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Books - ब्रह्मवर्चस् साधना की ध्यान - धारणा

Media: TEXT
Language: HINDI
TEXT


2. (ड से त) सविता अवतरण का ध्यान

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First 15 17 Last
बिजली के यन्त्र संरचना की दृष्टि से पूर्ण होते हैं, पर उन्हें चलाने के लिए बाहर से आने वाली विद्युतधारा का समावेश अवश्य होता है। शरीर अपने आप में पूर्ण है, पर उसे चलाने के लिए बाह्य जगत से ठोस द्रव एवं वाष्पीय आहार का प्रबन्ध करना पड़ता है। शरीर अपने आप में पूर्ण है, पर उसकी विशिष्ट क्षमताओं को उभारने के लिए बाह्य जगत के महत्वपूर्ण साधन जुटाने पड़ते हैं। बीज की अन्तःशक्ति खाद, पानी के सहारे ही उभरती है। व्यक्ति चेतना में उच्चस्तरीय प्रखरता उत्पन्न करने के लिए ब्रह्म चेतना के समावेश की आवश्यकता पड़ती है। विविध विधि योगसाधनों द्वारा इसी प्रयोजन की पूर्ति की जाती है। भक्त और भगवान् के बीच घनिष्ठता उत्पन्न होने से आदान-प्रदान का अतीव कल्याणकारी पथ-प्रशस्त होता है। ब्रह्म-सत्ता की उसी की विनिर्मित प्रतीक प्रतिमा सूर्य है। उसकी सचेतन स्थिति को सविता कहते हैं। उपासना की दृष्टि से जितना निर्दोष और प्रेरणाप्रद प्रतीक सूर्य है, उतना अन्य कोई चित्र या विग्रह हो नहीं सकता। इसमें सम्प्रदाय भेद भी आड़े नहीं आता। सार्वभौम—सर्वजनीन उपासना का आधार खड़ा करने में सविता से बढ़कर अधिक उपयुक्त माध्यम और कुछ मिल न सकेगा।

मनोमय कोश में सविता के प्रवेश की भावना—आज्ञाचक्र में होते हुए मस्तिष्क क्षेत्र में—सम्पूर्ण शरीर में संव्याप्त मनोमय कोश में फैल जाने के रूप में की जाती है। इस ध्यान धारणा के समय अनुभव किया जाता है कि आत्मसत्ता का चिन्तन समूचा चिन्तन क्षेत्र—मनोमय कोश सविता की ज्योति एवं ऊर्जा से भर गया। धूप में बैठने से शरीर गरम होता है और प्रसन्नता की परिस्थिति में मन में उल्लास उभरता है। यह अनुभूतियां प्रत्यक्ष होती हैं। इसी प्रकार मनोमय कोश में सविता देव के प्रवेश के कारण जो विशेषता उपलब्ध हुई, उसको स्पष्ट अनुभव करने का प्रयास करना चाहिए। यदि साधना में श्रद्धा होगी तो सविता शक्ति के वास्तविक प्रवेश को भाव क्षेत्र में प्रत्यक्ष अनुभूति की तरह ही छाया हुआ देखा जा सकेगा। नशा पीने पर आने वाली मस्ती सभी ने देखी है। भूत आदि का उन्माद आवेश आने पर उसका प्रभाव कैसा होता है यह भी सर्वविदित है। सविता शक्ति के आत्मसत्ता में प्रवेश करने और मनोमय कोश पर छा जाने की अनुभूति भी ऐसी ही गहरी—ऐसी ही भावमय एवं ऐसी ही स्पष्ट होनी चाहिए। यह सब अनायास ही नहीं हो जाता। साधक मूक दर्शक बना बैठा रहे और दिव्य शक्ति अपने आप अवतरित होती और अपना परिचय देती चली जाय ऐसा नहीं हो सकता। गंगावतरण के लिए भागीरथ को कठोर तप करना पड़ा था। हर साधक को अपनी भाव-सम्वेदनाओं को अभीष्ट स्तर तक विकसित करने के लिए घनघोर प्रयत्न करने पड़ते हैं। चित्रकला सीखने में आरम्भिक प्रयत्नों को उपहासास्पद और अनगढ़ ही कहा जा सकता है। सतत् अभ्यास से वह कला विकसित होती है और उच्चकोटि के चित्र बना सकने एवं चित्रकार के रूप में ख्याति पाने का अवसर मिलता है। भाव चित्र बनाने के सम्बन्ध में भी यही बात है। आरम्भ के दिन से ही कल्पना क्षेत्र में मनचाही फिल्म स्वयमेव दृष्टिगोचर होती चली जायगी ऐसी अपेक्षा करना विशुद्ध रूप से बाल-बुद्धि है। वैसा हो नहीं सकेगा और ऐसी चाहना से मात्र निराशा ही हाथ लगेगी। भाव चित्र बनाने की विद्या को आध्यात्मिक तपश्चर्या मानना चाहिए। उसके लिए धैर्यपूर्वक सतत् प्रयत्नरत रहना चाहिए। आरम्भ में भाव पटल पर कुछ भी नहीं आता किन्तु धीरे-धीरे अभीष्ट चित्र आधे-अधूरे अस्पष्ट धुंधले दिखाई पड़ने लगते हैं। आधार को अपनाये रहने पर क्रमशः भाव चित्र अधिकाधिक स्पष्ट एवं प्रखर होते चले जाते हैं और वह स्थिति आती है जिसे बाल-बुद्धि के साधक आरम्भ के दिन ही बिना किसी प्रयत्न के देखने की अपेक्षा करते हैं।

