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Books - ब्रह्मवर्चस् साधना की ध्यान - धारणा

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Language: HINDI
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दिव्य-दर्शन का उपाय अभ्यास

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आंखें खोलकर जो प्रत्यक्ष पदार्थ दृष्टिगोचर होते हैं उन्हें देखना या दर्शन कहते हैं। दर्शन प्रत्यक्ष है। भगवान् का दर्शन स्थूल रूप से प्रतिमाओं एवं चित्रों के रूप में किया जाता है। विराट् दर्शन के रूप में भी यह प्रक्रिया सम्पन्न हो सकती है। इस निखिल ब्रह्माण्ड को ईश्वर की साकार प्रतिमा माना जा सकता है। पूजा कक्ष में—देव मन्दिर में स्थापित प्रतिमाओं को भी भगवान के रूप में देखा जा सकता है। अवतारी महामानवों में—गुरुजनों में भी श्रद्धा का आरोपण करके उन्हें ईश्वर की चलती-बोलती प्रतिमा समझा जा सकता है। अभिनय के सहारे भी दिव्य प्रेरणाओं को आंखों के सहारे मस्तिष्क तक पहुंचाया जाता है। पुस्तकें पढ़ते हुए भी नेत्र सद्ज्ञान की संकल्पनाओं सहित मस्तिष्क में दिव्य स्थापनाएं करते हैं। तीर्थों नदियों, पर्वतों, वृक्षों, स्मारकों में भी ऐसी ही अनुभूतियां होती हैं। यह प्रत्यक्ष दर्शन हुआ। स्थूल पदार्थों के सहारे चेतना को प्रभावित करने का यही तरीका है।

इससे आगे सूक्ष्म जगत में प्रवेश करने का प्रसंग आता है। इसमें जो देखा जाता है वह पदार्थ परक नहीं भाव निर्मित होता है। देखने के लिए चर्म-चक्षुओं से नहीं, ज्ञान-चक्षुओं से काम लिया जाता है। यही ध्यान धारणा है। ध्यान में दिव्य-चक्षु ज्योतिर्मय करने पड़ते हैं। सामान्यतया वे धुंधले पड़े रहते हैं। कल्पना से जो देखा जाता है वह प्रायः वही होता है जो चर्म-चक्षुओं से रुचिपूर्वक देखा जाता रहा है। इसके अतिरिक्त जो देखा नहीं गया है या उपेक्षापूर्वक देखा गया है उसका ध्यान करने में विशेष प्रयत्न करना पड़ता है। दिव्य चक्षुओं को जागृत करने का अभ्यास अन्तःत्राटक के माध्यम से होता है। अन्तःत्राटक में किसी आकर्षक वस्तु को पहले आंखें खोलकर प्रत्यक्ष रूप से विशेष रुचिपूर्वक देखा जाता है पीछे आंखें बन्द करके उस दृश्य को उसी स्थान पर उसी रूप में कल्पना द्वारा देखने की चेष्टा की जाती है। अभ्यास से कुछ समय में साधक को कल्पना तन्त्र ऐसा हो जाता है कि जिसका ध्यान करना है वह दिव्य-चक्षुओं से कल्पना क्षेत्र में अधिक स्पष्ट दिखाई देने लगे। आरम्भ में तो धुंधले एवं अस्थिर चित्र ही दृष्टिगोचर होते हैं। त्राटक देव प्रतिमाओं के माध्यम से किया जाता है। किसी मूर्ति या चित्र को पहले अधिक गम्भीरता के साथ रुचिपूर्वक आंखें खोलकर देखा जाता है। पीछे आंखें बन्द करके उसी प्रतिमा का ध्यान करते हैं तो भाव-लोक में उसकी झांकी होने लगती है। व्यक्ति विशेष के साथ घनिष्ठ लगाव हो तो उसके ध्यान चित्र भी जागृति एवं सुषुप्ति में दृष्टिगोचर होते रहते हैं। वियोग आरम्भ होने पर अथवा संयोग की निकटता पर आतुरता बढ़ जाती है और प्रियजनों की छवि मस्तिष्क में परिभ्रमण करती रहती है। यह बिना प्रयत्न के सम्पन्न हुआ त्राटक है।

