
क्रांतिदूत—श्री0 रामप्रसाद ‘विस्मिल’
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बिना मूल्य के कोई वस्तु प्राप्त नहीं होती। छोटी से छोटी वस्तु को पाने के लिए भी कुछ न कुछ मूल्य चुकाना पड़ता है। भारत माता को आजादी पाने के लिए अपने कितने ही पुत्र रत्नों का बलिदान देना पड़ा। उन बलिदानियों में रामप्रसाद बिस्मिल का स्थान भी अग्रगण्य है।
क्रांतिकारी का जीवन कितना अव्यवस्थित तथा अनिश्चित होता है इसकी अब कल्पना ही की जा सकती है। साधारण आय के व्यक्तियों का प्रभुता सम्पन्न सरकार से लोहा लेना हंसी खेल नहीं होता। सिर पर सदैव नंगी तलवार लटका करती है। ऐसी स्थिति में भी लगनशील व्यक्ति कितना कुछ कर सकता है इसका अनुपम उदाहरण थे रामप्रसाद बिस्मिल।
इनका जन्म शाहजहांपुर (उ.प्र.) में ज्येष्ठ शुक्ल पक्ष 19 सम्वत् 1954 विक्रमी को हुआ था। इनके पिता साधारण स्थिति के स्टाम्प विक्रेता थे। बचपन में बालक रामप्रसाद बहुत शरारती थे बचपन में कुछ आदतें लग गई थीं जो सत्संग से छूट गईं तथा वे तितिक्षा के तप से कुंदन बनने लगे। उन्होंने धार्मिक साहित्य पढ़ा जिसने जीवन क्रम का काया कल्प कर दिया। वे एक कम्बल बिछाकर सोने लगे। मिर्च मसाले तथा खटाई सब छूट गई। यहां तक कि नमक भी छोड़ दिया। 5 वर्ष तक नमक नहीं खाया।
विद्यार्थी जीवन में ये देश भक्ति पूर्ण पुस्तकें पढ़ते रहे। इनका युवा रक्त भी मातृभूमि को विदेशी दासता से मुक्त कराने के लिये मचलने लगा। इसी समय लोकमान्य तिलक का शाहजहांपुर में आगमन हुआ। नरम दल के नेता अंग्रेजी शासन के भय से इन्हें शहर के बाहर-बाहर ही घुमा कर स्टेशन पहुंचा देना चाहते थे। यह कालेज के विद्यार्थियों को अच्छा नहीं लगा। इनके प्रयास से नरम दल वालों की कुछ न चली तथा लोकमान्य का अपूर्व स्वागत किया गया व सारे नगर में जुलूस निकाला गया।
समय की पुकार से कोई भावनाशील व्यक्ति अपने को अछूता कैसे रख सकता है। युग धर्म को कोई भी जीवन्त व्यक्ति कैसे अस्वीकार कर सकता है। रामप्रसाद भी इसी धारा में बहने लगे। उस समय क्रान्तिकारी साहित्य का लगभग अभाव था उसकी पूर्ति के लिए उन्होंने पुस्तक लिखी—‘‘अमेरिका को स्वाधीनता कैसे मिली?’’ इसके साथ विज्ञप्ति भी छापी गई थी। इसको प्रकाशित करने के लिए इन्हें अपनी मां से व्यवसाय करने के बहाने दो सौ रुपए लेने पड़े थे। सरकार ने यह विज्ञप्ति तथा पुस्तक दोनों जब्त कर लीं। इस समय तक ये क्रान्तिकारी दल से सम्बन्ध भी स्थापित कर चुके थे इस दल के नेता पं. गेंदालाल दीक्षित थे। इनका दल ‘शिवाजी समिति’ कहलाता था। थोड़े ही दिन में पुलिस इस दल के पीछे पड़ गई तथा अनेक गिरफ्तारियां हुईं। इसी मैनपुरी षड़यन्त्र केस में विस्मिल के नाम भी वारंट था। ये इस गिरफ्तारी से बचने के लिए देहाती क्षेत्र में चले गए। बिल्कुल किसान बन गए। इनके घर वालों को धमकाया गया जिसके कारण वे घर का सामान तिहाई मूल्य में बेचकर दूसरे गांव चले गये।
