचार बुद्धि, विज्ञानमय कोश अर्थात् भाव प्रवाह, आनन्दमय कोश अर्थात् आत्मबोध, आत्मस्वरूप में स्थिति यह पांच चेतना स्तर हैं।
निम्न स्तर के प्राणी इनमें निम्न भूमिका में पड़े रहते हैं। कृमि-कीटकों की चेतना इन्द्रियों की प्रेरणा के इर्द-गिर्द अपना चिन्तन सीमित रखती है। वे शरीर की जीवनी-शक्ति मात्र से जीवित रहते हैं। संकल्प-बल उनके जीवन-मरण में सहायक नहीं होता। मनुष्य की जिजीविषा इस शरीर के अशक्त-असमर्थ होने पर भी जीवित रख सकती है, पर निम्न वर्ग के प्राणी मात्र सर्दी-गर्मी बढ़ने जैसे ऋतु प्रभावों से प्रभावित होकर अपना प्राण त्याग देते हैं उन्हें जीवन संघर्ष के अवरोध में पड़ने की इच्छा नहीं होती। प्राणमय कोश की क्षमता जीवनी-शक्ति के रूप में प्रकट होती है। जीवित रहने की सुदृढ़ और सुस्थिर इच्छा शक्ति के रूप में उसे देखा जा सकता है। स्वस्थ, सुदृढ़ और दीर्घ जीवन का लाभ शरीर को इसी आधार पर मिलता है। मनस्वी, ओजस्वी और तेजस्वी व्यक्तित्व ही विभिन्न क्षेत्रों में सफलताएं प्राप्त करते हैं। इसके विपरीत दीन-हीन, भयभीत, शंकाशील, निराश, खिन्न, हतप्रभ व्यक्ति अपने इसी दोष के कारण उपेक्षित, तिरस्कृत एवं उपहासास्पद बने रहते हैं। उत्साह के साथ अविच्छिन्न रूप से जुड़ी रहने वाली कर्मनिष्ठा का जहां अभाव होगा वहां अवनति और अवगति के अतिरिक्त और कुछ रहेगा ही नहीं। साहस बाजी मारता है। बहादुरों के गले में ही अनादि काल से विजय बैजन्ती पहनाई जाती रही है और अनन्त काल तक यही क्रम चलता रहेगा।
मनोमय कोश का अर्थ है—विचार शीलता, विवेक बुद्धि। यह तत्व जिसमें जितना सजग होगा उसे उसी स्तर का मनस्वी या मनोबल सम्पन्न कहा जायगा। यों मन हर जीवित प्राणी का होता है। कीट-पतंग भी उससे रहित नहीं हैं। पर मनोमय कोश के व्याख्याकारों ने उसे दूरदर्शिता, तर्क प्रखरता एवं विवेकशीलता के रूप में विस्तारपूर्वक समझाया है। मन की स्थिति हवा की तरह है, वह दिशा विशेष तक सीमित न रहकर स्वेच्छाचारी वन्य पशु की तरह किधर भी उछलता-कूदता है। पक्षियों की तरह किसी भी दिशा में चल पड़ता है। इसे दिशा देना, चिन्तन को अनुपयोगी प्रवाह में बहने से बचा कर उपयुक्त मार्ग पर सुनियोजित करना मनस्वी होने का प्रधान चिन्ह है। मनोनिग्रह-मनोजय इसी का नाम है।
एकाग्रता का—चित्त-वृत्ति-निरोध का बहुत माहात्म्य योगशास्त्रों में बताया गया है। इसका अर्थ चिन्तन प्रक्रिया को ठप्प कर देना, एक ही ध्यान में निमग्न रहना नहीं, वरन् यह है कि विचारों का प्रवाह नियत निर्धारित प्रयोजन में ही रुचिपूर्वक लगा रहे। यह कुशलता जिनको करतलगत हो जाती है, वे जो भी लक्ष्य निश्चित करते हैं उसमें प्रायः अभीष्ट सफलता ही प्राप्त करके रहते हैं। बिखराव की दशा में चिन्तन की गहराई में उतरने का अवसर नहीं मिलता। अस्तु किसी विषय में प्रवीणता और पारंगतता भी हाथ नहीं लगती। संसार में विशेषज्ञों का स्वागत होता है, यहां हर क्षेत्र में ‘‘ए-वन’’ की मांग है और यह उपलब्धि कुशाग्र बुद्धि पर नहीं सघन मनोयोग के साथ सम्बद्ध है। यह मनोयोग का वरदान प्राप्त करने के लिए जो प्रयास व्यायाम करने पड़ते हैं उन्हें ही मनोमय कोश की साधना कहते हैं।