दीपक के सहारे त्राटक अभ्यास का प्रचलन अधिक है। दीपक को प्रायः तीन फुट दूरी पर कन्धों की ऊंचाई सीध पर रखा जाता है। उसे दस सैकिण्ड खुली आंखों से देखकर पलक बन्द कर लिए जाते हैं और फिर उसी स्थान पर दीपक का दिव्य चक्षुओं से ध्यान किया जाता है। अभ्यास परिपक्व होने पर बिना दीपक की सहायता के भी जब इच्छा हो उस ज्योति के दर्शन किये जा सकते हैं। चन्द्रमा, तारे, प्रातःकालीन सूर्य, बल्ब जैसे प्रकाशवान अन्य पदार्थों को कुछ क्षण देखकर पीछे उनका ध्यान किया जा सकता है। पीछे कम प्रकाश की वस्तुएं भी ध्यान के लिए चुनी जा सकती हैं। वृक्ष, जलाशय, मन्दिर, व्यक्ति विशेष आदि को भी इस अभ्यास के लिए चुना जा सकता है। मैस्मरेजम में सफेद कागज पर काली स्याही से गोला बनाकर भी घूरने की क्रिया की जाती है। यही प्रयोजित वस्तु को कुछ समय देखने और उस छवि को मस्तिष्क में जमा लेने पर अभीष्ट ध्यान करने में सरलता हो सकती है। प्रकाश ज्योति का या इष्टदेव की छवि का प्रायः इसी प्रकार ध्यान किया जाता है।

ध्यान में प्रधानतया रूप कल्पना ही प्रमुख रहती है। दिव्य चक्षुओं से कल्पना नेत्रों के सहारे भाव चित्रों को गढ़ा जाता है और उन्हें मनःलोक में देखा जाता है। यह ध्यान की अधिक प्रचलित प्रक्रिया है। अन्य ज्ञानेन्द्रियों के सहारे भी ध्यान हो सकता है। कर्णेन्द्रिय के सहारे शब्दों का ध्यान किया जाता है। शंख, घड़ियाल, घण्टी, झांझ आदि बजाना और फिर उस ध्वनि का ध्यान करना यह स्थूल नादयोग है। सूक्ष्म जगत में अनाहत ध्वनियां विचरण करती हैं उन्हें सूक्ष्म कर्णेन्द्रिय से विशेष एकाग्रता एवं तन्मयता की मनःस्थिति बना कर सुना जाता है। इस प्रकार नाद श्रवण में कई प्रकार की दिव्य ध्वनियां सुनाई पड़ती हैं। अधिक प्रगति होने पर इस नाद साधना के सहारे सूक्ष्म जगत के दिव्य सन्देश सुने जा सकते हैं और अविज्ञात को विज्ञात की तरह जाना जा सकता है। नासिका से कोई तीव्र गन्ध सूंघना और उसे हटा कर ध्यान द्वारा उसी गन्ध की अनुभूति करना घ्राणेन्द्रिय द्वारा ध्यान साधना का अभ्यास है। जिह्वा से मिर्च, मिश्री, नमक, नीबू जैसे तीव्र स्वाद वाले पदार्थ चखना और पीछे वैसे ही स्वाद की अनुभूति करना रसना की ध्यान प्रक्रिया है। त्वचा से ठण्डी या गर्म वस्तुएं दूना फिर उन्हें हटा कर उसी प्रकार की अनुभूति करना यह स्पर्श की ध्यान साधना है। ज्ञानेन्द्रियों के माध्यम से किसी केन्द्र बिन्दु पर ध्यान एकाग्र करना त्राटक कहलाता है। इससे चेतना का बिखराव घटता और केन्द्रीकरण का अभ्यास बढ़ता है। इस प्रकार केन्द्रित शक्ति को ध्यान धारणा या जिस भी लक्ष्य पर लगाया जाय उसी में सफलता मिलती है। योग की परिभाषा करते हुए महर्षि पातंजलि ने उसे ‘चित्त-वृत्तियों’ का निरोध कहा है। इसका तात्पर्य बिखराव के अपव्यय को रोक कर उस संचय को उच्च उद्देश्य के लिए नियोजित करना ही है। ज्ञान चक्षुओं का—दिव्य चक्षुओं का उन्मीलन इसी प्रक्रिया के सहारे सम्पन्न होता है।