यह भूमिगत जीवन बड़ा कठिन था। घर से सहायता मिलनी बन्द हो ही चुकी थी। आय का कोई स्रोत था नहीं। कभी कभार मित्रों से दो-चार रुपए मिल जाते थे जिससे चने खाकर गुजर करनी पड़ती थी। इन्हीं परिस्थितियों के बीच उन्होंने एक बंगला पुस्तक ‘‘बोल्शेविकों की करतूत’’ नाम से अनुवाद किया। लेखकों के इतिहास में यह भी एक ही मिसाल मिलेगी कि इन्होंने बैल चराते हुए यह अनुवाद पूरा किया था।
अब सरकार ने राजनैतिक कैदियों को क्षमादान दे दिया था। ये वापस खुले आम घूमने लगे। एक स्थान पर मैनेजर हो गए। इसी काल में इनका अधिकांश लेखन कार्य हुआ। ‘केथराइन’ तथा ‘स्वदेशी रंग’ के प्रकाशन के बाद इन्होंने क्रांतिकारी जीवन पर एक पुस्तक लिखी जिसे कोई प्रकाशित करने को तैयार नहीं हुआ। जिसे पत्रिकाओं के माध्यम से खण्ड-खण्ड रूप में प्रकाशित किया गया। ‘प्रभा’ के सम्पादन उस समय श्री गणेश शंकर विद्यार्थी करते थे। उसमें इनके कई लेख प्रकाशित हुए। अरविंद की ‘‘यौगिक साधना’’ का अनुवाद भी किया किन्तु वह प्रकाशित नहीं हो पाई।
गांधीजी ने चौरी चौरा कांड के कारण सत्याग्रह बन्द कर दिया। अब तक क्रांतिकारी उसमें सहयोग दे रहे थे। अब स्वतन्त्र दल का गठन कर सक्रिय हो गए। धनाभाव को दूर करने के लिए इनके पास एक ही साधन था ‘डकैती’। रामप्रसाद को अपने ही देशवासियों को इस प्रकार परेशान करना अच्छा नहीं लगा। अब उन्होंने रेल लूटने की योजना बनाई। लखनऊ से सहारनपुर जाने वाली रेल में गार्ड के डिब्बे में धन राशी आती जाती थी।
यह ट्रेन लूटने का काण्ड ‘‘काकोरी रेल डकैती केस’’ के नाम से प्रसिद्ध है। इसमें रामप्रसाद बिस्मिल के अतिरिक्त चन्द्रशेखर आजाद, अशफाक उल्ला खां, राजेन्द्र नाथ लाहिड़ी, शचिन्द्र नाथ बख्शी, मुकुन्दी लाल, केशव चक्रवर्ती, मुरारीलाल आदि ने भाग लिया था। यह उस समय का इतना बड़ा काण्ड था जिसने अंग्रेज सरकार के कान खोल दिए। दस आदमियों ने इसमें भाग लिया था और चालीस को गिरफ्तार किया गया। ट्रेन में चौदह व्यक्ति हथियार बन्द थे किन्तु वे कुछ नहीं कर सके।
अभियुक्तों पर मुकदमा चलाया गया। इन पर धारा 120, 121, 396, 302 चार आरोप लगाए गए थे। अठारह महीने तक यह ऐतिहासिक मुकदमा चलता रहा। इस दौरान जेल में भी ये निष्क्रिय नहीं बैठे रहे वहां भी राजनैतिक कैदी की सुविधाएं पाने के लिए अनशन किया। जिसमें अंग्रेज सरकार ने बड़ी ही क्रूरता दिखाई। अन्त में सरकार को झुकना पड़ा, मुकदमे का निर्णय हुआ। जिसमें रामप्रसाद बिस्मिल, राजेन्द्र लाहिड़ी तथा रोशन सिंह को फांसी की सजा हुई बाद वाले मुकदमे में अशफाक उल्ला खां को हुई। 19 दिसम्बर को गोरखपुर जेल में इन्हीं फांसी दी गई। ये हंसते-हंसते फांसी के फंदे पर झूल गये।
इन्होंने जेल में अपनी आत्म कथा लिखी जो आत्म कथाओं में अपने ढंग की अनोखी रचना है। बिस्मिल लेखक ही नहीं कवि भी थे इनकी कविता आज भी देश भक्तों का पथ प्रदर्शन करती है।
बिस्मिल नश्वर शरीर भले ही छोड़ गए हों एक अनीति विरोधी योद्धा के रूप में सदा अमर रहेंगे।