विज्ञानमय कोश को सामान्य भाषा में भावना प्रवाह कह सकते हैं। ये चेतना की गहराई में अवस्थित अन्तःकरण से सम्बन्धित है। विचार-शक्ति से भाव-शक्ति कहीं गहरी है, साथ ही उसकी क्षमता एवं प्रेरणा भी अत्याधिक सशक्त है। मनुष्य विचारशील ही नहीं सम्वेदनशील भी है। यह सम्वेदनाएं ही उत्कट स्तर की आकांक्षाएं उत्पन्न करती हैं और उन्हीं से प्रेरित होकर मनुष्य बेचैन-विचलित हो उठता है जब कि विचार प्रवाह, मात्र मस्तिष्कीय हलचल भर पैदा कर पाता है। देव और दैत्य का वर्गीकरण इस भाव चेतना के स्तर को देखकर ही किया जाता है।
विज्ञानमय कोश की सन्तुलित साधना मनुष्य को दयालु, उदार, सज्जन, सहृदय, संयमी एवं शालीन बनाती है। उसे दूसरों को दुःखी देखकर उसकी स्थिति में अपने को रखकर व्यथित होने की ‘सहानुभूति’ का अभ्यास होता है। तद्नुसार औरों का दुःख बंटाने की, सेवा परायणता की आकांक्षा सदा उठती रहती है। विभिन्न प्रकार के परमार्थ इसी स्थिति में बन पड़ते हैं। ऐसे व्यक्तियों की आत्म-भावना सुविस्तृत होते-होते अतीव व्यापक बन जाती है। तब दूसरों के सुख में भी अपने निज के जैसा आभास मिलता है। आनन्दमय कोश का विकास यह देखकर परखा जा सकता है कि मनुष्य क्षुब्ध, उद्विग्न, चिन्तित, खिन्न, रुष्ट असन्तुष्ट रहता है अथवा हंसती, मुस्कुराती, हलकी-फुलकी, सुखी सन्तुष्ट जिन्दगी जीता है। मोटी मान्यता यह है कि वस्तुओं, व्यक्तियों अथवा परिस्थितियों के कारण मनुष्य सुखी-दुःखी रहते हैं, पर गहराई से विचार करने पर यह मान्यता सर्वथा निरर्थक सिद्ध होती है। एक ही बात पर सोचने के अनेकों दृष्टिकोण होते हैं। सोचने का तरीका किस स्तर का अपनाया गया—यही है मनुष्य के खिन्न अथवा प्रसन्न रहने का कारण।
अपने स्वरूप का, संसार की वास्तविकता का बोध होने पर सर्वत्र आनन्द ही आनन्द है। दुःख तो अपने आपे को भूल जाने का, संसार को कुछ से कुछ समझ बैठने के अज्ञान का है। यह अज्ञान ही भव-बन्धन है, इसे ही माया कहते हैं। प्राणी त्रिविध ताप इसी नरक की आग में जलने से सहता है। सच्चिदानन्द परमात्मा के इस सुरम्य नन्दन वन जैसे उद्यान में दुःख का एक कण भी नहीं, दुःखी तो हम केवल अपने दृष्टि दोष के कारण होते हैं। वस्तु, व्यक्ति और परिस्थिति का विकृत रूप देखकर ही डरते और भयभीत होते हैं। यदि यह दृष्टि दोष सुधर जाय तो मिथ्या आभास के कारण उत्पन्न हुई भ्रान्ति का निवारण होने में देर न लगे और आत्मा की निरन्तर आनन्द उल्लास से परिपूर्ण परितृप्त रहने की स्थिति बनी रहे।
पांच कोशों की भावनात्मक पृष्ठभूमि यही है। इन्हीं कसौटियों पर कसकर किसी व्यक्ति की आन्तरिक स्थिति के बारे में जाना जा सकता है कि वह आत्मिक दृष्टि से कितना गिरा पिछड़ा है अथवा उठने विकसित होने में सफल हुआ।