यह तो हुई दिव्य चक्षुओं को कल्पना चित्र बना सकने के लिए सक्षम बनाने की प्रक्रिया। अब कल्पना चित्र-भाव चित्र गढ़ने का दूसरा प्रकरण आरम्भ होता है। यह ध्यान धारणा का उत्तरार्ध है। पूर्वार्ध में चित्र कल्पना गढ़ सकने वाले दिव्य नेत्र संस्थान को प्रखर बनाना है। दूसरा चरण यह है कि जो कल्पनाएं उभरनी हैं, उनके दृश्यों को पूरी गंभीरता से सम्वेदना क्षेत्र में उतारा जाय। अनुभव किया जाय कि कल्पना नहीं, वरन् प्रत्यक्ष घटना है। सजगता, गम्भीरता और तत्परता के साथ कोई भी कल्पना की जाय साकार बनकर मनःक्षेत्र में आ उपस्थित होगी। भूत का भय जब मस्तिष्क पर पूरी तरह आच्छादित हो जाता है तो कल्पना उस भूत की कल्पना ही नहीं गढ़ती, वरन् उसे साकार एवं सशक्त भी बना देती है। वह कल्पित भूत जो उत्पन्न करता है उसके लिए कई बार प्रत्यक्ष शत्रु से भी अधिक प्राण घातक सिद्ध होता है। पर यह भूत अन्यमनस्क कल्पना से उत्पन्न नहीं हो सकता। उसके लिए वास्तविक बन सकने वाली सघन मान्यता की आवश्यकता होती है। इससे कम में ध्यान के लिए आवश्यक कोई प्रतिमा, घटना या प्रक्रिया प्रत्यक्ष नहीं हो सकती।

निर्धारित ध्यान के समय पर ही अभीष्ट भाव चित्र उभारे जायं तो समुचित सफलता न मिलेगी। होना यह चाहिए कि अभिनय के रिहर्सल की तरह अवकाश के समय उसका अभ्यास करते रहा जाय। फिल्म को पर्दे पर दिखाने से पहले उसका शूटिंग होता है। इससे भी पहले पात्रों को उस अभिनय का अभ्यास रिहर्सल कई कई बार करना होता है। जब वे वैसा कर सकने में अभ्यस्त हो जाते हैं तब फिल्म खींचने का क्रम चालू होता है। ठीक यही प्रक्रिया ध्यान के लिए जो दृश्य प्रत्यक्ष करना है उसका सुविधा के समय पूर्वाभ्यास करना आवश्यक है।

ब्रह्म वर्चस् ध्यान धारणा में किसी प्रतिमा विशेष पर चित्त को केन्द्रित करना नहीं सिखाया जाता, वरन् एक दिशा धारा के प्रवाह में बहना पड़ता है। आरम्भ कक्षा में गायत्री माता की छवि पर ध्यान केन्द्रित करना—उनके अंग-प्रत्यंगों को वस्त्र-आभूषण, वाहन, उपकरण आदि को भक्ति-भावनापूर्वक निहारते रहना पर्याप्त होता है। प्रथम वर्ग के साधकों के लिए गायत्री माता का ध्यान कराया जाता है अबोध शिशु का माता से ही परिचय होता है। वही उसका लालन-पालन करती है। थोड़ा बड़ा होने पर पिता से परिचय होता है। वस्त्र, शिक्षा, विवाह, उद्योग आदि के लिए पिता के अनुदान की आवश्यकता पड़ती है—पर वह भी तब जब बच्चा कुछ बड़ा हो जाता है। आयु वृद्धि के साथ-साथ माता के दुलार की आवश्यकता घटती और पिता के अनुदान की बढ़ती जाती है। गायत्री माता और सविता पिता है। उच्चस्तरीय साधना में सविता की उपासना की जाती है। ध्यान धारणा में उसी की प्रमुखता रहती है। सो भी मात्र प्रकाश पिण्ड को दिव्य चक्षुओं से देखने भर से काम नहीं चलता, वरन् उसके प्रेरणा प्रवाह को आत्मसत्ता के प्रत्येक क्षेत्र में ओत-प्रोत करना होता है। इसमें पूरा विचार प्रवाह बन जाता है। एक फिल्म जैसी बन जाती है।

