
कर्मयोगी हचिसन
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अमरीकी सुप्रसिद्ध वैज्ञानिक टामस अल्बा एडीसन अपनी प्रयोगशाला में किसी प्रयोग में व्यस्त थे। दृष्टि ऊपर उठाई तो सामने एक नव युवक को खड़ा देखा। एक ही साथ कई प्रश्नों को सुनकर भी वह चकराया नहीं। कहां अध्ययन कर रहे हो? किस विषय में अधिक रुचि है? पढ़-लिखकर क्या बनने का स्वप्न देख रहे हो?
बचपन से मेरी इच्छा इलैक्ट्रिकल इंजीनियर बनने की है, इसलिये स्कूल की पढ़ाई समाप्त कर इंजीनियरिंग कालेज में अध्ययन कर रहा हूं। इंजीनियरिंग की परीक्षा पास कर यदि आपकी प्रयोगशाला में प्रधान इंजीनियर का पद प्राप्त हो जाये तो आप जैसे वैज्ञानिक से बहुत कुछ सीखने को मिल जायेगा और अनुसंधान कार्यों में आपकी सहायता भी कर सकूंगा।
उस अपरिचित जिज्ञासु की बात सुनकर एडीसन बड़े खुश हुये। एक क्षण को अपने विचारों में निमग्न होते हुये वे बोले ‘तुम्हारे विचारों का मैं स्वागत करता हूं। तुम्हारी महत्वाकांक्षा भगवान पूरी करें पर मैं अपनी प्रयोगशाला में उसी व्यक्ति की नियुक्ति करना चाहता हूं जो विज्ञान के क्षेत्र में एक आविष्कार करके दिखा सके।’
यह छात्र माइल्स था जो बड़े होने पर विज्ञान जगत में डा. माइल्स रीश हचिसन के नाम से विख्यात हुआ। उस दिन तो वह युवक माइल्स अपने घर लौट आया पर उसके सामने का मार्ग अब बिल्कुल साफ था उसे अपने लक्ष्य के निर्धारण में अब किसी प्रकार की कोई कठिनाई होने वाली न थी।
उसने अपने विद्यार्थी जीवन में कतिपय ऐसे व्यक्तियों को देखा जिन्हें कान से कम सुनाई पड़ता था। सोचने लगा यदि ऐसे व्यक्तियों के प्रति कुछ सेवायें दी जा सकें तो उनके जीवन को और उपयोगी बनाया जा सकेगा। उस समय तो इंजीनियरिंग का विद्यार्थी था। अतः चिकित्सा क्षेत्र में शोध करने का प्रश्न ही नहीं उठता, क्योंकि ज्ञान की यह दोनों शाखायें बिल्कुल अलग हैं।
इंजीनियरिंग की परीक्षा उत्तीर्ण की और कान की बनावट का सम्पूर्ण ज्ञान प्राप्त करने के लिये अलबामा मेडिकल कालेज में प्रवेश लिया। विषय का सम्पूर्ण ज्ञान प्राप्त कर उस उत्साही नवयुवक ने मेडीकल कालेज से विदा ली और बहरों के लिये यन्त्र बनाने का कार्य प्रारम्भ कर दिया। कई महीनों के अथक परिश्रम के बाद उन्हें सफलता मिली और विद्युत की सहायता से ऐसा यन्त्र तैयार कर लिया गया। उसका नाम ‘अकाउस्टिफन’ रखा गया।
उन दिनों ग्रेट ब्रिटेन की महारानी अलेकजेन्ड्रा को अपने कानों से कुछ कम सुनाई देने लगा था उन्हें जब यन्त्र बनने की खबर मिली तो उन्होंने भी डॉक्टर हचिसन से वह यंत्र मंगवाया। इतने से ही उन्हें सन्तोष न हुआ तो उन्होंने हचिसन को लंदन बुलाकर सार्वजनिक अभिनन्दन किया।
अब डॉक्टर हचिसन, एडीसन की प्रयोगशाला में पहुंचे। उन्होंने देखा जैसे उनकी प्रतीक्षा की जा रही है। उन्हें वहां काम करने का अवसर मिलने लगा। वह एडीसन की पूरी-पूरी सहायता करने लगे। दोनों वैज्ञानिक 18-18 घण्टे कार्य में व्यस्त रहते थे। हचिसन का जीवन कर्ममय हो गया था। जब कभी अधिक काम होता वह प्रयोगशाला में ही विश्राम करते वहीं खाते पीते। यद्यपि उनका घर प्रयोगशाला के बिल्कुल निकट था फिर भी वे कभी दो चार मिनट से अधिक को न जाते थे जिससे कि चलते हुए कार्य में किसी प्रकार की बाधा न पड़े।
आश्चर्य की बात यह है कि उन्होंने अपने जीवन में केवल तीन दिन का अवकाश ही लिया शेष सारा समय विज्ञान के लिए समर्पित किया। भला ऐसे श्रम निष्ठ व्यक्ति जिस कार्य में हाथ डालेंगे वह पूरा क्यों न होगा?