मनोमय कोश में सविता शक्ति के प्रवेश की अनुभूति यह है कि वह समूचा क्षेत्र सविता शक्ति से भर रहा है। ज्योतिर्मय बन रहा है। आत्मसत्ता की स्थिति ज्योति पुंज एवं ज्योति पिण्ड बनने जैसी हो रही है। दृश्य में ज्योति का स्वरूप भावानुभूति में प्रज्ञा बन जाता है। ज्योति और प्रज्ञा एक ही तत्व है। उसका स्वरूप प्रकाश और गुण ज्ञान है। सविता के मनोमय कोश में प्रवेश करने का अर्थ है—चेतना का प्रज्ञावान बनना—ऋतम्भरा से—भूमा से आलोकित—ओत-प्रोत होना। यही है सविता का मनोमय कोश पर आच्छादन। इस स्थिति को विवेक एवं सन्तुलन का जागरण भी कह सकते हैं। इन्हीं भावनाओं को—मान्यता रूप में परिणत करना—श्रद्धा, निष्ठा एवं आस्था की तरह अन्तःक्षेत्र में प्रतिष्ठापित करना—यही है सविता शक्ति का मनोमय कोश में अवतरण। इस क्षेत्र की ध्यान धारणा का यही उद्देश्य है।

जागृत संकेतों को इस रूप में ग्रहण किया जाता है कि वह उपलब्धि हस्तगत हो रही है। हो चुकी, भूतकाल में भी नहीं होगी भविष्य कालीन भी नहीं। जागरण का अनुभव वर्तमान काल से ही सम्बद्ध रहना चाहिए। मनोमय कोश जागृत, आज्ञाचक्र जागृत, तृतीय नेत्र जागृत, ज्ञान ज्योति जागृत, प्रज्ञा जागृत, विवेक जागृत, सन्तुलन जागृत। इन संकेतों के साथ-साथ ऐसी अनुभूति जुड़ी रहनी चाहिए कि यह जागरण ठीक इसी समय हो रहा है। आवश्यक नहीं कि पूर्ण जागरण ही हो और उसका पूर्ण प्रभाव तत्काल ही दीखे। यह आंशिक एवं क्रमिक भी हो सकता है। शुक्ल पक्ष में दौज का चन्द्रमा छोटा होता है और वह क्रमशः बढ़ते-बढ़ते पूर्णिमा को पूर्ण चन्द्र बनता है। ठीक इसी प्रकार अपने मनोमय कोश के जागरण का क्रम भी ध्यान धारण के साथ आरम्भ होकर क्रमशः आगे-आगे बढ़ता चल सकता है।

सविता शक्ति नुकीले किरण पुंज के रूप में आज्ञाचक्र में प्रविष्ट होती है। चक्र के भंवर में तीव्रता—दिव्य–ज्योति का आभास, ज्योति का प्रकाश, सारे मस्तिष्क में फैलता है। प्रज्ञा विवेक की चमक मस्तिष्क के हर कण में प्रविष्ट हो रही है, संकल्पों में दृढ़ता आ रही है, सशक्त विचार संकेत सारे शरीर में संचरित हो रहे हैं, शरीर व्यापी मनस्तत्व, विचार प्रणाली में निखार आ रहा है।
First 15 17 Last


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