ध्यान धारणा का उच्चस्तर है। केन्द्रित करना तो बिखराव की रोकथाम भर है। मात्र केन्द्रित करना ही लक्ष्य नहीं है। केन्द्रित शक्ति को किसी न किसी दिशा धारा में प्रयुक्त करने पर ही उसका कुछ सत्परिणाम निकल सकता है। मैस्मरेजम अभ्यास का आरम्भ काले-गोरे का ध्यान एकाग्र करने से होता है। पीछे उस केन्द्रीकरण को चिकित्सा उपचार आदि में नियोजित करना पड़ता है। बांध में पानी रोका जाता है पीछे उसे नहर रजवाहों में होकर खेत, बगीचों में भेज दिया जाता है। बन्दूक की नली में बारूद केन्द्रित की जाती है, पीछे उसे कोई निशाना बेधने के लिए दाग दिया जाता है। विचारों के बिखराव को केन्द्रित करना ध्यान का प्रथम चरण और पीछे उसे वैज्ञानिक शोध, साहित्य सृजन जैसे भौतिक कार्यों में अथवा अध्यात्म तत्व दर्शन में—ब्रह्म सन्दोह में नियोजित कर दिया जाता है। ब्रह्म वर्चस् ध्यान साधना में सविता शक्ति को पांच कोशों अथवा कुण्डलिनी शक्ति के साथ संयुक्त करके उसके उपयोगी फसल उगाने जैसे सत्परिणाम उत्पन्न करने होते हैं। इसलिए यह एकाग्रता मात्र की प्रक्रिया नहीं है, वरन् उसमें आत्मसत्ता के विभिन्न पक्षों को परिष्कृत करने के विशेष उद्देश्य सन्निहित रहने से भाव चित्रों का भी पूरा विस्तार है।

ध्यान धारणा के समय निर्दिष्ट भाव चित्र ठीक प्रकार उभरने लगें, अनुभूतियां उसी प्रकार होने लगें जैसा कि निर्देशन में बताई गई हैं। इसके लिए नियत समय के अतिरिक्त भी प्रयोग एवं अभ्यास करते रहना चाहिए। वह अभ्यास भी विधिवत् अभ्यास से थोड़ा बहुत ही कम रहता है, निरर्थक नहीं जाता और उत्साहवर्धक सत्परिणाम उत्पन्न करता है। आरम्भ में धुंधले, अधूरे चित्र रहें, चित्त पूरी तरह न जमे तो निराश नहीं होना चाहिए, वरन् प्रयत्नपूर्वक अभ्यास में लगे रहना चाहिए। धीरे-धीरे भाव चित्र अधिक स्पष्ट होने लगेंगे और बीच-बीच में जो श्रंखला टूटती थी वह भी न टूटेगी। यह सब समय-साध्य है। अस्तु तत्काल ही सफलता न मिले तो भी श्रद्धा-विश्वासपूर्वक प्रयत्न रहना चाहिए देर सवेर में ध्यान की परिपक्वावस्था अवश्य आवेगी।

कई बाल बुद्धि लोग भाव चित्रों को उभारने का प्रयत्न करते नहीं उलटे इस प्रकार की आशा करते हैं कि जिस प्रकार टेलीविजन के कांच पर तस्वीरें आती हैं वैसे ही कुछ चित्र-विचित्र दृश्य अपने आप ही दीखने लगेंगे। हमें तो मात्र दर्शक की तरह चुपचाप बैठे देखते भर रहना पड़ेगा। यह तो ऐसा ही उपहासास्पद है कि बगीचा लगाने का परिश्रम किये बिना ही उद्यान की प्रस्तावित भूमि पर आकाश से अनायास ही फल-फूलों की वर्षा होने लगेगी। ऐसा हो सकना असम्भव है। निर्देशन को सुन लेने, पढ़ लेने या मन में दुहरा लेने भर से ध्यान धारणा के भाव चित्र अपने आप उभरने या दीखने लग जायेंगे यह सोचना तो ऐसा ही है कि बिना व्यायामशाला के अभ्यास का झंझट किये ही, दंगल जीतने का पहलवानी यश तथा पुरस्कार मिल जायगा। प्रतिफल तो प्रयत्नों का ही होता है जो इस तथ्य को जानते हैं वे धैर्यपूर्वक दिव्य-चक्षुओं को ज्योतिर्मय बनाने तथा भाव चित्रों को गढ़ सकने वाली उर्वर कल्पना शक्ति का विकास करते हैं। ऐसे लोगों को ब्रह्म वर्चस् ध्यान साधना सफलता के स्तर तक पहुंचाती है, वे पांच कोशों के अनावरण में—रत्नराशि को खोद निकालने में सफल होकर ही रहते हैं।
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